Hindi - क्राइम कहानियाँ

खून का सौदा

Spread the love

राहुल देव


मुंबई की बारिश अक्सर शहर को धो देती थी, पर उस रात की बारिश ने मानो अपराध की गंध को और गाढ़ा कर दिया था। लोअर परेल की एक संकरी गली में पीली बत्तियों के नीचे पानी चमक रहा था। उसी अंधेरे में एक आदमी दौड़ रहा था—काले रेनकोट में, हाथ में किसी पुराने अखबार में लिपटा पैकेट। पीछे से पुलिस सायरन की आवाजें गूंज रही थीं। वह आदमी हर मोड़ पर पीछे मुड़कर देख रहा था, जैसे कोई अदृश्य शिकारी उसका पीछा कर रहा हो।

कुछ ही देर बाद वह एक जर्जर इमारत के भीतर घुसा। सीढ़ियों पर काई जमी थी, दीवारों पर नमी और बदबू। चौथी मंज़िल पर जाकर उसने दरवाज़ा खटखटाया। अंदर से आवाज़ आई—“पासवर्ड?”
“बरसात कभी झूठ नहीं बोलती।”
दरवाज़ा खुला। अंदर धुएँ से भरा कमरा था। पाँच-छह लोग बैठे थे, सिगरेट के धुएँ और शराब की गंध में डूबे हुए। मेज़ पर नक़्शे, नोट और बंदूकें बिखरे थे।

आदमी ने अखबार का पैकेट मेज़ पर फेंक दिया। उसमें खून से सना हुआ चाकू था। कमरे में सन्नाटा छा गया। सबकी निगाहें उस पर टिक गईं।
“काम हो गया?” नेता जैसे दिखने वाले शख्स ने पूछा।
“हाँ, ठाकुर खत्म। जैसे आपने कहा था।”
नेता ने धीरे से मुस्कराते हुए बोला, “बहुत अच्छा। अब असली खेल शुरू होगा।”

इसी बीच कमरे के कोने में बैठा एक और आदमी—अरुण—चुपचाप सब देख रहा था। अरुण कभी पुलिस में था, पर भ्रष्टाचार से तंग आकर नौकरी छोड़ चुका था। वह अब अपराधियों के बीच रहकर उनका राज़ पुलिस तक पहुँचाने वाला गुप्तखबरिया था। पर इस बार मामला अलग था—यह कोई साधारण हत्या नहीं थी। ठाकुर नाम का आदमी शहर की अंडरवर्ल्ड डीलिंग्स का सबसे बड़ा बिचौलिया था। उसकी मौत मतलब सत्ता की जड़ें हिलना।

अरुण के मन में तूफ़ान था। वह जानता था, अगर उसने यह राज़ तुरंत बाहर नहीं पहुँचाया तो अगले कुछ दिनों में पूरा मुंबई खून से भर जाएगा। लेकिन अगर उसने गलती से किसी को गलत खबर दी, तो सबसे पहले वही मर जाएगा।

नेता ने सबको आदेश दिया—“लाश को गायब कर दो, और ध्यान रहे कि किसी को शक भी न हो। अब शहर हमारा है।”

बारिश अब और तेज़ हो चुकी थी। सड़क पर पुलिस की गाड़ियाँ घूम रही थीं, पर इस कमरे में बैठे अपराधी अपनी अगली चाल सोच रहे थे।

अरुण धीरे से अपनी जेब से मोबाइल निकाला। उसने केवल एक लाइन मैसेज टाइप किया—“ठाकुर मारा गया है। खेल शुरू।”
सेंड करने ही वाला था कि अचानक कमरे की बत्ती चली गई। अंधेरे में हलचल मच गई। किसी ने ज़ोर से खिड़की बंद की, किसी ने बंदूक उठाई। उसी अफरा-तफरी में पैकेट से खून टपककर फर्श पर गिरा और लाल पानी का धब्बा बन गया।

बत्ती जब लौटी, तो सबकी आँखें अरुण पर टिक गईं। उसके हाथ में मोबाइल चमक रहा था।
“क्या कर रहे हो?” नेता गरजा।
अरुण ने घबराहट छुपाने की कोशिश की—“बस, टाइम देख रहा था।”
पर उसके माथे पर पसीने की बूँदें सब बयां कर चुकी थीं।

नेता ने मुस्कराते हुए कहा—“मुंबई की बारिश गवाह है… आज किसी न किसी को डूबना ही है।”

और उसी पल कमरे में एक गोली चली।

गोली की आवाज़ कमरे की दीवारों से टकराकर गूंज उठी। एक पल को सबकी साँसें रुक गईं। धुएँ की हल्की परत छंटते ही दिखा कि गोली अरुण को छूकर गई थी, दीवार में धँसी। उसके कान के पास से गरम हवा की लपट निकल गई थी। अरुण का दिल धक-धक कर रहा था, पर चेहरा उसने बिल्कुल शांत रखा।

नेता—जिसे सब “मालिक” कहते थे—धीरे से अपनी बंदूक नीचे करता हुआ बोला, “डर गए थे क्या?” उसकी आवाज़ में खेल था, पर आँखों में संदेह।
अरुण ने गहरी साँस लेते हुए कहा, “नहीं… बस अचानक से आवाज़ आई तो चौंक गया।”
बाकी लोग हँस पड़े, पर हँसी में शक का काँटा भी छिपा था।

मालिक ने सबको इशारा किया—“ठाकुर की लाश को नाले में फेंको। और हाँ, आज रात के सौदे में कोई गड़बड़ी नहीं होनी चाहिए। पुलिस अगर भनक तक पा गई तो हम सब जेल में होंगे।”

अरुण मन ही मन सोच रहा था—अगर मैंने ठाकुर की मौत की खबर बाहर नहीं पहुँचाई तो सब व्यर्थ। लेकिन अगर ज़रा सी भी गलती हुई, तो ये लोग मुझे यहीं खत्म कर देंगे।

वह धीरे से कमरे से बाहर निकला, बारिश की बूँदों में भीगता हुआ। बाहर का अंधेरा और तेज़ हो गया था। गली में कुत्ते भौंक रहे थे। हर तरफ ऐसा लग रहा था जैसे शहर ने उसकी साँसें पकड़ ली हों।

वह सीधा एक जर्जर पोस्ट ऑफिस की ओर गया। अंदर जाकर उसने पुराने टेलीफोन बूथ में सिक्का डाला। नंबर याद था—क्राइम ब्रांच के इंस्पेक्टर शेखावत का। फोन लगते ही उसने धीमी आवाज़ में कहा—
“ठाकुर… खत्म। माल की डील आज रात डोंगरी के गोदाम में होगी।”
इतना कहकर उसने फोन काट दिया।

लेकिन उसकी नज़रें अचानक बाहर खिड़की से मिलीं। एक आदमी अंधेरे में खड़ा था—काले छाते के नीचे से उसकी आँखें चमक रही थीं। अरुण का खून जम गया। क्या वह यहाँ से भी निगरानी करवा रहा था?

वह भागा, गलियों से निकलकर स्टेशन की ओर। ट्रेन की सीटी बजी। भीड़ में घुसकर उसने राहत की साँस ली। लेकिन तभी जेब में कंपन हुआ—मोबाइल पर मैसेज आया। स्क्रीन पर सिर्फ तीन शब्द—
“हम देख रहे हैं।”

उसकी रीढ़ में ठंडक उतर गई। किसने भेजा? क्या मालूम हो गया कि उसने पुलिस से संपर्क किया है?

