Hindi - क्राइम कहानियाँ

खून की होली

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अशोक वर्मा


एक

रामपुर चकिया की संकरी गलियाँ उस दिन रंगों से भरी हुई थीं। हर घर की छत पर अबीर उड़ रहा था, गुलाल की महक और ढोल की थाप से पूरा गाँव झूम रहा था। ठेठ भोजपुरी गानों पर बच्चे-बूढ़े, औरत-मर्द सब अपनी-अपनी झिझकें छोड़ चुके थे। लेकिन उस जश्न के भीतर एक अनकहा डर छुपा हुआ था — डर रामबाबू सिंह की सत्ता का, डर उसके दरबार की चुप्पी का। पूरे गाँव को आमंत्रण मिला था उसके भव्य होली समारोह में, जो हर साल पंचायत भवन के प्रांगण में होता था। टेंट लग चुके थे, मंच बना था, और देसी ठर्रे की खुशबू मुरगी के झोल में घुलकर ग़रीबों तक पहुँच चुकी थी। जिनका उससे बैर था, वे भी उसके बुलावे को टाल नहीं सकते थे, क्योंकि ना जाना मतलब था — सार्वजनिक विरोध, और रामबाबू के विरोध का मतलब था खुद के दरवाज़े पर लाठी-डंडे की चौपाल। रंगों से लथपथ उस शाम जब रामबाबू मंच पर खड़ा हुआ और उसने ठहाका लगाकर कहा, “अबकी बार फिर मुखिया रामबाबू,” तो उसके चेले-चपाटों ने जोर से ‘जय जय’ की आवाज़ में समर्पण कर दिया। मगर उस भीड़ में कई चेहरे ऐसे थे जिनकी आँखें बोलती थीं — ये आख़िरी होली होगी रामबाबू की, और शायद आख़िरी रंग उस रंग में जो सबसे गहरा होता है — खून का।

रात गहराने लगी थी। शराब की बोतलें खाली हो रही थीं और रसगुल्ले के साथ ज़हर घुला हुआ था या नहीं, कोई नहीं जानता। ठेके से आए लोकगायक मंच पर जब “होली में अब लग गई गोली” गाने लगे, तो यह एक अजीब संयोग लग रहा था। तभी कहीं दूर से पटाखे की आवाज़ आई — तेज़, कड़क और अचानक। भीड़ पहले तो चौंकी, लेकिन फिर समझी शायद कोई पटाखा है। लेकिन अगले ही पल मंच के पीछे भगदड़ मच गई। “मुखिया जी नहीं दिख रहे!” एक नौजवान ने चिल्लाकर कहा। कुछ लोगों ने मोबाइल की फ्लैशलाइटें जलाईं और दौड़कर पीछे गए। वहां, गुलाल और शराब की बूंदों के बीच, रामबाबू सिंह की लाश पड़ी थी — सिर पर गोली का निशान, और पास ही दीवार पर खून से लिखा हुआ एक वाक्य —
“यह पहला है… अगला चुनाव नहीं करेगा, फैसला गाँव करेगा।”
हर किसी के चेहरे से रंग उतर चुका था। गाने बंद हो चुके थे। ढोलक बगल में रखे रह गए और होली की मिठाईयों के पत्तल हवाओं में उड़ने लगे। रामपुर चकिया के इतिहास में पहली बार, होली खामोश हो गई थी।

अगली सुबह तक पंचायत भवन को पुलिस ने सील कर दिया था। लाश रात में ही पोस्टमार्टम के लिए भेज दी गई थी, लेकिन गाँव में अफवाहें गर्म थीं। कोई कह रहा था कि ये गुड्डू सिंह ने करवाया — क्योंकि रामबाबू ने पिछले चुनाव में गुड्डू को हरवा कर उसकी इज़्ज़त मिट्टी में मिला दी थी। कुछ औरतें कह रही थीं कि यह तो नीलम देवी का खेल है — पति की हत्या और अब खुद चुनाव लड़ने की तैयारी। लेकिन कुछ लोग चुप थे — ज़्यादा चुप — जैसे उन्हें पहले से सब पता हो। इंस्पेक्टर नवनीत कुमार यादव सुबह दस बजे अपनी सरकारी बोलेरो से पंचायत भवन पहुँचे। वो हाल ही में पटना क्राइम ब्रांच से ट्रांसफर होकर आए थे। शांत, दृढ़, और आँखों में चुपचाप चलते केसों की समझ। वे बिना किसी को धमकाए, सीधे पंचायत भवन के पीछे गए, जहाँ रामबाबू की लाश मिली थी। खून अब सूख चुका था, मगर दीवार पर लिखा वाक्य अब भी किसी जीवित इरादे की तरह चमक रहा था। उन्होंने झुककर मिट्टी छुई — गुलाल, शराब और खून — तीनों मिलकर एक क्रांति का इशारा कर रहे थे। उनके चेहरे पर शिकन नहीं थी, बस एक धीमा सवाल था — “यह महज़ हत्या है या कोई और इशारा?”

गाँव में दिन चढ़ चुका था, लेकिन सन्नाटा अब भी पसरा हुआ था। लोग अपने-अपने घरों में थे, पुलिस के डर से नहीं, बल्कि किसी अज्ञात भय से। नवनीत कुमार ने चायवाले लल्लन से बात की — “पिछली रात तू कहाँ था?” लल्लन ने घबराकर कहा, “सर मंच के पास चाय बाँट रहा था… हम कुछ नहीं जाने सर… हम बस देखे कि मंच के पीछे कोई गया था — लंबा आदमी था, सफेद गमछा बांधे।” इंस्पेक्टर ने उसका बयान दर्ज किया और बाकी के चश्मदीदों से भी यही सुना — भीड़ में कोई अजनबी सा आदमी था, जो बार-बार मंच के पीछे जा रहा था। मगर कोई उसका चेहरा याद नहीं कर सका। तभी थाने से फोन आया — पोस्टमार्टम रिपोर्ट में पुष्टि हो गई थी कि रामबाबू की मौत सिर में नज़दीक से मारी गई एक गोली से हुई थी, और हाथ में खरोंचें थीं — जैसे किसी से छीना-झपटी हुई हो। नवनीत कुमार की नजरें अब गाँव के उन लोगों की तरफ मुड़ चुकी थीं जो सत्ता की भूख में रामबाबू के समान ही तेज़ थे। लेकिन सबसे पहले उन्हें तलाशना था — वह चेहरा जो रंगों के बीच छुप गया था, और जिसने गुलाल की आड़ में खून की होली खेली।

