Hindi - क्राइम कहानियाँ

खामोश शहर

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समीर वर्मा


एपिसोड 1: धुंध में चीख

कोलकाता की सड़कों पर सर्दियों की धुंध इस क़दर छाई थी कि सामने चल रही पीली टैक्सी का पिछला नंबर प्लेट तक साफ़ दिखाई नहीं दे रहा था। हावड़ा ब्रिज की रोशनी उस धुंध को काटने की कोशिश कर रही थी, मगर हर रोशनी धुंध में घुलकर जैसे कोई अधूरा रहस्य बन जा रही थी।

रात के पौने बारह बजे पुलिस कंट्रोल रूम में फ़ोन बजा। सब-इंस्पेक्टर शेखर चौधरी उस समय अपने डेस्क पर फाइलें पलट रहे थे। फोन उठाते ही उधर से घबराई हुई औरत की आवाज़ आई—
“साहब… चीख सुनाई दी है… नदी किनारे… किसी औरत की… बहुत डरावनी…”
लाइन अचानक कट गई।

शेखर के कानों में वह चीख गूँजने लगी, जिसे उसने सुना भी नहीं था। कंट्रोल रूम से तुरंत उसे आदेश मिला— टीम लेकर नदी किनारे पहुँचो। मामला गंभीर लग रहा है।”

 

गंगा किनारे का इलाका उस रात किसी भूले हुए समय का हिस्सा लग रहा था। धुंध इतनी घनी थी कि सड़क के लैम्पपोस्ट भी बस पीली धब्बे की तरह चमक रहे थे। शेखर अपनी टीम के साथ जब पहुँचा, तो सामने एक पुराना गोदाम दिखाई दिया। दरवाज़ा आधा खुला था, और भीतर से लोहे की चरमराहट की आवाज़ आ रही थी।

“सर, अंदर कोई है,” कांस्टेबल सोमेन ने फुसफुसाकर कहा।
शेखर ने टॉर्च उठाई और दरवाज़े को धक्का दिया।

अंदर की हवा सड़ी-गली गंध से भरी थी। पुराने बोरे, टूटी-फूटी पेटियाँ और जंग लगे औज़ार इधर-उधर बिखरे पड़े थे। अचानक टॉर्च की रोशनी फर्श पर पड़ी— और सबके पैरों तले ज़मीन खिसक गई।

वहाँ एक औरत की लाश पड़ी थी। गले पर गहरे कट के निशान थे और खून का एक बड़ा धब्बा आधी धुंध में गुम हो चुका था। उसकी आँखें पूरी तरह खुली थीं, मानो आख़िरी पल में वह किसी अदृश्य चेहरे को पहचानने की कोशिश कर रही हो।

 

“किसी ने बड़ी बेरहमी से मारा है,” शेखर बुदबुदाया।
लाश के पास एक छोटा-सा पर्स पड़ा था। उसमें से एक टूटा हुआ आईडी कार्ड मिला— मीरा दत्ता, उम्र 27, पेशा—जर्नलिस्ट।”

शेखर ने कार्ड जेब में रख लिया और चारों ओर नज़र दौड़ाई। अचानक पीछे से कदमों की आहट आई। सबके दिल धड़क उठे।

एक दुबला-पतला आदमी धुंध से निकलकर सामने आया। उसके हाथ में शराब की बोतल थी और आँखें लाल।
“क…क्या कर रहे हो?” कांस्टेबल ने डाँटकर पूछा।
आदमी हकलाते हुए बोला— “मैं… मैं तो बस नशे में यहाँ आ गया था… मुझे कुछ नहीं पता…”

शेखर ने उसकी आँखों में देखा। वह नशे में था, मगर उसकी घबराहट अजीब थी। मानो वह कुछ छुपा रहा हो।

 

पुलिस ने लाश को कब्ज़े में लिया और फॉरेंसिक टीम को बुला लिया। मगर शेखर के दिमाग़ में सवाल घूम रहे थे—
मीरा दत्ता कौन थी? रात के इस वक्त नदी किनारे क्या कर रही थी? और किसे उसकी मौत से फ़ायदा हो सकता था?

थाने लौटते समय शेखर ने अपनी जेब से आईडी कार्ड दोबारा निकाला। पीछे छोटे अक्षरों में लिखा था— दैनिक जागरण—क्राइम रिपोर्टर।”

तो मीरा अपराध रिपोर्टर थी। यानी उसके पास ऐसे राज़ हो सकते थे जिनके बारे में आम लोगों को कुछ पता न हो।

 

अगली सुबह अख़बारों की हेडलाइन थी— जर्नलिस्ट मीरा दत्ता की संदिग्ध मौत।”
मगर पुलिस प्रेस को बस इतना ही बता सकी कि “जाँच चल रही है।”

शेखर को मीरा के घर जाना पड़ा। एक छोटा-सा फ्लैट, किताबों और फाइलों से भरा हुआ। दीवारों पर कुछ तस्वीरें टँगी थीं—किसी मेला, किसी धरने, किसी राजनीतिक रैली की। मीरा का कमरा अस्त-व्यस्त था, जैसे वह हर वक्त भागदौड़ में रहती हो।

टेबल पर एक नोटबुक खुली थी। उस पर आख़िरी लाइन लिखी थी—
खामोश शहर की चीखें सुनाई देने लगी हैं… मुझे सच सामने लाना होगा।”

 

शेखर ने पन्ने पलटे। कुछ नाम लिखे थे—

  1. रवि भट्टाचार्य—रियल एस्टेट कारोबारी
  2. विक्रम घोष—स्थानीय नेता
  3. इंस्पेक्टर कश्यप—पुलिस विभाग

तीनों नामों के आगे बड़े अक्षरों में लिखा था— डील…”

शेखर ने नोटबुक बंद की और गहरी सांस ली। अब कहानी सिर्फ एक हत्या की नहीं थी। यह किसी बड़े रहस्य की शुरुआत थी।

 

उस रात शेखर अपने ऑफिस में बैठा सोच ही रहा था कि फोन फिर बजा।
एक भारी आवाज़ आई—
“मीरा ने जो शुरू किया था… अगर तुमने वहीं से आगे बढ़ने की कोशिश की… तो अगली लाश तुम्हारी होगी।”
लाइन कट गई।

शेखर ने फोन को धीरे से रखा। उसकी आँखों में अब डर नहीं, बल्कि जिद थी।
“अब यह मामला सिर्फ मीरा का नहीं है,” उसने खुद से कहा। “अब यह मामला मेरे शहर का है।”

बाहर फिर धुंध घिर आई थी। और उस धुंध में जैसे कोई अजनबी आँखें गड़ा कर देख रहा था—शांत, मगर बेहद खतरनाक।

एपिसोड 2: अदृश्य सौदे

सुबह का आसमान धातु की चादर-सा नीचा लगा हुआ था। कोलकाता की गलियाँ रात की धुंध से अभी पूरी तरह मुक्त नहीं हुई थीं। लालबाज़ार की इमारत के बाहर चायवाले की केतली में उबलते पानी की आवाज़ एक अजीब-सी बेचैनी के बीच स्थिरता देती थी। सब-इंस्पेक्टर शेखर चौधरी चाय का गिलास हाथ में दबाए अपने नोट्स पलट रहा था—मीरा दत्ता की नोटबुक के तीन नाम बार-बार उभर रहे थे: रवि भट्टाचार्य, विक्रम घोष, इंस्पेक्टर कश्यप। शब्द “डील…” हर बार जैसे पन्ने के भीतर से बाहर छलक आता।

“सर,” कांस्टेबल सोमेन ने फाइल रखते हुए कहा, “पोस्टमॉर्टम प्रीलिमिनरी आ गई। डेथ टाइम रात 11 से 12 के बीच। गले पर धारदार हथियार के निशान। संघर्ष के हल्के संकेत हैं।”

“फिंगरप्रिंट?”

“गोदाम में कई पुराने। ताज़ा बहुत कम। एक अधूरा प्रिंट है—क्लीयर नहीं।”

शेखर ने सिर हिलाया। “मीरा का फ़ोन मिला?”

“नहीं सर। हाउस सर्च में भी नहीं। शायद किलर ले गया।”

मीरा के फ़ोन का गायब होना शेखर के लिए सबसे बड़ी घण्टी था। क्राइम रिपोर्टर का फ़ोन उसकी जेब में चलता-फिरता दस्तावेज़ होता है—कॉन्टैक्ट्स, रिकॉर्डिंग, फ़ोटो, सब कुछ। जिसने मीरा को मारा, उसने पहले फ़ोन उठाया।

“चलो,” शेखर ने गिलास खाली करके कहा, “पहला पड़ाव—दैनिक जागरण दफ़्तर।”

 

दफ़्तर में खटखटाते कीबोर्ड, धुएँ में घुलती कॉफी, और दीवारों पर पुराने फ्रेम—“सच छापो, साहस से।” मीरा की मेज़ पर पड़ी कुर्सी पर धूल नहीं जमी थी; जैसे वह अभी भी किसी स्टोरी के पीछे भाग रही हो। चीफ़ रिपोर्टर अनुज सेन ने उन्हें मीरा का लॉक्ड ड्रॉअर दिखाया। “उसने पिछले हफ्ते एक स्टोरी पर काम शुरू किया था—रियल एस्टेट और पानी के ठेकों का खेल। उसने कहा था—‘खामोश शहर की चीखें बढ़ेंगी, मैं सुनाने वाली हूँ।’”

लॉक तोड़ा गया। अंदर से नोट्स, कतरनें, और एक छोटा यूएसबी ड्राइव निकला—उस पर लाल मार्कर से लिखा था: K-S। अनुज की आँखों में घबराहट थी। “वह पिछले महीने से किसी ‘के-एस’ के पीछे लगी थी। और, उhm… पिछले मंगलवार को उसने कहा था कि कोई पुलिस वाला उसे फॉलो कर रहा है।”

शेखर ने ड्राइव को जेब में डाल लिया। “मीरा के करीबी कौन थे?”

“एक फ्रीलांस फोटोग्राफर—सनाया बिस्वास। और…,” अनुज थोड़ा रुका, “कभी-कभी वह राजनैतिक रिपोर्टर अविक गुहा के साथ फील्ड करती थी। पर असली भरोसा सनाया पर था।”

“नंबर?”