ट्रेन उसे दूर ले जा रही थी, पर अरुण जानता था कि यह खेल अब उसके बस में नहीं। मालिक और उसके लोग सिर्फ हथियारों का सौदा नहीं कर रहे थे—इस बार दांव कहीं बड़ा था।

रात गहराने लगी। डोंगरी के गोदाम में तैयारी चल रही थी। बड़े-बड़े बक्से लाए जा रहे थे, जिनमें मशीनगन, कारतूस और विदेशी पिस्तौलें भरी थीं। गोदाम के बाहर काली एसयूवी गाड़ियाँ खड़ी थीं। अंदर माल गिनने वाले लोग, नोटों के बंडल और गुप्त खरीददारों की परछाइयाँ।

मालिक ने सबको चुप रहने का इशारा किया। उसकी निगाहें ठंडी थीं, जैसे शिकारी शिकार से पहले हर हलचल तौलता है। वह जानता था कि कहीं न कहीं से लीक हो सकता है, लेकिन अभी तक उसे कोई सबूत नहीं मिला था।

ठीक उसी समय, दूर से पुलिस के सायरन की हल्की आवाज़ आई। अंदर सबके हाथ काँप गए। एक आदमी ने कहा—“साहब, पुलिस?”
मालिक हँस पड़ा—“मुंबई की पुलिस इतनी जल्दी नहीं पहुँचती। ये शायद किसी और केस का शोर है।”

लेकिन अरुण जानता था—यह वही खबर है जो मैंने पहुँचाई थी।

गोदाम की हवा अचानक भारी हो गई। बाहर बारिश और तेज़ हो गई थी। बिजली की चमक से दीवारों पर परछाइयाँ नाच रही थीं। सबकी नज़रें मालिक पर थीं—फैसला उसी के हाथ में था।

मालिक ने धीरे-धीरे कहा—“अगर पुलिस सच में आ गई, तो उनमें से कोई हमारा नाम नहीं ले पाएगा। हम सबके पास वक्त है, लेकिन गद्दार के लिए नहीं।”

उसकी आँखें एक-एक चेहरे पर घूम रही थीं। अरुण ने महसूस किया कि उसकी साँसें तेज़ हो रही हैं।

गोली की गूँज फिर से हवा को चीर गई।

गोली की गूँज के साथ ही गोदाम के भीतर सन्नाटा छा गया। सबकी नज़रें उस आदमी पर टिक गईं जो ज़मीन पर गिरा था—गोलू, मालिक का सबसे भरोसेमंद गुर्गा। उसकी छाती से खून बह रहा था। बाकी लोग घबरा कर इधर-उधर देखने लगे, मानो यह समझ नहीं पा रहे हों कि गोली चली कहाँ से।

मालिक ने ठंडी निगाहों से चारों ओर देखा और बोला, “डरने की ज़रूरत नहीं। यह गोली पुलिस की नहीं, हमारी थी। गद्दार को ढूँढ़ने का खेल शुरू हो चुका है।”

अरुण का दिल तेज़ी से धड़कने लगा। उसने महसूस किया कि मालिक सीधे उसकी ओर नहीं, मगर उसके आसपास ही शक की परछाईं फैला रहा है।

गोदाम के बाहर बारिश और तेज़ हो रही थी। बिजली की चमक अंदर के हथियारों पर पड़कर उन्हें और डरावना बना रही थी। मशीनगनों की कतारें, नोटों की गड्डियाँ और शराब की गंध—सब कुछ मिलकर माहौल को दमघोंटू बना रहा था।

मालिक ने धीरे से कहा, “आज रात पुलिस यहाँ पहुँचेगी। मुझे शक है कि किसी ने खबर दी है। मगर गद्दार बच नहीं पाएगा। अगर वह यहीं है, तो उसकी साँसें खुद उसकी गवाही बन जाएँगी।”

उसने अपने आदमियों को आदेश दिया कि दरवाज़े और खिड़कियाँ बंद कर दी जाएँ। अब गोदाम जेल की तरह बन चुका था। कोई बाहर नहीं निकल सकता था।

अरुण ने पसीना पोंछते हुए अपने दिमाग को शांत करने की कोशिश की। अगर पुलिस समय पर पहुँची तो शायद मैं बच जाऊँगा, लेकिन अगर मालिक पहले ही गद्दार को पकड़ ले तो?

मालिक ने सबको पंक्ति में खड़ा किया। एक-एक कर सबकी जेबें और मोबाइल चेक होने लगे। हर कोई बेचैन था। अरुण की जेब में अभी-अभी किया गया वह गुप्त कॉल और मैसेज का रिस्क था। लेकिन उसने पहले ही मोबाइल से सिम कार्ड निकालकर हथियारों के बक्से में डाल दिया था।

जब उसकी बारी आई, तो उसने जेब खाली कर दी। मोबाइल तो था, लेकिन उसमें कोई सिम नहीं। मालिक ने कुछ पल तक उसकी आँखों में देखा—जैसे उसकी आत्मा तक झाँक लेना चाहता हो। अरुण ने अपनी नज़रें स्थिर रखीं।

“ठीक है,” मालिक बोला, “लगता है अभी तक गद्दार हमारे बीच है, पर उसने अपने निशान छुपा दिए हैं। कोई बात नहीं… जब पुलिस आएगी, असली चेहरा खुद सामने आ जाएगा।”

अचानक बाहर फिर से सायरन गूंजा। इस बार वह और नज़दीक था। मालिक ने तुरंत हथियार उठाए। बाकी सबने भी मशीनगन और रिवॉल्वर थाम लिए। अरुण के भीतर एक राहत की लहर दौड़ी—हाँ, यह वही पुलिस है, जो मैंने बुलवाई थी। अब सब खत्म होगा।

लेकिन तभी मालिक ने ठंडी मुस्कान के साथ कहा, “याद रखो, पुलिस को माल नहीं मिलना चाहिए। बक्से ट्रक में चढ़ाओ और पीछे वाले रास्ते से निकलो। अगर कोई बीच में आए, तो गोली मार देना।”

गोदाम में अफरा-तफरी मच गई। सब हथियार और बक्से उठाकर भागने लगे। अरुण जानता था कि पुलिस सामने से आ रही है और मालिक पीछे से निकलने वाला है। अगर पुलिस को सही दिशा में न ले जाया गया तो यह ऑपरेशन नाकाम हो जाएगा।

उसने धीरे से एक गुर्गे से कहा, “मैं बाहर देख आता हूँ, कहीं पुलिस घुस तो नहीं आई।”
गुर्गा झुंझलाते हुए बोला, “जाओ, जल्दी।”

अरुण दरवाज़े की तरफ बढ़ा। बाहर बारिश में पुलिस की गाड़ियाँ दिख रही थीं। इंस्पेक्टर शेखावत खुद वहाँ मौजूद था। अरुण का मन किया वह दौड़कर सब बता दे, लेकिन तभी मालिक की आवाज़ गूँजी—
“अरुण! ज़्यादा जल्दी किस बात की है?”

अरुण ठिठक गया। सबकी नज़रें उस पर थीं। मालिक धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ रहा था।
“तुम्हें तो पुलिस बहुत पसंद है न?” मालिक ने कहा।
अरुण ने काँपती आवाज़ में जवाब दिया—“मैं तो बस देख रहा था कि कहीं कोई घुस तो नहीं आया।”

मालिक ने बंदूक उसकी कनपटी पर रख दी। “अगर पुलिस आई, तो सबसे पहले तुम्हें ही ढाल बनाऊँगा।”

बाहर सायरन और करीब आ चुके थे। पुलिसवाले चारों तरफ से गोदाम को घेर रहे थे। अंदर हथियारबंद अपराधी तैयार खड़े थे। बीच में अरुण, जिसकी हर साँस अब मौत और जिंदगी के बीच अटक गई थी।

गोली चलने ही वाली थी कि तभी बाहर से माइक पर आवाज़ गूंजी—
“सभी हथियार डाल दो! पुलिस ने तुम्हें चारों तरफ से घेर लिया है!”