दो

पंचायत भवन की दीवार पर सूखे खून से उभरे शब्द किसी सामूहिक आक्रोश की चिट्ठी जैसे लग रहे थे। “यह पहला है… अगला चुनाव नहीं करेगा, फैसला गाँव करेगा।” यह कोई सामान्य चेतावनी नहीं थी — यह एक साजिश थी, एक खुला ऐलान, शायद सिर्फ रामबाबू के लिए नहीं बल्कि उस पूरे तंत्र के लिए जिसमें सत्ता खून से हासिल की जाती थी और डर से चलाई जाती थी। इंस्पेक्टर नवनीत यादव दीवार के सामने खड़े थे, अपनी डायरी में बिना कुछ लिखे, बस उस लिखावट की आकृति और दिशा को देख रहे थे। खून को अंगुलियों से दीवार पर घसीटा गया था, एक ही व्यक्ति द्वारा, जल्दी में नहीं — बल्कि पूरे आत्मविश्वास के साथ। ये कोई आवेश में किया गया काम नहीं था, बल्कि एक पहले से तैयार किया गया संदेश था। नवनीत ने झुककर ज़मीन पर पड़े कुछ जलते हुए गुलाल के कणों को देखा — लाल, नीला, पीला — और उनके बीच जूते के तीन ताज़ा निशान। किसी ने गोली मारने के बाद कुछ देर वहाँ रुका था, शायद लिखने के लिए, शायद देखने के लिए कि खून कितना बहेगा।

गाँव में अब तक शोक और सन्नाटा आपस में गुत्थमगुत्था हो चुके थे। बच्चे जो कल होली में रंग उछाल रहे थे, आज माँओं की गोद में चुपचाप सहमे बैठे थे। पुरुष चौपाल में थे, पर किसी के पास कहने को कुछ नहीं था, औरतें खिड़कियों से परदे हटाकर झाँक रही थीं। इंस्पेक्टर नवनीत, अपनी टीम के साथ दोपहर होते-होते रामबाबू सिंह के घर पहुँचे। नीलम देवी, जो साड़ी के पल्लू से चेहरा ढँके बैठी थीं, उनकी आँखों में आँसू कम और आक्रोश ज़्यादा था। “मैंने सब देखा इंस्पेक्टर साहब,” उन्होंने कहा, “रामबाबू को बहुत लोग फूटी आँख नहीं सुहाते थे। गाँव में विकास होता था, पर कुछ लोगों को बराबरी नहीं पसंद थी।” नवनीत ने ध्यान से उनके हर शब्द को सुना, लेकिन उनके चेहरे की हरकतों को उससे ज़्यादा पढ़ा। वह देख रहे थे — यह एक दुखी पत्नी है या कोई राजनीतिक वारिस जो अगले कदम की बिसात बिछा रही है। घर के भीतर रामबाबू की तस्वीर को फूलों से सजाया जा रहा था, मानो कोई अनकहा चुनाव प्रचार शुरू हो चुका हो।

वहीं दूसरी ओर, रामबाबू के कट्टर विरोधी गुड्डू सिंह की गतिविधियाँ अब जांच के दायरे में आ चुकी थीं। गुड्डू कल रात समारोह में नहीं था — यह कई लोगों ने कहा था — लेकिन वह कहाँ था, इस सवाल का कोई जवाब नहीं दे रहा था। जब नवनीत उसकी झोपड़ी जैसे ऑफिस में पहुँचे, तो वहाँ सिर्फ एक पुराना बेतरतीब कैलेंडर, कुछ उधड़ी हुई पोस्टरें और एक टूटी कुर्सी मिली। “गुड्डू जी अभी बाहर हैं,” उसका चेला बोला, आँखें चुराते हुए। “कब आएँगे?” इंस्पेक्टर ने पूछा। “पता नहीं, होली में तो वे हमेशा पटना चले जाते हैं।” नवनीत को लगा जैसे हर जवाब पहले से रटा हुआ है। वह जानते थे — ये साज़िश गाँव में ही पली-बढ़ी है, इसका सूत्रधार बाहर से नहीं आया। लौटते वक्त उन्होंने देखा — उसी रास्ते पर रामबाबू की पार्टी के पोस्टर अब किसी ने फाड़ दिए थे। कुछ पर लाल रंग छींटा गया था, जैसे जनता ने वोट नहीं, बदला लिया हो।

जैसे-जैसे दिन ढलने लगा, जांच की दिशा एक रहस्यमयी मोड़ लेने लगी। रामपुर चकिया की हर गली जैसे कोई कहानी कह रही थी — कोई अधूरी, कोई टूटी, कोई दबाई गई। नवनीत ने अपनी टीम को बाँट दिया था — कोई पंचायत भवन के गेट पर लगे पुराने सीसीटीवी कैमरे की रिकॉर्डिंग देख रहा था, कोई स्थानीय मोबाइल टावर से कॉल डिटेल निकलवा रहा था। इसी दौरान थाने में एक छोटा बच्चा पहुँचा — तकरीबन दस साल का, नाम था संतोष। उसने कांपती आवाज़ में कहा, “सर, हम रंग खेलने गए थे, पीछे मैदान में… और हम देखे थे… कोई आदमी था जो सफेद कपड़े में कुछ लिख रहा था दीवार पर… उसका मुँह ढंका था।” नवनीत झुककर बच्चे से धीरे-धीरे पूछते रहे — आदमी की ऊँचाई, हाथ में क्या था, उसने कुछ कहा या नहीं। बच्चा बोला, “वो दीवार पर लिखा… फिर हमारी तरफ देखा… फिर भाग गया।” नवनीत समझ गए कि उस आदमी को कोई डर नहीं था — वो जानबूझकर वहाँ रुका, देखा, और चला गया। ये महज हत्या नहीं, बल्कि एक संदेश था — एक रक्त से लिखा हुआ जनघोषणा-पत्र। सवाल अब और गंभीर हो चुका था: क्या अगला हमला सिर्फ किसी और पर होगा, या पूरे सिस्टम पर?