अनुज ने दे दिया। जाते-जाते शेखर की नज़र मीरा की नोटिस बोर्ड पर चिपके नक़्शे पर पड़ी—दक्षिण कोलकाता के कुछ इलाकों पर लाल पिन, गंगा किनारे गोदाम के पास नीला पिन, और एक गोल घेरे में लिखा: जल-ठेका / स्लम रीलोकेशन / काले नक्शे’

 

वापस थाने आकर फॉरेंसिक कंप्यूटर सेल में यूएसबी ड्राइव खोला गया। स्क्रीन पर तीन फोल्डर उभरे: DEAL_DOCS, CALL_RECORDS, PHOTOS। कॉल रिकॉर्ड्स में एक फाइल Kashyap.m4a थी, पर खाली—शायद करप्ट। डॉक्युमेंट्स में टेंडर फॉर्म की स्कैन कॉपियाँ, जिनमें एक नाम बार-बार उभर रहा था: RB Infrastructures Pvt. Ltd.—डायरेक्टर: रवि भट्टाचार्य। कई पन्नों पर एक ही हस्ताक्षर, एक जैसे मोहर। जैसे एक ही टेम्पलेट से काम निकला हो। फ़ोटो फोल्डर में अलग-अलग रातों में खींची गई तस्वीरें—काले एसयूवी, गंगा किनारे गोदाम के बाहर कुछ सूट-बूट वाले लोग, और एक फ्रेम में विक्रम घोष—स्थानीय नेता—किसी से हाथ मिलाते हुए। उस हाथ पर एक मोटा काला रुद्राक्ष कड़ा था। तस्वीर धुँधली थी, पर कड़े की बनावट साफ़ दिख रही थी।

“सर,” कंप्यूटर सेल के टेक्नीशियन ने कहा, “ड्राइव एन्क्रिप्टेड नहीं है, पर एक डिलीटेड फोल्डर भी था जिसे हमने रीकवर किया: ‘BLUEPRINTS’। लगता है—किसी स्लम के रिहैब प्लान। पानी की पाइपलाइन के नक्शे, और… ओह—यह देखिए—एक अनऑफिशियल एनेक्सचर जिसमें लिखा है ‘Phase-III: ध्वस्तीकरण के बाद भूमि हस्तांतरण’।”

शेखर की उँगलियाँ मेज़ पर ठकठकाईं। यह सिर्फ ठेका नहीं, विस्थापन का खेल लग रहा था—और उसी धुंध में मीरा की चीख।

 

दोपहर को शेखर ने सनाया बिस्वास से मिलने का तय किया। वह पार्क स्ट्रीट के पास एक छोटी-सी स्टूडियो में मिली—काले कपड़े, कंधे पर कैमरा, आँखों में थकान। “मीरा मेरी दोस्त थी, पर दुश्मनों से घिरी हुई,” उसने बोला, “वह कहती थी—‘किसी ‘के-एस’ ने सब सेट कर रखा है। ऊपर से नीचे तक।’ मैंने पूछा था—‘कश्यप?’ उसने मुस्कुराकर कहा—‘नाम से डरना नहीं चाहिए, सबूत से डरना चाहिए।’”

“तुमने उसे आख़िरी बार कब देखा?”

“मौत से एक रात पहले। उसने कहा था—‘कल रात सच उजागर होगा।’ उसने मुझे गोदाम की लोकेशन भेजी थी। मैं देर से पहुँची, तो पुलिस आ चुकी थी। मुझे लगा… मैं लेट हो गई।”

“क्या तुम्हें किसी ने धमकाया?”

सनाया हँस दी—सूखी हँसी। “धमकियाँ पत्रकारों की कॉफी हैं, इंस्पेक्टर। पर एक अजीब बात हुई—मेरे कैमरे का मेमोरी कार्ड उस रात खुद-ब-खुद करप्ट हो गया। मैं बैकअप रखती हूँ—पर वह भी ग़ायब। मुझे लगता है, यह इंसाइड जॉब है।”

“इंसाइड?”

“पुलिस, पॉलिटिक्स, बिज़नेस—तीन कोने। उनके बीच जो रास्ता है, वही ‘खामोश शहर’ है।”

शेखर ने उसे यूएसबी से कुछ तस्वीरें दिखाईं। सनाया ने फ्रेम में हाथ मिलाते विक्रम को पहचाना। “यह वही रात है! और यह कड़ा—वह हमेशा पहनता है। पर उसके साथ जो शख्स है—यह चेहरा मैंने पहले नहीं देखा… ठहरो…” उसने ज़ूम किया—मोटे चश्मे वाला मध्यम कद का आदमी, चेहरा आधा ढका, लेकिन कान की लोब पर एक छोटा त्रिशूल-आकार का टैटू उभर आया।

“किसी गिरोह का निशान?” शेखर ने पूछा।

“शायद,” सनाया ने कहा, “या कोई निजी सनक। पर यह चेहरा मुझे किसी टेंडर मीटिंग की तस्वीर में धुंधला-सा याद है। मैं घर जाकर पुरानी ड्राइव्स चेक करूँगी।”

शेखर ने कार्ड थमाया। “सावधान रहना। और अगर कुछ मिले तो सीधे मुझे।”

 

दफ्तर लौटते ही शेखर के टेबल पर एक सफेद लिफ़ाफ़ा पड़ा था—बिना टिकट, बिना पता। अंदर से सिर्फ एक फोटो और एक नोट निकला। फोटो में वही गोदाम, पर दिन के उजाले में; दरवाज़े पर चॉक से बना छोटा नीला वृत्त—बिलकुल नीचे—जैसे कोई मार्किंग। नोट में चार शब्द—नीले को खोजो—K.S.”

“के-एस?” सोमेन ने फुसफुसाया। “सर, यह तो वही इनीशियल जो ड्राइव पर थे।”

“हाँ,” शेखर ने फोटो पलटा—पीछे तारीख़: तीन हफ्ते पहले। यानी किसी ने पहले ही यह मार्किंग देख ली थी, या खुद बनाई। “गोदाम।”

 

वे दोबारा गंगा किनारे पहुँचे। धुंध कम थी, पर हवा में अब भी फफूंदी का गाढ़ापन। फोटो के लो-एंगल से दरवाज़े के निचले हिस्से के पास देखा गया नीला वृत्त जमीन पर वैसा का वैसा था—मिटता हुआ, पर मौजूद। शेखर घुटनों के बल बैठा। “यह केवल पेंट नहीं… किसी ब्लू क्रेयॉन का चिह्न है—बच्चों वाला नहीं, औद्योगिक मार्किंग स्टिक।”

उसने वृत्त के बीच की ईंट पर टॉर्च घुमाई—एक ढीली ईंट; उँगलियाँ फिसलीं, ईंट बाहर निकली, और भीतर से एक पतली वॉटरप्रूफ पाउच मिली। अंदर एक सेकेंड यूएसबी, और आधा मुड़ा हुआ काग़ज़। काग़ज़ खोलते ही एक स्केच—गोदाम के भीतर का नक्शा, तीर के साथ लिखा: सीलिंग बीम—कैमरा A”

“कैमरा?” सोमेन ने छत की तरफ़ देखा—जंग लगे बीम पर किसी समय कैमरा लगा होगा; बेस प्लेट के निशान थे। “किसी ने निकाल लिया।”

“या लेकर गया,” शेखर बुदबुदाया, “मीरा?”

पाउच की यूएसबी में शायद वही फुटेज हो—मीरा ने कैमरा लगाया होगा, फुटेज निकाला, और ब्लू मार्क के नीचे छिपा दिया। जो भी उसे मारा, वह कैमरे तक नहीं पहुँचा। शेखर के भीतर बिजली-सी दौड़ी—यह मर्डर टेप हो सकता है।

 

थाने में लौटकर उन्होंने नई ड्राइव खोली। पासवर्ड बॉक्स उभरा। स्क्रीन पर एक इशारा—“Enter 4-letter key।” शेखर ने फोटो वाले नोट को याद किया: नीले को खोजो—K.S. उसने “BLUE” टाइप कर दिया। एंटर। स्क्रीन खुल गई।

एक ही फोल्डर: A_CAM। अंदर तीन वीडियो फाइलें—टाइमस्टैम्प: मौत वाली रात, 10:48 PM, 11:03 PM, 11:17 PM। शेखर ने पहली चालू की—काली-सीलिंग बीम के नीचे धुंधली रोशनी। फ्रेम में गोदाम का दरवाज़ा तिरछे कोण से दिख रहा था। 10:52 पर एक आकृति—मीरा—दिखी; वह अपने फोन से कुछ शूट करती हुई, दरवाज़े की ओट में छिपती है। 11:02 पर दो छायाएँ अंदर घुसती हैं—एक सूटेड-अप, काले रुद्राक्ष कड़े वाला। दूसरी वही त्रिशूल-टैटू कान वाली। वे धीमे-से कुछ बातें करते हैं—आवाज़ नहीं, सिर्फ होंठ हिलते हुए। तीसरी फाइल पर क्लिक—11:17। मीरा पीछे से निकलती है, कैमरे की ओर नहीं, दरवाज़े से बाहर; जैसे किसी को फॉलो कर रही हो। फ्रेम के किनारे एक पल के लिए कोई तेज़ी से आता है—चेहरा नहीं दिखता—सिर्फ चमकती हुई ब्लेड का प्रतिबिंब, और स्क्रीन काली।

“कट… कैमरा गिरा होगा,” टेक्नीशियन ने कहा, “या किसी ने बीम हिलाया।”

शेखर की गर्दन में ठंडक उतर आई। वीडियो ने नाम नहीं दिए, पर कड़ा और टैटू जीवित सबूत बन गए थे। उसने फाइल का स्टिल शॉट निकाला—विक्रम का कड़ा लगभग पहचान में आने लायक, और दूसरे के कान का टैटू साफ़।

“अब?” सोमेन ने पूछा।

“अब हम सीधे ऊपर नहीं जाएँगे,” शेखर बोला, “पहले रवि भट्टाचार्य के दफ़्तर।”

 

RB Infrastructures का कार्यालय एसी की ठंडी सांसों में डूबा हुआ था। रिसेप्शनिस्ट की मुस्कान ऑफिस मैनुअल-सी थी। “सर अभी मीटिंग में हैं।”

“पुलिस मीटिंग में नहीं रुकती,” शेखर ने कार्ड दिखाया। कुछ मिनट बाद रवि आया—चालीस के आसपास, बेदाग़ सफ़ेद शर्ट, हल्की मुस्कान, आँखें जैसे किसी स्थायी फ्लैश में खुली रह गई हों। उसने कॉन्फ्रेंस रूम में बैठाया। “इंस्पेक्टर, मैं अपनी कंपनी की हर डील क्लीन रखता हूँ। क्या बात है?”

“आपके टेंडर बार-बार जीतते हैं। संयोग?”

रवि हँसा। “हम कुशल हैं।”

“गंगा किनारे के गोदाम से आपका क्या संबंध?”

रवि का चेहरा एक क्षण को सख़्त हुआ, फिर मुलायम। “गोदाम? नहीं जानता।”

शेखर ने फोल्डर से एक प्रिंट निकाला—वीडियो से स्टिल, जिसमें कड़ा पहने व्यक्ति किसी से हाथ मिला रहा है; चेहरा फ्रेम से बाहर, पर पृष्ठभूमि वही गोदाम। “इस रात को जानते हैं?”

