आर्या वर्मा
स्टेशन की उस सुबह
सर्दी की हल्की चादर ओढ़े दिल्ली के हज़रत निज़ामुद्दीन स्टेशन पर सुबह-सुबह हलचल कुछ ज़्यादा थी। ट्रेन के हॉर्न, कुलियों की आवाज़, चायवाले की पुकार—सब कुछ रोज़ जैसा ही था। लेकिन उस दिन कुछ अलग भी था, कुछ ऐसा जो आरव की दुनिया बदलने वाला था।
आरव, एक चुपचाप रहने वाला लड़का, किताबों और कैमरों से दोस्ती करने वाला, पेशे से फोटोग्राफर था। उसे स्टेशन की भीड़ में कहानियाँ दिखती थीं—हर चेहरा, हर मुस्कान, हर विदाई में। वह उसी भीड़ को अपने कैमरे में कैद करने आया था। जब उसकी नज़र पहली बार उस पर पड़ी, वो कोई साधारण सुबह नहीं रह गई।
वो लड़की, पीले रंग की शॉल में लिपटी, एक पुरानी डायरी पकड़े हुए, स्टेशन की बेंच पर बैठी थी। उसके चेहरे पर कोई किताब पढ़ते वक़्त वाली गंभीरता थी, और उसकी आँखों में कुछ ढूँढने वाली बेचैनी। शायद कोई आने वाला था, शायद कोई कभी लौटा ही नहीं।
आरव के हाथ अपने आप ही कैमरे की तरफ़ बढ़े। उसने फ़्रेम सेट किया—लेकिन क्लिक नहीं किया। पहली बार, उसे लगा जैसे ये तस्वीर लेना कुछ गलत होगा। उस लड़की की उदासी में एक तरह की पवित्रता थी, जो कैमरे के लेंस से क़ैद नहीं की जा सकती थी।
आरव थोड़ा पास गया, नज़दीक बैठा और बस यूँ ही पूछ लिया, “किसका इंतज़ार है?”
लड़की ने चौंककर देखा। उसकी आँखों में अजनबियों से बात न करने की झिझक थी, लेकिन फिर उसने मुस्कराकर कहा, “शायद किसी का नहीं। कभी-कभी पुराने वक़्त से मिलने का मन करता है।”
“और वक़्त यहाँ आता है?” आरव ने मुस्कुरा कर पूछा।
“स्टेशन पे बहुत कुछ आता है—लोग, यादें, कहानियाँ। कौन जाने वक़्त भी किसी ट्रेन से उतर जाए।” लड़की की आवाज़ में एक अजीब सी मिठास थी—धीमी, लेकिन गहराई लिए।
उसका नाम था काव्या।
आरव और काव्या की वो पहली मुलाक़ात स्टेशन पर, वक़्त के इंतज़ार में, बिना किसी वक़्त तय किए, कुछ ऐसी थी जैसे कोई भूली हुई धुन अचानक कानों में गूंज जाए।
“क्या तुम यहाँ अक्सर आती हो?” आरव ने पूछा।
“हाँ… जब भी बहुत कुछ कहने का मन हो, और कोई सुनने वाला न हो।” वो फिर से अपनी डायरी की तरफ़ देखने लगी।
“और क्या वो डायरी सुन लेती है सब?”
काव्या ने मुस्कराकर कहा, “हाँ। कभी-कभी ये डायरी ही सबसे अच्छा दोस्त होती है।”
आरव ने पहली बार महसूस किया कि उसकी तस्वीरें जितनी भी खूबसूरत हों, काव्या की बातों में एक अलग ही तरह की कहानी थी। बिना कैमरे, बिना फ्रेम के—सीधी दिल से।
काव्या ने डायरी का एक पन्ना फाड़ा, कुछ लिखा और उसे आरव की ओर बढ़ा दिया। “अगर तुम्हें तस्वीरों से कहानियाँ बनानी आती हैं, तो शायद मेरी कहानी भी समझ सकोगे।”
आरव ने पन्ना लिया, और उसके चेहरे को देखा—उसमें कोई रोमांच नहीं था, कोई चौंकना नहीं, बस एक साधारण आग्रह था, जैसे किसी ने चुपचाप कह दिया हो—“मुझे समझो।”
ट्रेन की आवाज़ फिर से तेज़ हुई, प्लेटफार्म नंबर तीन से कोई गाड़ी रवाना हो रही थी। भीड़ में हलचल हुई, लेकिन आरव और काव्या की दुनिया उसी बेंच पर ठहरी रही।
“अब चलना चाहिए,” काव्या ने कहा। “मिलेंगे शायद… फिर कभी।”
“कहाँ?”