तीन

रामबाबू सिंह की हत्या के ठीक तीन दिन बाद जब उसका तेरहवीं संस्कार गाँव के श्मशान घाट पर किया गया, तब एक औरत सबसे आगे खड़ी थी — नीलम देवी। लाल किनारी की सूती साड़ी, माथे पर हल्दी का टीका और आँखों में एक अजीब ठहराव। लोगों की नजरें उसकी ओर उठ रही थीं, पर वह उन नजरों से बेखबर, चिता के धुएँ को ऐसे देख रही थी मानो राख में भी कोई भविष्य तलाश रही हो। जब मुखिया की लाश आग में बदल रही थी, तभी कुछ पुरुष आपस में फुसफुसा रहे थे — “अब तो नीलम देवी ही लड़ेंगी चुनाव, क्या?” और वहीं कुछ औरतें धीमे स्वर में कह रही थीं, “अब औरतें भी सत्ता समझने लगी हैं।” नीलम देवी के चेहरे पर शोक से ज़्यादा एक रणनीतिक दृढ़ता थी — जैसे यह मृत्यु कोई अंत नहीं, बल्कि एक उद्घाटन हो। इंस्पेक्टर नवनीत दूर खड़े ये सब देख रहे थे। उनकी नज़रें नीलम के आँखों में थी, जहाँ आँसू कम, और जवाब ज़्यादा थे। एक विधवा मुखिया पत्नी का अगले चुनाव में उतरना क्या स्वाभाविक था, या कुछ बहुत पहले से तयशुदा योजना का हिस्सा?

तेरहवीं के अगले ही दिन गाँव के अखाड़े में पहली बार नीलम देवी का सार्वजनिक संबोधन हुआ। रामबाबू की तस्वीर एक किनारे रखी गई थी, उसके ठीक बगल में माइक लगा था, और गाँव की महिलाएँ, जो पहले चौपालों से दूर रखी जाती थीं, अब मंच के सामने पंक्तियों में बैठी थीं। “रामबाबू के अधूरे सपनों को पूरा करना है,” उसने कहा, “जो विकास उसने शुरू किया, उसे अब और तेज़ करना है। जो दुश्मन हमें डराना चाहते हैं, उन्हें बताना है कि हम अब पीछे नहीं हटेंगे।” उसके भाषण में पीड़ा थी, पर साथ ही दृढ़ इच्छा भी थी। भाषण खत्म होते ही कुछ पुरुषों ने झुँझलाकर कहा, “अब गाँव की राजनीति रसोई से चलेगी क्या?” लेकिन वे जान रहे थे — कुछ बदल गया है। इंस्पेक्टर नवनीत अब तक इस बात को महसूस कर चुके थे कि नीलम देवी सिर्फ मुखिया की विधवा नहीं, बल्कि एक तैयारी थी, जो शायद रामबाबू की छाया में लंबे समय से तैयार हो रही थी। वह जानना चाहते थे — क्या वह सच में सत्ता सँभालना चाहती है, या सत्ता के पीछे छुपा कोई और एजेंडा है?

जांच के दौरान नवनीत को पंचायत की पिछली फाइलों से एक दस्तावेज़ मिला — ग्रामीण महिला विकास समिति का प्रस्ताव, जो पिछले साल नीलम देवी ने व्यक्तिगत रूप से लिखा था, और जिसे रामबाबू ने नामंज़ूर करवा दिया था। यह दस्तावेज़ बताता था कि नीलम देवी पढ़ी-लिखी महिला थी, बीए तक की शिक्षा प्राप्त, और उसे पंचायती तंत्र की समझ भी थी। फाइलों में उसने गाँव की महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए कई योजनाएँ प्रस्तावित की थीं — सिलाई केंद्र, महिला बचत समूह, और स्कूल में बालिकाओं के लिए अलग शौचालय। मगर रामबाबू ने इन योजनाओं को यह कहकर दबा दिया था कि “गाँव में औरतों का काम रसोई तक है।” इस दस्तावेज़ ने नवनीत को झकझोर दिया — क्या यह हत्या व्यक्तिगत प्रतिशोध नहीं, बल्कि महिला सत्ता के लिए खोला गया रास्ता थी? अब उन्हें नीलम देवी से सीधे बात करनी थी, पर पूछताछ के तौर पर नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से।

एक शाम, जब सूर्य गाँव की पीली धूल में डूब रहा था, नवनीत ने अकेले नीलम देवी से मिलने का फैसला किया। वे उसके आँगन में पहुँचे, जहाँ तुलसी के चबूतरे पर अगरबत्ती जल रही थी। नीलम ने उन्हें पानी दिया और बिना कहे समझ गई कि बातचीत होनी है। “नीलम जी, क्या आपको किसी पर शक है?” नवनीत ने सीधे पूछा। उसने बिना हिचक कहा, “जिसने भी किया हो, वो रामबाबू से नफरत करता था… पर गाँव से प्यार भी करता है… शायद कोई ऐसा जो बदलाव चाहता है, पर बिना वोट के।” नवनीत ने अगला प्रश्न धीरे से किया, “क्या आप अगला चुनाव लड़ेंगी?” नीलम ने पहली बार मुस्कुराते हुए कहा, “जो सपना एक मर्द अधूरा छोड़ गया, उसे एक औरत पूरा कर सकती है, इंस्पेक्टर साहब।” यह उत्तर एक घोषणा नहीं था — यह एक चेतावनी था, गाँव की सत्ता के बदलते रंगों की। लौटते समय नवनीत के मन में अब यह प्रश्न गूंज रहा था — क्या हत्या के पीछे किसी नारी शक्ति का जन्म छुपा है, या नारी शक्ति खुद इस रक्त से जन्मी है?

चार

गाँव के दक्षिणी छोर पर बसा था गुड्डू सिंह का ठिकाना — एक दोमंजिला ईंट और टीन की मिलीजुली बनावट वाला मकान, जिसके दरवाज़े पर सफेद पेंट से लिखा था “जनता की सेवा, गुड्डू भाई का प्रण।” चुनावों के वक्त ये वही जगह थी जहाँ से लाउडस्पीकर निकलते थे, पोस्टर छपते थे, और जातीय समीकरणों की गोटियाँ बिछती थीं। लेकिन अब, रामबाबू सिंह की हत्या के बाद, यह मकान कुछ ज़्यादा ही शांत था। दरवाज़ा बंद था, खिड़कियाँ ढँकी हुईं, और बाहर की दीवारों पर पुरानी प्रचार पेंटिंगें धुंधली हो चुकी थीं। इंस्पेक्टर नवनीत जब वहाँ पहुँचे, तो सिर्फ एक किशोर लड़का दरवाज़े के पास खड़ा मिला — जो पहले चुनावों में गुड्डू के प्रचार में मशगूल रहता था। “गुड्डू भैया कहाँ हैं?” नवनीत ने पूछा। लड़का आँखें चुराते हुए बोला, “साहब… होली में पटना चले गए थे… अभी तक नहीं लौटे।” मगर पटना की पुलिस से मिली जानकारी के मुताबिक गुड्डू सिंह वहाँ गया ही नहीं था। नवनीत को यकीन हो गया कि या तो वह किसी डर से छुपा है, या फिर उसने खुद को जानबूझकर गायब कर लिया है — और दोनों ही स्थितियाँ उसे संदिग्ध बनाती हैं।