रवि की उंगलियाँ टेबल पर थम-सी गईं। “यह फर्जी हो सकता है।”

“मीरा दत्ता मारी गई,” शेखर ने कहा, “और आपके टेंडर, आपके साझेदार, आपके संभावित राजनीतिक संपर्कों की फ़ाइलें उसके पास थीं। उसका फोन कातिल ले गया, पर कैमरा नहीं। और कैमरा देखकर लगता है, आपके ‘कुशल’ लोग कुशलता से भूल करते हैं।”

रवि ने पानी का गिलास उठाया, पर होंठ तक नहीं ला पाया। “इंस्पेक्टर, आप बड़े लोगों के नाम ले रहे हैं। सावधानी से चलिए। कभी-कभी शहर की खामोशी उसी की कीमत होती है।”

शेखर उठ खड़ा हुआ। “खामोशी में चीख सबसे तेज़ सुनाई देती है, मिस्टर भट्टाचार्य।”

जाते वक्त कॉरिडोर में शेखर का सामना इंस्पेक्टर कश्यप से हो गया। सजीला वर्दी, चेहरे पर पुरानी जान-पहचान की मुस्कान। “अरे शेखर, तुम यहाँ? कोई मदद चाहिए तो बोलो। बड़े लोगों के ऑफिस में कदम संभालकर रखो।”

“सर, आप यहाँ…,” शेखर ने पूछा।

“पुरानी जान-पहचान है,” कश्यप ने आँख मार दी, “शहर में काम यूँ ही चलते हैं।”

कश्यप के कंधे से गुजरते हुए शेखर ने उसकी कलाई देखी—कुछ नहीं; कोई कड़ा नहीं। पर उसकी कॉलर के पास हल्की-सी नीली पेंट की लकीर थी—जैसे कहीं किसी मार्किंग के पास खड़े रहे हों। एक क्षण को मीरा का नोट याद आया—“नीले को खोजो—K.S.” K.S.—कश्यप? या कोई और? शेखर का दिल धक से हुआ।

 

थाने लौटते ही फोन फिर बजा—वही भारी, बदली हुई आवाज़: “तुम बहुत आगे आ गए हो, चौधरी। मीरा ने जो देखा, तुमने भी देख लिया। आख़िरी सलाह—फ़ाइलें वापस दे दो, नहीं तो शहर की खामोशी में जब अगली चीख गूँजेगी, तुम्हारे पास उसे सुनने का वक्त भी नहीं होगा।”

लाइन कट गई। उसी क्षण डेस्क पर एक कूरियर गिरा—प्रेषक अज्ञात। अंदर से एक नीला रुद्राक्ष कड़ा और एक चिट्ठी: “हर कड़े की एक जोड़ी होती है। दूसरा किसके पास है, ढूँढ लो—खामोश शहर बोल पड़ेगा।”

शेखर ने कड़े को हथेली पर रखा। मोतियों के बीच से जैसे एक अनसुनी धड़कन उठती थी। बाहर शाम उतर चुकी थी, पर उसकी आँखों में अब एक साफ़ दिशा जल रही थी—कड़ा, टैटू, K.S., और नीले निशान की लकीरें—जो सीधे शहर की धमनियों तक जाती थीं।

एपिसोड 3: नीले धागों का जाल

रात ढल चुकी थी। थाने के बरामदे में टिमटिमाता बल्ब शेखर चौधरी की थकान को और गहरा बना रहा था। सामने टेबल पर नीला रुद्राक्ष कड़ा रखा था, मानो किसी रहस्य की गुत्थी अपने मोतियों में छुपाए बैठा हो। फोन पर आए धमकी भरे शब्द अब भी कानों में गूंज रहे थे।

“हर कड़े की एक जोड़ी होती है… दूसरा किसके पास है, ढूँढ लो।”

शेखर ने नोटबुक खोली। एक ओर लिखा था—विक्रम घोष: कड़ा। दूसरी ओर—अज्ञात व्यक्ति: त्रिशूल टैटू। तीसरे नाम पर उसने गहरा दाग़ा लगाया—इंस्पेक्टर कश्यप (K.S.)?

 

सुबह होते ही वह सीधे विक्रम घोष के इलाके की ओर निकला। विक्रम एक क्षेत्रीय नेता था, झुग्गियों के पुनर्वास और स्थानीय चुनावों का बड़ा खिलाड़ी। गली में दीवारों पर उसके पोस्टर लगे थे—“विकास का वादा, घोष का इरादा।”

लेकिन असलियत सामने आई उसके घर के भीतर। चारदीवारी के पीछे आलीशान बंगला, गाड़ियों की कतार, और गार्डों की चौकसी।

शेखर ने दरवाज़े पर दस्तक दी। रिसेप्शन रूम में विक्रम घोष कुर्ता-पायजामा पहने, हाथ में माला घुमाते हुए बैठा था। उसकी कलाई पर वही काला रुद्राक्ष कड़ा चमक रहा था।

“इंस्पेक्टर साहब,” विक्रम मुस्कुराया, “किस खुशी में पधारे?”

शेखर ने बिना मुस्कुराए मेज पर कूरियर से आया दूसरा कड़ा रख दिया। “इसे पहचानते हो?”

विक्रम का चेहरा एक पल को थम गया। फिर वह हँस पड़ा। “रुद्राक्ष तो हर जगह मिलता है। इसमें पहचानने लायक क्या है?”

“ये कड़ा तुम्हारे किसी साथी का है। उस रात गोदाम में तुम किससे मिले थे?”

विक्रम की आँखें थोड़ी सिकुड़ गईं। “गोदाम? कौन-सा गोदाम? मैं तो हर रात जनता के बीच रहता हूँ। तुम गलत दरवाज़े पर दस्तक दे रहे हो।”

शेखर आगे झुका। “मीरा दत्ता की हत्या तुम्हें कुछ याद दिलाती है?”

विक्रम की मुस्कान ठंडी हो गई। “इंस्पेक्टर, राजनीति सवाल-जवाब से नहीं चलती। यहाँ दोस्ती और दुश्मनी दोनों मौन में पनपते हैं। समझे?”

शेखर ने गहरी नज़र से उसकी कलाई को देखा। कड़े की जोड़ी पूरी हो चुकी थी। पर असली सवाल था—दूसरा कड़ा उस अज्ञात आदमी तक कैसे पहुँचा?

 

थाने लौटते समय शेखर को सनाया बिस्वास का फोन आया। उसकी आवाज़ काँप रही थी।
“शेखर! मैंने पुरानी ड्राइव खंगाली। उस टैटू वाले आदमी की फोटो मिल गई। वो किसी मीटिंग में था—रवि भट्टाचार्य और कुछ अधिकारियों के साथ। और… सुनो… उसके फाइल में नाम लिखा है—कैलाश शर्मा।”

शेखर चौंक गया। “कैलाश शर्मा? वही K.S.?”

“हाँ। और सबसे बड़ी बात—वो सिर्फ कोई ठेकेदार नहीं है। वह दरअसल कई कंपनियों का छुपा हुआ डायरेक्टर है। लेकिन उसके बारे में ऑनलाइन कुछ नहीं मिलेगा। हर चीज़ किसी और नाम पर है। पर मीरा के पास सबूत थे। उसने ये सब मुझे बताने का वादा किया था।”

“कहाँ हो तुम?”

“स्टूडियो में। लेकिन जल्दी आओ। मुझे लग रहा है कोई मेरा पीछा कर रहा है।”

 

शेखर बिना समय गँवाए स्टूडियो पहुँचा। दरवाज़ा आधा खुला था। अंदर अंधेरा। टॉर्च की रोशनी में उसने देखा—कमरा अस्त-व्यस्त, कागज़ बिखरे हुए, कैमरा टूटा पड़ा।

“सनाया?” शेखर ने पुकारा।

पीछे से हल्की-सी आहट आई। वह पलटा तो कोने से सनाया निकली। चेहरा पीला, साँसें तेज़। “कोई था यहाँ… जैसे ही मैंने फाइल खोली, दरवाज़े पर किसी की छाया पड़ी। मैं छुप गई।”

शेखर ने चारों ओर देखा। खिड़की की सलाख़ टेढ़ी थी—कोई भाग चुका था।

“क्या मिला तुम्हें?”

सनाया ने कांपते हाथों से एक फ़ाइल थमाई। “ये… यह मीरा की डिलीट की हुई बैकअप कॉपी है। उसने शायद मुझे भेजी थी, पर मैं देख नहीं पाई। इसमें स्लम रिलोकेशन की डील है—कैलाश शर्मा के साइन के साथ।”

शेखर ने जल्दी से फाइल पलटी। काग़ज़ों पर साफ़ लिखा था—“Phase-III clearance under KS authority”

 

उसी शाम शेखर ने इंस्पेक्टर कश्यप को बुलाया। दोनों कैंटीन के कोने में बैठे।

“कश्यप सर,” शेखर ने सीधा सवाल किया, “आपका नाम इन डील्स में क्यों आ रहा है? K.S.—क्या ये आप हो?”

कश्यप ने ठंडी हँसी हँसी। “शेखर, सबूत देखे बिना किसी पर उंगली उठाना खतरनाक है। मेरा नाम बहुत आम है—कश्यप सिंह, कैलाश शर्मा, कोई भी हो सकता है। पर तुम्हें सलाह दूँगा—इस मामले से दूर रहो। बड़े लोग शामिल हैं। तुम्हें सिर्फ फाइल क्लोज करनी चाहिए, सच नहीं खोलना।”

शेखर ने आँखें गड़ा दीं। “सच चाहे जितना भी खतरनाक हो, उसे दबाने वालों से ज्यादा ताक़तवर नहीं हो सकता।”

कश्यप का चेहरा क्षण भर के लिए कठोर हो गया। फिर वह उठा और बोला—“ठीक है, अपनी राह चलो। पर याद रखना—धुंध में चलने वाले को रास्ता नहीं, खाई नज़र आती है।”

 

उस रात शेखर के फ्लैट के बाहर एक बाइक रुकी। खिड़की से धुंधली रोशनी भीतर पड़ी। शेखर उस वक्त फाइल पढ़ रहा था कि अचानक खिड़की के शीशे से एक पत्थर टकराया। वह भागा और देखा—पत्थर पर एक काग़ज़ बँधा था।

काग़ज़ खोला—तुम्हें लगता है कि तुम्हारे पास सबूत हैं। पर असली सबूत तो अभी छुपा है—गोदाम की छत के नीचे, नीले बीम के पास। मीरा वहीं आख़िरी बार गई थी।”

शेखर की आँखों में बिजली-सी चमक उठी। क्या मीरा ने कोई और रिकॉर्डिंग छुपाई थी?

 

अगली सुबह टीम लेकर शेखर फिर गोदाम पहुँचा। धूप हल्की थी, धुंध कम हो चुकी थी। बीम पर चढ़ने के लिए उन्होंने सीढ़ी लगाई। जंग लगे लोहे के बीच टॉर्च घूमी और अचानक चमक पड़ी—एक छोटा-सा माइक्रो-रिकॉर्डर, धूल में लिपटा हुआ।

रिकॉर्डर ऑन किया गया। आवाज़ टूटी-फूटी, पर साफ़ थी। मीरा की आवाज़—“आज रात डील तय होगी। रवि, विक्रम, और कैलाश शर्मा—तीनों यहाँ मौजूद हैं। अगर ये टेप किसी को मिले, तो समझना कि मैं सच के बहुत करीब आ गई थी…”

इसके बाद धमाके जैसी आवाज़, और चीख। फिर खामोशी।

शेखर की मुट्ठियाँ कस गईं। अब उसके पास नाम थे, सबूत थे, और मीरा की आख़िरी गवाही थी। लेकिन खतरा भी उतना ही गहरा हो चुका था।

 

शाम को जब वह फाइलों को सुरक्षित रखने के लिए जा रहा था, तभी सड़क किनारे एक काली SUV धीरे-धीरे उसके पास आकर रुकी। खिड़की नीचे गिरी। अंदर बैठे विक्रम घोष की ठंडी मुस्कान दिखी।

“इंस्पेक्टर चौधरी,” उसने धीमे स्वर में कहा, “शहर की खामोशी को मत तोड़ो। वरना यह शहर तुम्हें भी निगल जाएगा।”

SUV धुंध में गुम हो गई।

शेखर वहीं खड़ा रह गया। उसके हाथ में अब भी वह नीला कड़ा था—जो खामोश शहर की चीखों को उघाड़ने की कुंजी बन चुका था।

एपिसोड 4: सौदे का अंधेरा

गोदाम की छत से मिला रिकॉर्डर अब शेखर चौधरी के लिए सबसे बड़ा हथियार था। लेकिन वह जानता था कि यह हथियार दोधारी है—जितना सच उजागर करेगा, उतना ही उसके चारों ओर शिकंजा कसता जाएगा।