मालिक हँस पड़ा। “युद्ध शुरू हो चुका है।”

और फिर गोलियों की बारिश शुरू हो गई।

गोदाम के बाहर पुलिस की गाड़ियाँ घेराबंदी कर चुकी थीं। लाल-नीली बत्तियों की चमक अंधेरी रात को चीर रही थी। बारिश की बूँदें लगातार ज़मीन पर हथियारों की तरह गिर रही थीं। माइक पर फिर से आवाज़ आई—
“सभी अपराधी सुन लें! आपके पास सिर्फ़ पाँच मिनट हैं। हथियार डाल दो और सरेंडर करो।”

भीतर मालिक ने सिगरेट सुलगाई और धुएँ का छल्ला बनाते हुए बोला—“सरेंडर? मुंबई की पुलिस को लगता है कि वे हमें घेर कर जीत जाएंगे। उन्हें नहीं पता, खून का सौदा हमेशा मौत की बोली में होता है।”

उसके इशारे पर सबके हाथ मशीनगनों पर कस गए। अरुण बीच में खड़ा था, उसके माथे पर पसीना और बारिश की बूँदें एक साथ बह रही थीं। वह जानता था कि यह मुठभेड़ उसकी योजना का हिस्सा था, मगर अब खेल बहुत खतरनाक हो चुका था।

पहली गोली बाहर से चली—पुलिस ने चेतावनी के लिए हवा में फायर किया। पर अपराधियों ने इंतज़ार नहीं किया। गोदाम की टूटी खिड़कियों से गोलियों की बौछार बाहर बरसने लगी। पुलिस ने भी जवाबी फायरिंग शुरू कर दी।

चीख-पुकार, गोली की आवाज़ और टूटते काँच की खनखनाहट मिलकर माहौल को नर्क बना रहे थे। गोदाम की दीवारें काँप रही थीं। नोटों की गड्डियाँ हवा में उड़ रही थीं, उन पर खून के छींटे पड़ रहे थे।

अरुण ने मौका पाते ही खुद को एक लोहे के स्तंभ के पीछे छुपा लिया। वह सोच रहा था—अगर पुलिस को सही इशारा मिला तो वे पीछे से निकलने वाले रास्ते को कभी नहीं पकड़ पाएँगे। मालिक और उसका माल फिर से बच निकलेगा।

वह रेंगता हुआ गोदाम के एक कोने तक पहुँचा, जहाँ छोटी-सी टूटी खिड़की थी। बाहर शेखावत की टीम दिख रही थी। अरुण ने जेब से टूटा हुआ शीशा उठाकर उसे टॉर्च की तरह चमकाया। यह उसका तय किया गया संकेत था।

शेखावत ने इशारा समझ लिया। उसने तुरंत अपने जवानों को पीछे की गली की ओर बढ़ने का आदेश दिया।

भीतर मालिक को अचानक आभास हुआ कि कोई उन्हें बाहर की ओर से काटने की कोशिश कर रहा है। उसने गुस्से में चिल्लाया—“किसी ने पुलिस को इशारा दिया है! गद्दार यहीं है!”

उसकी नज़र फिर से अरुण पर टिक गई।
“तुम!” वह गरजा, और बंदूक उसकी ओर तान दी।

अरुण के पास अब कोई रास्ता नहीं था। उसने काँपते हाथों से जवाब दिया—“अगर मैं गद्दार होता तो अभी तक पुलिस हमें पकड़ चुकी होती।”
मालिक कुछ पल के लिए रुक गया। लेकिन उसकी आँखों में संदेह और बढ़ गया।

इतने में पीछे से धमाके की आवाज़ आई। पुलिस ने गुप्त रास्ते का दरवाज़ा तोड़ दिया था। अंदर जवान घुस आए। अचानक मुठभेड़ और भीषण हो गई। गोली की बौछार ने पूरे गोदाम को रणभूमि बना दिया।

अरुण ने इस अफरा-तफरी का फायदा उठाया। उसने पास पड़े बक्से से एक पिस्तौल उठा ली। मालिक उससे बस कुछ ही कदम दूर था। यह मौका था, लेकिन साथ ही सबसे बड़ा खतरा भी।

उसने पिस्तौल मालिक की ओर तानी, पर उसके ट्रिगर दबाने से पहले ही मालिक पलट गया। दोनों की नज़रें मिलीं। समय जैसे थम गया।

“तो गद्दार सच में तुम ही हो,” मालिक ने ठंडी हँसी के साथ कहा।

अरुण ने जवाब दिया—“मैं गद्दार नहीं, सच्चाई का हिस्सा हूँ। तुमने शहर को हथियारों का सौदा बनाकर खून से सींचा है। अब यह सब खत्म होगा।”

मालिक गोली चलाने ही वाला था कि तभी पुलिस की गोली उसकी बाँह से छूकर निकल गई। उसका हथियार गिर पड़ा। जवानों ने उसे चारों ओर से घेर लिया।

लेकिन मालिक इतनी आसानी से हारने वालों में नहीं था। उसने पास रखी ग्रेनेड की पिन खींच ली।
“अगर मैं डूबूँगा, तो सबको साथ लेकर जाऊँगा!”

अरुण का खून जम गया। पुलिस वाले भी पीछे हट गए। सबकुछ पलों में खत्म हो सकता था।

अरुण बिजली की गति से आगे बढ़ा और मालिक का हाथ पकड़ लिया। दोनों ज़मीन पर लोट गए। ग्रेनेड दूर जा गिरा और धमाके के साथ दीवार का एक हिस्सा उड़ गया।

धुएँ और धूल के बीच अरुण ने मालिक को दबोच लिया। पुलिस ने तुरंत झपटकर उसे हथकड़ियों में जकड़ दिया।

गोदाम में हथियार, नोट और जले हुए कागज़ बिखरे पड़े थे। बारिश अंदर तक घुस आई थी। इंस्पेक्टर शेखावत ने अरुण की ओर देखकर कहा—
“तुमने बहुत बड़ा काम किया है। पर खेल अभी खत्म नहीं हुआ। मालिक अकेला नहीं है। उसके पीछे पूरा नेटवर्क है।”

अरुण ने थकी आँखों से जवाब दिया—“मुझे पता है। यह तो बस शुरुआत थी… खून का सौदा अभी बाकी है।”

बाहर सायरनों की आवाज़ गूँज रही थी। शहर की रात थोड़ी देर को शांत हुई, मगर यह शांति तूफ़ान का संकेत थी।

गोदाम के मलबे से अब भी धुआँ उठ रहा था। पुलिस ने हथियारों की गिनती शुरू कर दी थी—राइफलें, कारतूस, विदेशी पिस्तौलें और विस्फोटक। नोटों की गड्डियाँ बारिश में भीगकर चिपक गई थीं। चारों तरफ अफरा-तफरी थी, लेकिन सबकी नज़रें मालिक पर टिकी थीं, जिसे हथकड़ियों में जकड़कर पुलिस जीप में डाल रही थी।

अरुण दूर खड़ा सब देख रहा था। उसके भीतर अजीब सन्नाटा था। उसने सोचा था कि मालिक को पकड़कर सब खत्म हो जाएगा, लेकिन इंस्पेक्टर शेखावत की बात उसके कानों में गूंज रही थी—
“मालिक अकेला नहीं है। उसके पीछे पूरा नेटवर्क है।”

सुबह का उजाला फैल चुका था। थाने में मालिक से पूछताछ शुरू हुई। वह हँसते हुए बोला—“तुम लोग सोचते हो कि मुझे पकड़कर जीत गए? यह तो बस एक मोहरा था। खेल का असली सौदागर अभी बाहर है।”