गुड्डू सिंह, एक समय रामबाबू का सबसे करीबी सहयोगी था। गाँव में पंचायती टेंडर हो या गरीबों की ज़मीन का सौदा, गुड्डू हर मौके पर रामबाबू के साथ था — एक वफादार सिपाही की तरह। मगर पिछले साल हुए पंचायत चुनाव में जब गुड्डू ने रामबाबू से टिकट माँगा और उसने इनकार कर दिया, तब उनके रिश्तों में दरार आ गई। रामबाबू ने कहा था, “गुड्डू, तू अभी बच्चा है, राजनीति खेल नहीं है।” यह बात गुड्डू के अहं को चुभ गई थी। उसने निर्दलीय चुनाव लड़ा — और बुरी तरह हार गया। इसके बाद वह धीरे-धीरे पंचायत की राजनीति से दूर हो गया, पर गाँव में उसका असर बना रहा। युवाओं को उसके नेतृत्व में एक उम्मीद दिखती थी, और कुछ पुराने विरोधियों को उसमें एक नया मोहरा नजर आने लगा था। रामबाबू की हत्या के बाद से ही लोगों में कानाफूसी थी — “गुड्डू तो बोले थे… अबकी बार होली पर रंग नहीं, फैसला होगा।” नवनीत को जब यह वाक्य याद आया, तो उसे वह किसी इंटरव्यू की रिकॉर्डिंग में मिला — एक लोकल यूट्यूब चैनल पर, जहाँ गुड्डू सिंह ने चुनाव हारने के बाद यह कथन दिया था।

इंस्पेक्टर नवनीत ने गुड्डू के पुराने कॉल रिकॉर्ड्स और ट्रैवल हिस्ट्री निकलवाए। दो दिन पहले होली की पूर्व संध्या को उसका फोन एक बार पंचायत भवन के टॉवर से जुड़ा था — रात करीब 9:12 बजे, फिर अचानक बंद हो गया। एक और सूचना ने जाँच को और जटिल बना दिया — पंचायत भवन के पास एक ठेकेदार की दुकान में लगे पुराने सीसीटीवी में एक धुँधली सी छवि कैद हुई थी: सफेद गमछा पहना एक लंबा आदमी, रात करीब साढ़े नौ बजे भवन के पीछे की ओर जाते हुए दिखता है। उसकी चाल और हाइट दोनों ही गुड्डू से मेल खा रही थीं। अब नवनीत को शक से अधिक यकीन हो चुका था कि गुड्डू इस केस की एक मुख्य कड़ी है, लेकिन जब तक वह सामने न आए, ये यकीन कानून की पकड़ में नहीं बदल सकता था। उन्होंने गुड्डू की माँ से भी बात की, जो घर में अकेली बैठी थीं — एक बूढ़ी, चुप और चिंतित औरत। “बेटा तो सही था साहब,” उन्होंने कहा, “पर गाँव में राजनीति का खेल बड़ा गंदा है… न रामबाबू अच्छा था, न बाकी लोग… सब एक जैसे।” नवनीत इस वाक्य को अपने जेहन में दर्ज कर चुके थे — “सब एक जैसे।”

अब सवाल सिर्फ यह नहीं था कि गुड्डू सिंह ने गोली चलाई या नहीं — सवाल था कि अगर वह दोषी है, तो उसके पीछे कौन था? अकेला कोई इतनी बड़ी योजना नहीं बना सकता था, न ही पंचायत भवन की सुरक्षा को यूँ ही भेद सकता था। क्या गुड्डू को किसी ने इस्तेमाल किया? या वह खुद किसी बड़े संगठन का मोहरा बन चुका था? इंस्पेक्टर नवनीत गाँव लौटते वक्त रास्ते में ठिठके — उन्हें कुछ पुरानी दीवारें दिखीं जिनपर गुड्डू के समर्थन में लिखे नारे अब तक हल्के से दिख रहे थे, जैसे “युवा लहर, गुड्डू का कहर।” लेकिन उसी के ऊपर किसी ने हाल ही में लिखा था — “अब अगली बारी किसकी?” यह सवाल अब सिर्फ दीवार पर नहीं था, बल्कि नवनीत के दिमाग में भी गूँज रहा था। अगर गुड्डू सामने नहीं आता, तो जाँच की सारी कड़ियाँ अधूरी रह जातीं। लेकिन नवनीत जानता था — जो गाँव की राजनीति से खेलता है, वह कभी लंबे समय तक चुप नहीं रह सकता। और शायद अगली होली आने से पहले, रामपुर चकिया एक और शिकार देखेगा — या एक और चेहरा, जो मासूम दिखता है लेकिन हाथों में सत्ता का खून लिए बैठा है।

पाँच

दोपहर का सूरज गाँव के सूखे खेतों पर बेरहमी से बरस रहा था। पुलिस स्टेशन की दीवारों पर छायाएँ स्थिर थीं, जैसे समय खुद रुका हो। इंस्पेक्टर अभय, एक पुरानी फाइल के पन्नों में कुछ नया ढूँढने की कोशिश कर रहे थे, जब अचानक एक महिला थाने में घबराई हुई आई। उसका नाम था पार्वती देवी, और उसकी आँखों में एक अजीब भय झलक रहा था। उसने बताया कि उसने गाँव के बाहर पुराने श्मशान घाट के पास एक आदमी को देखा है जो रात में कुछ गड्ढे खोदता है और वहाँ से कुछ पैकेट्स निकालता है। उस जगह को गाँव वाले अपशगुनी मानते थे, इसलिए कोई वहाँ दिन में भी नहीं जाता था। अभय को यकीन नहीं हुआ, लेकिन फिर भी उसके शब्दों ने दिमाग में हलचल पैदा कर दी।

उस रात अभय, कांस्टेबल रमेश को लेकर श्मशान घाट पहुँचा। चारों ओर सन्नाटा और गाढ़ा अंधकार था। टॉर्च की रोशनी झाड़ियों के बीच कांपती हुई चल रही थी। तभी उन्होंने ताज़ा खोदी गई मिट्टी का एक हिस्सा देखा। उन्होंने जब उसे हटाया, तो नीचे से एक लोहे का डिब्बा निकला। डिब्बे में एक फ़ोटो, कुछ नकदी, और एक लिफाफा था जिस पर लिखा था—“गवाह को चुप कर दिया गया है।” अभय सिहर गया। यह मामला अब सिर्फ़ हत्या का नहीं रहा; इसमें कोई बड़ा खेल चल रहा था। अगली सुबह जब अभय ने फ़ोटो को गौर से देखा, तो पहचान गया—यह वही पत्रकार था जो कुछ महीने पहले लापता हो गया था। कहा जाता था कि वह किसी घोटाले की रिपोर्टिंग कर रहा था।