रात के सन्नाटे में जब थाने की पुरानी टेबल पर उसने रिकॉर्डर की आवाज़ फिर से चलाई, तो एक अजीब-सी बेचैनी कमरे में भर गई। मीरा की काँपती आवाज़, धमाके की ध्वनि और फिर अचानक टूटा हुआ सन्नाटा—सब कुछ मानो मौत की गवाही दे रहा था।

कांस्टेबल सोमेन बोला, “सर, यह सीधा-सीधा सबूत है। हम तीनों को पकड़ सकते हैं।”

शेखर ने सिर हिलाया। “इतना आसान नहीं है। ये लोग रसूख़दार हैं। सबूत कोर्ट में पहुँचने से पहले ही गायब हो जाएगा, और हम सस्पेंड हो जाएंगे। हमें और पुख़्ता सबूत चाहिए।”

 

अगले दिन उसने गुप्त रूप से सनाया बिस्वास को बुलाया। सनाया की आँखों में अब भी डर था।
“मैं भाग नहीं सकती, शेखर। पर मुझे समझ नहीं आ रहा कि किस पर भरोसा करूँ। हर तरफ लोग हमारे पीछे पड़े हैं।”

शेखर ने धीरे से कहा, “तुम्हें भागना नहीं है। तुम्हें वही करना है जो मीरा ने किया था—सच को कैद करना। तुम्हारे कैमरे की नज़र ही सबसे बड़ा सबूत होगी। पर इस बार सावधानी से।”

सनाया ने सिर हिलाया। “ठीक है। पर एक जगह है… मीरा ने मुझे बताया था। विक्रम और रवि की मीटिंग अक्सर वहीं होती थी—शहर के बाहर एक पुराना फार्महाउस। पर उसने मुझे चेतावनी दी थी—वहाँ जाना मौत को बुलाना है।”

“यही तो हमें चाहिए,” शेखर ने कहा।

 

शाम को शेखर अपनी जीप लेकर फार्महाउस की ओर निकला। रास्ता सुनसान था, चारों ओर धान के खेत और बीच-बीच में सूखी नहरें। फार्महाउस के पास पहुँचते ही जीप बंद कर दी गई। धुंध में छिपते-छिपते वे अंदर पहुँचे।

खिड़की से झाँकने पर सामने का दृश्य जैसे किसी फिल्म का दृश्य था। बड़े हॉल में लंबी मेज़ पर शराब की बोतलें, नक्शे और पैसों की गड्डियाँ रखी थीं।

रवि भट्टाचार्य गरजती आवाज़ में बोला, “स्लम की जमीन साफ़ होते ही हम तीस करोड़ का कॉन्ट्रैक्ट सीधे कंपनी के नाम करेंगे। बाकी हिस्सेदारी विक्रम और कैलाश में बँट जाएगी।”

विक्रम ने माला घुमाते हुए कहा, “पर पुलिस? ऊपर तक बात पहुँचनी चाहिए। कश्यप सब सेट कर देगा।”

तभी दरवाज़ा खुला और अंदर इंस्पेक्टर कश्यप दाखिल हुआ। उसके चेहरे पर आत्मविश्वास की मुस्कान थी। “चिंता मत करो। केस की सारी फाइलें मेरे पास हैं। चौधरी कुछ कर भी ले तो उससे पहले ही उसे लाइन से हटा दिया जाएगा।”

शेखर का दिल जोर से धड़कने लगा। सबूत खुद सामने थे। पर तभी पीछे से लकड़ी चरमराई—सनाया का कैमरा हल्का-सा हिल गया।

हॉल के अंदर आवाज़ गूँजी, “कौन है वहाँ?”

 

भागमभाग मच गई। शेखर और सनाया जैसे-तैसे पीछे की खिड़की से निकले। गोलियों की आवाज़ हवा को चीरती हुई गुज़री। खेतों की ओर भागते हुए सनाया का हाथ फिसला, कैमरा गिरा, लेकिन शेखर ने उसे उठा लिया। दोनों किसी तरह जीप तक पहुँचे और अंधेरे में गायब हो गए।

जीप में बैठकर सनाया काँप रही थी। “हम बच गए… पर कैमरे में सब रिकॉर्ड हो गया होगा। यह मीरा के लिए न्याय है।”

शेखर ने कैमरा कसकर पकड़ा। “हाँ, पर अभी इसे सुरक्षित रखना सबसे बड़ी चुनौती है।”

 

अगले दिन सुबह जब वह थाने पहुँचा तो वातावरण अजीब था। कांस्टेबल फुसफुसा रहे थे, फ़ाइलें गायब थीं। अचानक आदेश आया—सब-इंस्पेक्टर शेखर चौधरी को छुट्टी पर भेजा जाता है। केस से हटा दिया गया है।”

शेखर समझ गया—कश्यप ने चाल चल दी है। अब वह आधिकारिक रूप से केस का हिस्सा नहीं रहा।

लेकिन उसके चेहरे पर हल्की मुस्कान थी। अगर कानून की कुर्सी छिन भी जाए, सच की जमीन कोई नहीं छीन सकता।”

 

रात को अपने फ्लैट पर लौटते समय उसने नोटिस किया—एक बाइक बार-बार उसका पीछा कर रही है। उसने गाड़ी मोड़ी और एक सुनसान गली में बाइक का सामना किया। हेलमेट उतारते ही सामने वही टैटू वाला चेहरा दिखा—कैलाश शर्मा

“बहुत खेल लिए इंस्पेक्टर,” कैलाश ने ठंडी आवाज़ में कहा, “अब तुम्हें समझ जाना चाहिए कि सच का कोई भविष्य नहीं है। कैमरा हमें दे दो और अपनी जान बचाओ।”

शेखर ने उसकी आँखों में देखते हुए कहा, “सच वही है जो मीरा ने आख़िरी साँस में रिकॉर्ड किया था। और वही सच अब हर दीवार पर गूँजेगा।”

कैलाश ने पिस्तौल निकाली। गोली चलने ही वाली थी कि पीछे से सनाया चीख उठी—“शेखर, संभालो!” और उसने पास पड़े पत्थर से कैलाश के हाथ पर वार कर दिया। पिस्तौल नीचे गिर गई।

शेखर ने मौका पाकर कैलाश को गिरा लिया, लेकिन तभी दूर से सायरन बजा। पुलिस की गाड़ियाँ आ पहुँचीं। उनमें से सबसे पहले उतरे इंस्पेक्टर कश्यप।

“बहुत अच्छा काम किया, चौधरी,” कश्यप ने ठंडी मुस्कान के साथ कहा, “आख़िरकार तुमने हमारे आदमी को पकड़ ही लिया। लेकिन अफ़सोस… सबूत तुम्हारे पास नहीं रहेगा।”

कश्यप ने इशारा किया और उसके आदमियों ने शेखर की जेब से कैमरा छीन लिया।

 

शेखर चुप खड़ा रहा। लेकिन उसके चेहरे पर हल्की संतुष्टि थी।
कश्यप ने कैमरा खोलकर देखा तो अंदर कोई मेमोरी कार्ड नहीं था।

“ये क्या है?” उसने गरजकर पूछा।

शेखर ने धीरे से कहा, “तुम्हें लगता है कि तुम हमेशा एक कदम आगे हो। पर इस बार मैं आगे था। कार्ड पहले ही सुरक्षित जगह पहुँचा दिया है।”

कश्यप की आँखें लाल हो गईं। “कहाँ है वह कार्ड?”

शेखर मुस्कुराया। “जहाँ तुम्हारी पहुँच कभी नहीं होगी—शहर की उसी खामोश गली में, जहाँ मीरा ने अपनी चीख छोड़ी थी।”

 

अब खेल और खतरनाक हो चुका था। कैमरे का कार्ड ही असली सबूत था। और कश्यप, विक्रम, रवि—तीनों उसकी तलाश में थे।

शेखर जानता था कि अगला कदम उसकी ज़िंदगी का सबसे मुश्किल होगा। क्योंकि अब शहर की खामोशी टूटने वाली थी। और जब खामोशी टूटती है, तो सबसे पहले गोलियों की आवाज़ सुनाई देती है।

एपिसोड 5: खामोशी का शिकार

सुबह का धुंधलका शहर पर उतर आया था। ठंडी हवा में अख़बार बेचने वाले की आवाज़ गूँज रही थी—“पत्र… ताज़ा खबरें!” पर किसी भी अख़बार में मीरा दत्ता, या फार्महाउस की रात, या शेखर चौधरी का नाम नहीं था। हर पन्ने पर राजनीति, शेयर मार्केट और क्रिकेट की सुर्ख़ियाँ थीं। सच एक बार फिर दबा दिया गया था।

शेखर अपने फ्लैट की खिड़की से बाहर देख रहा था। हाथ में कॉफी का कप था, पर मन में बेचैनी। जेब में रखा छोटा-सा मेमोरी कार्ड अब उसकी ज़िंदगी का सबसे बड़ा बोझ था। उसी में फार्महाउस की गुप्त मीटिंग का पूरा वीडियो था—रवि, विक्रम और कैलाश, तीनों एक ही मेज़ पर, सौदे की बातें करते हुए।

“सर,” सोमेन ने धीरे से कहा, “अगर कार्ड आपके पास है, तो आप सुरक्षित नहीं हैं। हर पल निगरानी हो रही है।”

शेखर ने सिर हिलाया। “सुरक्षा अब शब्द मात्र है, सोमेन। पर मीरा के लिए यह सबूत ज़रूरी है।”

 

उसने कार्ड को छुपाने के लिए कई योजनाएँ बनाई। पहला विचार था कि इसे सीधे प्रेस तक पहुँचा दिया जाए। लेकिन वह जानता था—कश्यप की पहुँच हर जगह है। कोई भी रिपोर्टर इसे छापने से पहले दबाव में आ जाएगा।

दूसरा विचार था कि इसे ऑनलाइन डाल दिया जाए। लेकिन इंटरनेट पर अपलोड होते ही लोकेशन ट्रेस हो जाएगी, और वे तुरंत उस तक पहुँच जाएंगे।

“तो फिर?” सोमेन ने पूछा।

शेखर ने कार्ड को उठाया। “इसे वहाँ रखना होगा, जहाँ कोई उम्मीद भी न करे।”

 

दोपहर को वह गंगा किनारे गया। वही जगह, जहाँ मीरा की लाश मिली थी। धुंध कम थी, पर नदी अब भी रहस्यमयी लग रही थी। किनारे पर एक पुराना शिव मंदिर था, जिसके कोने में टूटी हुई मूर्ति के नीचे छोटा-सा गड्ढा था। शेखर ने कार्ड को पॉलिथीन में लपेटकर वहाँ छुपा दिया।

“यह जगह वही है, जहाँ कहानी शुरू हुई थी,” उसने बुदबुदाया। “यहीं से सच बाहर आएगा।”

 

शाम को उसे सनाया का फोन आया। आवाज़ घबराई हुई थी।
“शेखर, मेरी स्टूडियो पर हमला हुआ है। सब कुछ तहस-नहस कर दिया गया। शायद वे कार्ड ढूँढ रहे थे। मैं अब सुरक्षित नहीं हूँ।”

“कहाँ हो तुम?”