शेखावत ने उसे घूरते हुए कहा—“नाम बताओ।”
मालिक ने सिर पीछे टिकाया और मुस्कराया—“नाम बताने से क्या होगा? वो लोग इतने ताकतवर हैं कि पुलिस भी उनकी दलाली करती है। खून का असली सौदा वे करते हैं। मैं तो बस उनकी बोली लगाने वाला था।”

अरुण यह सब सुन रहा था। उसके दिमाग में तुरंत शक का बादल छा गया। अगर मालिक सच कह रहा है तो असली सरगना अभी भी बाहर है। और हो सकता है कि पुलिस के भीतर भी उसकी पहुँच हो।

उसी रात शेखावत ने अरुण को बुलाया।
“देखो, तुम्हारा काम यहीं खत्म नहीं हुआ। अब हमें मालिक के पीछे बैठे असली सौदागर तक पहुँचना है। तुम ही हमारे लिए चाबी हो। अंदरूनी हलचल का तुम्हें सबसे अच्छा अंदाज़ा है।”

अरुण ने गहरी साँस ली। “मतलब मुझे फिर से उसी अंधेरे में उतरना होगा?”
शेखावत ने गंभीर स्वर में कहा—“हाँ। और इस बार खेल और बड़ा है।”

कुछ दिनों तक मुंबई में चुप्पी रही। मीडिया ने हथियारों की बरामदगी को सुर्खियाँ बना दिया। लोग मानने लगे कि पुलिस ने बड़ा काम कर दिया है। लेकिन अरुण जानता था कि यह चुप्पी अस्थायी है।

एक रात उसे एक अनजान नंबर से कॉल आया। आवाज़ ठंडी और रहस्यमयी थी—
“तुम सोच रहे हो कि मालिक के पकड़े जाने से खेल खत्म हो गया? नहीं। अब तुम्हारी बारी है। हम तुम्हें देख रहे हैं, अरुण।”

उसका खून जम गया। उसने सोचा कि शायद यह धमकी सिर्फ डराने के लिए है। लेकिन अगले ही दिन, उसे अखबार में खबर मिली—गोदाम में गिरफ्तार हुए दो गवाह रहस्यमयी ढंग से जेल में मर गए।

अरुण समझ गया कि नेटवर्क अभी भी सक्रिय है। और अब वे उसे भी निशाने पर ले चुके हैं।

वह शेखावत के पास पहुँचा। “वे मुझे भी खत्म कर देंगे।”
शेखावत ने कहा—“इसका मतलब है कि तुम सही दिशा में जा रहे हो। हमें बस धागा पकड़ना है।”

धागा जल्द ही मिल गया। डोंगरी के सौदे से जुड़े बैंक खातों की जाँच में एक बड़ा नाम सामने आया—“सक्सेना ग्रुप ऑफ इंडस्ट्रीज़।” बाहर से यह एक साफ-सुथरा कारोबारी घराना था, जिसके मालिक उद्योगपति विक्रम सक्सेना को मुंबई का समाजसेवी माना जाता था। लेकिन खाता विवरण बता रहा था कि हथियारों की बड़ी खेप की पेमेंट उसी कंपनी से हुई थी।

अरुण का दिल बैठ गया। तो असली सौदागर यही हैं।

शेखावत ने योजना बनाई—अरुण को एक बार फिर अंडरवर्ल्ड के रूप में घुसना होगा। उसे यह जताना होगा कि वह पुलिस के लिए नहीं, बल्कि पैसों और ताकत के लिए काम कर रहा है। तभी सक्सेना तक पहुँचा जा सकेगा।

अरुण के लिए यह सबसे खतरनाक खेल था। अगर वह एक कदम भी गलत चला, तो उसका अंत निश्चित था।

अगले हफ्ते, अरुण एक गुप्त मुलाकात के लिए पहुँचा। जगह थी—नरीमन पॉइंट का एक आलीशान होटल। ऊपर के फ़्लोर पर बिझनेस मीटिंग का बहाना था। कमरे के भीतर विक्रम सक्सेना खुद मौजूद था। सफेद कुर्ता-पायजामा, गले में महँगा स्कार्फ और होंठों पर ठंडी मुस्कान।

“तो तुम वही हो जिसने मालिक को धोखा नहीं दिया?” सक्सेना ने अरुण की आँखों में झाँकते हुए कहा।
अरुण ने नज़र झुकाकर जवाब दिया—“मैं धोखा देने वालों में से नहीं। मैं सौदेबाज़ हूँ। और सुना है कि अब असली सौदा आप ही करते हैं।”

सक्सेना हँस पड़ा। “बात तो तुम्हारी सही है। लेकिन सौदे में भरोसा ज़्यादा अहम है। तुम्हें साबित करना होगा कि तुम भरोसे के काबिल हो।”

अरुण ने पूछा—“कैसे?”
सक्सेना ने धीरे से कहा—“कल रात एक काम है। छोटा-सा। अगर वह कर दिया, तो तुम्हें हमारे खेल में जगह मिल जाएगी।”

अरुण ने सिर हिलाया, लेकिन उसके भीतर भूचाल मच गया। क्या यह जाल है?

उस रात उसे संदेश मिला—“ट्रक में माल है। उसे सुरक्षित ठिकाने तक पहुँचाना है। रास्ते में अगर पुलिस आई, तो उन्हें रोकना तुम्हारा काम है।”

अरुण अब एक ऐसे मोड़ पर खड़ा था जहाँ से वापसी नहीं थी। एक ओर उसका असली मिशन, दूसरी ओर उसकी जान।

मुंबई की सड़कों पर ट्रक की गड़गड़ाहट गूंज रही थी। बारिश फिर से शुरू हो चुकी थी।

अरुण के सामने अंधेरा और पीछे मौत। और बीच में “खून का असली सौदा”।

मुंबई की सड़कों पर रात का अंधेरा और बारिश की बूँदें मिलकर अजीब-सी बेचैनी पैदा कर रही थीं। शहर थका-हारा सो रहा था, लेकिन अपराध की नसों में हलचल थी। एक ट्रक धीरे-धीरे वर्ली सी-लिंक की तरफ बढ़ रहा था। उसके कैबिन में सामने ड्राइवर और बगल की सीट पर अरुण बैठा था। पीछे का हिस्सा तिरपाल से ढका था, जिसमें हथियारों की खेप छुपाई गई थी।

अरुण का दिल तेज़ धड़क रहा था। यह उसका पहला असली “टेस्ट” था, जो विक्रम सक्सेना ने उसे दिया था। पुलिस अगर बीच में आ गई, तो उसे यह जताना होगा कि वह अपराधियों की तरफ से है। और अगर वह पलटा, तो ट्रक में बैठे गुर्गे उसी वक़्त उसे गोली मार देंगे।

ड्राइवर ने बीड़ी सुलगाते हुए कहा, “भाई, सुना है तू नया है। मालिक तुझ पर भरोसा करता है या नहीं?”
अरुण ने बिना हिचके जवाब दिया—“मैं भरोसा तोड़ने वालों में से नहीं। काम करने वालों में हूँ।”
ड्राइवर हँस पड़ा। “ठीक है, आज रात देखेंगे कौन कितना दम रखता है।”

ट्रक जेजे फ्लाईओवर पर चढ़ा ही था कि अचानक पीछे से पुलिस की जीप की लाइटें चमकीं। सायरन की आवाज़ हवा को चीरती हुई गूंजी। ड्राइवर ने घबराकर गाड़ी की रफ़्तार बढ़ा दी। पीछे से पुलिस पीछा कर रही थी।