अभय को अब पूरा यक़ीन हो गया था कि गाँव में हो रही घटनाएँ किसी गहरे षड्यंत्र का हिस्सा हैं। वह सीधे गया रंजीत यादव के खेतों की ओर, जहाँ की मिट्टी पहले से ही कई राज़ समेटे बैठी थी। खेत के पीछे एक पुराना कुआँ था, जिसे बरसों से किसी ने नहीं छुआ था। अभय ने कुएँ की जाँच करवाने का आदेश दिया। कुएँ से निकले कुछ दस्तावेज़ों और सड़ी-गली डायरी ने पूरे मामले की दिशा बदल दी। डायरी में लिखी तारीख़ें, नाम, और लेन-देन के ब्यौरे इस बात का सबूत थे कि किसी प्रभावशाली आदमी के इशारे पर गाँव के बाहर अवैध ज़मीन खरीद-फरोख्त चल रही थी, और जो इसके खिलाफ़ आवाज़ उठाता था, उसे ‘खामोश’ कर दिया जाता था।

जब ये सबूत सामने आए, तो अभय ने फैसला किया कि वह अब पीछे नहीं हटेगा। उसे पता था कि इस लड़ाई में उसे अपने विभाग के ही कुछ लोगों पर शक करना होगा, क्योंकि इतने बड़े रैकेट का चलना बिना अंदरूनी मदद के मुमकिन नहीं था। उसने पार्वती देवी से और पूछताछ की, तो पता चला कि वह पहले एक स्कूल में सफाईकर्मी थी, लेकिन दो साल पहले उसने नौकरी छोड़ दी थी जब उसके बेटे की अचानक मौत हो गई थी। उसकी बातों में एक अजीब सच्चाई थी—उसने कहा, “साहब, मरते हुए मेरे बेटे ने कहा था, ‘जिसने मुझे ज़हर दिया, उसने वर्दी पहन रखी थी।’” अभय समझ गया कि यह केस उसकी कल्पना से कहीं ज़्यादा गहरा और खतरनाक है। अब समय था परतों को एक-एक करके हटाने का, चाहे इसके लिए उसे खुद खतरे में क्यों न डालना पड़े।

छह

जैसे ही राघव और अनुजा ‘मणिकांत भवन’ पहुँचे, एक सिहरन सी उनके भीतर दौड़ गई। यह हवेली अब खंडहर में तब्दील हो चुकी थी — ईंटों की दीवारों पर काई जमी हुई थी, लकड़ी की खिड़कियाँ चरमराती थीं, और दीवारों पर जगह-जगह पुराने ज़माने की तस्वीरें अब भी जर्जर हालत में टंगी थीं। गेट से अंदर घुसते ही एक पुरानी बेलनाकार घंटी हवा में झूल रही थी, जैसे किसी अदृश्य हाथ ने उसे अभी छेड़ा हो। राघव को गांववालों की बात याद आई — “उस हवेली में अब भी कोई साया है। रात को किसी के चलने की आवाज़ें आती हैं।” अनुजा थोड़ी डर गई, पर पत्रकारिता की ललक और सत्य की खोज उसे रोक नहीं सकी। दोनों ने अपने मोबाइल के टॉर्च जलाए और एक-एक कमरा देखने लगे। एक कमरे में उन्हें एक संदूक़ मिला — लोहे से बना, पुराना और जंग लगा हुआ। जैसे ही राघव ने संदूक़ खोला, अंदर दस्तावेजों के साथ एक पुरानी डायरी मिली, जिस पर लिखा था — ‘मणिकांत सिंह की निजी टिप्पणियाँ’। यह खोज उनके केस के लिए बेहद अहम हो सकती थी।

डायरी के पन्ने धूल और वक्त से मुरझाए हुए थे, लेकिन उसमें लिखे शब्द अब भी साफ थे। एक प्रविष्टि में लिखा था — “7 जून 1991, शिवपूजन की बात अब हद से पार हो रही है। वो जितना मेरी बात मानने को तैयार नहीं, उतना ही ख़तरनाक होता जा रहा है। मैंने ठान लिया है, कल रात सब खत्म कर दूँगा — उसकी ज़ुबान हमेशा के लिए बंद।” राघव और अनुजा एक-दूसरे को देख रहे थे — यह साफ था कि शिवपूजन की गुमशुदगी सिर्फ कोई दुर्घटना नहीं थी, बल्कि एक सोची-समझी हत्या थी। उसी डायरी में मणिकांत की मानसिक स्थिति भी उजागर हो रही थी — वो अपनी सत्ता को लेकर बहुत ज़्यादा असुरक्षित था और हर विरोध को धोखे और मौत से दबाने को तत्पर। डायरी में कई दूसरे नाम भी थे, जिनमें से एक नाम पर राघव की नज़र अटक गई — ‘कुमार राजेश सिंह’ — वही व्यक्ति जो अब राज्य का प्रभावशाली नेता था। क्या उसका अतीत भी इस साजिश से जुड़ा था?

जैसे-जैसे वे हवेली के भीतर बढ़ते गए, एक पुराना तहखाना नजर आया, जिसके द्वार पर लोहे की जंजीर लटक रही थी। राघव ने उसे हटाकर भीतर कदम रखा — वहां एक कोठरी थी, जहां दीवारों पर खून के धब्बे अब भी धुंधले थे और ज़मीन पर लोहे की जंजीरों के निशान थे। शायद यहीं शिवपूजन को बंदी बनाकर रखा गया था। तभी अनुजा को ज़मीन में एक जगह थोड़ा असमान दिखाई दिया — उन्होंने खोदकर देखा तो एक इंसानी खोपड़ी निकली, जिसके पास वही अँगूठी थी जिसे शिवपूजन पहना करता था। अब यह केस सिर्फ पत्रकारिता या इंसाफ की लड़ाई नहीं रह गई थी — यह अब हत्या का प्रमाण था। राघव ने अपने कैमरे से सब कुछ रिकॉर्ड किया और तय किया कि वह अगले ही दिन यह सब खुलासा चैनल पर करेगा, चाहे इसके परिणाम कुछ भी हों।