“रॉटरडैम कैफे के पास… भीड़ में छुपी हूँ।”

शेखर तुरंत वहाँ पहुँचा। सनाया कांप रही थी। उसके हाथ में बस एक कैमरा बचा था।
“उन्होंने सब जला दिया,” वह बोली। “पर एक फोटो मेरे पास है। देखो—”

उसने कैमरा दिखाया। फोटो में फार्महाउस की मेज़ पर नक्शे रखे थे। और उनमें से एक नक्शे पर मोटे अक्षरों में लिखा था—‘Project Blue Wave’

“ब्लू वेव?” शेखर ने आश्चर्य से कहा।

सनाया ने कहा, “मीरा हमेशा कहती थी—‘नीले निशान का पीछा करो।’ शायद यही है—ब्लू वेव। पानी के ठेके का कोडनेम।”

 

रात होते ही शेखर के दरवाज़े पर दस्तक हुई। वह सावधानी से बाहर निकला। सामने एक बूढ़ा चौकीदार खड़ा था, जो गोदाम के पास काम करता था।
“बाबू,” उसने धीमे स्वर में कहा, “उस रात मैंने भी कुछ देखा था। एक बड़ी गाड़ी आई थी, काले शीशे वाली। उसमें से एक आदमी उतरा—कलाई में रुद्राक्ष कड़ा। उसने किसी और से कहा—‘फाइल गायब हो जाए तो सब ठीक रहेगा।’ मुझे डर लगा, पर अब और चुप नहीं रह सकता।”

शेखर ने उसका बयान लिख लिया। यह गवाही सबूत को और मजबूत बना सकती थी।

 

लेकिन अगले ही दिन खबर आई—वही चौकीदार रहस्यमय ढंग से गायब हो गया। लोग कहने लगे—“वह नदी में गिर गया।” मगर शेखर समझ गया—उसे भी खामोश कर दिया गया।

सोमेन ने गुस्से में कहा, “सर, यह लोग किसी को भी मार सकते हैं। हमें फौरन कार्रवाई करनी चाहिए।”

शेखर बोला, “हाँ, लेकिन बिना पुख़्ता कदम उठाए हम भी अगले शिकार बन सकते हैं। हमें चाल से चाल चलनी होगी।”

 

अगली शाम उसने रवि भट्टाचार्य को सीधे फोन किया।
“मिस्टर भट्टाचार्य, सौदा छुपाना अब संभव नहीं है। आपके फार्महाउस की मीटिंग मेरे पास रिकॉर्ड है। अगर सच सामने आया, तो आप भी डूबेंगे।”

रवि की आवाज़ ठंडी थी। “इंस्पेक्टर, तुम्हें अपनी औक़ात याद रखनी चाहिए। हम सौदे नहीं, शहर चलाते हैं। और शहर वही सुनता है जो हम सुनाना चाहें।”

“शहर खामोश है, पर उसकी दीवारें बोलती हैं,” शेखर ने जवाब दिया और फोन काट दिया।

 

रात को जब वह अपने कमरे में बैठा था, तभी अचानक बिजली चली गई। अंधेरे में दरवाज़ा चरमराया। बंदूक की नली सीधे उसकी कनपटी पर आ लगी।

“कहाँ है कार्ड?” पीछे से आवाज़ आई। यह वही कैलाश शर्मा था—कान पर त्रिशूल टैटू वाला।

शेखर शांत स्वर में बोला, “तुम देर से आए। कार्ड अब मेरे पास नहीं।”

कैलाश ने गरजकर कहा, “झूठ! बता दे, वरना यहीं खत्म कर दूँगा।”

तभी पीछे से खिड़की टूटी और सनाया ने ईंट फेंकी। कैलाश चौंक गया। शेखर ने मौका पाकर उसे धक्का दिया और पिस्तौल छीनी।

लेकिन कैलाश भाग निकला—धुंध में उसकी परछाई गुम हो गई।

 

“अब हमें तेजी से काम करना होगा,” शेखर ने कहा। “यह कार्ड हमेशा छुपा नहीं रह सकता। हमें इसे किसी भरोसेमंद जगह पहुँचाना होगा।”

सनाया ने पूछा, “कहाँ?”

शेखर ने धीरे से जवाब दिया, “कोर्ट में नहीं… प्रेस में नहीं… सीधे जनता के बीच। शहर की गलियों में, जहाँ से कोई आवाज़ दबाई न जा सके।”

 

पर कश्यप भी अब खेल समझ चुका था। अगले दिन अख़बारों में एक नई हेडलाइन छपी—
सब-इंस्पेक्टर चौधरी पर आरोप—साबित हुए भ्रष्ट, निलंबित।”

लेख में लिखा था कि शेखर पर घूस लेने और सबूत फर्जी बनाने का आरोप है। तस्वीरें भी छपी थीं—फोटोशॉप की हुई, पर इतनी असली लग रही थीं कि लोग यक़ीन कर लें।

सनाया ने अख़बार फेंक दिया। “अब तो तुम पर लोग भरोसा भी नहीं करेंगे।”

शेखर ने दृढ़ता से कहा, “यही तो उनकी चाल है। पर खेल अभी खत्म नहीं हुआ।”

 

उसी रात उसे एक अनजान नंबर से मैसेज आया—
अगर सच उजागर करना चाहते हो, तो कल रात विक्टोरिया मेमोरियल के पीछे आओ। वहाँ तुम्हें वह मिलेगा जो मीरा ने आख़िरी बार देखा था।”

शेखर के भीतर फिर से आग भड़क उठी। यह फँदा भी हो सकता था, पर शायद वही सुराग भी, जो खामोश शहर की चीख़ों को आवाज़ देगा।

एपिसोड 6: विक्टोरिया की छाया

रात गहरी हो चुकी थी। विक्टोरिया मेमोरियल के पीछे फैला बगीचा शांत था। चारों ओर पीली रोशनी में संगमरमर की इमारत धुंधली चमक रही थी। हवा में ठंड और अजीब-सा भय घुला हुआ था। शेखर चौधरी ने अपनी घड़ी देखी—ग्यारह बजकर पैंतीस मिनट। मैसेज के मुताबिक़ मुलाक़ात का वक्त नज़दीक था।

कांस्टेबल सोमेन उसके साथ था। उसने फुसफुसाकर कहा, “सर, यह जाल भी हो सकता है।”

शेखर ने सिर हिलाया। “हाँ, लेकिन अगर सच यहीं छुपा है तो हमें जाना ही होगा। मीरा ने आख़िरी बार इसी इलाके में कुछ रिकॉर्ड किया था, शायद वही सबूत हमें बुला रहा है।”

 

घड़ी की सुई जैसे ही ग्यारह बजकर चालीस पर पहुँची, झाड़ियों के बीच से एक परछाई निकली। उम्रदराज़ आदमी था, चेहरे पर झुर्रियाँ, आँखों में डर।

“आप…?” शेखर ने पूछा।

उसने धीरे से कहा, “मैं विक्रम घोष का पुराना अकाउंटेंट हूँ। नाम है गोपाल सेन। मैंने बहुत कुछ देखा है, पर बोल नहीं पाया। मीरा मेरे पास आई थी, और मैंने उसे कुछ फाइलें दी थीं। शायद उसी की वजह से उसकी जान गई।”

शेखर चौकन्ना हो गया। “कौन-सी फाइलें?”

गोपाल ने बैग से एक मोटा बंडल निकाला। “यहाँ सबूत हैं—‘ब्लू वेव प्रोजेक्ट’ के। इसमें असली टेंडर डॉक्युमेंट्स, बैंक ट्रांज़ैक्शन, और नकली कंपनियों के नाम हैं। मीरा ने कहा था—अगर मैं डर जाऊँ तो यह सब आपको दे दूँ।”

 

शेखर फाइल लेने ही वाला था कि अचानक पीछे से गोलियों की आवाज़ गूँजी। गोपाल गिर पड़ा—सीने से खून बहता हुआ।

“भागो!” शेखर ने सोमेन और सनाया (जो चुपचाप उनके साथ आई थी) को धक्का दिया। तीनों पेड़ों की आड़ में छिप गए।

धुंध में काले कपड़े पहने तीन आदमी उभरे। उनके हाथ में हथियार थे। एक की कलाई पर रुद्राक्ष का कड़ा चमक रहा था।

“वही हैं!” सोमेन चिल्लाया।

शेखर ने गोली चलाई, और भगदड़ मच गई। हमलावर भाग गए, पर फाइल वहीं गिर पड़ी। शेखर ने उसे उठाया—खून से सनी हुई, लेकिन अब भी सुरक्षित।

 

रात भर शेखर ने फाइल खंगाली। काग़ज़ों में साफ़ लिखा था—RB Infrastructures Pvt. Ltd. के अकाउंट से करोड़ों रुपये एक शेल कंपनी में ट्रांसफ़र किए गए थे। उस कंपनी के मालिकाना हक़ में नाम था—Kailash Sharma

और नीचे एक हस्ताक्षर—Inspector K. S.

“कश्यप!” सोमेन ने दाँत भींचते हुए कहा।

शेखर की आँखों में आग जल रही थी। “अब हमारे पास सीधा सबूत है। पर हमें इसे जनता तक पहुँचाना होगा।”

 

अगली सुबह, शेखर ने सनाया को बुलाया।
“तुम्हारा कैमरा अब सबसे बड़ा हथियार है। हमें इस फाइल और कार्ड को मिलाकर डॉक्यूमेंट्री तैयार करनी होगी। इसे सोशल मीडिया पर डालेंगे। तभी सच दबाया नहीं जा सकेगा।”

सनाया ने हिम्मत से सिर हिलाया। “मीरा का सपना यही था—सच को सबके सामने लाना।”

 

पर साज़िश करने वाले भी चुप नहीं बैठे थे। उसी शाम टीवी चैनलों पर ब्रेकिंग न्यूज़ चली—
सब-इंस्पेक्टर शेखर चौधरी भगोड़ा घोषित। भ्रष्टाचार में संलिप्तता पाई गई।”

रिपोर्ट में उसके खिलाफ़ फर्जी सबूत दिखाए गए—जाली बैंक स्टेटमेंट, नकली वीडियो, और बयान।

शहर में लोग बातें करने लगे—“शेखर भी बिक गया।”

सोमेन गुस्से में बोला, “सर, यह सब कश्यप की चाल है।”

शेखर ने गहरी साँस ली। “हाँ। अब वह हमें अपराधी साबित करना चाहता है, ताकि असली अपराधी बच निकले।”

 

उस रात एक अनजान कॉल आया। आवाज़ वही भारी और बदली हुई थी।
“चौधरी, आख़िरी बार कह रहा हूँ। फाइल और कार्ड हमें दे दो। नहीं तो अगली लाश तुम्हारे किसी करीबी की होगी।”

शेखर ने फोन रखा। आँखों में दृढ़ता थी। “अगर कीमत जान की है, तो मीरा ने पहले ही चुका दी। अब मैं पीछे नहीं हटूँगा।”

 

अगले दिन शेखर और सनाया ने एक सुरक्षित ठिकाने पर लैपटॉप लगाया। कार्ड और फाइल से सारे सबूत मिलाकर वीडियो एडिट किया गया। इसमें मीरा की आवाज़, फार्महाउस की मीटिंग की फुटेज, ब्लू वेव प्रोजेक्ट की फाइलें और अकाउंट ट्रांज़ैक्शन—सब जोड़ा गया।

वीडियो तैयार होते ही सनाया ने कहा, “अब इसे अपलोड करते हैं।”

शेखर ने सिर हिलाया। “नहीं। अभी नहीं। हमें सही वक्त पर इसे छोड़ना होगा—जब शहर सो रहा हो और अचानक यह वीडियो हर मोबाइल स्क्रीन पर जाग जाए।”

 

पर दुश्मनों ने भी चाल चल दी। रात को अचानक ठिकाने पर धावा बोल दिया गया। गोलियों की आवाज़, दरवाज़ों की तोड़फोड़—सब कुछ जैसे किसी युद्ध का दृश्य था।

शेखर और सोमेन ने जवाबी फायर किया। सनाया ने जल्दी से लैपटॉप बंद किया और हार्ड ड्राइव को बैग में डाल लिया।

“भागो!” शेखर चिल्लाया।

वे पिछली खिड़की से भागे और अंधेरी गलियों में गुम हो गए।

 

अब शहर उनके खिलाफ़ था। पुलिस, नेता, कारोबारी—सब मिलकर उन्हें पकड़ना चाहते थे।

सनाया बोली, “हम कहाँ जाएँ?”