अरुण के भीतर तूफ़ान मच गया। यह वही मौका था, जहाँ से उसकी असली परीक्षा शुरू होती। उसने जेब से पिस्तौल निकाली और खिड़की से बाहर हवा में दो फायर कर दिए। पुलिस ने तुरंत जवाबी फायरिंग शुरू की। गुर्गों ने ताली बजाते हुए कहा—“शाबाश! लगता है तू काम का आदमी है।”

लेकिन अरुण जानता था कि उसने यह फायर पुलिस को चेतावनी देने के लिए किया था—ताकि वे जान जाएँ कि ट्रक सही रास्ते पर है।

कुछ किलोमीटर तक पीछा चलता रहा। फिर अचानक एक संकरी गली में ट्रक घुसा और अंधेरे में गाड़ी रोक दी गई। पुलिस की जीपें सामने से गुज़र गईं। गुर्गे हँसने लगे। “देखा? पुलिस भी कुछ नहीं बिगाड़ सकती।”

अरुण के चेहरे पर मजबूरी की हँसी थी। वह समझ गया कि आज की रात तो निकल गई, लेकिन यह बस शुरुआत थी।

ट्रक एक पुराने गोदाम के सामने रुका। अंदर पहले से कई आदमी इंतज़ार कर रहे थे। बक्से उतारे गए, जिनमें हथियार भरे थे। विक्रम सक्सेना खुद वहाँ मौजूद था। उसकी आँखें ठंडी थीं, लेकिन होंठों पर संतोष की मुस्कान।

“अच्छा काम,” सक्सेना ने कहा। “लगता है मालिक ने तुम्हारे बारे में गलत नहीं सोचा था। अब से तुम हमारे असली काम का हिस्सा हो।”

अरुण ने सिर झुकाकर हामी भर दी। लेकिन उसके मन में सवाल गूंज रहा था—आखिर ये हथियार कहाँ जा रहे हैं? किसके लिए यह खून का सौदा हो रहा है?

अगले ही दिन अरुण को पता चला कि हथियार सिर्फ मुंबई के लिए नहीं, बल्कि देशभर में फैले नेटवर्क के लिए भेजे जा रहे हैं। नक्सल क्षेत्रों से लेकर सीमा पार तक, इनका सौदा हो रहा था। सक्सेना सिर्फ नाम था, असली जड़ कहीं और थी।

शाम को जब वह होटल के कमरे में अकेला था, तो अचानक दरवाज़े पर दस्तक हुई। अरुण सतर्क हो गया। दरवाज़ा खोला तो सामने एक औरत खड़ी थी—करीब तीस की उम्र, काली साड़ी में, आँखों में अजीब-सी चमक। उसने खुद को “रिया” बताया।

“तुम्हें लगता है कि तुम सक्सेना के लिए काम कर रहे हो,” उसने धीमी आवाज़ में कहा, “लेकिन असल में तुम उनके जाल में फँस चुके हो। ये सौदे सिर्फ पैसों के लिए नहीं, राजनीति और सत्ता के लिए हैं। अगर तुम अभी बाहर नहीं निकले, तो तुम्हारी मौत पक्की है।”

अरुण सन्न रह गया। “तुम कौन हो?”
रिया ने उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा—“मैं वही हूँ, जो अंदर से सब जानती है। लेकिन सच कहने की कीमत खून है। मैं सिर्फ इतना बता सकती हूँ—अगला सौदा दिल्ली में होने वाला है। और वहाँ सिर्फ हथियार नहीं, इंसानों की जान का सौदा होगा।”

इतना कहकर वह अचानक चली गई। अरुण के हाथ काँप रहे थे। क्या यह जाल है? या सच?

अगले दिन सक्सेना ने उसे बुलाया।
“कल तुम्हें मेरे साथ दिल्ली जाना होगा। वहाँ बड़े लोग होंगे। नेता, अफसर, व्यापारी—सब। तुम मेरी आँख और कान बनोगे।”

अरुण के भीतर तूफ़ान मच गया। तो खेल सच में राजनीति से जुड़ा है। अब यह सिर्फ अंडरवर्ल्ड का मामला नहीं, देश की रगों में जहर घोलने की साजिश है।

वह रात लंबी थी। खिड़की से बारिश गिर रही थी, और अरुण सोच रहा था—अगर मैंने यह सौदा रोक दिया, तो शायद हजारों जिंदगियाँ बच सकती हैं। लेकिन अगर जरा भी चूक गया, तो अगली लाश मेरी होगी।

दिल्ली की उड़ान तय हो चुकी थी।

दिल्ली की ठंडी रात, इंदिरा गांधी एयरपोर्ट पर उतरते ही अरुण ने महसूस किया कि हवा यहाँ अलग है—भारी और साज़िश से भरी हुई। विक्रम सक्सेना के साथ वह बिज़नेस क्लास से उतरा, और दोनों सीधे काले शीशों वाली कार में बैठकर शहर की ओर निकल पड़े।

कार के भीतर सन्नाटा था। बाहर स्ट्रीट लाइटों की रोशनी फिसलती जा रही थी। सक्सेना की निगाहें खिड़की से बाहर थीं, मगर उसकी आवाज़ अंदर की हवा को चीर गई—
“दिल्ली मुंबई जैसी नहीं है। यहाँ हर कदम सोचना पड़ता है। सत्ता के गलियारों में अपराध खुलकर नहीं, परछाइयों में चलता है। तुम्हें अब उन परछाइयों का हिस्सा बनना होगा।”

अरुण ने सिर हिलाया, पर उसके मन में उथल-पुथल थी। अगर यह सच है, तो खेल का असली मैदान यहीं है।

कार सीधा लुटियंस दिल्ली के एक आलीशान बंगले में पहुँची। भीतर कदम रखते ही अरुण ने देखा—भव्य झूमर, महँगे कालीन, और सूट-बूट पहने लोग। शराब के गिलासों और धीमी हँसी में यहाँ कोई सामान्य पार्टी नहीं, बल्कि अपराध और सत्ता का गठजोड़ पल रहा था।

सक्सेना ने अरुण का परिचय कराया—
“ये है अरुण, मुंबई का काम संभालता है। अब से दिल्ली में भी हमारी आँख और कान यही होगा।”

अरुण की निगाहें तुरंत उस शख्स पर अटक गईं, जो कमरे के बीच खड़ा था—एक केंद्रीय मंत्री। चेहरे पर राजनीतिक मुस्कान, हाथ में गिलास, और चारों ओर चापलूसों का घेरा। सक्सेना उसके पास जाकर झुकते हुए बोला—“साहब, सब इंतज़ाम हो गया है। अगली खेप कल रात यमुना किनारे उतरेगी। आप निश्चिंत रहें।”

मंत्री ने हल्की मुस्कान के साथ कहा—“सक्सेना, हमें सिर्फ सौदा नहीं चाहिए, सुरक्षा भी चाहिए। अगर मीडिया या एजेंसियों को भनक लगी, तो तुम अकेले नहीं, हम सब डूबेंगे।”

अरुण ने यह सब सुनते हुए अपने भीतर गुस्से की लहर महसूस की। तो यह सौदा सिर्फ हथियारों का नहीं, देश की राजनीति का भी है।

रात गहराने लगी। बंगले के एक कोने में अरुण खड़ा सोच ही रहा था कि अचानक उसके कंधे पर किसी ने हाथ रखा। उसने मुड़कर देखा—वही औरत, रिया।
“मैंने कहा था न,” वह फुसफुसाई, “यह खेल बड़ा है। अब तुम्हें फैसला करना होगा—सच्चाई के लिए जान दोगे या सौदे का हिस्सा बनोगे?”