पर उसी रात, जब दोनों गांव लौट रहे थे, एक बाइक अचानक उनका पीछा करने लगी। अंधेरे रास्ते पर, जहां दूर-दूर तक कोई रोशनी नहीं थी, वह बाइक किसी छाया की तरह उनके पीछे-पीछे चलती रही। अनुजा ने डरकर पीछे देखा, तो काले हेल्मेट वाला व्यक्ति उनकी गाड़ी की खिड़की के पास आ गया और फुसफुसाया — “जो दिखता है, वो हमेशा सच नहीं होता।” राघव ने गाड़ी की रफ्तार तेज़ कर दी, लेकिन वह बाइक फिर भी पीछा करती रही। आखिर एक मोड़ पर वह अचानक गायब हो गई, जैसे कभी थी ही नहीं। यह सिर्फ धमकी नहीं थी, बल्कि चेतावनी थी — कोई जानता था कि वे क्या खोज चुके हैं। हवेली की सच्चाइयों ने उनके चारों तरफ एक ऐसा मकड़जाल बुन दिया था, जिसमें फँसकर अब उन्हें या तो सबके सामने सच लाना था… या खुद भी किसी परछाई में तब्दील हो जाना था।

सात

सुपौल की गलियों में जब शाम का अंधेरा गहराने लगता है, तो शहर की दीवारों पर खामोशी चिपक जाती है — जैसे कोई रहस्य खुद को छुपा रहा हो। इंस्पेक्टर तुषार यादव पिछले दो दिनों से जो सुराग जुटा रहे थे, उन्हें एक ऐसे दरवाजे तक ले आए जहाँ से कई झूठ एक साथ उजागर होने लगे। राघव मिश्रा, जो अब तक सिर्फ एक सहयोगी रिपोर्टर के तौर पर साथ चल रहा था, अचानक एक अहम सुराग के साथ तुषार के सामने आया। एक पुरानी अख़बार की क्लिपिंग जिसमें थानेदार कंवलजीत सिंह का नाम एक ज़मीनी घोटाले में जुड़ा हुआ था — केस को बिना कारण बंद कर देने के एवज में बड़ी रकम लेने का आरोप था। उस केस के पीड़ित ने आत्महत्या कर ली थी, और तब से ये फ़ाइल बंद पड़ी थी। तुषार को समझ में आया कि शायद इस पूरी मर्डर मिस्ट्री का कनेक्शन इस पुराने केस से हो सकता है। उसी रात, राघव को एक गुमनाम कॉल आता है — एक बारीक और डरावनी आवाज़ में कहा गया, “तुम जितना जान रहे हो, वो काफी नहीं है… वापस लौट जाओ।” कॉल ट्रेस करने पर पता चला कि वो फोन उसी मोहल्ले से आया था जहाँ पहली लाश मिली थी।

इसी दौरान, शहर में एक और हत्या हो जाती है — इस बार मारा गया व्यक्ति कोई आम आदमी नहीं, बल्कि जिला अदालत का एक अनुभवी बाबू था, राधेश्याम पांडे। उसका शव भी उसी पैटर्न में रखा गया था — तुलसी की माला, संस्कृत श्लोक, और अबकी बार, उसके हाथ में एक नीली स्याही से लिखा पर्चा — “दूसरा भी गया, अब तीसरा इंतज़ार कर रहा है।” पूरा पुलिस विभाग अब दहशत में था, क्योंकि यह सीरियल किलर न सिर्फ़ मर्डर कर रहा था, बल्कि एक के बाद एक केस में खुलेआम चुनौती भी दे रहा था। तुषार और राघव अब दोनों अलग-अलग दिशाओं में सुराग ढूंढने लगे — तुषार ने पुराने केस फ़ाइलों को खंगालना शुरू किया, जबकि राघव शहर के एकांत मंदिरों और आश्रमों में कुछ अजीब व्यक्तित्वों से मिलने लगा, जिन्हें वो पहले तवज्जो नहीं दे रहे थे। उन्हें एक बूढ़े संत मिले, जिनका कहना था, “यह कोई इंसान का काम नहीं… ये पाप का हिसाब है।” हालांकि तुषार इन बातों पर यकीन नहीं करता था, लेकिन राघव की जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी।

तुषार के हाथ एक और बड़ा सुराग लगता है — राधेश्याम की हत्या से पहले, किसी ने उसके कंप्यूटर से कुछ अहम फाइलें डिलीट की थीं। साइबर सेल की मदद से जब वो फाइलें रिकवर की गईं, तो उनमें एक चार्ट निकला जिसमें कई लोगों के नाम जुड़े थे — कंवलजीत सिंह, राधेश्याम पांडे, और वो सरकारी अफसर जो पहले केस में नाम आया था। ये सब एक भू-माफिया नेटवर्क से जुड़े थे, जो ज़मीनें हड़प कर गरीबों को उजाड़ देता था। अब तुषार को यकीन हो चला था कि ये मर्डर कोई साधारण बदला नहीं बल्कि किसी ‘जनविरोधी न्याय’ की मुहिम है। इसी क्रम में, एक गुमनाम महिला गवाह पुलिस के पास आती है — उसकी पहचान नहीं बताई जाती, लेकिन वो बताती है कि पहला मारा गया पत्रकार न सिर्फ़ सच्चाई उगलने वाला था, बल्कि किसी की बहन के साथ भी ज़्यादती में शामिल था, और ये सब पाप उसके ही कैमरे में रिकॉर्ड हो गया था।

चीज़ें अब बहुत अधिक पेचीदा हो चुकी थीं। राघव और तुषार को अब यह स्पष्ट हो गया कि हर मर्डर किसी व्यक्तिगत, मगर गहरे सामाजिक न्याय के कारण किया जा रहा है। ये हत्याएँ व्यवस्था के उन दरारों की तरफ़ इशारा कर रही थीं जिन्हें अब तक सबने नज़रअंदाज़ किया था। इसी दौरान, एक रात तुषार को पुलिस स्टेशन के सामने एक पैकेट मिलता है — उसके अंदर एक पेनड्राइव होती है, जिसमें एक नकाबपोश व्यक्ति की वीडियो रिकॉर्डिंग होती है। वो कहता है, “तुम सोचते हो तुम अपराध रोक रहे हो… पर मैं न्याय कर रहा हूँ। तीसरा नाम भी तुम्हारे सामने होगा… और तुम्हारी आँखें अब सिर्फ़ कानून नहीं, विवेक से भी देखना सीखेंगी।” वीडियो खत्म होते ही तुषार का चेहरा सख्त हो गया — अब यह सिर्फ़ एक केस नहीं, बल्कि एक युद्ध था — न्याय की परिभाषा को लेकर।

आठ

पटनासिटी के धुंधले गलियों में जब रात की चुप्पी गहराती है, तब अपराध अपने असली रंग दिखाता है। इंस्पेक्टर सूरज के पास अब इतना सबूत था कि वह जान चुका था—इस हत्या की कहानी सिर्फ अवैध शराब या जमीन की लड़ाई तक सीमित नहीं है, यह कहीं ज्यादा गहरी और राजनीतिक है। चंदन सिंह की डायरी और ठाकुर परिवार की संदिग्ध गतिविधियों ने उसे यह यकीन दिला दिया था कि एक बड़ी साजिश का पर्दा उठने वाला है। उसी समय, थाने में एक गुप्त सूचना आई—रंजीत ठाकुर देर रात एक पुरानी हवेली में किसी “विशेष” मेहमान से मिलने वाला है। सूरज ने बिना देर किए तीन विश्वासपात्र जवानों को लेकर काली जीप में उस हवेली की ओर रुख किया, जो अब वीरान और भुतहा मानी जाती थी। रास्ते भर बारिश की बूँदें जीप के शीशे पर पड़ती रहीं, जैसे आसमान भी इस राज़ के खुलासे में शरीक हो।

हवेली के पास पहुँचकर सूरज ने जीप की लाइट बंद कर दी और अंधेरे का फायदा उठाकर दीवार के पीछे छुप गया। अंदर से हल्की रौशनी और कुछ गूढ़ आवाजें आ रही थीं। खिड़की से झाँकते हुए उसने देखा—रंजीत ठाकुर एक सफेद कुर्ता-पाजामा पहने आदमी के साथ बात कर रहा था, जो स्पष्ट रूप से कोई राजनीतिक नेता था, संभवतः मंत्री स्तर का। बातचीत के टुकड़ों से यह साफ हुआ कि चंदन सिंह की हत्या सिर्फ व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं थी, बल्कि एक योजनाबद्ध साजिश थी ताकि कोई गवाह चुनावों से पहले चुप करा दिया जाए। “उसने फाइल चुराई थी… अगर वो पुलिस तक पहुँचता तो सब खत्म हो जाता,” उस नेता की आवाज आई। सूरज का खून खौल उठा। अब यह केवल एक केस नहीं था, यह बिहार के राजनीतिक तंत्र की सड़ांध का एक नमूना था। उसने तुरंत मोबाइल से बातचीत की रिकॉर्डिंग शुरू की, मगर तभी किसी ने पीछे से उसका कंधा झटका—वह हवेली का चौकीदार था, जो शक के घेरे में नहीं था लेकिन अब खतरा बन चुका था।

सूरज ने होशियारी से उसे चुप करवा दिया और अपने जवानों के साथ वापस जीप की ओर बढ़ा। रिकॉर्डिंग उसके पास थी, लेकिन हवेली से निकलते ही एक गोली उसके जवान के कंधे में आ लगी। चारों तरफ से फायरिंग शुरू हो गई थी। लगता था जैसे पूरी व्यवस्था रंजीत ठाकुर को बचाने में जुटी हो। सूरज ने बमुश्किल जवान को बचाते हुए एक सुनसान गली में पनाह ली। अब उसके पास दो रास्ते थे—या तो वह फाइल और रिकॉर्डिंग लेकर सीधे प्रेस के पास जाए, या फिर सिस्टम के भीतर रहते हुए अपराधियों को बेनकाब करे। लेकिन दोनों रास्तों में जान का जोखिम था। उसने अपने अंदर के पुलिस अधिकारी से पूछा—क्या अब भी न्याय मुमकिन है? जवाब आया—अगर डर गया तो अपराध जीतेगा।

उस रात सूरज ने एक फैसला लिया। अगली सुबह वह फाइल, रिकॉर्डिंग और चंदन सिंह की डायरी लेकर सीधे डीआईजी ऑफिस पहुँचा, मगर वहाँ पहले से ही उसका निलंबन आदेश तैयार था। किसी ने ऊपर तक उसकी शिकायत पहुँचा दी थी कि वह “अधिकारों का दुरुपयोग” कर रहा है। सूरज को यह समझ आ गया कि अब वह अकेला है, मगर उसके पास अब सच्चाई है—जो सबसे बड़ी ताकत होती है। थाने से निकलते समय उसने अपनी रिवॉल्वर मेज पर रख दी, लेकिन चंदन सिंह की डायरी को जेब में डाल लिया। बाहर बारिश हो रही थी, और वह बिहार की सड़कों पर एक ऐसे युद्ध के लिए निकल पड़ा था, जो न्याय और अन्याय के बीच था, और जिसमें कोई कानून नहीं था—सिर्फ हिम्मत थी।

नौ

गया की हवाओं में अब साज़िश की एक स्पष्ट गंध तैर रही थी। इंस्पेक्टर अयान ने अपने अनुभवों और मूक सुरागों से यह महसूस कर लिया था कि केस की परतें किसी सामान्य अपराध से कहीं अधिक जटिल थीं। पंडित हरिकिशोर त्रिपाठी की हत्या के बाद शहर में पसरे भय और संदेह के माहौल में, वह एक गुप्त सुरंग की तलाश कर रहे थे—एक ऐसा सुरंग जो सिर्फ ईंट और मिट्टी की नहीं, बल्कि अतीत के गहरे राज़ों की थी। पंडित जी की डायरी में मिले संकेत उन्हें एक पुराने हवेली तक ले गए, जो बरसों से बंद पड़ी थी और जिसके दरवाज़े कभी किसी आम आदमी के लिए नहीं खुले। इस हवेली के बारे में एक अफवाह थी—कि वहां रात में किसी स्त्री के रोने की आवाज़ें आती हैं, और सुबह दरवाज़ों पर लाल धागे बंधे होते हैं। अयान, राधिका और वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद मिश्रा ने तय किया कि वे आज रात उसी हवेली में प्रवेश करेंगे। उनके पास अब खोने को कुछ नहीं था—केवल सच जानने की आग बाकी थी।

रात का अंधकार जैसे-जैसे गहराया, हवेली की दीवारों से एक सिहरन उठी। दरवाज़ा ढकेलते ही अयान को भीतर से आती एक फुसफुसाहट सुनाई दी, जैसे कोई उनके आने की प्रतीक्षा कर रहा हो। अंदर घुसते ही दीवारों पर लगी पुरानी तस्वीरें, टूटी खिड़कियाँ और जमीन पर बिखरे हुए रेखाचित्र किसी भूले हुए अध्याय की तरह प्रतीत हो रहे थे। अचानक प्रमोद की टॉर्च की रोशनी एक कमरे की ओर टिक गई, जहाँ फर्श पर एक ताज़ा खून का धब्बा दिखा। वहां एक औरत की साड़ी का टुकड़ा भी पड़ा था—ठीक वही डिज़ाइन जो उन्होंने मंदिर के पुजारी की बेटी के फोटो में देखा था। राधिका ने धीरे से कहा, “ये वही है, सर। ये उसी की निशानी है।” और यहीं से खुला वह रास्ता, जो तहखाने की ओर जाता था—एक गुप्त तहखाना, जो सालों से किसी अनकहे रहस्य को छुपाए बैठा था।

तहखाने में घुसते ही उन्हें एक पुराना लकड़ी का संदूक मिला। संदूक खोलते ही अंदर से कुछ फटी-पुरानी फाइलें, एक पुलिस की मुहर लगी डायरी और एक पेंडेंट मिला, जिसमें पंडित जी और एक महिला की तस्वीर थी—औरत कोई और नहीं बल्कि जिले के एक पूर्व पुलिस अधिकारी की बहन थी, जो बीस साल पहले रहस्यमय ढंग से गायब हो गई थी। डायरी में पंडित जी के हस्ताक्षर थे, और उन्होंने लिखा था—”जो हमने किया, वह धर्म था या पाप, ये निर्णय काल करेगा। पर जो सच मैंने दबाया है, वह अब पनप रहा है…” इस पंक्ति ने अयान को झकझोर दिया। क्या पंडित जी की हत्या उनके ही अतीत की वापसी थी? प्रमोद ने धीरे से कहा, “सर, ये केस अब धर्म और अधर्म की लड़ाई नहीं, एक इंसान की आत्मा की मुक्ति की मांग है।”

जैसे ही वे हवेली से बाहर निकले, उन्हें अहसास हुआ कि इस केस का अंत अब निकट है, लेकिन यह अंत किसी सुलझे हुए निष्कर्ष जैसा सरल नहीं होगा। जिन लोगों को उन्होंने अब तक निर्दोष समझा था, वही सबसे बड़े खिलाड़ी निकले। और अब अयान जानता था कि आख़िरी राज़ तक पहुंचने के लिए उन्हें अपने ही विभाग के कुछ ऊँचे अधिकारियों से टकराना होगा। हवेली की दीवारों ने जो कहा, वह केवल शुरुआत थी—और अयान को यकीन हो चला था कि गया शहर की शांति, किसी गहरे चक्रव्यूह में फंसी हुई थी।

दस

पटना की वह सर्द सुबह कुछ अलग थी—धुंध कुछ ज़्यादा ही घनी थी और हवा में एक बेचैनी-सी घुली हुई थी। इंस्पेक्टर राजन और उनके सहयोगी इरफान ने अब तक की तमाम कड़ियों को जोड़कर जिस अंतिम जगह की पहचान की थी, वह था पटना का एक वीरान गोदाम, जहाँ कभी सरकारी रिकॉर्ड्स रखे जाते थे। वर्षों से बंद पड़े उस गोदाम के दरवाज़े पर जब पुलिस टीम पहुँची, तो उसे खोलते ही अंदर की हवा में एक अजीब सी सड़ांध थी—जैसे वक्त के साथ कोई सच गल चुका हो। गोदाम के अंदर एक तहखाना मिला, जिसमें नीचे उतरते ही दीवारों पर खून के छींटे और कुछ अजीब निशान थे, जो किसी तांत्रिक क्रिया की ओर इशारा करते थे। एक पुराने टेबल पर एक ब्लैक-एंड-व्हाइट तस्वीर पड़ी थी जिसमें विधायक संजय झा, डॉक्टर मेहता, और वकील शरद राय—तीनों एक बच्ची के साथ खड़े थे। बच्ची वही थी, जो पहले केस में स्कूल से गायब हुई थी, और जिसके बाद यह खौफनाक सिलसिला शुरू हुआ था।

राजन को अब सब समझ में आने लगा था। यह मामला सिर्फ राजनीति या संपत्ति विवाद का नहीं था, बल्कि मानव बलि और भ्रष्ट शक्ति के गठजोड़ का था, जो दशकों से चलता आ रहा था। उस बच्ची की बलि दी गई थी ताकि विधायक को सत्ता मिले, डॉक्टर को उच्च प्रतिष्ठा और वकील को केस दर केस सफलता। लेकिन बच्ची की आत्मा, उन दीवारों और तहखानों में अटकी रह गई थी, और शायद वही अब इन तीनों की मौत का कारण बनी। तहखाने में एक बक्सा मिला जिसमें तांत्रिक किताबें, यज्ञ के उपकरण और कुछ पुरानी कैसेट टेप्स थीं। राजन ने एक टेप प्ले की—उसमें एक तांत्रिक प्रक्रिया की रिकॉर्डिंग थी जिसमें तीनों अपराधियों की आवाज़ें स्पष्ट सुनी जा सकती थीं। यह टेप ही सबसे बड़ा सबूत था, जो अब केस की आखिरी कड़ी साबित होने वाला था।

राजन ने सबूतों के साथ एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई, जहाँ बिहार पुलिस ने यह ऐलान किया कि इन तीनों की मौतें “अलौकिक कारणों” से नहीं, बल्कि उनके अतीत के अपराधों की सज़ा थीं। मीडिया में यह बात जंगल की आग की तरह फैली। जनता के गुस्से ने ऐसे भ्रष्ट तंत्र को उखाड़ फेंकने की लहर पैदा कर दी। उसी शाम राजन को एक अनजान नंबर से कॉल आया—”जो सच तुमने उजागर किया, वह केवल एक हिस्सा था… असली राजा अभी ज़िंदा है…” कॉल कट गई, और राजन एक क्षण के लिए सिहर गए। क्या यह सब वाकई खत्म हो गया था?

उस रात इंस्पेक्टर राजन अपने कमरे में बैठे, टेप्स और फोटोज़ को देखकर सोच रहे थे कि हर अपराध का हिसाब एक न एक दिन होता है, चाहे वह कानून दे या वक़्त। लेकिन उनके मन में एक अजीब सी बेचैनी थी—जैसे कोई और परछाईं अब भी ज़िंदा है, कोई जो इन सबकी डोर हिला रहा था, पर्दे के पीछे से। गोदाम में मिली तस्वीर के पीछे एक नाम लिखा था—‘महाराज’। कौन था यह महाराज? क्या वह अगला क़दम था? राजन की आंखों में नींद नहीं थी, केवल सवाल थे और एक अधूरी कहानी, जो शायद अगले खून के धब्बे से पूरी होगी।

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