शेखर ने जवाब दिया, “वहीं, जहाँ मीरा की चीख़ अब भी गूँजती है—गंगा किनारे। वहीं सच को उजागर करेंगे।”

 

अगली रात, उन्होंने गंगा किनारे पुराने मंदिर के पास प्रोजेक्टर लगाया। भीड़ धीरे-धीरे इकट्ठी हुई—स्थानीय लोग, पत्रकार, छात्र।

शेखर ने हार्ड ड्राइव लगाई। स्क्रीन पर मीरा का वीडियो चला—उसकी काँपती आवाज़, फार्महाउस की मीटिंग, कश्यप का नाम, रवि और विक्रम के चेहरे।

भीड़ सन्न रह गई। फिर शोर उठा—“सच उजागर करो! न्याय चाहिए!”

 

पर उसी वक्त, पुलिस की गाड़ियाँ आ पहुँचीं। इंस्पेक्टर कश्यप खुद उतरा। चेहरे पर गुस्सा और घबराहट दोनों थे।

“सबको गिरफ्तार करो!” उसने आदेश दिया।

भीड़ चिल्लाई—“हमें गिरफ्तार नहीं, अपराधियों को पकड़ो!”

तनाव बढ़ने लगा। लोग पुलिस के सामने खड़े हो गए।

शेखर ने माइक उठाया और जोर से कहा, “ये है खामोश शहर का सच! अगर आज हम चुप रहे, तो हर आवाज़ हमेशा के लिए दफ़न हो जाएगी!”

 

कश्यप ने बंदूक उठाई और शेखर पर तान दी।
“बहुत हो गया, चौधरी। अब यहीं खत्म।”

भीड़ चीख उठी। पर शेखर शांत था।
“गोली चला दो, कश्यप। लेकिन सच की गोली अब हर गली में गूँज चुकी है। इसे कोई नहीं रोक सकता।”

उसी पल भीड़ में से किसी ने वीडियो को लाइव सोशल मीडिया पर प्रसारित कर दिया। लाखों मोबाइल स्क्रीन पर सच फैल गया।

कश्यप का चेहरा फक पड़ गया। वह समझ गया—अब उसका खेल खत्म हो चुका है।

 

गोली चलने से पहले ही भीड़ ने कश्यप को घेर लिया। रवि और विक्रम की गिरफ्तारी के आदेश ऊपर से आने लगे।

शहर की खामोशी टूट चुकी थी। चीख़ अब आवाज़ बन गई थी।

एपिसोड 7: सत्ता का शिकंजा

गंगा किनारे की उस रात के बाद पूरा कोलकाता जैसे जाग गया था। सोशल मीडिया पर वीडियो वायरल हो चुका था—मीरा दत्ता की काँपती आवाज़, फार्महाउस की मीटिंग, सौदे की काली परछाइयाँ और इंस्पेक्टर कश्यप का नाम। लोग गुस्से में थे। कॉलेजों में पोस्टर लग गए—न्याय दो, मीरा के हत्यारों को सज़ा दो।”

पर सत्ता इतनी आसानी से नहीं हिलती। अगले ही दिन टीवी चैनलों पर नया नैरेटिव चला—
वीडियो एडिटेड है। पुलिस विभाग ने इसे फर्जी करार दिया।”
कुछ चैनल खुलकर कह रहे थे—“चौधरी एक भगोड़ा अफ़सर है, जिसने सबूतों के साथ छेड़छाड़ की है।”

शहर दो हिस्सों में बँट गया। एक हिस्सा शेखर को हीरो मान रहा था, दूसरा उसे गद्दार।

 

शेखर उस समय एक गुप्त ठिकाने पर था। साथ में सनाया और सोमेन।
सनाया ने गुस्से में कहा, “ये लोग अब मीडिया को भी खरीद चुके हैं। सच सामने आकर भी झूठ बना दिया जा रहा है।”

शेखर ने गहरी सांस ली। “सत्ता की जड़ें बहुत गहरी होती हैं। उन्हें एक वीडियो से नहीं काटा जा सकता। हमें और गहरे जाना होगा। असली मास्टरमाइंड अब भी छुपा हुआ है।”

सोमेन ने पूछा, “क्या आपको लगता है कि कश्यप ही सबसे ऊपर है?”

शेखर ने सिर हिलाया। “नहीं। कश्यप बस मोहरा है। असली खिलाड़ी कोई और है—जो ब्लू वेव प्रोजेक्ट के पीछे है, जो शहर की ज़मीन और पानी को बेच रहा है।”

 

कुछ दिनों बाद खबर आई—रवि भट्टाचार्य और विक्रम घोष विदेश भागने की कोशिश में पकड़े गए। पुलिस ने दिखावे के लिए गिरफ्तारी की, लेकिन शहर को यह समझने में देर नहीं लगी कि ये बस लोगों का गुस्सा शांत करने का तरीका है।

रात को शेखर को एक गुमनाम ईमेल मिला। उसमें एक लाइन थी—
अगर सच जानना है, तो बंदरगाह के गोदाम नंबर 47 पर जाओ। वहाँ तुम्हें ब्लू वेव का असली चेहरा मिलेगा।”

ईमेल के नीचे सिर्फ दो अक्षर लिखे थे—M.D.

सनाया ने हैरानी से कहा, “M.D.? क्या यह मीरा दत्ता ने पहले से भेजा होगा? शायद शेड्यूल्ड ईमेल?”

शेखर ने सिर हिलाया। “संभव है। उसने सब सोच-समझकर प्लान किया था। हमें वहाँ जाना होगा।”

 

रात को तीनों बंदरगाह पहुँचे। विशाल गोदाम नंबर 47 के चारों ओर पहरा था। अंदर से मशीनों की आवाज़ आ रही थी। शेखर ने खिड़की से झाँका—अंदर बड़े-बड़े पानी के टैंकर, पाइपलाइन के नक्शे और विदेशी एजेंट्स बैठे थे।

एक आदमी नक्शे पर इशारा कर रहा था। उसके चेहरे पर नकाब था, लेकिन आवाज़ गूँज रही थी—
“ब्लू वेव सिर्फ पानी का प्रोजेक्ट नहीं है। यह पूरा शहर खरीदने का सौदा है। अगले पाँच सालों में हर झुग्गी गायब होगी, और उनकी जगह हमारे टॉवर खड़े होंगे।”

शेखर ने देखा—बगल में कश्यप खड़ा था, हाथ बाँधे हुए।

 

अचानक खिड़की के पास जोर से आवाज़ हुई। गार्डों ने चौकन्ना होकर गोलियाँ चलानी शुरू कीं। शेखर, सनाया और सोमेन किसी तरह पीछे हटे, लेकिन अलार्म बज चुका था।

भागते-भागते सोमेन चिल्लाया, “सर, हमें सब रिकॉर्ड करना होगा, वरना यह भी बस कहानी रह जाएगी।”

सनाया ने जल्दी से कैमरा निकाला और खिड़की से पूरी मीटिंग रिकॉर्ड कर ली। पर जैसे ही वह बाहर निकली, एक गोली उसके कंधे को छूते हुए निकल गई। वह दर्द से चीख पड़ी, लेकिन कैमरा अब भी कसकर पकड़े रही।

शेखर ने उसे सहारा दिया। “हम यहाँ से निकलेंगे, अभी।”

 

सुबह अख़बारों में नई सुर्ख़ी थी—
गोदाम पर हमला करने वाले अज्ञात लोग पकड़े नहीं जा सके।”
पर असली सच्चाई किसी को नहीं मालूम थी।

सनाया का ज़ख्म गंभीर था। शेखर ने उसे सुरक्षित जगह छुपाया और कहा, “अब यह लड़ाई मेरे और सोमेन की है। तुम आराम करो।”

पर सनाया ने दृढ़ आवाज़ में कहा, “मीरा ने मुझे चुना था। मैं पीछे नहीं हटूँगी।”

 

उसी शाम शेखर को एक और गुमनाम संदेश मिला।
अगर ब्लू वेव को रोकना है, तो अगली मीटिंग में घुसना होगा। वह मीटिंग सिटी हॉल में होगी, मेयर की मौजूदगी में। वहाँ असली मास्टरमाइंड सामने आएगा।”

संदेश पढ़कर शेखर को समझ आया—यह खेल अब शहर की सबसे ऊँची कुर्सी तक पहुँच चुका है।

 

सिटी हॉल की रात। आलीशान हॉल में झूमर चमक रहे थे, नेता और कारोबारी हाथ मिला रहे थे। मीडिया को दूर रखा गया था।

शेखर और सोमेन भेष बदलकर भीतर पहुँचे।

मंच पर मेयर भाषण दे रहे थे—“कोलकाता का भविष्य ब्लू वेव प्रोजेक्ट है। यह हमें आधुनिक शहर बनाएगा।”

पीछे की ओर एक खास मेज़ पर कश्यप, रवि और विक्रम बैठे थे। और उनके बीच आया एक लंबा-चौड़ा आदमी—चेहरे पर दाढ़ी, आँखों में ठंडी चमक।

कश्यप ने उठकर उसे आदर से कुर्सी दी। “सर, यह सब आपके निर्देश पर ही संभव हुआ है।”

शेखर का दिल धड़क उठा। यही था असली मास्टरमाइंड।

सनाया ने फुसफुसाया, “यह कौन है?”

शेखर ने धीमे स्वर में कहा, “नाम अभी साफ़ नहीं… लेकिन यही ब्लू वेव का किंगपिन है।”

 

मीटिंग शुरू हुई। मास्टरमाइंड ने कहा, “आज से यह प्रोजेक्ट पूरी तरह मेरे नियंत्रण में होगा। पुलिस, नेता, कारोबारी—सबका हिस्सा तय है। और जो भी बीच में आया, उसका हाल मीरा दत्ता जैसा होगा।”

यह सुनकर शेखर की मुट्ठियाँ कस गईं।

तभी अचानक एक गार्ड ने उन्हें देख लिया। “कौन हो तुम?”

अराजकता मच गई। गोलियाँ चलीं, लोग चीखने लगे। शेखर ने सोमेन और सनाया को लेकर बाहर भागना शुरू किया।

पर भागते समय उसने मास्टरमाइंड का चेहरा कैमरे में कैद कर लिया।

 

बाहर निकलकर शेखर ने कहा, “अब हमें नाम पता करना होगा। यही असली खेल है।”

सनाया ने दर्द से कराहते हुए कहा, “मीरा का सपना सच होने वाला है। हमने उसके कातिल को देख लिया है।”

पर उसी समय कश्यप की आवाज़ पीछे से गूँजी—
“चौधरी! अब यह खेल खत्म!”

वह हाथ में बंदूक लिए खड़ा था। उसके साथ कई गार्ड थे।

शेखर ने साँस रोकी। यह निर्णायक क्षण था।

एपिसोड 8: निर्णायक टकराव

सिटी हॉल की सीढ़ियों पर रात की ठंडी हवा और गोलियों की गूँज एक साथ फैल रही थी। चारों तरफ अफरा-तफरी थी—नेता भाग रहे थे, गाड़ियाँ तेज़ी से निकल रही थीं। लेकिन उन सबके बीच, सीढ़ियों पर आमने-सामने खड़े थे इंस्पेक्टर शेखर चौधरी और इंस्पेक्टर कश्यप।

कश्यप की आँखों में नशा-सा था—सत्ता का नशा। हाथ में बंदूक, चेहरे पर ठंडी मुस्कान।
“बहुत दौड़ लिया चौधरी,” उसने कहा। “अब रास्ता बस एक ही है—या तो हमारे साथ, या मिट्टी के नीचे।”

शेखर ने धीरे से जवाब दिया, “तुम्हें लगता है कि सच को मिट्टी के नीचे दफना दोगे? मीरा की चीख आज भी गूँज रही है। और अब उसका वीडियो हर जगह पहुँच चुका है।”

कश्यप हँस पड़ा। “वीडियो? एडिट कर देंगे। फाइलें? गायब कर देंगे। गवाह? खत्म कर देंगे। यही तो ताकत है सत्ता की।”

 

सोमेन ने धीरे से फुसफुसाया, “सर, हमारे पास बस कुछ सेकंड हैं। अगर हम यहाँ से नहीं निकले, तो…”

लेकिन शेखर ने अपनी जगह से हिलना भी गवारा नहीं किया। वह कश्यप की आँखों में आँखें डालकर बोला,
“तुम्हारी ताकत यही है कि लोग डरते हैं। लेकिन आज डर तुम्हें घेर रहा है। देखो, भीड़ अब तुम्हारे खिलाफ है।”

वाकई, दूर खड़ी भीड़ चिल्ला रही थी—“भ्रष्टाचार बंद करो! मीरा को न्याय दो!”

कश्यप का चेहरा तन गया। उसने गुस्से में बंदूक उठाई। “चुप रहो चौधरी!”

 

उसी क्षण सनाया ने, अपने घायल कंधे के बावजूद, कैमरा उठाकर सीधे कश्यप की तरफ़ तान दिया।
“गोली चला लो,” उसने काँपती आवाज़ में कहा। “पर यह लाइव चल रहा है। लाखों लोग अभी तुम्हें देख रहे हैं।”

कश्यप चौंक गया। “लाइव?”

शेखर मुस्कुराया। “हाँ। यह कैमरा सिर्फ रिकॉर्ड नहीं कर रहा, स्ट्रीम कर रहा है। अब तुम्हारा चेहरा, तुम्हारी धमकी, तुम्हारी बंदूक—सब जनता देख रही है।”

 

भीड़ में अचानक हलचल मच गई। मोबाइल स्क्रीन पर कश्यप का चेहरा चमक रहा था। लोग चीखने लगे—“गिरफ्तार करो इसे! यही है गुनहगार!”

कश्यप के हाथ काँप गए। उसने गोली चलाने की कोशिश की, लेकिन सोमेन ने झपटकर उसका हाथ पकड़ लिया। दोनों में झड़प होने लगी। गोलियाँ हवा में चलीं, शीशे टूटे, अफरा-तफरी और बढ़ गई।

आख़िरकार शेखर ने जोरदार वार करके कश्यप को गिरा दिया। बंदूक उसके हाथ से छूट गई। भीड़ के गुस्साए लोग दौड़कर उसे घेरने लगे।

“अब तुम कानून से नहीं बच सकते,” शेखर ने कहा।

 

लेकिन असली खेल अभी बाकी था। उसी वक्त हॉल के भीतर से वह दाढ़ी वाला लंबा-चौड़ा आदमी बाहर आया—ब्लू वेव प्रोजेक्ट का मास्टरमाइंड।

उसकी आवाज़ गूँजी—“कश्यप तो बस प्यादा है। खेल अभी खत्म नहीं हुआ। असली राजा मैं हूँ। और मेरी जड़ें इतनी गहरी हैं कि कोई भी मुझे हिला नहीं सकता।”

लोग चौंक गए। शेखर ने पहली बार उसका चेहरा साफ़ देखा।

सनाया फुसफुसाई, “यह… यह तो मेयर का भाई है—मोहित रंजन, बिज़नेसमैन!”

भीड़ सन्न रह गई। मोहित रंजन, जिसे लोग समाजसेवी और दानवीर समझते थे, असल में पूरे रैकेट का सरगना निकला।

 

मोहित ने ऊँची आवाज़ में कहा, “तुम सब सोचते हो कि यह वीडियो तुम्हें बचा लेगा? मेरे पास पैसा है, ताक़त है, सत्ता है। यह शहर मेरी मुट्ठी में है। तुम सब मेरी शतरंज की गोटियाँ हो।”

शेखर ने जवाब दिया, “शहर गोटियाँ नहीं, लोग हैं। और लोग जाग चुके हैं। तुम्हारी सत्ता का खेल अब खत्म है।”

भीड़ ने नारे लगाने शुरू कर दिए—“मोहित रंजन को गिरफ्तार करो!”

 

मोहित ने अपने गार्ड्स को इशारा किया। गोलियाँ चलने लगीं। चीख-पुकार मच गई। लोग इधर-उधर भागने लगे।

शेखर ने सोमेन और सनाया को ढाल बनाकर भीड़ को सुरक्षित जगह पहुँचाया। खुद मोहित के सामने खड़ा हो गया।

“मोहित रंजन!” वह गरजा। “तुम्हें कानून के हवाले करना ही मीरा की आख़िरी इच्छा थी। आज वही पूरा होगा।”

 

मोहित ने हँसते हुए कहा, “कानून? चौधरी, कानून मैं हूँ।”

उसने पिस्तौल तान दी। पर तभी पीछे से एक हाथ आया और उसका निशाना हिल गया। यह सोमेन था, जिसने अपनी जान पर खेलकर वार किया।

गोलियाँ चलीं। अफरा-तफरी के बीच मोहित की बंदूक नीचे गिर गई।

शेखर ने मौका पाकर उसे धर दबोचा। भीड़ ने भी घेर लिया। गुस्से से लोग चिल्ला रहे थे—“न्याय! न्याय!”

 

रातभर का संघर्ष अंततः निर्णायक मोड़ पर पहुँच चुका था। कश्यप पुलिस की गिरफ़्त में था। रवि और विक्रम पहले ही पकड़े जा चुके थे। और अब मोहित रंजन भी बेनकाब हो गया था।

सनाया कैमरे के सामने खड़ी हुई। उसकी आँखों में आँसू थे, पर आवाज़ मज़बूत।
“यह जीत सिर्फ शेखर की नहीं है। यह जीत मीरा दत्ता की है। उसने अपनी जान देकर सच को उजागर किया। और आज पूरा शहर उसकी आवाज़ बन गया है।”

 

सुबह की पहली किरण के साथ अख़बारों की सुर्ख़ी बदली—
खामोश शहर का सच: ब्लू वेव घोटाला उजागर, मास्टरमाइंड गिरफ्तार।”

लोग जश्न मना रहे थे। कॉलेजों में पोस्टर बदले—मीरा दत्ता अमर रहे।”

पर शेखर शांत था। वह जानता था—यह जीत अस्थायी है। क्योंकि सत्ता के जाल गहरे होते हैं।

 

रात को गंगा किनारे वही मंदिर। शेखर ने मीरा की तस्वीर वहाँ रखी।
“मीरा, तुम्हारी चीख अब खामोश नहीं रही। यह शहर जाग गया है। लेकिन तुम्हारी लड़ाई यहीं खत्म नहीं होती। हर बार जब सत्ता भ्रष्ट होगी, यह शहर फिर चीखेगा। और कोई न कोई तुम्हारी तरह आवाज़ बनेगा।”

सनाया ने उसके कंधे पर हाथ रखा। “तुम्हारी लड़ाई अब मेरी भी है। हम रुकेंगे नहीं।”

शेखर ने धुंधली नदी की ओर देखा। लहरें मानो फुसफुसा रही थीं—खामोशी टूट चुकी है।

एपिसोड 9: अदालत का रण

सूरज उगते ही कोलकाता का माहौल बदल चुका था। पिछले रात का वीडियो हर मोबाइल स्क्रीन पर घूम रहा था। लोग अब जानते थे कि ब्लू वेव प्रोजेक्ट असल में एक साज़िश थी। मीरा दत्ता का नाम अब एक नारे की तरह गूँज रहा था—मीरा को न्याय दो!”

लेकिन सत्ता इतनी आसानी से टूटती नहीं। सुबह ही विधान सभा के गलियारों से खबर आई कि “मोहित रंजन निर्दोष है” और “वीडियो एडिट किया गया है।” दूसरी ओर जनता सड़क पर उतर आई थी। हर चौक, हर गली में प्रदर्शन हो रहा था।

 

शेखर चौधरी को आधिकारिक तौर पर अब भी निलंबित अफ़सर घोषित किया गया था। लेकिन उसके पास सबूत थे—वीडियो, फाइलें और गवाह।

वह अदालत पहुँचा। चारों तरफ मीडिया का हुजूम। पत्रकार चिल्ला रहे थे—
“इंस्पेक्टर चौधरी, क्या आप सच साबित कर पाएँगे?”
“क्या आपको डर नहीं लगता कि सिस्टम आपको कुचल देगा?”

शेखर ने बस इतना कहा—“मुझे डर तभी लगता जब मीरा की चीख न सुनाई देती। अब डर से बड़ा सच है।”

 

अदालत का माहौल तनावपूर्ण था। जज की कुर्सी पर गंभीरता पसरी हुई। सरकारी वकील ने पहला तर्क रखा—
“महोदय, प्रस्तुत वीडियो एडिटेड है। इसमें दिखाए गए दृश्य किसी भी तकनीकी सॉफ़्टवेयर से बनाए जा सकते हैं। हमारे पास विशेषज्ञों की रिपोर्ट है कि यह असली नहीं है।”

भीड़ में फुसफुसाहट फैल गई।

शेखर के वकील—एक बुज़ुर्ग और ईमानदार अधिवक्ता, अरुण मेहता—खड़े हुए।
“महोदय, तकनीक से वीडियो बदलना संभव है। लेकिन अगर यह एडिटेड होता, तो इतने सारे स्वतंत्र गवाह एक ही बयान क्यों देते? हमारे पास सिर्फ वीडियो ही नहीं, बैंक ट्रांज़ैक्शन की फाइलें हैं, नकली कंपनियों के रजिस्ट्रेशन पेपर हैं, और सबसे बड़ा—मीरा दत्ता की आख़िरी रिकॉर्डिंग।”

उन्होंने रिकॉर्डर अदालत के सामने चलाया। मीरा की काँपती आवाज़ गूँजी—
अगर यह टेप किसी को मिले, तो समझना कि मैं सच के बहुत करीब गई थी।”

अदालत में सन्नाटा छा गया।

 

मोहित रंजन की ओर से वकील ने तर्क दिया—
“महोदय, ये सब झूठ है। मेरे मुवक्किल एक समाजसेवी हैं। मीरा दत्ता को मानसिक बीमारी थी। उसने सबूत गढ़े थे।”

भीड़ से हूटिंग हुई। लेकिन जज ने चुप रहने का आदेश दिया।

शेखर उठा और गवाही देने लगा।
“महोदय, मैं पुलिस का अफ़सर हूँ। मैंने अपनी आँखों से फार्महाउस की मीटिंग देखी है। मैंने मोहित रंजन को कश्यप और अन्य लोगों के साथ डील करते देखा। अगर यह सब झूठ होता, तो मुझे नौकरी से हटाकर, मेरे खिलाफ़ फर्जी केस क्यों बनाए जाते? सच से डरते वही हैं जिनके हाथ खून से सने हैं।”

 

गवाही का दौर दिनों तक चला। मीडिया में हर दिन बहस होती। कुछ चैनल शेखर को “जनता का हीरो” कहते, तो कुछ उसे “फर्जी अफ़सर।”

इसी बीच एक और मोड़ आया। सोमेन ने अचानक अदालत में नया सबूत पेश किया—गोपाल सेन, जो अकाउंटेंट था और मरा समझा गया था, दरअसल बच गया था। उसे छिपाकर रखा गया था।

गोपाल अदालत में पेश हुआ। उसका चेहरा पीला था, आवाज़ काँप रही थी।
“मैंने सब देखा है। रवि भट्टाचार्य के अकाउंट से करोड़ों रुपये निकले। विक्रम घोष ने अपनी राजनीतिक शक्ति से प्रोजेक्ट पास कराया। और कश्यप तथा मोहित रंजन—दोनों हर मीटिंग में मौजूद थे। मीरा को इसलिए मारा गया क्योंकि उसने यह सब उजागर कर दिया था।”

पूरा कोर्ट गूँज उठा।

 

लेकिन सत्ता का शिकंजा और भी गहरा था। उसी रात गोपाल रहस्यमय ढंग से गायब हो गया। अख़बारों ने लिखा—“गोपाल भाग गया।” पर शेखर जानता था—उसे फिर से खामोश कर दिया गया।

सनाया ने गुस्से में कहा, “हर गवाह को मार दिया जाएगा। हमें अब जनता को ही गवाह बनाना होगा।”

शेखर ने सिर हिलाया। “सही कहा। जनता ही असली अदालत है।”

 

अगले दिन शेखर ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की। उसने कैमरे के सामने सीधे कहा—
“मोहित रंजन और उसके साथियों ने पूरे शहर को बेचने की कोशिश की। मीरा दत्ता ने अपनी जान देकर इसे उजागर किया। और अब हर नागरिक गवाह है। मैं आप सबसे अपील करता हूँ—डरना मत। सड़कों पर उतरो, आवाज़ बुलंद करो। यही न्याय की राह है।”

कॉन्फ्रेंस का असर हुआ। हजारों लोग सड़कों पर उतर आए। छात्रों ने मोर्चा निकाला, वकीलों ने काली पट्टी बाँधी, डॉक्टरों ने हड़ताल की। शहर ठप हो गया।

 

मोहित रंजन सत्ता के दम पर बचने की कोशिश कर रहा था। लेकिन उसके खिलाफ़ अब जन-आंदोलन खड़ा हो गया था।

अदालत के अगले दिन जब सुनवाई शुरू हुई, बाहर भीड़ ने नारे लगाए—
न्याय चाहिए!”
मीरा को इंसाफ़ दो!”

जज ने माहौल देखकर आदेश दिया—“यह मामला अब विशेष जांच दल (SIT) को सौंपा जाता है। और जब तक जांच पूरी न हो, मोहित रंजन और इंस्पेक्टर कश्यप न्यायिक हिरासत में रहेंगे।”

भीड़ तालियों से गूँज उठी।

 

शेखर ने चैन की सांस ली, पर उसे पता था—खेल अभी खत्म नहीं।

रात को उसे एक अनजान नंबर से कॉल आया।
आवाज़ आई—“चौधरी, तुमने हमें अदालत तक पहुँचा दिया। पर यह सिर्फ पहला दौर था। असली ताकत हमारे पीछे है—दिल्ली में, मंत्रालयों में। तुम्हें लगता है कि जीत गए? नहीं। असली युद्ध अब शुरू होगा।”

लाइन कट गई।

शेखर ने खिड़की से बाहर देखा। शहर सो रहा था, पर धुंध में वही पुरानी चीख़ गूँज रही थी।

 

सनाया ने धीरे से कहा, “अगर असली ताकत दिल्ली तक है, तो हमें वहीं तक जाना होगा। मीरा की लड़ाई को अब हमें पूरा करना है।”

शेखर ने सिर हिलाया। उसकी आँखों में जिद थी।
“हाँ, यह शहर अब खामोश नहीं रहेगा। लेकिन अगली जंग और भी बड़ी होगी। सत्ता की राजधानी तक।”

 

एपिसोड 10: आख़िरी गवाही

कोलकाता की ठंडी रातों के बाद अब सफ़र दिल्ली की गरम गलियों तक पहुँच चुका था। शेखर चौधरी जानता था—मीरा दत्ता का सच सिर्फ़ शहर के नेताओं और पुलिस तक सीमित नहीं था, इसकी जड़ें राजधानी तक फैली थीं। ब्लू वेव प्रोजेक्ट का असली मास्टरप्लान यहीं से बुना गया था।

नई दिल्ली के नॉर्थ ब्लॉक की इमारतें सफ़ेद धूप में चमक रही थीं। पर भीतर सत्ता की परछाइयाँ और गहरी थीं। हर मंत्रालय के दरवाज़े के पीछे लॉबी, बिज़नेसमैन और नेता अपने-अपने हिस्से के सौदे कर रहे थे।

 

शेखर, सनाया और सोमेन तीनों दिल्ली पहुँचे। उनके पास अब भी वह फाइलें थीं जिनमें मोहित रंजन और उसके साथियों की करतूतें दर्ज थीं। लेकिन उन्हें पता था—यहाँ उनके दुश्मन और ताक़तवर होंगे।

सनाया ने कहा, “यहाँ अगर हमने कोई गलती की तो हमें कोई नहीं बचा पाएगा।”

शेखर ने गंभीर स्वर में जवाब दिया, “हम गलती नहीं करेंगे। मीरा की गवाही अब हमारी साँस है। जब तक यह सच ज़िंदा है, हम हार नहीं सकते।”

 

पहला पड़ाव था—एक वरिष्ठ पत्रकार, राघव माथुर, जो दिल्ली में भ्रष्टाचार के खिलाफ़ अपनी लेखनी के लिए मशहूर था। राघव ने सबूत देखे और चौंक गया।

“यह सिर्फ़ कोलकाता का मामला नहीं है,” उसने कहा। “ब्लू वेव तो पूरे देश का प्रोजेक्ट है। सैकड़ों शहरों की झुग्गियाँ उजाड़कर पानी और ज़मीन कॉर्पोरेट को सौंपने का खेल। मीरा ने सिर्फ़ पहला परदा उठाया था।”

शेखर ने पूछा, “क्या आप इसे छापेंगे?”

राघव ने मुस्कुराकर कहा, “सच छापना मेरा धर्म है। लेकिन इसे रोकने की कोशिश ज़रूर होगी। तुम सबको तैयार रहना होगा।”

 

उसी रात होटल के कमरे में हमला हुआ। नकाबपोश लोग दरवाज़ा तोड़कर अंदर घुसे। गोलियों की बौछार हुई।

सोमेन ने टेबल पलटकर ढाल बनाई। शेखर ने जवाबी फायर किया। सनाया ने कैमरा संभालते हुए चिल्लाया—“सबूत बचाना है!”

कुछ मिनट की जंग के बाद नकाबपोश भाग निकले। लेकिन सोमेन गंभीर रूप से घायल हो गया।

वह ज़मीन पर गिरते हुए बोला, “सर… आप रुकना मत। मीरा का सच… जनता तक पहुँचना चाहिए।”

शेखर की आँखों में आँसू भर आए। उसने सोमेन का हाथ पकड़ा। “तुम्हारी कसम है, मैं पीछे नहीं हटूँगा।”

 

अगले दिन संसद के बाहर प्रदर्शन हुआ। छात्रों और पत्रकारों ने नारे लगाए—
ब्लू वेव बंद करो!”
मीरा दत्ता को न्याय दो!”

पुलिस ने भीड़ को तितर-बितर करने की कोशिश की, लेकिन सोशल मीडिया पर हर तस्वीर लाइव हो रही थी। अब पूरा देश इस आंदोलन को देख रहा था।

 

अदालत में अंतिम सुनवाई शुरू हुई। जज ने कहा,
“यह मामला अब राष्ट्रीय महत्व का है। हमें तय करना होगा कि सच किसके पक्ष में है।”

सरकारी वकील ने आख़िरी कोशिश की।
“महोदय, यह सबूत फर्जी हैं। ये लोग देशद्रोही हैं, जो विकास के खिलाफ़ काम कर रहे हैं।”

अरुण मेहता खड़े हुए। उनकी आवाज़ गूँज रही थी।
“महोदय, विकास वह नहीं जो लोगों का घर उजाड़े। विकास वह है जो हर नागरिक को इंसाफ़ दे। मीरा दत्ता ने अपनी जान देकर यह साबित किया। और अब हमारे पास सिर्फ़ काग़ज़ नहीं, जनता की आवाज़ है।”

उन्होंने स्क्रीन पर वीडियो चलाया—मीरा की रिकॉर्डिंग, फार्महाउस की मीटिंग, मोहित रंजन का चेहरा, कश्यप की धमकी।

पूरा अदालत कक्ष स्तब्ध हो गया।

 

जज ने कड़ा आदेश दिया—
“ब्लू वेव प्रोजेक्ट तत्काल रद्द किया जाता है। मोहित रंजन, रवि भट्टाचार्य, विक्रम घोष और इंस्पेक्टर कश्यप—सभी दोषी पाए गए। इन्हें उम्रकैद की सज़ा दी जाती है। और इस केस की निगरानी सुप्रीम कोर्ट द्वारा होगी।”

अदालत में तालियाँ गूँज उठीं। बाहर खड़ी भीड़ ने नारे लगाए—
न्याय मिल गया!”
मीरा अमर रहे!”

 

लेकिन शेखर जानता था—सत्ता की जड़ें इतनी आसानी से नहीं कटेंगी। वह सनाया से बोला,
“आज हमने एक लड़ाई जीती है। लेकिन यह जंग लंबी है। जब तक लोग खामोश रहेंगे, सत्ता ऐसे ही खेल खेलती रहेगी।”

सनाया ने मुस्कुराकर कहा, “तब तक हम भी लड़ते रहेंगे। मीरा की तरह। और हर बार कोई-न-कोई आवाज़ उठेगी।”

 

कुछ महीनों बाद कोलकाता लौटा। गंगा किनारे वही मंदिर। वहाँ अब एक छोटी पट्टिका लगी थी—
यहाँ मीरा दत्ता की आख़िरी चीख गूँजी थी। उसकी आवाज़ कभी खामोश नहीं होगी।”

शहर की गलियों में बच्चे खेल रहे थे, लोग खुलेआम सच की बातें कर रहे थे। डर कम हो चुका था।

शेखर ने नदी की लहरों को देखा। उसकी आँखों में सुकून था, पर दिल में नई जिद भी।

“खामोश शहर अब खामोश नहीं रहेगा,” उसने कहा। “अब हर चीख़ आवाज़ बनेगी।”

सनाया ने कैमरा उठाया और शेखर की तस्वीर खींची। “यह कहानी खत्म नहीं, शुरुआत है।”

गंगा की धुंध में जैसे मीरा की मुस्कान झलक गई।

समाप्त

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