अरुण हड़बड़ा गया। “तुम यहाँ कैसे?”
रिया की आँखों में रहस्य था। “जहाँ सौदा होता है, वहाँ मैं हमेशा होती हूँ। मैं अंदर से उनके हर कदम को देखती हूँ। लेकिन अकेली कुछ नहीं कर सकती। तुम्हें ही करना होगा।”

इससे पहले कि अरुण कुछ कहता, सक्सेना ने दूर से इशारा किया। “अरुण, इधर आओ।”

अगले ही पल उसे बंगले के बेसमेंट में ले जाया गया। वहाँ बक्सों की कतारें लगी थीं। सिक्योरिटी गार्ड हथियारबंद थे। सक्सेना ने एक बक्सा खोलकर दिखाया—भीतर सिर्फ बंदूकें नहीं, बल्कि विस्फोटक और नकली पासपोर्ट भी थे।

“यह है हमारा असली खेल,” सक्सेना बोला। “कल रात यह सब सीमा पार भेजा जाएगा। और इसका दाम इतना होगा कि पूरी दिल्ली हमारी जेब में होगी।”

अरुण ने अपनी साँस थाम ली। वह जान गया कि यह मामला अब देश की सुरक्षा से जुड़ा है।

उस रात होटल लौटकर उसने शेखावत को गुप्त चैनल से संदेश भेजा—
“दिल्ली। यमुना किनारा। कल रात। असली सौदा।”

लेकिन उसके भेजते ही दरवाज़ा खुला और सामने सक्सेना खड़ा था। आँखों में संदेह और होंठों पर ठंडी मुस्कान।
“अरुण… बहुत जल्दी फोन करते हो। किससे?”

अरुण का खून सूख गया। उसने फोन को जेब में छुपाते हुए कहा—“मुंबई के अपने लोगों से। बस इंतज़ाम की खबर ले रहा था।”

सक्सेना कुछ पल उसे देखता रहा, फिर हल्का-सा हँसा। “ठीक है। कल की रात बहुत बड़ी है। याद रखना, अगर किसी ने हमें धोखा दिया… तो उसका अंजाम खून में लिखा जाएगा।”

अरुण ने सिर हिलाया, पर उसके भीतर हलचल थी।

अगले दिन सुबह यमुना किनारे हलचल थी। काले ट्रक एक-एक कर पहुँच रहे थे। नावें किनारे लग रही थीं। बक्से पानी में उतारे जा रहे थे। मंत्री का निजी आदमी सब देख रहा था।

अरुण वहाँ खड़ा था, हथियारबंद गुर्गों के बीच। उसकी नज़रें बार-बार चारों ओर घूम रही थीं—कहाँ है पुलिस? क्या शेखावत तक मेरा संदेश पहुँचा?

अचानक रिया पास आई और धीमे स्वर में बोली—“पुलिस अभी रास्ते में है। लेकिन अगर सौदा पूरा हो गया तो देर हो जाएगी। तुम्हें ही कुछ करना होगा।”

अरुण की साँसें तेज़ हो गईं। उसने महसूस किया कि उसके सामने ज़िंदगी और मौत दोनों खड़ी हैं। अगर वह अभी कुछ नहीं करता, तो यह खेप पूरे देश में खून बरपाएगी।

उसने पिस्तौल कसकर थाम ली।
“खून का सौदा यहीं खत्म होगा।”

यमुना किनारे की रात सन्नाटे से भरी थी। चाँद बादलों के पीछे छिपा हुआ था और नदी का पानी काले शीशे की तरह चमक रहा था। किनारे पर खड़े ट्रकों से बक्से उतारे जा रहे थे और नावों में चढ़ाए जा रहे थे। हर बक्से के साथ ऐसा लगता था मानो मौत का बोझ लदा हो।

अरुण गुर्गों के बीच खड़ा था, पिस्तौल उसकी कमर पर टिकी हुई। उसके कानों में रिया की आवाज़ गूँज रही थी—अगर सौदा पूरा हो गया तो देर हो जाएगी।

सक्सेना थोड़ी दूर खड़ा था, मंत्री के आदमी से धीमी आवाज़ में बातें करते हुए। “सब कुछ तय समय पर है। आधे घंटे में नावें निकल जाएँगी। उसके बाद कोई हमारी तरफ देख भी नहीं पाएगा।”

अरुण की आँखें चारों ओर दौड़ रही थीं। वह जानता था कि पुलिस को आने में और समय लगेगा। लेकिन अगर उसने अभी कोई कदम नहीं उठाया, तो हथियार देशभर में फैल जाएँगे।

उसने एक गार्ड से कहा—“मैं पानी की तरफ जाकर देख लूँ, नाव ठीक से लदी या नहीं।”
गार्ड ने शक भरी नज़र डाली, पर सक्सेना ने हाथ उठाकर इशारा किया—“जाने दो। मुझे इस पर भरोसा है।”

अरुण नावों की ओर बढ़ा। अंधेरे में खड़े दो मजदूर बक्से चढ़ा रहे थे। उसने मौका पाकर पिस्तौल निकाली और धीरे से एक बक्से का ढक्कन खोला। भीतर ग्रेनेड और राइफलें भरी थीं। उसने जेब से छोटी-सी डिवाइस निकाली—ट्रैकर। यह वही था जो शेखावत ने उसे दिया था। उसने जल्दी से ट्रैकर बक्से में छुपा दिया।

लेकिन तभी उसके पीछे आवाज़ आई—“क्या कर रहे हो?”
अरुण पलटा। सामने गार्ड खड़ा था। उसने बंदूक तान दी।

अरुण ने झटके से उसे धक्का दिया और गोली हवा में चली गई। अचानक हड़कंप मच गया। गुर्गे दौड़ पड़े। सक्सेना गरजा—“रोक लो इसे! गद्दार है!”

अब अरुण के पास छुपने का वक्त नहीं था। उसने पिस्तौल निकाली और हवा में फायर कर दिया।
“रुको! ये हथियार देश को जलाने वाले हैं! यह सौदा खून से लिखा जाएगा!”

गोलियों की गूँज यमुना के सन्नाटे को चीर गई। अफरा-तफरी मच गई। गुर्गों ने जवाबी फायरिंग शुरू कर दी। नावें हिलने लगीं, मजदूर भागने लगे।

और तभी, दूर से पुलिस की गाड़ियों के सायरन गूँजे। लाल-नीली लाइटें अंधेरे में चमकने लगीं। इंस्पेक्टर शेखावत की आवाज़ माइक्रोफोन से गूँजी—
“सभी हथियार डाल दो! पुलिस ने तुम्हें चारों ओर से घेर लिया है!”

सक्सेना चीख पड़ा—“फायर करो! कोई पीछे नहीं हटे!”