“किसी कहानी के मोड़ पर।”
वो उठी, और स्टेशन की भीड़ में खो गई, जैसे आई ही न हो।
आरव वहीं बैठा रहा, हाथ में वो फटा पन्ना, दिल में एक अजीब सी हलचल। उस दिन उसने एक भी तस्वीर नहीं ली। लेकिन उसके पास एक कहानी थी—किसी की अधूरी डायरी से निकली, किसी स्टेशन की सुबह से शुरू हुई।
और आरव को लगा, शायद… यही उसकी सबसे खूबसूरत तस्वीर होगी।
बारिश के उस मोड़ पर
तीन हफ़्ते बीत गए उस सुबह को। लेकिन आरव की ज़िन्दगी में वो एक मुलाक़ात अब तक रुकी हुई थी, जैसे समय वहीं किसी स्टेशन पर थम गया हो। काव्या की लिखी पंक्तियाँ वो बार-बार पढ़ता था — एक काग़ज़ के टुकड़े पर बस यही लिखा था:
“कुछ मुलाक़ातें तस्वीर नहीं बनतीं, क्योंकि वो यादों से नहीं, एहसासों से जुड़ी होती हैं।”
— काव्या
वो पंक्तियाँ जैसे उसके दिमाग़ में गूंजती रहती थीं। आरव रोज़ वही स्टेशन जाता, उसी बेंच पर बैठता, और उसका इंतज़ार करता — बग़ैर ये जाने कि वो लौटेगी भी या नहीं। शायद उसके भीतर कोई ख़ाली जगह बन गई थी, जो काव्या की चुप्पी से भरती जा रही थी।
एक दिन, दिल्ली की बारिश यूँ ही अचानक आ गई — बिना किसी चेतावनी के। शहर के कोने भीग रहे थे, और लोग शरण ढूंढते फिर रहे थे। आरव, जो उस दिन कैमरा लेकर इंडिया गेट के पास था, बारिश से बचने के लिए एक पुरानी किताबों की दुकान में घुस गया। दुकान तंग थी, लकड़ी की पुरानी शेल्फ़ों से भरी हुई, और उसके भीतर एक तरह की पुरानी दुनिया की महक थी।
भीतर घुसते ही उसकी नज़र सामने पड़ी — वही पीली शॉल, वही शांत चेहरा, वही काव्या।
वो खड़ी थी ‘सफ़रनामा’ सेक्शन के पास, एक किताब हाथ में लिए। उसे देखते ही जैसे कुछ ठहर गया।
“इतनी बारिश में भी किताबों की तलाश?” आरव ने मुस्कराते हुए पूछा।
काव्या ने पलटकर देखा। उसकी आँखों में वो ही गहराई थी, जैसे हर उत्तर से पहले एक सवाल छुपा हो।
“कुछ कहानियाँ बारिश में ही मिलती हैं,” उसने धीरे से कहा। “और कुछ… भीगे पन्नों में बस जाती हैं।”
“मैं तुम्हें ढूंढ रहा था,” आरव ने पहली बार अपनी बेचैनी ज़ाहिर की।
“और मैंने तुम्हें छोड़ा ही कब था?” काव्या की मुस्कान में एक सच्चाई थी, जो शब्दों से ज़्यादा कुछ कह रही थी।
किताबों की उस छोटी सी दुकान में, बारिश की टपकती आवाज़ों के बीच, दोनों चुपचाप खड़े रहे। बाहर बारिश अपना संगीत बजा रही थी, और भीतर एक नज़रों की भाषा चल रही थी।
काव्या ने एक किताब बढ़ाई — “Rain in the Mountains” — और कहा, “इसमें बारिश की कहानियाँ हैं। पढ़ो। शायद मेरी कुछ बातें इसमें मिल जाएँ।”
“क्या तुम हर बार कुछ देके जाती हो?” आरव ने मुस्कराकर पूछा।
“नहीं,” काव्या बोली, “कभी-कभी खुद को थोड़ा छोड़ जाती हूँ।”
बारिश थोड़ी और तेज़ हुई। दुकान के कोने में एक पुरानी लकड़ी की बेंच थी। दोनों वहाँ बैठ गए। बाहर की दुनिया जैसे अब कोई मायने नहीं रखती थी। आरव ने काव्या से पूछा, “तुम इतनी ख़ामोश क्यों रहती हो?”
काव्या ने खिड़की के बाहर देखा, फिर धीमे से बोली, “क्योंकि मेरी कहानियाँ शब्दों से नहीं निकलतीं। वो पलकों से बहती हैं, साँसों में उलझती हैं। अगर मैं बोलने लगूँ, तो शायद वो सब कुछ टूट जाएगा।”
आरव ने पहली बार उसकी आँखों में देखना चाहा, और पाया कि वहाँ एक समंदर है — शांत, लेकिन गहरा। और शायद दर्द से भरा हुआ।
“क्या तुम अकेली हो?” उसने पूछ ही लिया।
काव्या ने एक लंबा साँस लिया। “अकेली नहीं… लेकिन समझी नहीं गई।”
आरव को लगा, जैसे किसी ने उसके दिल की बात कह दी हो। वो भी तो वैसा ही था — तस्वीरें लेता रहा, लेकिन कभी किसी को दिखा नहीं सका कि वो तस्वीरों के पीछे क्या महसूस करता है।
वो बेंच पर बैठे-बैठे एक वादा कर बैठे — बिना कहे, बिना किसी शर्त के। कि चाहे काव्या लौटे या न लौटे, उसका इंतज़ार वो यूँ ही करता रहेगा।
काव्या उठी, किताब उसके हाथ में थी। उसने किताब खोली, एक पेज मोड़ा और उसमें कुछ लिखा।
“इसे जब पढ़ो, तो सोचना कि क्या बारिश कभी लौटती है।”
“क्या लौटती है?”
“बारिश नहीं… लोग।” इतना कहकर वो बाहर निकल गई — बारिश में, शॉल उड़ती हुई, जैसे कोई कविता शहर की सड़कों पर चल रही हो।
आरव वहीं बैठा रहा, उस किताब को पकड़े हुए। उसने उस मोड़े हुए पन्ने को खोला — वहाँ लिखा था:
“कुछ लोग बारिश जैसे होते हैं — आते हैं, भीगा जाते हैं, और फिर तुम्हारे भीतर हमेशा के लिए ठहर जाते हैं।”
— काव्या
खामोशी की चिट्ठियाँ
आरव ने उस किताब को अपने तकिये के नीचे रख लिया था—उस पन्ने को खोलकर बार-बार पढ़ता, जैसे हर बार उसमें कुछ नया निकल आता हो। काव्या की लिखावट सीधी दिल तक पहुँचती थी। अब वो हर दिन एक चिट्ठी लिखता, पर उसे भेजता नहीं। जैसे उसके भीतर कुछ टूट रहा था, और शब्दों में उसे जोड़ने की कोशिश कर रहा था।
“प्रिय काव्या,”
“तुम्हें देखा तो लगा कि शायद कुछ अधूरी चीजें भी खूबसूरत हो सकती हैं। स्टेशन पर तुम्हारा अकेला बैठना, बारिश में तुम्हारा भीगते हुए मुस्कुराना—ये सब कोई फ़िल्मी सीन नहीं था, ये सच्चाई थी, और मैं उसमें कहीं गुम हो गया।”
हर रात वो ऐसी ही चिट्ठियाँ लिखता—कुछ तीन लाइन की, कुछ तीन पन्नों की। कभी डायरी के पन्नों पर, कभी कैमरे के बैककवर पर, कभी पुराने टिकटों के पीछे। उन चिट्ठियों में सवाल भी थे, यादें भी, और उम्मीदें भी। मगर काव्या कहीं नहीं थी।
एक शाम आरव दिल्ली की पुरानी गलियों में घूम रहा था—चावड़ी बाज़ार, लाल किताबों की दुकानों, सस्ते चाय के खोखे, और जर्जर इमारतों के बीच। वहाँ एक पुराना पोस्ट बॉक्स दिखा—लाल रंग का, जंग खाया हुआ, लेकिन अभी भी खड़ा था। उसने सोचा, काश इस पोस्ट बॉक्स को चिट्ठियाँ पढ़नी आतीं।
वो वहीं बैठ गया, एक और चिट्ठी निकाली और ज़ोर से पढ़ी:
“काव्या,
अगर तुम्हें चुप रहना पसंद है, तो मैं तुम्हारी खामोशियों की भाषा सीख लूंगा। अगर तुम कभी वापस नहीं आओगी, तो मैं वहीं खड़ा रहूंगा जहाँ हम मिले थे, क्योंकि कुछ इंतज़ार सिर्फ किसी को पाने के लिए नहीं होते, कुछ इंतज़ार इसलिए होते हैं कि दिल को यक़ीन बना रहे कि वो मुलाक़ात सच थी।”
वो चिट्ठी वहीं पोस्ट बॉक्स के ऊपर रख दी। जैसे कोई पुकार आकाश में छोड़ दी हो।
उसी रात उसे एक अनजान नंबर से मैसेज आया। सिर्फ दो शब्द:
“स्टेशन आओ।”
आरव का दिल ज़ोर से धड़कने लगा। बिना कुछ पूछे, बिना सोचे, वो रात के दस बजे ही हज़रत निज़ामुद्दीन स्टेशन की ओर भागा। वहाँ भीड़ कम थी, ठंडी हवा बह रही थी, और प्लेटफार्म नंबर ४ की बेंच पर… वो बैठी थी।
काव्या।
पीली शॉल नहीं थी। आज वो सफ़ेद सलवार सूट में थी, बाल खुले, आँखें थकी हुई लेकिन मुस्कराहट वही। जैसे कोई सपना जो लंबे नींद के बाद फिर से सामने आया हो।
“तुम्हें कैसे पता चला कि मैं पोस्ट बॉक्स के पास था?” आरव ने धीरे से पूछा।
“मैंने कभी जाना ही नहीं तुम्हारी ज़िंदगी से। बस शब्दों से दूर थी। मैं तुम्हारी चिट्ठियाँ पढ़ती रही हूँ। तुम पोस्ट नहीं करते थे, लेकिन तुमने जहाँ-जहाँ वो छोड़ी, मैं वहाँ-वहाँ से उठाती रही।”
आरव अवाक्। “तुम… कैसे?”
“कभी कैमरे की दुकान पर, कभी किताबों के बीच, कभी स्टेशन की बेंच पर—तुमने जहाँ दिल छोड़ा, मैं वहाँ पहुँची। आरव, तुमने मुझे शब्दों में सहेज लिया।”
वो कुछ कह नहीं पाया। सिर्फ उसकी आँखें भर आईं।
काव्या ने अपनी पुरानी डायरी निकाली, और उसका आख़िरी पन्ना खोला। वहाँ लिखा था:
“अगर कभी कोई ऐसा मिले, जो तुम्हारे ख़ामोश सवालों को पढ़ ले, तो उसे जाने मत देना।”
— काव्या
आरव ने धीरे से उसका हाथ थाम लिया।
“तो अब क्या हम एक नई डायरी शुरू करें?” उसने पूछा।
काव्या की आँखों में चमक आ गई। “हाँ, लेकिन इस बार दोनों मिलकर लिखेंगे।”
स्टेशन की रात धीमी थी, ट्रेनों की आवाज़ें कम हो चुकी थीं। लेकिन दो दिलों की खामोशियों में अब शब्द बसने लगे थे।
पुरानी गलियों का संगीत
दिल्ली की वो गलियाँ जिन्हें सब पुरानी कहते हैं—चावड़ी बाज़ार, दरियागंज, बॉलरूम वाली गलियाँ—अब आरव और काव्या के लिए नई हो गई थीं। क्योंकि अब वो साथ थे। और जब दो लोग साथ होते हैं, तो शहर की हर आवाज़ में कोई धुन बजती है।
एक रविवार की सुबह आरव ने काव्या को कहा, “आज मैं तुम्हें एक जगह ले चलूँगा, जहाँ शब्दों की ज़रूरत नहीं पड़ती।”
“और वहाँ जाने का रास्ता क्या है?”
“बस थोड़ा वक्त और थोड़ा साथ।”
वे पुरानी दिल्ली की गलियों में जा पहुँचे। आरव के कैमरे की स्ट्रैप अब उसकी कलाई पर ढीली लटकती थी, क्योंकि अब वो फ्रेम ढूंढता नहीं, जीता था। और काव्या—उसकी आँखों में एक नई चमक थी। शायद इस बार डायरी से बाहर जी रही थी।
वो एक छोटी सी गली में गए जहाँ पुराने संगीत के रिकॉर्ड मिलते थे। चारदीवारी पे चिपके रंग-बिरंगे पोस्टर, हेमंत कुमार और लता मंगेशकर की मुस्कुराहटें, और भीतर एक बूढ़ा दुकानदार जिसकी आँखें हर सुर को पहचानती थीं।
काव्या ने एक पुराना रिकॉर्ड उठाया—”अब के सावन में जी डर लगता है”।
“ये तुम्हें क्यों पसंद है?” आरव ने पूछा।
“क्योंकि इसमें सावन सिर्फ मौसम नहीं है, एक एहसास है। और डर… डर तो हर प्यार में होता है ना?”
आरव चुप हो गया। शायद डर उसे भी था। कि ये सब एक सपना न हो, कि एक दिन फिर स्टेशन की भीड़ में काव्या गुम न हो जाए।
उसी दुकान के कोने में एक पुराना ग्रामोफोन पड़ा था। दुकानदार ने मुस्कुराकर कहा, “चलाइए इसे, सुरों को थोड़ी हवा भी मिल जाए।”
काव्या ने हौले से सुई चढ़ाई और आवाज़ आई—खुरदरी, लेकिन भावुक। कमरे में पुराने ज़माने की गंध घुल गई। दोनों चुपचाप बैठ गए, जैसे कोई गाना नहीं, कोई याद बज रही हो।
गाने के बीच में आरव ने धीरे से कहा, “कभी-कभी मुझे लगता है, तुम असली नहीं हो। एक कहानी हो, जो स्टेशन की बेंच पर लिखी गई थी।”
काव्या ने जवाब नहीं दिया। बस उसके हाथ में रखा पुराना पोस्टकार्ड आरव की तरफ़ बढ़ा दिया।
“ये क्या है?”
“हमारी पहली तस्वीर।”
आरव ने देखा, उस पर हाथ से बनी एक छोटी सी स्केच थी—दो लोग एक बेंच पर बैठे हुए, एक डायरी, एक कैमरा, और ऊपर बारिश की बूंदें।
“ये तुमने बनाई?”
“हाँ। तस्वीरें तुम्हारे कैमरे में बसती हैं, और मेरे ख्यालों में।” उसने शरारत से कहा।
दुकानदार ने बीच में टोका, “साहब, प्यार में कुछ खरीदना भी पड़ता है।”
आरव ने हँसते हुए वो रिकॉर्ड खरीद लिया, और साथ में एक खाली पोस्टकार्ड भी।
“अब इस पर तुम कुछ लिखोगी?” उसने पूछा।
“नहीं,” काव्या बोली, “इस बार तुम्हारी बारी है।”
वो पुरानी गली से बाहर निकले, और आसमान में धूप की किरणों से शहर चमक रहा था। दिल्ली अब वैसी नहीं रही थी। हर मोड़, हर आवाज़, हर दुकान अब किसी याद से जुड़ गई थी।
चलते-चलते काव्या ने पूछा, “अगर ये सब बस एक फ़ेज़ हो, और हम फिर अपनी-अपनी ज़िंदगी में लौट जाएँ तो?”
आरव रुका, उसका हाथ थामकर बोला, “तब भी मैं इन गलियों में लौटूंगा, इस संगीत को सुनूंगा, और तुम्हें हर बार इन खामोश धुनों में ढूंढूंगा।”
काव्या ने कुछ नहीं कहा। बस उसकी आँखें नम हो गईं, लेकिन होंठों पर मुस्कान थी—एक स्वीकार की हुई, जैसे कोई अंत न सही, पर शुरुआत ज़रूर हो।
वो दोनों उस दिन बहुत कुछ खरीद कर नहीं लौटे—बस एक पुराना रिकॉर्ड, एक स्केच, और कुछ धुनें जो अब उनकी दुनिया का हिस्सा थीं।
और जब शाम ढली, तो काव्या ने एक आख़िरी बार मुड़कर देखा—पुरानी गली की तरफ़, और बुदबुदाई,
“कुछ शहर सिर्फ देखे नहीं जाते… महसूस किए जाते हैं।”
चाय के प्याले में धड़कनें
शामें अब देर तक ठहरने लगी थीं। दिल्ली की ठंडी हवा जब खिड़कियों से अंदर आती, तो आरव और काव्या एक ही रजाई में बैठे, किसी पुराने गाने पर बहस करते—कौन सा बेहतर था: “रात अकेली है” या “हज़ार राहें मुड़ के देखें”? बहस कभी ख़त्म नहीं होती, लेकिन हर बहस के बाद चाय का एक प्याला ज़रूरी था।
आरव के घर की बालकनी में दो कुर्सियाँ थीं—एक पुरानी, जिसकी बाँह पर हल्की सी दरार थी, और दूसरी नई, जिसे उसने काव्या के लिए ख़रीदा था। वो जानता था, काव्या उस दरार वाली कुर्सी को ही पसंद करेगी। और वैसा ही हुआ।
“नई चीज़ें असहज करती हैं,” काव्या ने कहा था। “दरारें जब तक गिरती नहीं, वो भरोसे वाली होती हैं।”
उस शाम वो दोनों वहीं बैठे थे। हवा हल्की थी, और सामने से आती चायवाले की आवाज़ में एक मोहब्बत की गर्मी थी। आरव ने बालकनी में एक छोटा-सा स्टोव लगाया, और वहीं चाय उबालने लगा। अदरक की खुशबू जैसे उनकी बातों में घुलने लगी।
“तुम्हें पता है,” आरव ने चाय हिलाते हुए कहा, “चाय और प्यार में बहुत कुछ एक जैसा है।”
“जैसे?”
“जैसे दोनों धीरे-धीरे पकते हैं। अगर जल्दीबाज़ी करो, तो स्वाद चला जाता है।”
काव्या हँस पड़ी। “तो तुम क्या हो? दूध ज़्यादा या पत्ती ज़्यादा?”
“मैं वो पानी हूँ, जो चुपचाप उबालता रहता है। तुम्हें गर्माहट देने के लिए।”
ये सुनकर काव्या कुछ पल चुप रही। उसके चेहरे पर वही पुरानी मुस्कान थी, लेकिन आँखें गहरी हो चली थीं। उसने चाय का प्याला थामा और हल्के से पूछा, “अगर एक दिन मैं बिना बताए चली जाऊँ तो?”
आरव ने चाय छानते हुए कहा, “तो मैं वही स्टोव पर चाय बनाता रहूँगा। तुम्हारे लौटने तक।”
“हर कोई इतना नहीं ठहरता,” वो बोली।
“हर किसी के आने का इंतज़ार हर किसी के लिए नहीं होता,” आरव ने जवाब दिया। “मैं ठहरा रहूँगा, क्योंकि मैं जानता हूँ, तुम लौटोगी। हो सकता है अगले रविवार, या अगले साल, या सिर्फ़ एक ख़्याल बनकर—but लौटोगी ज़रूर।”
वो दोनों चाय की चुस्की लेते रहे। हर चुस्की में कोई अनकहा सवाल, कोई अधूरा जवाब।
काव्या ने चुपचाप अपने बैग से डायरी निकाली। उसने एक कोना मोड़ा और कहा, “यहाँ तुम्हारे लिए एक पेज खाली है। जब भी चाहो, इसमें कुछ लिख देना। लेकिन शर्त ये है कि मैं उसे पढ़ूँगी नहीं। मैं सिर्फ़ जानूंगी, तुमने लिखा था।”
आरव ने डायरी हाथ में ली। पन्ना खाली था, लेकिन जैसे उसमें पहले से ही कुछ दर्ज हो चुका था—वो शाम, वो हवा, वो चाय की भाप, और वो नज़रे।
तभी अचानक बिजली चली गई। पूरा कमरा अँधेरे में डूब गया। लेकिन काव्या की हँसी ने उसे रौशनी से भर दिया।
“तो क्या अब तुम्हारी चाय की तसवीर भी नहीं खींच पाओगे?”
“नहीं,” आरव ने कहा, “क्योंकि ये जो शाम है, वो किसी कैमरे में नहीं कैद हो सकती। इसे बस जिया जा सकता है।”
उसने टेबल पर रखा अपना कैमरा बंद कर दिया। और पहली बार, बिना तस्वीर के, उस पल को आँखों में समेट लिया।
बिजली लौटी, लेकिन कमरे में जो रौशनी थी, वो उनकी बातों की थी। बाहर बारिश की हल्की बूँदें गिरने लगी थीं। और बालकनी के कोने से वो चाय की भाप अब बादलों सी लगने लगी थी।
आरव ने डायरी का वो खाली पन्ना खोला, और उसमें बस इतना लिखा—
“तुम्हारे साथ बिताए पलों की चाय में शक्कर नहीं डालता, क्योंकि तुम्हारी मौजूदगी ही मिठास है।”
लौटती धूप, खोई हुई रातें
जनवरी की सर्दियाँ धीरे-धीरे ढल रही थीं, और दिल्ली की सड़कों पर धूप लौटने लगी थी। वो धूप जो खिड़कियों के पर्दों से झाँकती थी, किताबों के पन्नों पर फैलती थी, और कभी-कभी किसी के चेहरे पर ठहर जाती थी।
काव्या अब आरव के साथ ज़्यादा समय बिताने लगी थी, लेकिन उसके भीतर जैसे कोई मौसम था, जो कभी गर्म था, कभी सर्द। वो दिन भर हँसती, बातें करती, लेकिन रात के वक़्त चुपचाप किसी एक कोने में खो जाती। आरव समझता था—उसके पास कहने को बहुत कुछ था, पर कहने की इजाज़त शायद खुद से नहीं थी।
एक रात, जब दोनों इंडिया गेट के पास टहल रहे थे, चारों तरफ़ पीली रोशनी में शहर किसी पुराने ख्वाब जैसा लग रहा था। काव्या ने अचानक कहा, “तुमने कभी किसी को खोया है?”
आरव थोड़ी देर चुप रहा। फिर बोला, “मैंने अपनी माँ को खोया था जब मैं तेरह साल का था। उसके बाद से कोई भी बिछड़ना मुझे अंदर तक तोड़ता नहीं… बस थोड़ा खाली कर देता है।”
काव्या ने उसकी उंगलियाँ थाम लीं। “खालीपन कभी-कभी बहुत भारी होता है, ना?”
“हाँ,” आरव ने धीमे से कहा, “और अगर कोई उस खालीपन को समझ सके, तो शायद वो भरने की ज़रूरत भी नहीं होती।”
काव्या चुप रही। फिर कुछ देर बाद बोली, “मेरे पापा… वो अचानक चले गए थे। हार्ट अटैक आया था। और मैं उस वक़्त अपने कॉलेज के प्रोजेक्ट में बिज़ी थी। कॉल मिस कर दिया। जब पहुँची, तब तक बहुत देर हो चुकी थी।”
आरव ने उसका हाथ और कसकर पकड़ लिया।
“मैं तब से ही डायरी लिखने लगी,” काव्या बोली। “क्योंकि बात करने वाला चला गया था।”
उस रात उनकी बातचीत में धूप नहीं थी। बस कुछ खोई हुई रातों की परछाइयाँ थीं। लेकिन वो परछाइयाँ डरावनी नहीं थीं—वो सच्ची थीं, और सच्चाई से रिश्ता सबसे मज़बूत होता है।
आरव ने उस रात पहली बार काव्या को अपने कमरे में नहीं छोड़ा। वो उसके साथ बैठा रहा, जब तक उसकी आँखें थक कर बंद नहीं हो गईं। और सुबह जब धूप आई, तो दोनों की आँखों पर झिलमिल रौशनी पड़ी—एक नई सुबह का वादा करते हुए।
अगले दिन, आरव ने बालकनी में एक छोटा सा गमला रखा। उसमें सूरजमुखी का बीज डाला।
“ये क्या है?” काव्या ने पूछा।
“हमारी धूप। अब से हम इसे हर दिन देखेंगे—कैसे ये बढ़ेगा, कैसे फूल बनेगा। और जब ये खिलेगा, हम जानेंगे कि हमने किसी चीज़ को साथ में उगाया है।”
काव्या ने मुस्कराकर कहा, “अगर ये मुरझा जाए तो?”
“तो फिर नया बीज बोएँगे। पर छोड़ेंगे नहीं।”
धूप अब ज़्यादा देर तक रुकने लगी थी। लेकिन काव्या की आँखों में अब भी कोई धुँधलापन था—जैसे वो किसी अनकहे डर से लड़ रही हो।
एक शाम वो अचानक बोली, “अगर मैं एक दिन बिना बताए चली जाऊँ तो तुम क्या करोगे?”
आरव ने उसकी आँखों में देखा और कहा, “तुम जो छोड़ जाओगी, उसे मैं सम्हाल लूँगा। और जो अधूरा रह जाएगा, उसे मैं अपनी कहानी में पूरा करूँगा।”
काव्या ने जवाब नहीं दिया। लेकिन उस रात उसने पहली बार आरव के बगल में रहकर चैन से नींद ली। और आरव को लगा, जैसे कोई टूटा हुआ सितारा फिर से आकाश में चमकने लगा हो।
उस स्टेशन की आख़िरी बारिश
दिल्ली की गर्मियाँ दस्तक देने लगी थीं, लेकिन उस दिन अचानक मौसम बदल गया। दोपहर से ही आसमान में बादल घिर आए थे। आरव खिड़की के पास बैठा अपने कैमरे की लेंस साफ कर रहा था, जब उसका फोन वाइब्रेट हुआ। एक छोटा-सा मैसेज:
“आज शाम स्टेशन आओ। अकेले।”
— काव्या
आरव की उंगलियाँ ठिठक गईं। बहुत दिन हो गए थे उस स्टेशन की बेंच पर गए। वो जगह अब जैसे एक बीती हुई जिंदगी का प्रतीक बन गई थी। लेकिन काव्या ने बुलाया था, तो जाना तो था। वो बस एक शब्द पर भरोसा करता था—“लौटना।” और शायद आज कुछ लौटने वाला था, या कुछ हमेशा के लिए विदा लेने वाला।
शाम ढली, बारिश शुरू हो चुकी थी। हल्की-हल्की बूँदें, जो खामोश ज़मीन पर गिरकर जैसे कहानियाँ लिख रही थीं। हज़रत निज़ामुद्दीन स्टेशन, वही पुराना शोर, वही चायवाले की पुकार, वही भीड़—पर सब कुछ अब किसी पुराने फ्रेम की तरह लग रहा था।
प्लेटफ़ॉर्म नंबर ३ की वही बेंच, और उस पर बैठी काव्या—इस बार सफेद कुर्ते में, बाल खुले हुए, गोद में उसकी वही पुरानी डायरी। लेकिन उसका चेहरा शांत नहीं था, कुछ कहने को बेचैन था।
आरव पास गया, कुछ बोले बिना बैठ गया। काव्या ने उसे देखा नहीं। बस सामने देखती रही—जैसे किसी ट्रेन का इंतज़ार हो।
“काव्या,” उसने धीरे से कहा।
“जानते हो, आरव,” काव्या ने आँखें झपकाए बिना कहा, “हर स्टेशन एक आख़िरी विदा की जगह भी होता है।”
“क्या तुम जा रही हो?” आरव ने जैसे पहले से अंदेशा होने पर भी पूछ लिया।
“हाँ।” उसका जवाब हवा से भी धीमा था, लेकिन असर उस तूफान जैसा।
“क्यों?” उसकी आवाज़ काँपी।
काव्या ने डायरी खोली, और उसमें से एक पन्ना निकाला। “इसमें सब लिखा है। लेकिन मत पढ़ना जब तक मैं दूर न हो जाऊँ।”
“मैं पढ़ना नहीं चाहता,” आरव बोला। “मैं बस जानना चाहता हूँ, क्यों?”
काव्या की आँखों से दो बूँदें गिरीं—धीरे, जैसे बारिश के साथ खुद को मिलाने आई हों।
“कभी-कभी प्यार किसी के साथ रहना नहीं होता, बल्कि उन्हें आज़ाद करने में होता है। तुम्हारे पास एक पूरी दुनिया है—कहानियाँ, तस्वीरें, सुबहें। और मेरे पास… बस कुछ अधूरी रातें हैं, और बहुत सारे डर।”
आरव ने उसका हाथ पकड़ना चाहा, लेकिन उसने धीरे से हटा लिया।
“मत रोको मुझे, आरव। अगर तुमने रोका, तो मैं कभी जा नहीं पाऊँगी… और रह नहीं पाऊँगी।”
एक ट्रेन की सीटी बजी। वो ट्रेन नहीं थी जिसकी वो राह देख रही थी, लेकिन आरव के भीतर कुछ टूटने की आवाज़ ज़रूर थी।
काव्या उठी। डायरी उसके हाथ में थी, लेकिन उसने एक पन्ना फाड़ा और आरव को दिया।
“ये आख़िरी चिट्ठी है। शायद तुम्हारे कैमरे की सबसे अधूरी तस्वीर।”
वो मुड़ी, दो क़दम चली, और फिर पलटी।
“मुझे ढूंढना मत। अगर हमारी कहानी सच्ची है, तो किसी स्टेशन पर फिर मिलेंगे—किसी और मौसम में, किसी और नाम से।”
और वो भीड़ में खो गई—जैसे आई थी, वैसे ही।
बारिश अब तेज हो चुकी थी। आरव वहीं बैठा रहा, डायरी का वो पन्ना हाथ में, दिल में एक ऐसा खालीपन, जो तस्वीरों में भरने से भी नहीं भरता।
उसने पन्ना खोला। सिर्फ एक पंक्ति लिखी थी:
“जब भी बारिश हो, समझ लेना मैं पास हूँ।”
— काव्या
एक कप चाय, और तुम्हारा नाम
वक़्त गुज़र गया।
मौसम बदले, फूल खिले और मुरझा गए।
स्टेशन की बेंच अब भी वहीं थी, बारिश अब भी आती थी, और आरव अब भी उसी तरह सुबह-सुबह अपनी बालकनी में चाय बनाता था।
काव्या को गए एक साल हो गया था।
ना कोई चिट्ठी, ना कोई मैसेज, ना कोई सुराग।
बस उसकी आख़िरी चिट्ठी, जो हर बारिश में दिल से भीग जाती थी।
और उसकी एक तस्वीर—जो कभी खींची नहीं गई थी, लेकिन आरव की आँखों में अब भी बसी हुई थी।
उसने अपने कैमरे का इस्तेमाल अब बहुत कम कर दिया था। वो अब ज़्यादा लिखने लगा था। उसकी डायरी भरती जा रही थी—हर पन्ने में कोई दिन, कोई बात, कोई चुप्पी।
एक दिन, अचानक, उसे किसी पब्लिशिंग हाउस से कॉल आया।
“हमने आपकी डायरी के अंश पढ़े हैं। क्या आप चाहेंगे कि हम इसे एक किताब बनाएं?”
आरव ने कुछ पल सोचा। फिर जवाब दिया, “हाँ, लेकिन नाम सिर्फ वही होगा… जिसका मैंने कभी पुकार कर नाम नहीं लिया।”
और उस किताब का नाम रखा गया —
“एक कप चाय, और तुम्हारा नाम।”
किताब छपी, बिकी, पढ़ी गई। लोग उसमें खो गए। कुछ ने अपने पुराने प्यार को याद किया, कुछ ने चाय से फिर मोहब्बत कर ली। लेकिन आरव जानता था—ये सब उसके लिए नहीं था। ये सब था उस लड़की के लिए, जो एक स्टेशन की बेंच पर पहली बार मिली थी, और जिसने उसके जीवन की भाषा बदल दी थी।
वो हर रविवार स्टेशन जाता, उसी बेंच पर बैठता, एक कप चाय लेकर। किसी उम्मीद से नहीं, किसी आदत से नहीं… सिर्फ इसलिए क्योंकि वो अब उस स्टेशन का हिस्सा बन गया था।
उस रविवार भी वही हुआ।
वो बेंच पर बैठा था, हाथ में चाय, पास में एक किताब की कॉपी, जिस पर लिखा था—“For her. Always.”
तभी, एक धीमी आवाज़ आई—
“चाय अब भी वैसे ही बनाते हो?”
आरव का दिल थम गया।
उसने धीरे से चेहरा घुमाया।
काव्या।
वही चेहरा, वही आँखें, बस थोड़ा थका हुआ। बाल थोड़े छोटे, चेहरे पर हल्की सी झुर्रियाँ, लेकिन मुस्कान… वैसी ही।
“तुम…?”
उसके शब्द गले में अटक गए।
“मैं वापस नहीं आई, आरव,” उसने कहा। “मैं कभी गई ही नहीं थी। मैं हर पन्ने में, हर प्याले में, हर बारिश में तुम्हारे साथ थी।”
“तो फिर?” आरव के होठ कांपे।
“मैं डरती थी। अपनी ही भावनाओं से। अपने ही साए से। लेकिन जब मैंने तुम्हारी किताब पढ़ी… तो जाना, कि मेरी कहानी तुमसे बेहतर कोई और नहीं लिख सकता।”
आरव की आँखें भर आईं। वो चाय का कप उसकी ओर बढ़ा दिया।
“एक कप चाय?”
काव्या ने मुस्कराकर कप थामा।
और पहली बार… एक तस्वीर ली गई।
ना कैमरे से, ना मोबाइल से, ना स्केच से।
बस यादों में।
एक कप चाय, दो अधूरी कहानियाँ, और एक नाम—जो अब चुप्पी नहीं, पूरी ज़िंदगी था।
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