गोलीबारी शुरू हो गई। दोनों तरफ से गोलियों की बारिश होने लगी। यमुना का किनारा रणभूमि बन गया। गोलियों की आवाज़ पानी की लहरों से टकराकर दूर तक गूंज रही थी।

अरुण बीच में फँसा था। उसने एक नाव की आड़ लेकर फायर किया। उसके बगल में रिया भी आ खड़ी हुई। उसके हाथ में भी बंदूक थी।
“मैंने कहा था न,” रिया बोली, “यह सौदा बहुत बड़ा है। आज रात या तो यह खत्म होगा, या हम।”

अरुण ने उसकी ओर देखा। उसकी आँखों में डर नहीं, बल्कि दृढ़ता थी। दोनों ने मिलकर जवाबी फायरिंग की।

इस बीच पुलिस आगे बढ़ रही थी। कई गुर्गे गिर चुके थे। मगर सक्सेना अब भी खड़ा था, बंदूक से लगातार फायर करते हुए। उसके साथ मंत्री का आदमी भी था, जो सबूत मिटाने के लिए बक्सों को नदी में फेंकने की कोशिश कर रहा था।

अरुण ने देखा कि एक नाव पानी में सरक रही है—उसमें सबसे बड़ा बक्सा था, और उस पर ट्रैकर लगा हुआ था। अगर वह निकल गया तो पूरा मिशन बेकार हो जाएगा।

वह झटके से नाव की ओर दौड़ा। पीछे से गोलियाँ उसके पास से गुज़रीं, पर उसने ध्यान नहीं दिया। उसने छलांग लगाकर नाव पकड़ ली। बक्सा अभी तक नाव में था। उसने पूरी ताकत से उसे रोकने की कोशिश की।

सक्सेना ने यह देख लिया। वह चीखा—“अरुण को मत छोड़ो! वही गद्दार है!” और उसने नाव की तरफ बंदूक तान दी।

अरुण झुका और बक्सा कसकर पकड़ लिया। तभी रिया ने पीछे से सक्सेना पर गोली चला दी। गोली उसके कंधे में लगी और वह जमीन पर गिर पड़ा।

पुलिस ने तुरंत उसे काबू में कर लिया। मंत्री का आदमी भी भागने की कोशिश में पकड़ा गया।

नाव किनारे पर आ गई। अरुण ने बक्सा सुरक्षित उतार दिया। शेखावत दौड़कर उसके पास आया।
“तुमने कमाल कर दिया। ट्रैकर काम कर गया। अब हम सबूत के साथ इन्हें पकड़ सकते हैं।”

अरुण थका-हारा किनारे पर बैठ गया। बारिश उसके चेहरे को भिगो रही थी। उसने देखा—सक्सेना हथकड़ियों में जकड़ा हुआ, मगर अब भी मुस्करा रहा था।
“तुम सोचते हो कि मुझे पकड़कर खेल खत्म हो गया? नहीं, अरुण। असली सौदागर अभी बाहर है। मैं तो बस एक हिस्सा हूँ।”

अरुण का दिल बैठ गया। तो असली चेहरा अभी भी अंधेरे में है।

रिया उसके पास आई और बोली—“मैंने कहा था न, यह खेल आसान नहीं है। अब असली लड़ाई शुरू होगी।”

अरुण ने नदी की तरफ देखा। यमुना का पानी काला और रहस्यमय था, मानो भीतर अनगिनत राज़ छुपाए हुए।

दिल्ली की सुबह धुँधली थी। यमुना किनारे की रात की गोलीबारी की गूँज अब भी शहर की हवा में तैर रही थी। अख़बारों की सुर्खियाँ चीख-चीखकर लिख रही थीं—“हथियारों का सबसे बड़ा सौदा नाकाम, उद्योगपति विक्रम सक्सेना गिरफ्तार।”
लेकिन अरुण जानता था कि यह जीत अधूरी है। सक्सेना के शब्द उसकी नसों में गूंज रहे थे—मैं तो बस एक हिस्सा हूँ। असली सौदागर अभी बाहर है।

पुलिस हेडक्वार्टर्स में इंस्पेक्टर शेखावत ने फाइलें पलटते हुए कहा—
“हमने सक्सेना को पकड़ लिया, मंत्री का आदमी भी सलाखों के पीछे है। लेकिन पैसों का असली फ्लो अब भी हमारे हाथ से बाहर है। किसी बहुत बड़े खिलाड़ी की सरपरस्ती है।”

अरुण चुपचाप खिड़की से बाहर देख रहा था। सड़क पर लोग अपनी-अपनी जिंदगियों में उलझे थे, लेकिन उसे लग रहा था कि हर चेहरा किसी गहरे राज़ में लिपटा है।

इतने में दरवाज़ा खुला और रिया अंदर आई। उसकी आँखों में वही बेचैन चमक थी।
“मुझे कुछ मिला है,” उसने कहा। उसने एक फाइल टेबल पर रख दी।
उस फाइल में बैंक ट्रांसफ़र, विदेशी खातों और कोड नेम्स की लिस्ट थी। सबके बीच एक नाम बार-बार दोहराया गया था—दि आर्किटेक्ट।

शेखावत ने माथे पर बल डाला—“ये नया नाम है। लगता है यही असली सौदागर है।”
रिया ने धीमी आवाज़ में कहा—“मैंने सुना है कि यह शख्स कभी सामने नहीं आता। पर हर सौदे की डोर उसी के हाथ में होती है। और हैरानी की बात यह है कि पुलिस, राजनेता, बिज़नेसमैन—सब उसकी जेब में हैं।”

अरुण ने पूछा—“तुम्हें यह सब कैसे पता?”
रिया ने नज़रें झुका लीं। “मैं पहले इसी नेटवर्क का हिस्सा थी। लेकिन जब मैंने देखा कि यह खेल सिर्फ पैसों का नहीं, बल्कि मासूमों के खून का है, तो मैंने किनारा कर लिया। तब से भाग रही हूँ।”

अरुण ने पहली बार उसकी आँखों में झाँका। उसमें सच का बोझ था।

शाम होते-होते खबर आई कि सक्सेना ने पूछताछ में बोलने से इनकार कर दिया है। लेकिन उसके मोबाइल से एक मैसेज मिला—डील बरकरार है। अगला स्टेप तय समय पर।

शेखावत बड़बड़ाया—“मतलब यह नेटवर्क सक्सेना के पकड़े जाने के बाद भी जिंदा है।”

अरुण को बेचैनी हो रही थी। वह कमरे से निकलकर बाहर चला गया। ठंडी हवा में भी उसका माथा पसीने से भीग रहा था। दि आर्किटेक्टकौन है? कहीं यह कोई ऐसा चेहरा तो नहीं, जिस पर किसी ने शक तक नहीं किया?

उस रात उसे एक कॉल आया। नंबर अज्ञात था। दूसरी तरफ वही ठंडी, रहस्यमयी आवाज़—
“अरुण… बहुत अच्छा काम किया। सक्सेना तो मोहरा था, उसे हटना ही था। अब खेल और साफ हो गया है। लेकिन सावधान रहो। अगली बारी तुम्हारी भी हो सकती है।”

अरुण ने गुस्से से कहा—“कौन हो तुम? सामने आओ अगर हिम्मत है!”
आवाज़ हँसी—“मैं वही हूँ… ‘दि आर्किटेक्ट।’ तुम जितना खोजोगे, उतना उलझोगे। और याद रखना, तुम्हारे सबसे क़रीबी लोग भी मेरे लिए काम कर सकते हैं।”

कॉल कट गया। अरुण के हाथ काँप रहे थे। उसके कानों में गूंज रहा था—तुम्हारे सबसे क़रीबी लोग भी…”

वह तुरंत शेखावत के पास पहुँचा। पर वहाँ देखकर दंग रह गया—कमरे का दरवाज़ा खुला था, और अंदर सब बिखरा पड़ा था। फाइलें जमीन पर, कुर्सी उलटी, और खून का छोटा-सा धब्बा।
शेखावत कहीं नहीं था।

अरुण की साँसें थम गईं। क्या शेखावत का अपहरण हो गया? याक्या वही इस नेटवर्क का हिस्सा था?

उसी वक्त रिया अंदर आई। उसकी आँखें भी घबराई हुई थीं। “क्या हुआ?”
अरुण ने धीमे स्वर में कहा—“शेखावत गायब है। और मुझे शक है कि… या तो वह मारा गया, या वह हमारे खिलाफ चला गया।”

रिया ने डर से उसकी बाँह पकड़ ली। “तो अब हम अकेले हैं।”

अरुण ने उसकी ओर देखा और कहा—“नहीं। हम अकेले नहीं। सच हमारे साथ है। और मैं इस ‘आर्किटेक्ट’ का चेहरा देखे बिना चैन से नहीं बैठूँगा।”

बाहर आसमान में बादल गरज रहे थे।
अरुण ने खिड़की से देखा—शहर की लाइटें दूर-दूर तक फैली थीं, लेकिन उसे हर चमकते दीये में अंधेरा दिख रहा था।

उसके भीतर अब एक ही संकल्प था—खून के सौदे को खत्म करना। चाहे कीमत कुछ भी हो।

दिल्ली की रात काली चादर ओढ़े थी। शहर के ऊँचे-ऊँचे भवनों के बीच अरुण का दिल अब एक ही धुन पर धड़क रहा था—दि आर्किटेक्ट।
वह कौन है? किस चेहरे के पीछे छिपा है यह शख्स, जिसकी परछाई हर सौदे में मौजूद रही?

शेखावत के गायब होने के बाद माहौल और भी भयावह हो गया था। पुलिस विभाग चुप था, मीडिया सक्सेना की गिरफ्तारी पर ही अटका था। लेकिन अरुण जानता था कि यह साज़िश इससे कहीं गहरी है।

रिया उसके साथ थी। दोनों एक पुराने गेस्ट हाउस में ठहरे थे। बारिश की हल्की बूँदें खिड़की पर पड़ रही थीं। रिया ने धीमी आवाज़ में कहा—
“आज रात एक बैठक है। मैंने खबर पाई है कि ‘दि आर्किटेक्ट’ खुद मौजूद रहेगा। जगह—राजधानी के बाहर का एक फार्महाउस।”

अरुण ने उसकी आँखों में देखा। “अगर यह सच है, तो यही आख़िरी मौका है।”
रिया ने सिर झुका लिया। “हाँ। लेकिन याद रखना, वहाँ जाना मतलब मौत के मुहाने पर जाना।”

अरुण ने गहरी साँस ली। “मैं मौत से नहीं डरता। मैं अधूरे सच से डरता हूँ।”

आधी रात को दोनों फार्महाउस पहुँचे। चारों ओर घने पेड़, भीतर चमचमाती रोशनी। महँगी कारें एक-एक कर अंदर जा रही थीं। अरुण और रिया ने खुद को छुपाकर भीतर प्रवेश किया।

अंदर का दृश्य हैरान कर देने वाला था। बड़े हॉल में गोल मेज़ पर सूट-बूट पहने लोग बैठे थे—कुछ उद्योगपति, कुछ नेता, और कुछ चेहरे जिन्हें देखकर अरुण का खून खौल उठा। सबके सामने गिलासों में शराब और टेबल पर फैले नक्शे।

और फिर… वह आया।
मंच के बीचोंबीच सफेद शेरवानी में, चश्मा लगाए एक आदमी। चेहरा ऐसा जिसे देखकर कोई भी कहेगा—सम्माननीय, आदरणीय।
अरुण की साँस अटक गई।
वह था—मंत्री खुद। वही मंत्री जिसने सक्सेना को संरक्षण दिया था।

लेकिन यह तो सबको पता था। चौंकाने वाला था उसका अगला वाक्य।
“मित्रों,” मंत्री ने कहा, “सक्सेना का पकड़ा जाना हमारी रणनीति का हिस्सा था। जब एक मोहरा गिरता है, असली खेल और गहरा हो जाता है। अब हमें नया चेहरा चाहिए… और मैंने चुन लिया है।”

उसकी नज़र सीधी अरुण पर पड़ी।
“ये… अरुण। जिसने बार-बार मौत को मात दी है। जिसने हमारी ताकत साबित की है। यही बनेगा हमारा नया सौदागर।”

हॉल तालियों से गूंज उठा। अरुण सन्न था। तो यह सब पहले से तय था? क्या मुझे धीरेधीरे इस खेल में खींचा जा रहा था?

रिया ने फुसफुसाकर कहा—“मत मानो। यह चाल है। उन्हें तुम्हें अपने में मिलाना है, ताकि असली दुश्मन मिट जाए।”

अरुण खड़ा हुआ। उसकी आवाज़ गूंज उठी—
“मैं सौदागर नहीं, गद्दार हूँ। तुम्हारे खून के खेल का गद्दार। और आज यह सौदा यहीं खत्म होगा।”

उसने जेब से पिस्तौल निकाली। अचानक हॉल में अफरा-तफरी मच गई। गार्ड्स बंदूक तानने लगे। मंत्री मुस्कराता रहा।
“अरुण, सोच लो। तुम्हें हमारी ताकत में शामिल होना है या हमारी बंदूक का शिकार बनना है।”

अरुण ने बंदूक सीधी मंत्री पर तान दी।
“तुम्हारे जैसे लोग देश का खून चूसते हैं। अब यह सौदा नहीं चलेगा।”

ठीक उसी समय दरवाज़े तोड़कर पुलिस की टुकड़ी अंदर घुसी। इंस्पेक्टर शेखावत सबसे आगे था।
अरुण की आँखें फैल गईं—“तुम… ज़िंदा?”

शेखावत ने कठोर स्वर में कहा—“हाँ। और अब असली खेल खत्म होगा।”
पुलिस ने चारों ओर से घेर लिया। गोलियाँ चलीं, गार्ड्स गिरते गए। अफरा-तफरी में रिया ने अरुण का हाथ पकड़कर उसे ढाल दी।

मंत्री पीछे हटने लगा, पर शेखावत ने उसे धर दबोचा।
“दि आर्किटेक्ट… अब तेरे नकाब उतर गए।”

मंत्री हँस पड़ा। “तुम सोचते हो मुझे पकड़कर सब खत्म हो गया? मेरे जैसे और भी हैं। जब तक सत्ता और लालच है, सौदे चलते रहेंगे।”

शेखावत ने उसे हथकड़ी पहनाई। “शायद। लेकिन आज की रात तुम्हारा खेल खत्म है।”

सुबह का सूरज उग रहा था। फार्महाउस की छत पर खड़े अरुण ने यमुना की तरफ देखा। नदी अब भी रहस्यों से भरी थी, पर हवा में हल्की राहत थी।

रिया उसके पास आई। “तुम जीत गए।”
अरुण ने धीमी आवाज़ में कहा—“जीत? यह लड़ाई कभी खत्म नहीं होगी। लेकिन हाँ, आज हमने खून का एक सौदा जरूर तोड़ा है।”

शेखावत उनके पास आया। उसके चेहरे पर थकान थी, लेकिन आँखों में चमक। “अरुण, तुम्हारा नाम इतिहास में लिखा जाएगा। लेकिन शायद नहीं। क्योंकि जो परछाइयों में लड़ते हैं, उनकी कहानियाँ अक्सर दुनिया नहीं जान पाती।”

अरुण मुस्करा दिया। “मुझे नाम नहीं चाहिए। मुझे सिर्फ सुकून चाहिए… कि कुछ जिंदगियाँ बच गईं।”

रिया ने उसकी तरफ देखा। उसकी आँखों में कृतज्ञता थी। “तुम अकेले नहीं हो। अब मैं तुम्हारे साथ हूँ।”

बारिश थम चुकी थी। आसमान में हल्की रोशनी फैल रही थी।
अरुण ने गहरी साँस ली।
खून का सौदा अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुआ था, लेकिन एक बड़ी जंग जीती जा चुकी थी।

और वह जानता था—जब तक लालच जिंदा है, अपराध के सौदे चलते रहेंगे। लेकिन जब तक वह जिंदा है, कोई भी सौदा आसानी से पूरा नहीं होगा।

समाप्त

WhatsApp-Image-2025-08-21-at-6.20.32-PM.jpeg

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *