Hindi - प्रेतकथा

कोठी का कमरा नंबर 9

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निहार राठौड़


राजगढ़ स्टेशन पर शाम के पाँच बज चुके थे, लेकिन उस छोटे से प्लेटफ़ॉर्म पर वक्त ठहरा हुआ लगता था। धूल से सनी पीली बेंचें, खामोश ट्रैक, और स्टील के पुराने खंभों पर टिमटिमाती मटमैली बत्तियाँ—सबकुछ जैसे किसी भूतपूर्व समय की तस्वीर हो। अर्जुन ठाकुर, तीस वर्ष का एक तेज़-तर्रार स्वतंत्र पत्रकार, दिल्ली से यहाँ सिर्फ एक मकसद लेकर आया था—ठाकुर हवेली के रहस्य को उजागर करना। उसके हाथ में एक पुराना, हल्का पीला लिफ़ाफा था, जिसमें केवल एक पंक्ति लिखी थी:
“कमरा नंबर 9 को फिर से खोला जाना चाहिए। मेरा सच अब भी वहाँ बंद है।”
और नीचे केवल एक नाम—कुसुम।

ये चिट्ठी अर्जुन के पास दो हफ्ते पहले पहुंची थी, बिना किसी प्रेषक के नाम के, बिना तारीख के। वह पिछले पाँच सालों से अजीबो-गरीब घटनाओं की खोज करता आ रहा था—कभी किसी सुनसान पहाड़ी गाँव में भूत की कहानियों के पीछे भागता, तो कभी श्मशान के पास भटकती आत्माओं की फ़ोटो खींचता। पर कुछ भी ऐसा नहीं था, जो उसे डराता। लेकिन यह केस कुछ अलग था। राजगढ़ एक ऐसा गाँव था, जिसकी गिनती नक्शों में भी मुश्किल से होती थी। राजस्थान के झुंझुनू ज़िले के सुदूर कोने में बसा, यह गाँव अपनी वीरानी और ठाकुर हवेली के लिए कुख्यात था।

जैसे ही अर्जुन ने स्टेशन के बाहर कदम रखा, धूप एक सुनहरी लकीर की तरह ज़मीन पर पसरी हुई थी। गाँव तक पहुँचने के लिए कोई सीधा साधन नहीं था। कुली, ड्राइवर और दुकानदार—all avoided eye contact—जब भी वो “ठाकुर हवेली” का नाम लेता। एक बुज़ुर्ग कुली, जिसकी आँखें उम्र की सिलवटों में खो चुकी थीं, ने सिर्फ इतना कहा, “साहब, वहाँ का रास्ता उल्टी परछाइयों से भरा है। एक बार गया आदमी, लौटता नहीं।”

अर्जुन ने गाँव तक पहुँचने के लिए एक पुरानी जीप किराए पर ली, जो उसे आधे रास्ते तक ही छोड़ पाई। वहाँ से वह पैदल चला। आसमान नारंगी से जामुनी हो चला था, और हवा में रेत की बारीक किरकिराहट थी। झाड़-झंखाड़ के बीच से गुजरते हुए जब वह गाँव के पहले घर तक पहुँचा, तो उसने देखा कि खिड़कियाँ बंद हैं, दरवाज़े पर साँकलें हैं, और बच्चे तक खेलने बाहर नहीं हैं।

गाँव के चौक में एक पुरानी चाय की दुकान दिखी। अर्जुन ने चाय का ऑर्डर दिया और मालिक से बात करने की कोशिश की।

“आप बाहर से आए हैं?” दुकानदार ने संदेह से पूछा।

“हाँ, पत्रकार हूँ। ठाकुर हवेली के बारे में सुनने आया हूँ।”

चायवाले के हाथ से चाय की केतली लगभग गिर ही गई।

“वो…वो जगह नहीं है इंसानों के लिए साहब। वहाँ रात में रोशनी खुद-ब-खुद जलती है, बिना बिजली के। दीवारों से आवाज़ें आती हैं। लोग कहते हैं एक लड़की की आत्मा वहाँ अब भी झूला झूलती है। उसके काले बाल ज़मीन तक गिरते हैं, और आँखें… जैसे खून से बनी हों।”

“आपने खुद देखा है?” अर्जुन ने उत्सुकता से पूछा।

चायवाले ने बिना जवाब दिए दूसरी ओर मुंह फेर लिया।

रात होने लगी थी और अर्जुन ने तय किया कि हवेली तक उसी रात जाएगा। अपने कैमरे, माइक्रोफोन और एक पुरानी डायरी के साथ वह चल पड़ा उस रास्ते पर, जो गाँव से उत्तर दिशा में एक वीरान टीले की ओर जाता था।

उस रास्ते में एक भी इंसान नहीं मिला। केवल बबूल के कांटे, ऊँचे झाड़, और दूर कहीं पीपल की शाखों पर बैठे कौवे। हवा अब और ठंडी हो चली थी, और ऐसा लगता था जैसे समय ने अपनी गति धीमी कर दी हो। एक अजीब सी गंध हवा में घुली थी—कुछ सड़ी हुई लकड़ी, और शायद…कुछ जला हुआ।

जब उसने हवेली को पहली बार देखा, तो उसका दिल सच में एक बार रुका।

ठाकुर हवेली, एक चार मंज़िला ईमारत, अब सिर्फ ईंटों का मलबा और अतीत की चीखें लगती थी। लोहे का विशाल दरवाज़ा आधा झुका हुआ था, और उस पर अब भी एक पट्टिका लटकी थी—“१९४७”। खिड़कियाँ टूटी हुई थीं, कुछ जगहों पर खून के पुराने धब्बे जैसे निशान दिखते थे।

हिम्मत कर अर्जुन ने दरवाज़े को धक्का दिया। दरवाज़ा चरमराया और खुलते ही एक चमगादड़ सीना चीरती आवाज़ के साथ बाहर निकली। अर्जुन ने टॉर्च जलाई और आँगन में कदम रखा।

मकड़ियों के जाले, ज़मीन पर बिखरे पुराने खिलौने, और दीवारों पर छपे उँगलियों के निशान—सब उसे उस जगह की इतिहास की ओर खींच रहे थे।

तभी उसे सीढ़ियों की ओर एक झलक दिखी—एक परछाईं। एक महिला की छवि, सफेद साड़ी में, बहुत धीमे से चलते हुए ऊपर की ओर बढ़ती।

अर्जुन ने कैमरा उठाया, लेकिन जैसे ही क्लिक करने गया—छवि गायब हो चुकी थी।

अब वो सीढ़ियों की ओर बढ़ा, हर कदम पर लकड़ी चरमराती थी। तीसरी मंज़िल पर पहुँचते ही उसे एक कमरा दिखा—जिसका दरवाज़ा बाकी सभी कमरों से अलग था। उस पर एक पुरानी तख्ती थी—जिस पर जंग के बीच अब भी पढ़ा जा सकता था:

कमरा नंबर 9

उसका दिल ज़ोर से धड़कने लगा।

कमरे के बाहर की दीवारों पर अजीब आकृतियाँ बनी थीं, जैसे किसी बच्चे ने अपने नाखूनों से खरोंचकर चित्र बनाए हों। एक लड़की की आकृति, एक झूला, और एक चाकू।

अर्जुन ने हाथ बढ़ाया। दरवाज़ा हल्का सा दबाया, और चररररर करते हुए वो दरवाज़ा खुला।

कमरे में घुप्प अंधेरा था, लेकिन जैसे ही उसने टॉर्च की रोशनी डाली, दीवार पर एक पुरानी तस्वीर दिखी—एक युवा लड़की की, जिसकी आँखें सीधी अर्जुन की तरफ देख रही थीं। एक पुराना झूला कमरे के बीचों-बीच झूल रहा था, हवा के बिना।

तभी अचानक, झूले की चेन चरमराने लगी, और झूला तेज़ी से हिलने लगा।

एक स्त्री की फुसफुसाहट सुनाई दी—

“तुम… आखिर आ ही गए…”

अर्जुन का गला सूख गया। टॉर्च की रोशनी काँपने लगी। उसने कैमरा ऑन किया, लेकिन कैमरे की स्क्रीन पर कुछ और ही दिख रहा था—एक लड़की, जो ज़मीन पर बैठी थी, बाल बिखरे हुए, साड़ी फटी हुई, और आँखों से खून बह रहा था।

तभी एक तेज़ झटका महसूस हुआ, और अर्जुन पीछे गिर पड़ा।

कमरा बंद हो गया।

बाहर हवेली सन्नाटे में डूबी थी।

और अंदर… अर्जुन पहली बार डरा।

***

कमरा नंबर 9 अब बंद हो चुका था। दरवाज़े के बाहर साँकल खुद-ब-खुद चटक गई थी, और अर्जुन अंदर अकेला था… या शायद नहीं।

कमरे की हवा ठंडी नहीं, बर्फीली थी। जैसे किसी पुराने कुएँ के भीतर फंसी साँसें अब दीवारों से रिस रही हों। अर्जुन ने उठने की कोशिश की, लेकिन उसकी पीठ अब भी उस अजीब झटके से सुन्न थी। कैमरे की स्क्रीन काली थी। टॉर्च अब झपक रही थी, और दीवारों पर परछाइयाँ नाच रही थीं—बिना किसी स्रोत के।

कमरे में झूला अब भी हिल रहा था, लेकिन किसी अदृश्य लय पर। दीवारों पर लगी तस्वीरें अब बदल चुकी थीं। हर फ्रेम में एक ही चेहरा—कुसुम—पर हर चित्र में उसका चेहरा और विकृत होता जा रहा था। कभी मुस्कान, कभी चीख, कभी घाव।

तभी अर्जुन को किसी के चलने की आवाज़ आई। नंगे पैरों की धीमी थाप, जो सीधी उसकी ओर बढ़ रही थी। उसने टॉर्च घुमाई, लेकिन कोई नहीं था। फिर भी, आवाज़ें जारी थीं। अचानक दीवार पर लिखावट उभरने लगी—“तुम क्यों आए हो?”

अर्जुन काँपता हुआ बोला, “मैं… तुम्हें समझने आया हूँ… तुम्हारी कहानी जानने।”

और तभी उसके कानों के बिल्कुल पास किसी ने फुसफुसाया,
“तो सुनो… पर जो सुनोगे, वह सह नहीं पाओगे।”

कमरे के कोने में एक पुराना बक्सा पड़ा था, लकड़ी का, जिस पर जले हुए नाम के टुकड़े थे। उसने धीरे-धीरे उसका ढक्कन खोला।

अंदर थीं—चूड़ियाँ, एक पुराना रेशमी दुपट्टा, और एक खून से सना बालों का गुच्छा।

साथ में एक डायरी—जिसका पहला पन्ना अब भी साबुत था।
उस पर लिखा था:
“कुसुम ठाकुर — १९४७, हवेली”

अर्जुन ने कांपते हाथों से डायरी पढ़नी शुरू की:

“१ मार्च १९४७
आज मेरी सगाई हो गई ठाकुर देवराज सिंह से। हवेली में शहनाइयाँ बज रही हैं, पर मन में सन्नाटा है। वह मुझसे बीस साल बड़ा है, क्रूर है। बाबा कहते हैं—यह घर की इज़्ज़त का मामला है। मैं विरोध नहीं कर सकती। पर मेरा मन तो राजन में बसा है… वह गाँव का स्कूल मास्टर, गरीब लेकिन सच्चा।

१० मार्च १९४७
रात को देवराज ने मेरे साथ… मैं नहीं लिख सकती। मेरी देह अब मेरी नहीं रही। मैं हर रोज़ खिड़की से देखती हूँ—राजन खेतों में काम करता है, मुझे देखता है, पर आ नहीं सकता। हवेली अब मेरे लिए जेल है। नहीं, क़ब्र।

१५ मार्च १९४७
आज मैंने आत्महत्या का विचार किया। लेकिन माँ की तस्वीर ने रोक लिया। मैं चुप हूँ, लेकिन मेरी आत्मा अब फुसफुसाती है। हवेली के कमरे में, झूले पर बैठकर, मैं धीरे-धीरे मर रही हूँ।”

डायरी पढ़ते-पढ़ते अर्जुन को लगा जैसे कोई उसके कंधे पर हाथ रख रहा हो। उसने पलट कर देखा—कोई नहीं। लेकिन कमरा अब हल्के नीले प्रकाश से भर रहा था। झूले पर अब एक आकृति बैठी थी।

सफेद साड़ी, खुले बाल, और सिर नीचा।

“क…कुसुम?” अर्जुन ने पूछा।

वह आकृति धीरे-धीरे सिर उठाती है। चेहरा अब भी धुंधला, लेकिन आँखें चमक रही थीं—लाल, जलते अंगारों की तरह।

उसने कहा,
“सुनो मेरी कहानी… और फिर बताओ, क्या मुझे माफ किया जा सकता है?”

कमरा अब परिवर्तित होने लगा। अर्जुन जहाँ खड़ा था, अब वहां काली मिट्टी थी। चारों ओर से धुएँ में डूबा दृश्य उभरा—ठाकुर देवराज सिंह, कोठी की तीसरी मंज़िल पर खड़ा, कुसुम का हाथ पकड़कर उसे धकेल रहा था। चीख… एक थरथराती चीख… और फिर कुसुम का झूले से लटकता शव।

सबकुछ आँखों के सामने था। अर्जुन को लगा जैसे वह दर्शक नहीं, खुद उस दृश्य का हिस्सा है।

तभी कमरा झटके से वापस अपनी पुरानी हालत में लौट आया। कुसुम गायब थी। मगर हवा अब भी गूँज रही थी—“मैं मरी नहीं थी… मुझे ज़िंदा जलाया गया था… मेरे न्याय की लौ अब भी बुझी नहीं।”

अर्जुन ज़मीन पर बैठा रहा, पसीने में डूबा, साँसें थामे।

फिर वह धीमे से बुदबुदाया,
“मैं… तुम्हारी सच्चाई बाहर लाऊँगा। मैं वादा करता हूँ।”

कमरे के बाहर दरवाज़ा खुद खुल गया।

कमरे के बाहर हवेली के बरामदे में अब गाँव का वही चायवाला खड़ा था। काँपते हुए बोला,
“साहब, आपको वहाँ नहीं जाना चाहिए था। वो… वो अब आपके पीछे है।”

अर्जुन ने पूछा, “कौन?”

उसने जवाब नहीं दिया, बस हवा में उँगली उठाई।

पीछे पलटते ही अर्जुन ने देखा—कमरे के बाहर की दीवार पर अब कुसुम की तस्वीर खुदी थी, और उसके नीचे लिखा था—

“अब तुम मेरा दरवाज़ा खोल चुके हो। पीछे लौटना नामुमकिन है।”

***

राजगढ़ की रातें अब पहले जैसी नहीं रहीं। हवेली से लौटने के बाद अर्जुन को नींद नहीं आई। कमरा नंबर 9 की परछाइयाँ अब भी उसकी आँखों में जीवित थीं—कुसुम की आँखें, वह झूला, और सबसे ज़्यादा… उसकी आवाज़।

“तुम अब पीछे नहीं लौट सकते।”

सुबह-सुबह अर्जुन गाँव के प्रधान, हरिनाथ सिंह, से मिलने गया। वो बूढ़ा आदमी जो कभी ठाकुर देवराज सिंह का मुनीम हुआ करता था। उसकी झुकी पीठ और काँपते हाथों में अब भी हवेली की यादें भरी थीं।

“आपको क्या लगता है कुसुम के साथ क्या हुआ था?” अर्जुन ने पूछा।

हरिनाथ सिंह का चेहरा पीला पड़ गया।

“बेटा, उस हवेली में जो हुआ, वो कभी बाहर आना नहीं चाहिए था… पर अगर तुमने दरवाज़ा खोल ही दिया है, तो सुनो।”

वह गहरी साँस लेकर बोला—
“१९४७ का साल था। हिंदुस्तान का बँटवारा हो रहा था, और हमारे ठाकुर साहब का गुस्सा भी अपने चरम पर था। वो नहीं चाहते थे कि उनका कोई भी आदेश टाला जाए। और कुसुम… वो तो उनकी संपत्ति थी।”

“लेकिन उसने राजन से प्रेम किया था।” अर्जुन ने बीच में टोका।

“हाँ… और यही उसकी सबसे बड़ी गलती थी।”

हरिनाथ सिंह ने बताया कि एक रात हवेली से कुसुम की चीखें गूँजीं। सुबह तक हवेली बंद कर दी गई। और फिर कभी किसी ने कुसुम को नहीं देखा।

“क्या पुलिस को नहीं बुलाया गया?”

“पुलिस? साहब, ठाकुर के पास पैसे थे, बंदूक थी और डर फैलाने की ताकत। पूरा गाँव डर के साये में जीता था।”

अर्जुन का दिमाग तेज़ी से चलने लगा। उसे अब केवल डर नहीं, क्रोध भी महसूस हो रहा था। उसने तय किया—उसे राजन को खोजना होगा। अगर वह जीवित है, तो वही कुसुम की कहानी पूरी कर सकता है।

अर्जुन ने गाँव के मंदिर के पुजारी दीनानाथ से मुलाकात की। वह अकेला आदमी था जो ठाकुर हवेली के इतिहास को आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखता था।

“पंडित जी, क्या आत्माएँ वाकई बंध जाती हैं किसी जगह पर?”

पंडित जी ने गंभीरता से कहा,
“हाँ। जहाँ अन्याय होता है, वहाँ आत्मा सिर्फ भटकती नहीं, वहाँ न्याय की प्रतीक्षा करती है। ठाकुर हवेली एक श्मशान है, जहाँ चिताएँ जलती नहीं, सड़ती हैं।”

अर्जुन ने पूछा, “राजन कहाँ है?”

पंडित ने धीरे से कहा,
“कुछ लोग कहते हैं उसने गाँव छोड़ दिया। पर मैं जानता हूँ—वह कहीं नहीं गया। वो अब भी कुसुम की याद में जी रहा है। नदी के उस पार, पुराने कब्रिस्तान के पास एक टूटी झोपड़ी है—शायद तुम वहाँ जाकर देखो।”

अर्जुन देर शाम उस दिशा में गया। झाड़ियों और कीचड़ के बीच से गुजरते हुए वह उस झोपड़ी तक पहुँचा। अंदर एक वृद्ध, बिखरे बालों वाला, झुका हुआ व्यक्ति बैठा था। उसकी आँखों में दर्द और खालीपन दोनों थे।

“राजन?” अर्जुन ने पूछा।

उस व्यक्ति ने सिर उठाया, और उसकी आँखों में पहचान की चिंगारी जल उठी।

“क…कौन हो तुम?”

“मैं पत्रकार हूँ। कुसुम की आत्मा अब भी हवेली में है। उसने मुझे बुलाया है।”

राजन जैसे टूट चुका था। वह धीरे-धीरे बोला—
“मैं उसे बचा नहीं सका… वो मुझे आवाज़ देती रही… मैं दरवाज़े के उस पार था, और ठाकुर ने उसे… आग के हवाले कर दिया। मैं बस धुआँ देखता रहा।”

राजन की आँखों से आँसू बहने लगे।
“उसकी आत्मा मेरे साथ बंधी है। वो हर रात मेरे सपने में आती है—झूले पर झूलती, अपनी चूड़ियाँ दिखाती, और पूछती है—‘क्यों नहीं आया?’”

अर्जुन ने उसका हाथ थामा।

“अब वक्त है… कि उसकी कहानी पूरी दुनिया सुने। मैं तुम्हारी गवाही रिकॉर्ड करूँगा।”

राजन ने सिर हिलाया।

“लेकिन याद रखना,” उसने चेताया, “अगर तुमने इस कहानी को अधूरा छोड़ा, तो वो तुम्हें भी नहीं छोड़ेगी।”

अर्जुन ने राजन की पूरी गवाही कैमरे पर रिकॉर्ड की। वह कबूल कर रहा था कि कुसुम और उसका प्रेम सच्चा था। ठाकुर ने उन्हें अलग करने के लिए कुसुम को हवेली में बंद कर दिया था और ज़िंदा जला दिया।

“हवेली के कमरे नंबर 9 में आज भी उस रात की चीखें बंद हैं,” राजन बोला।

“तुमने कभी उसकी आत्मा देखी?” अर्जुन ने पूछा।

राजन ने काँपती आवाज़ में कहा,
“हाँ। पहली बार जब मैं वहाँ गया था, उसके बाद मेरी परछाईं मेरी नहीं रही… अब भी जब मैं शीशे में देखता हूँ, तो अपनी नहीं, उसकी आँखें दिखती हैं।”

अर्जुन ने तय किया—उसे दोबारा हवेली में जाना होगा, इस बार राजन के साथ। सिर्फ वही दरवाज़ा खोल सकता है, जिसने कभी उसे बंद होते देखा था।

रात के दो बजे, दोनों हवेली पहुँचे। हवेली अब और ज़्यादा सड़ी हुई थी, जैसे समय वहाँ थम चुका हो।

कमरा नंबर 9 के दरवाज़े पर पहुँचते ही राजन के हाथ काँपने लगे।

“क्या तुम तैयार हो?” अर्जुन ने पूछा।

राजन ने धीरे से साँकल छुई। और जैसे ही उसने दरवाज़ा खोला—कमरा तेज़ रोशनी से भर गया।

और झूले पर… कुसुम।

वह मुस्कुरा रही थी।

“अब तुम आए…”

***

कमरा नंबर 9 का दरवाज़ा जैसे ही खुला, हवेली की दीवारें सिहर उठीं। अर्जुन ने अपनी आँखें मिचमिचाईं—कमरा तेज़ नीले प्रकाश से भरा था। वह झूला जो पहले भयावह सन्नाटे में हिलता था, अब धीरे-धीरे थमने लगा था। झूले पर वही आकृति बैठी थी—कुसुम, अब मुस्कुराती हुई।

राजन एक पल के लिए जड़ हो गया। उसका पूरा शरीर कांपने लगा। उसने बुदबुदाया, “कुसुम…” उसकी आवाज़ टूटती हुई सी प्रतीत हुई।

कुसुम ने धीरे-धीरे झूले से उठकर कदम बढ़ाया। वह हवा में तैरती नहीं थी, बल्कि ज़मीन पर बिलकुल वैसे चल रही थी, जैसे किसी पुराने दौर की स्त्री अपनी साड़ी समेटकर चलती है। उसका चेहरा अब साफ़ दिख रहा था—वो सुंदर था, पर उसकी आँखों में वर्षों का विषाद और जलन थी।

“राजन…” उसकी आवाज़ में कोई क्रोध नहीं था, बल्कि एक गहरी तड़प, एक अपूर्ण वादा।

राजन ज़मीन पर बैठ गया, आँखें नम।
“मैं आया, कुसुम… बहुत देर हो गई, लेकिन मैं आया…”

कुसुम ने झुककर अपना हाथ उसके माथे पर रखा। एक पल को कमरा फिर सर्द हो गया। अर्जुन ने कैमरे की रिकॉर्डिंग चालू की, लेकिन स्क्रीन फिर से ब्लैक हो गई। कोई भी उपकरण उस ऊर्जा को सम्हाल नहीं पा रहा था।

और तभी कमरे की दीवारें गूँजने लगीं—”उसने मुझे मारा… उसने मुझे जलाया… लेकिन मेरी राख अब भी साँस लेती है…”

कुसुम की आँखों का रंग अचानक बदल गया—लाल। वह पीछे पलटी, उसकी उँगली दीवार की ओर उठी। दीवार पर धीरे-धीरे खून के छींटों की तरह एक चेहरा उभरने लगा—ठाकुर देवराज सिंह।

कमरे के एक कोने में धुआँ जमा होने लगा। अर्जुन और राजन दोनों पीछे हटे। धुएँ से एक आकृति बनी—लंबी काठी, मूँछें, और आँखों में वही दरिंदगी। ठाकुर देवराज की आत्मा!

“यह मेरा घर है!” उसकी आवाज़ गड़गड़ाहट जैसी थी।

कुसुम पलटी और ठंडी आवाज़ में बोली,
“ये तुम्हारा घर नहीं… ये तुम्हारी क़ब्र है।”

ठाकुर हँसने लगा। “तू मरी, फिर भी मुझे ना जला सकी। तू जलती रही… और मैं ज़िंदा रहा… क्योंकि तुझे न्याय नहीं मिला।”

कुसुम चीखी—और कमरा हिल गया। झूला ज़मीन से टूटकर गिर पड़ा, दीवारों से खून की लकीरें बहने लगीं। अर्जुन दीवार से सट गया, कैमरा नीचे गिरा।

कुसुम ने ठाकुर की आत्मा की ओर देखा और कहा:
“अब मेरा समय है। न्याय का समय!

कमरा अब रणभूमि बन चुका था। कुसुम की आत्मा सफेद प्रकाश में बदल गई और ठाकुर की आत्मा धुएँ के भँवर में। दीवारें फटने लगीं, झूमर ज़मीन पर गिर पड़ा। अर्जुन और राजन अब कमरे के कोने में दुबके हुए थे।

“हमें भागना चाहिए!” अर्जुन चिल्लाया।

“नहीं,” राजन बोला, “ये उसका युद्ध है—उसे पूरा करने दो।”

आख़िरी बार कुसुम की आँखों से दो आँसू गिरे, जो ज़मीन पर गिरते ही आग बन गए।

“तूने मुझे जलाया था… अब मैं तुझे शुद्ध करती हूँ।”

कुसुम ने ठाकुर की आत्मा को छुआ। एक झटके में पूरी हवेली स्याह हो गई।

अर्जुन को होश आया तो वह हवेली के बाहर था, राजन उसके पास बेसुध पड़ा था। हवेली अब सिर्फ एक ढांचा थी—दरवाज़े टूटे, खिड़कियाँ गिरी हुई, और कमरा नंबर 9… अब वहाँ कोई दरवाज़ा नहीं था।

राजन ने आँखें खोलीं और पूछा,
“क्या वो गई?”

अर्जुन ने सिर हिलाया।

“हाँ। लेकिन अब वह भटकेगी नहीं। उसे मुक्ति मिल गई।”

हवा में हल्की सी चूड़ी की खनक सुनाई दी… जैसे कोई अंत में कह रहा हो—“धन्यवाद…”

“मैंने कुछ नहीं किया, बस कहानी को सुना और बयान किया। लेकिन शायद कभी-कभी, सच्चाई को बाहर लाना ही सबसे बड़ा कर्म होता है। ठाकुर हवेली अब इतिहास है, लेकिन कुसुम की कहानी आज़ाद हो चुकी है।”

***

राजगढ़ से लौटकर अर्जुन ने खुद को बदलता हुआ पाया। वह अब वही पुराना सनकी पत्रकार नहीं रहा था जो डरावनी कहानियों के पीछे भागता था। अब वह न्याय का साधक बन गया था।

उसने अपने लैपटॉप पर बैठकर पूरी घटना लिखना शुरू किया—राजन की गवाही, कुसुम की आत्मा, ठाकुर का अत्याचार, और हवेली की ध्वस्त हो चुकी हकीकत।

शीर्षक: “कमरा नंबर 9: एक आत्मा का इंसाफ़”
लेबल: रहस्य नहीं, हकीकत।

लेख पढ़कर उसकी सहयोगी, अदिति, चौंक गई।
“अर्जुन, तुमने तो भूचाल ला दिया है। लेकिन क्या तुम जानते हो ठाकुर देवराज के वंशज कौन हैं?”

“कौन?” अर्जुन ने पूछा।

अदिति ने मोबाइल में कुछ टाइप किया और एक नाम सामने आया—रुद्रप्रताप सिंह, अब एक राज्य मंत्री, जो ठाकुर देवराज का पोता था।

“अगर ये छपा, तो वो तुम्हें चुप करवा देगा,” अदिति ने कहा।

अर्जुन की आँखों में आग थी—“अगर मैं चुप हो गया, तो कुसुम फिर से कैद हो जाएगी।”

उस रात अर्जुन को एक अनजान नंबर से कॉल आया।

“अगर तुमने वो कहानी प्रकाशित की, तो तुम्हारे परिवार को तुम पहचान नहीं पाओगे।”

“कौन बोल रहा है?”

“कोठी अब राख हो चुकी है। लेकिन जो उसमें दबा था, वो अभी ज़िंदा है—हम।”

कॉल कट गया।

अर्जुन ठिठक गया। उसके माता-पिता गाँव में थे, बहन दिल्ली में। उसने तुरंत सभी को सतर्क किया, लेकिन उसका मन अब भी डगमगा रहा था।

“क्या मैं सच में सही कर रहा हूँ?”

तभी एक मेल आया—“We want to publish your story. Front page.”
प्रसिद्ध राष्ट्रीय समाचारपत्र “जनवाणी टाइम्स” ने उसे अपने मुख्य कॉलम में जगह देने का प्रस्ताव भेजा।

लेकिन साथ ही नीचे एक नोट था—
“Are you prepared for the consequences?”

अर्जुन ने सबूत इकट्ठा करना शुरू किया।

कुसुम की पुरानी तस्वीरें जो मंदिर के ट्रस्ट में मिलीं।

राजन की वीडियो गवाही।

हवेली की हाल की फुटेज जिसमें दीवारें जलने के निशान दिखा रही थीं, बिना किसी आग के।

और सबसे अहम—हरिनाथ सिंह का लिखित बयान जो उसने अर्जुन को चुपचाप दिया था: “ठाकुर ने जलाया था। मैंने देखा था।”

वह अब किसी डर से नहीं, अपने ज़मीर से लड़ रहा था।

१६ अगस्त २०२५
जनवाणी टाइम्स के फ्रंट पेज पर कहानी प्रकाशित हुई।

“कमरा नंबर 9 की चुप्पी टूटी—राजगढ़ के ठाकुर ने की थी प्रेमिका की हत्या?”

सोशल मीडिया पर तूफान आ गया:

“#JusticeForKusum” ट्रेंड करने लगा।

मानवाधिकार संगठनों ने राजगढ़ में जांच की माँग की।

विपक्षी दलों ने रुद्रप्रताप सिंह पर इस्तीफे का दबाव बनाना शुरू किया। लेकिन सब कुछ इतना आसान नहीं था…

अर्जुन रात में दफ्तर से निकल रहा था, जब एक काली SUV उसके सामने रुकी।

चार लोग उतरे, चेहरों पर मास्क, हाथों में बेसबॉल बैट।

“बहुत बोलने लगा है तू…”

बात पूरी होने से पहले ही एक ने अर्जुन पर वार किया।

अर्जुन गिर पड़ा, लेकिन उसने जेब से छोटा कैमरा निकालकर चुपचाप चालू कर दिया।
पूरा हमला रिकॉर्ड हो गया।

दूसरे दिन, वीडियो वायरल हो गया।
अब अर्जुन न सिर्फ पत्रकार था, बल्कि सत्य का प्रतीक बन गया था।

राज्य मानवाधिकार आयोग ने स्वतः संज्ञान लेते हुए केस दर्ज करवाया।

ठाकुर देवराज के वंशज—रुद्रप्रताप सिंह को समन भेजा गया।
उसने सिरे से इनकार कर दिया कि उसके दादा ने कोई अपराध किया था।

“यह सब एक मनगढ़ंत कहानी है। आत्माएँ नहीं होतीं।”

लेकिन जब राजन अदालत में आया और बोला—
“कुसुम आज़ाद हो चुकी है, पर उसके कातिल अब भी बचे हुए हैं…”

तो पूरा कोर्ट रूम सन्न रह गया।

अर्जुन को एक दिन एक चिट्ठी मिली—कागज पीला, खुशबू जानी-पहचानी।

“झूले की आवाज़ अब नहीं आती। चूड़ियाँ अब टूटती नहीं। मुझे मोक्ष मिल गया, अर्जुन। लेकिन बहुत सी कुसुमें अब भी बंद हैं। उनकी आवाज़ बनना… यही मेरी अंतिम इच्छा है।”

***

सच की राह कठिन होती है। अर्जुन अब इस वाक्य को केवल कहावत नहीं, अनुभव के रूप में जान चुका था। कोठी का कमरा नंबर 9 अब मिट्टी में मिल चुका था, लेकिन उसकी कहानी—या कहें, उसकी आत्मा—पूरे देश में भटक रही थी। अर्जुन के लिए वो एक रिपोर्ट नहीं, एक क्रांति थी। उसने न सिर्फ एक स्त्री की आत्मा को मोक्ष दिलाया था, बल्कि एक दबे हुए अन्याय को भी न्याय की चौखट तक पहुँचा दिया था। लेकिन जब कोई सच बोलता है, तो दुनिया के सबसे ताकतवर झूठ उसके खिलाफ खड़े हो जाते हैं। वही अर्जुन के साथ हो रहा था।

अर्जुन की रिपोर्ट के छपने के बाद उसे नायक की तरह पूजा जाने लगा। विश्वविद्यालयों में उसे बुलाया गया, पत्रकारिता संस्थानों में उसके साहस को पढ़ाया जाने लगा, और सोशल मीडिया पर हैशटैग #JusticeForKusum देशभर में ट्रेंड करने लगा। लेकिन इन सबके बीच अर्जुन खुद से एक सवाल पूछ रहा था—”क्या ये एक कुसुम की मुक्ति से खत्म हो जाता है?” उसकी अंतरात्मा ने जवाब दिया—”नहीं, ये तो बस शुरुआत है।” उस रात, अपने छोटे से अपार्टमेंट में बैठा अर्जुन एक नोटबुक में कुछ लिखने लगा। उसने उस पर शीर्षक दिया—“Project Kusum”। यह सिर्फ एक मुहिम नहीं थी, यह एक प्रतिशोध था, उन तमाम आत्माओं की ओर से जो अपने हक के लिए तरसीं, जिन्हें कभी “परेशान आत्मा” कहा गया, कभी “डरावना किस्सा”, पर असल में वे सभी गवाह थीं—नारी के साथ हुए हिंसा की, समाज के मौन अपराधों की।

अर्जुन ने इस मुहिम को आकार देने के लिए पहले अपनी टीम बनाई—उसके साथ पहले से काम कर रही पत्रकार अदिति, दिल्ली यूनिवर्सिटी से क्रिमिनोलॉजी पढ़ चुकी तेजस्विनी, मुंबई के साइबर लॉ एक्सपर्ट अरुण, और झारखंड की सामाजिक कार्यकर्ता सविता। चारों ने मिलकर “प्रोजेक्ट कुसुम” की आधिकारिक वेबसाइट बनाई, जिसका मकसद था: “हर उस कहानी को उजागर करना, जिसे समाज ने डर कहकर दबा दिया।” वेबसाइट पर एक खुला कॉल फॉर्म था—लोग अपनी कहानियाँ लिख सकते थे, गुमनाम भी। लॉन्च के पहले ही दिन 127 केस रजिस्टर हुए।

इन केसों में से कई कहानीनुमा लगती थीं—जैसे राजस्थान के एक ठाकुर की हवेली, जहाँ एक नौकरानी की हड्डियाँ अब भी बाथरूम की दीवार में जड़ी थीं, और रात को उसकी पायल की आवाज़ आती थी। पर जब अर्जुन की टीम वहाँ गई, तो उन्हें दीवार में चूड़ी और बाल के अवशेष मिले। फोरेंसिक टेस्ट से पुष्टि हुई—अस्थियाँ 1972 की थीं, और महिला की उम्र 25 वर्ष के आसपास थी। एक आत्मा की कराह अब सबूत बन गई थी।

दूसरी घटना तमिलनाडु से थी—एक स्कूल टीचर जो लड़कियों के साथ हो रहे यौन शोषण के खिलाफ खड़ी हुई, और उसे “पागल” कहकर एक मेंटल हॉस्पिटल में डाल दिया गया। मरने के बाद, उसकी तस्वीर उस स्कूल की हर दीवार पर किसी ना किसी सुबह चुपचाप टंगी मिलती थी। जांच में खुलासा हुआ कि स्कूल के ही प्रधानाचार्य ने उसे फँसाया था। अर्जुन और उसकी टीम ने इस केस को RTI और सोशल मीडिया के ज़रिए उठाया। मामला कोर्ट तक पहुँचा, और महिला को मरणोपरांत न्याय मिला।

अर्जुन को हर दिन मेल और कॉल आने लगे—कुछ कहानियाँ झूठी, कुछ बस पुरानी किंवदंतियाँ, लेकिन कई पूरी तरह से प्रामाणिक। अब तक “प्रोजेक्ट कुसुम” ने देश के 11 राज्यों में 54 से ज़्यादा कथित “हॉन्टेड” लोकेशन्स की जांच शुरू कर दी थी। उनका मानना था: “जहाँ डर है, वहाँ दबा हुआ सच है।”

लेकिन इस सफ़र में सिर्फ तारीफ़ नहीं थी—धमकियाँ भी थीं। सरकार से जुड़े अधिकारियों ने उसे कई बार फोन कर चेतावनी दी। “तुम हर आत्मा को मोक्ष नहीं दिला सकते, अर्जुन। कभी-कभी मुर्दों को सोने देना ही अच्छा होता है।” एक दिन तो उसके ऑफिस में आग लगाने की भी कोशिश की गई। सौभाग्यवश, CCTV में वो शख्स रिकॉर्ड हो गया और पुलिस ने उसे पकड़ लिया। लेकिन वो खुद कुछ नहीं बोलता था—बस एक ही बात दोहराता, “वो नहीं चाहती कि तुम आगे बढ़ो…”

टीम ने एक और केस उठाया—उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में एक किला, जहाँ के स्थानीय लोग कहते थे कि वहाँ एक ‘रानी’ की आत्मा भटकती है, जो हर पूर्णिमा को अपने पुराने महल के गलियारों में घूमती है। अर्जुन वहां पहुंचा और गांव के बुज़ुर्गों से बात की। पता चला, उस रानी को अंग्रेजों के समय में ज़िंदा दीवार में चुनवा दिया गया था, क्योंकि उसने अंग्रेज़ अधिकारी से शादी से इनकार किया था। उसकी आत्मा को अब ‘भूत’ कहा जाता था। लेकिन जब टीम ने ASI (Archaeological Survey of India) से फाइलें मंगवाईं, तो उसमें 1857 के बगावत काल की एक अनपब्लिश्ड रिपोर्ट मिली—जिसमें दर्ज था कि एक महिला को “राजद्रोह” के आरोप में सार्वजनिक रूप से मौत की सज़ा दी गई थी। पर रानी के नाम से कोई ज़िक्र नहीं था। अर्जुन समझ गया—इतिहास ने सिर्फ मर्दों की क्रांति को दर्ज किया है, स्त्रियों के प्रतिरोध को नहीं।

इन सारे प्रयासों ने “प्रोजेक्ट कुसुम” को एक राष्ट्रीय अभियान बना दिया था। विश्वविद्यालयों में इस पर शोध शुरू हुए, डॉक्युमेंट्री फिल्में बनने लगीं, और Netflix India ने इस विषय पर एक वेब सीरीज़ में रुचि दिखाई। लेकिन एक रात, जब अर्जुन अपने अपार्टमेंट में अकेला काम कर रहा था, उसे उसके दरवाज़े के नीचे एक लिफ़ाफा खिसकाया गया। उस पर कोई नाम नहीं था। अंदर सिर्फ एक कागज था—जिस पर लिखा था:
“कुसुम की कहानी को वहीं रहने दो। आगे बढ़े, तो सब मिट जाएगा।”

उसी रात उनकी वेबसाइट हैक हो गई। सारे डेटा, सारे केस फाइल्स गायब। सर्वर डाउन। अर्जुन ने फौरन अरुण को फोन किया—“हमें बैकअप से साइट रिस्टोर करनी है।” अरुण ने कहा, “मैंने कर दिया है, लेकिन सर्वर पर एक ट्रोजन छोड़ा गया है। इसे सरकारी या बहुत एडवांस्ड एजेंसी ने भेजा है।” यानी अब अर्जुन किसी आम अपराधी से नहीं, बल्कि व्यवस्था से टकरा रहा था।

लेकिन अर्जुन ने पीछे हटने का नाम नहीं लिया। उसने एक नया सर्वर सेट किया, वेबसाइट को ब्लॉकचेन तकनीक से सुरक्षित किया, और सारे केस को एक डिजिटल आर्काइव में बदल दिया—जहाँ उन्हें मिटाना असंभव था। अब कोई डर कहानी को नहीं छू सकता था। और शायद इसीलिए, एक नई आत्मा उसके सपने में आई। उसने सफेद साड़ी पहनी थी, आँखों में आँसू और होंठों पर मुस्कान।

“तुमने हमें आवाज़ दी, अर्जुन। अब हमारी बारी है—तुम्हें बचाने की।”

अर्जुन की आंख खुली, और उसे एक नई प्रेरणा मिली—अब वो सिर्फ कहानियाँ नहीं बताएगा, वो प्रशिक्षण देगा। गाँव-गाँव जाकर महिलाओं को बताएगा कि डरावनी कहानियों के पीछे अगर कुछ है, तो वह अन्याय है—जिससे वे लड़ सकती हैं।

“प्रोजेक्ट कुसुम” अब एक आंदोलन बन चुका था।

***

अर्जुन की आंखों में नींद नहीं थी—ना थकावट, और ना डर। बस एक गूढ़ बेचैनी, जो हर नई सुबह उसे किसी न किसी दबी हुई कहानी की तरफ खींच लेती थी। कोठी की दीवारों से लेकर किले के तहखानों तक, उसने जहां-जहां पांव रखा, वहां ज़मीन में सिसकियाँ दबी हुई थीं। लेकिन इस बार की पुकार कुछ अलग थी। इस बार कोई आत्मा नहीं बोल रही थी, कोई परछाई नहीं चल रही थी। इस बार तो खुद ज़िंदा इंसानों ने चुप्पी ओढ़ ली थी। और जब ज़िंदा लोग चुप हो जाएँ, तो उनके लिए सबसे भयानक कहानी वही बनती है जिसे सबने मिलकर भूलने की कसम खाई हो।

“प्रोजेक्ट कुसुम” की टीम को एक अजीब सी ईमेल मिली थी—Subject Line: “She Still Waits.”
बॉडी में बस एक वाक्य लिखा था:
“वो मर नहीं पाई, क्योंकि उसकी मौत को किसी ने देखा ही नहीं।”

नीचे एक Google Maps का लिंक था—उत्तराखंड के एक छोटे शहर शाहपुर का लोकेशन, और साथ ही एक टूटा-सा पता:
“शिव मंदिर के पीछे वाला स्कूल, जिसकी छत अब किसी को याद नहीं।”
अर्जुन को पहली बार लगा कि यह एक खुला चैलेंज है—जैसे कोई जानबूझकर उसे उस जगह बुला रहा हो।

टीम तैयार की गई—अर्जुन, अदिति और अरुण। तेजस्विनी और सविता को इस बार पीछे रखा गया, क्योंकि लोकेशन कुछ ज़्यादा संवेदनशील थी। स्थानीय मीडिया के मुताबिक, शाहपुर के उस हिस्से में पिछले 15 सालों से कोई स्कूल नहीं चल रहा। स्कूल की इमारत बंद है, लेकिन कभी-कभी वहाँ से “रोने की आवाज़ें” आती हैं। कुछ लोगों ने यहाँ तक कहा कि वहां बैठा एक आदमी अपनी बेटी की मौत की गवाही हर रोज़ देता है—पर वो खुद बोल नहीं सकता। गूंगा है।

अर्जुन की टीम जब शाहपुर पहुँची, तो सबसे पहले एक स्थानीय होटल में रुकी। वहां के रिसेप्शनिस्ट ने जैसे ही “पुराने स्कूल” का नाम सुना, उसका चेहरा सफेद पड़ गया। उसने धीमे से कहा, “वहां मत जाइए साहब… वहाँ किसी की चीख़ नहीं आती, वहाँ तो सन्नाटा चिल्लाता है।”

अर्जुन ने तय कर लिया था—वहीं जाना है।

अगले दिन सुबह 5 बजे टीम वहां पहुँची। स्कूल की इमारत अब पूरी तरह काई से ढकी हुई थी, दरवाज़ों पर ताले नहीं थे, बल्कि दरवाज़े ही नहीं थे। भीतर एक बेमेल सा ठंडापन था—जैसे मौसम से अलग, दीवारों ने अपनी ही जलवायु बना ली हो। अदिति ने देखा कि एक कक्षा की दीवार पर एक नाम उकेरा हुआ था—“कुसुम”। वो चौंकी। “क्या ये वही कुसुम है?”

“नहीं,” अर्जुन ने कहा। “यहाँ हर वह लड़की जो अनसुनी रह गई, उसका नाम अब कुसुम ही है।”

तभी अरुण ने इशारा किया—पीछे के मैदान में एक आदमी बैठा था। सफेद धोती, जर्जर कुर्ता, बाल बिखरे हुए, आंखें सूनी और होठों पर ताला। पास जाकर उन्होंने देखा—उसके पास एक बुकलेट थी, उसमें कुछ पन्नों पर सिर्फ नाम लिखे थे। हर नाम के आगे एक तारीख, और एक ‘X’।

“ये क्या है?” अदिति ने पूछा।

अर्जुन ने धीमे से पन्ने पलटे। आखिरी पन्ने पर नाम था—”विमला 2008 X”।

अर्जुन ने उस गूंगे आदमी से इशारों में बात करने की कोशिश की। उसने हाथ से संकेत किया, जैसे छत की ओर इशारा कर रहा हो—उस टूटी छत की ओर, जिस पर जाना अब मना था। पुलिस ने इलाके को “संभावित ढहाव क्षेत्र” कहकर सील कर रखा था।

लेकिन रात को अर्जुन चोरी-छुपे ऊपर गया। वहाँ, टूटी छत पर, दीवार में एक पुराना टिन का बक्सा मिला। खोलते ही एक सड़ी-सी डायरी, और कुछ बच्चों की ड्रॉइंग—एक लड़की, जो छत पर खड़ी है, और नीचे स्कूल के बच्चे उसे देख रहे हैं। डायरी में लिखा था:

“मुझे कहा गया था चुप रहना, लेकिन जब मेरी सहेली नहीं लौटी, मैं बोल बैठी। अब मुझे भी नहीं लौटने दिया जाएगा। मैं छत से कूदूँगी नहीं—पर वो कहेंगे कि मैंने खुद किया।”
—विमला

टीम ने स्थानीय रिकार्ड्स निकाले। 2008 में इस स्कूल की एक छात्रा ने छत से कूदकर आत्महत्या की थी, कहा गया कि उसने मैथ में फेल होने के डर से यह कदम उठाया। लेकिन उसकी पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट कहीं उपलब्ध नहीं थी। RTI में स्कूल का रिकॉर्ड गायब। कोई CCTV नहीं। और हैरानी की बात ये थी कि उस साल पूरे स्कूल को अचानक बंद कर दिया गया था।

अर्जुन समझ गया—यहाँ आत्मा की नहीं, आत्मा को छुपाने की कहानी है।

टीम ने जब आसपास के गांवों में जाकर लोगों से बात की, तो किसी ने खुलकर कुछ नहीं कहा। लेकिन एक बूढ़ी औरत ने, जिसने विमला को पढ़ाया था, कहा—“बेटा, अगर तूने किसी मासूम की सच्चाई जगाई है, तो अब उसकी आवाज़ तुझे मिलेगी। लेकिन ध्यान रखना, शहर की दीवारों से बड़ा होता है उसका डर, जिसे सबने मिलकर गूंगा बना दिया है।”

उसी रात अर्जुन को सपना आया—छत पर खड़ी एक लड़की, साड़ी में, बाल खुले, और हाथ में डायरी। वो कुछ कह रही थी, पर आवाज़ नहीं आ रही थी। तभी उसने अर्जुन की आंखों में देखा और कहा—”मैं चुप थी, अब तुम मत होना।”

अर्जुन की आंख खुली, और उसी पल उसने प्रण लिया—अब कोई भी “गूंगी गवाही” नहीं रहेगी। “प्रोजेक्ट कुसुम” का नया चैप्टर शुरू हुआ—“Shahpur Silence”। इस केस को डिजिटल डॉक्युमेंटरी में बदला गया, और इतने सुबूत इकट्ठा किए गए कि उत्तराखंड हाई कोर्ट ने केस रिओपन करने का आदेश दिया।

और उस आदमी को?

जो गूंगा था?

उसने पहली बार कुछ कहा।

बस एक शब्द: “सच।”

***

शाहपुर के सन्नाटे से लौटकर अर्जुन की टीम कुछ दिन शांत रही, लेकिन “प्रोजेक्ट कुसुम” अब किसी रफ्तार को नहीं जानता था। ठीक एक सप्ताह बाद, उनकी वेबसाइट के इनबॉक्स में एक वीडियो आया। फुटेज किसी पुराने सीसीटीवी कैमरे से था—किसी बच्चों के कमरे का दृश्य, शायद अनाथ आश्रम। कैमरा एक कोने से कमरे की निगरानी कर रहा था, जहाँ 8-10 बच्चे गहरी नींद में थे। अचानक, एक छोटी सी खिड़की अपने आप खुलती है, और ठंडी हवा के साथ आती है एक हल्की सी लड़की की आवाज़—”साक्षी… साक्षी… उठो…”

वहां कोई लड़की साक्षी नहीं थी। अर्जुन ने वीडियो कई बार देखा—हर कोण, हर फ्रेम। वह आवाज़ किसी भी बच्चे की नहीं थी। आवाज़ मानो काँच की दीवारों से टकराकर आई हो, जैसे वो भीतर से नहीं, बीते समय से आई हो। अर्जुन ने मेल ट्रेस किया, तो IP उत्तर प्रदेश के एक छोटे से कस्बे—बरेली के पास एक गाँव, शेरगढ़—का मिला। वो जगह कहीं रजिस्टर नहीं थी, लेकिन गूगल मैप्स पर एक जगह दिखी: “गौरी शिशु निकेतन – 1979 में स्थापित, 2007 में बंद”।

टीम तुरंत निकल पड़ी। यह आश्रम अब एक वीरान इमारत में बदल चुका था, जिसके फाटक पर बड़ा सा बोर्ड था—”प्रवेश वर्जित – सरकारी संपत्ति”। लेकिन कुछ दूर गांव वालों से पूछताछ में जो पता चला, उसने सभी की रूह कंपा दी। एक वृद्ध आदमी ने कहा, “बाबूजी, उस आश्रम में एक बच्ची थी… साक्षी। पर वो थी नहीं। उसका नाम लिया जाता था, खाना परोसा जाता था, चादर बदली जाती थी… लेकिन कोई भी कभी उसे देख नहीं पाया।”

कहानी ये थी कि 1992 से 2007 तक हर साल 15 अगस्त को कोई एक बच्चा खो जाता था—बिना खून, बिना निशान, बस… गायब। और हर बार आखिरी रात को आश्रम के सारे बच्चे एक ही नाम लेकर जागते—”साक्षी।”

अर्जुन और टीम ने आश्रम की इमारत में प्रवेश किया—टूटी छतें, दीमक खाई लकड़ी की अलमारियाँ, और एक किताबों की पुरानी रैक, जिस पर एक नाम उकेरा गया था: “Sakshi – Bunk No. 11”। अर्जुन ने दीवारों पर हाथ फेरते हुए कमरे गिने—केवल 10 बंक थे। 11वाँ तो बना ही नहीं था।
पर नीचे ज़मीन पर चॉक से एक नाम लिखा था—”साक्षी”, और कुछ पुराने खिलौने रखे हुए थे—एक गुड़िया, जिसकी आँखें नहीं थीं, और एक लकड़ी का घोड़ा, जिसका एक पहिया गायब था।

टीम ने उस जगह का मेटाडेटा, तापमान, हवा की चाल सब कुछ रिकॉर्ड किया। रात के 2:47 बजे, कैमरे ने एक हल्की परछाई को बंक 10 के पास रुकते देखा, फिर हवा में झूलते झूलते उस चॉक के नाम तक जाती हुई, और फिर खामोशी… और उसी समय अर्जुन के मोबाइल पर एक कॉल आया—”आपने मेरा नाम क्यों मिटाया?”

कोई नंबर नहीं था।

इसके बाद जो मिला, वो और चौंकाने वाला था—2007 में, आश्रम की रजिस्टर बुक में दर्ज आखिरी नाम था “साक्षी शर्मा, उम्र 6”, लेकिन उसके दस्तावेज़ अधूरे थे। न कोई जन्म तिथि, न प्रवेश तिथि, और न ही कोई गार्जियन का नाम।

अर्जुन ने RTI दाखिल की। दो हफ्तों बाद, जवाब मिला: “ऐसी कोई बच्ची कभी गौरी शिशु निकेतन में दाखिल नहीं हुई थी।”

अब यह मामला किसी परछाई का नहीं था, यह इतिहास से मिटा दिए गए नाम का था। अर्जुन ने “प्रोजेक्ट कुसुम” में एक नई कैटेगरी बनाई—”Those Who Never Existed”। इस रिपोर्ट ने देश भर के 30 बंद आश्रमों के रिकॉर्ड्स को कटघरे में ला दिया। कई अन्य केस भी जुड़े—”साक्षी” केवल एक नाम नहीं था, वह प्रतीक थी उन आत्माओं की, जिन्हें न जन्म मिला, न मृत्यु… सिर्फ चुप्पी।

और उस चुप्पी को अब अर्जुन की आवाज़ ने तोड़ा।

***

क्रिसमस की रात हिमाचल के पहाड़ों में एक अलौकिक सन्नाटा उतर आता है। बर्फ की परतें पेड़ों को ढँक लेती हैं, और घाटियों में गूंजती है चर्च की घंटियों की हल्की झंकार। लेकिन मलाणा घाटी के पास का ‘सेंट माइल्स चर्च’… वहाँ की घंटी पिछले 50 सालों से बिना किसी पुजारी के बज रही है। और वह प्रार्थना—हर साल 25 दिसंबर को रात 12:05 पर—किसी गूंजती हुई आत्मा की तरह दीवारों पर टकराती है। कोई उसे गाता नहीं, कोई उसे रिकॉर्ड नहीं करता। लेकिन वह सुनाई देती है, और हर बार एक ही आवाज़ में—फादर एंथनी डीसूज़ा, जिन्हें 1974 में मृत घोषित कर दिया गया था।

“प्रोजेक्ट कुसुम” को यह मामला मिला एक विदेशी शोधकर्ता के मेल से—डॉ. माया बेंजामिन, जो भूत-प्रेत और ईसाई मठों पर अध्ययन कर रही थीं। उन्होंने लिखा: “मैंने यह प्रार्थना खुद सुनी है। वहाँ कोई नहीं था, लेकिन मेरी रिकॉर्डिंग में साफ आवाज़ है। मैं रात में वहां अकेली नहीं रुक सकी। लेकिन ये कोई पारंपरिक आत्मा नहीं… यह कोई अधूरी अनुष्ठि है, जिसे पूरा करना बाकी है।”

अर्जुन ने टीम के साथ तुरंत मलाणा की ओर रुख किया। तेजस्विनी, अदिति, अरुण और एक नए सदस्य को साथ लिया—फादर जॉन पॉल, जो बेंगलुरु से आए एक पादरी और धार्मिक इतिहास के विशेषज्ञ थे। रास्ता कठिन था—हिमपात, सुनसान मोड़ और GPS जो बार-बार फेल हो जाता। जैसे-जैसे टीम चर्च के पास पहुंची, पेड़ों के बीच से एक अजीब आवाज़ आने लगी—किसी की फुसफुसाहट, जैसे बर्फ भी किसी भाषा में बात कर रही हो।

चर्च, 1871 में बना था, लकड़ी और पत्थर का बना यह ढाँचा अब जर्जर हो चुका था। अंदर अब कोई क्रॉस नहीं, कोई बेंच नहीं। लेकिन altar (वेदिका) पर अब भी एक मोमबत्ती हर साल अपने आप जलती थी—उसी समय, उसी दिशा में। अर्जुन ने पहली रात इंतजार किया। और जैसे ही घड़ी ने 12:05 बजाया, हवा भारी हो गई। फिर, दूर से आती आवाज़:

“Domine, exaudi orationem meam…”
(हे ईश्वर, मेरी प्रार्थना सुन…)

और फिर हिंदी में—”माफ़ करना, प्रभु… मैंने कहा नहीं… पर मैं दोषी नहीं था…”

हर साल वही प्रार्थना। वही आवाज़। लेकिन उसके बाद एक भारी खामोशी। अर्जुन ने तुरंत ऑडियो रिकॉर्ड किया और फादर जॉन को सुनाया। वो सन्न रह गए। “ये confessional है। ये अंतिम क्षमा याचना है। और ये सिर्फ कोई मृत पादरी नहीं कह सकता—अगर उसकी आत्मा अभी भी माफी चाह रही है, तो कुछ अधूरा रह गया है।”

टीम ने चर्च के पुराने रजिस्टर खंगाले, जो अब स्थानीय मिशनरी के संग्रहालय में रखे थे। वहां एक रिपोर्ट मिली—1974, 24 दिसंबर: फादर एंथनी पर एक बच्ची के गायब होने का आरोप लगा था—एलीना, उम्र 12। चर्च के लोग मानते थे कि वह “अनुष्ठानिक बलिदान” में शामिल थी। पर कोई सबूत नहीं मिला। क्रिसमस की सुबह फादर गायब हो गए। एक दिन बाद उनका शव बर्फ में मिला—क्रॉस पकड़े, आंखें खुली और होंठ हिलते हुए।

उसके बाद चर्च को बंद कर दिया गया। लेकिन 1975 से हर क्रिसमस पर वही प्रार्थना बजती रही। और हर साल बर्फ में किसी छोटे पैर के निशान मिलते थे—जैसे एलीना की आत्मा अब भी वहीं मंडरा रही हो।

अर्जुन ने तय किया—इस बार वो उस क्षमा को पूरी करेगा।

फादर जॉन ने एक विशेष अनुष्ठान की योजना बनाई—”अनदेखे दोष के मोचन” नामक विधि, जो केवल जब मृतक खुद क्षमा मांग रहा हो तभी की जा सकती है। टीम ने चर्च के वेदिका पर क्रॉस फिर से स्थापित किया, मोमबत्तियाँ जलाईं, और एलीना की तस्वीर (जो स्थानीय संग्रहालय में मिली थी) उसके नाम के साथ वहां रखी।

जैसे ही रात के 12:05 बजे, चर्च की दीवारें गूंजने लगीं। हवा भारी, मोमबत्तियाँ कांपने लगीं। तभी एक सफेद धुंध वेदिका के चारों ओर लिपट गई। और आवाज़ आई—

“मैंने नहीं छीना उसका जीवन… मैंने उसे बचाने की कोशिश की थी… उसने कहा था, ‘पापा, वो मुझे ले जाएंगे’…”

फादर जॉन ने ऊँचे स्वर में कहा, “एंथनी, प्रभु तुम्हारी बात सुन रहे हैं। कहो, क्या अधूरा है?”

हवा और गाढ़ी हुई, और फिर एक छोटी सी परछाई मोमबत्ती के पास खड़ी हुई। वो एलीना की थी।

“उन्हें माफ़ करो, फादर। उन्होंने मुझे छुपा लिया था। आपने मेरा नाम पुकारा… मैं आ गई…”

उसके बाद हवा शांत हो गई। पहली बार, चर्च में फिर से घंटी खुद नहीं, किसी इंसान ने बजाई—फादर जॉन ने। और उसी क्षण चर्च के बाहर बर्फ में कुछ लिखा था—”मुक्त…”

अर्जुन ने रिपोर्ट बनाई—“The Final Confession of St. Miles.” यह डॉक्यूमेंटरी जब रिलीज़ हुई, तो हजारों पुराने चर्चों ने अपने बंद पड़े रजिस्टर फिर से खोले। कई प्रेतवाधित केस दोबारा खोले गए। और ‘प्रोजेक्ट कुसुम’ अब सिर्फ भारत की नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक आंदोलन बन चुका था।

और फिर एक मेल आया—

“Room 9 is waiting…”

***

शिमला की पुरानी कोठी, जिसे लोग वर्षों से “कोठी नंबर 9” के नाम से जानते हैं, अब भारत के सबसे रहस्यमय और भूतिया स्थलों में गिनी जाती थी। लेकिन अब तक कोई नहीं जान पाया था कि कमरा नंबर 9 में आखिर क्या छिपा है—क्यों हर बार जब कोई उसके करीब जाता, तो या तो वह मानसिक संतुलन खो बैठता, या हमेशा के लिए गायब हो जाता। ‘प्रोजेक्ट कुसुम’ की टीम अब तक पूरे देश भर की रहस्यमयी आत्माओं से जुड़ी कहानियाँ सुलझा चुकी थी, लेकिन यह कमरा अभी भी बंद था—शारीरिक रूप से नहीं, बल्कि अदृश्य ऊर्जा के एक घने आवरण से।

एक रात अर्जुन को एक सपना आया। उसमें वह उसी कमरे में था—न कोई दीवारें, न छत, बस अंधेरा, और एक गूंजती हुई आवाज़:
“मैंने तुम्हें चुना है… क्योंकि तुम मुझे समझ पाओगे।”
अर्जुन घबराकर उठा, लेकिन उस दिन के बाद से उसे लगता जैसे कोठी उसे बुला रही हो। समय आ गया था।

टीम एक बार फिर कोठी में दाखिल हुई, पर इस बार वो अपने साथ लाए थे तीन विशेष वस्तुएँ—तीन आत्माओं के प्रतीक जो उन्होंने अब तक मुक्ति दिलाई थी: साक्षी की गुड़िया, फादर एंथनी की मोमबत्ती, और शाहपुर वाली कुसुम की तस्वीर। अर्जुन ने कहा, “शायद ये आत्माएँ अब उस कमरे को खोल सकती हैं… या फिर उसकी रक्षा कर सकती हैं।”

कमरा नंबर 9 की दरवाज़ा अब भी जंग लगा था, पर उस पर अब उभरा हुआ था एक नया निशान—एक उल्टा त्रिकोण, जिसके भीतर लिखा था:
“निर्माण, विलोपन, और सत्य”।
फादर जॉन ने कहा, “ये एक प्राचीन प्रतीक है—तीन स्तरों के अस्तित्व का। यह कमरा सिर्फ भूतों का घर नहीं, यह स्मृतियों की जेल है।”

अर्जुन ने जैसे ही दरवाज़ा खोला, एक बर्फीली हवा अंदर से निकली। कमरा बाहर से छोटा दिखता था, लेकिन भीतर वह समय और स्थान की हर सीमा को तोड़ता हुआ लगा। दीवारें जिंदा लग रही थीं—हर ईंट पर कोई चेहरा, कोई आंख, कोई अर्धविकसित चीख़। और कमरे के बीचोंबीच एक कुर्सी पर बैठा था… एक बच्चा।

उसका चेहरा फीका, पर आँखें चमकदार। उसने धीमे से कहा:
“तुम मुझे देख पा रहे हो… तो अब कहानी पूरी होगी।”

अनुच्छेद 2:

उस बच्चे का नाम था आरव, और वो 1983 में उस कोठी में पैदा हुआ था, जब कोठी एक अनाथालय हुआ करता था—“बाल आस्था निकेतन”। वहाँ बच्चों पर मानसिक प्रयोग किए जाते थे, एक सरकारी गुप्त प्रयोग के तहत जिसे “Project Truth Layer” कहा जाता था। इसमें बच्चों के दिमाग को “शुद्ध” कर आत्मा की मूल स्थिति को वापस लाने का दावा किया गया था। लेकिन सबकुछ गलत हुआ। दसियों बच्चे अजीब तरह से मारे गए, या पागल हो गए। और आरव—वो अकेला था, जिसकी आत्मा कभी शरीर से निकाली ही नहीं जा सकी।

वह कमरा नंबर 9, दरअसल वह प्रयोगशाला थी, जहाँ हर चीज़ दर्ज की गई थी। दीवारों पर जो चेहरे थे, वे असल में उन बच्चों की भयभीत चेतनाएँ थीं, जिन्हें कभी मुक्ति नहीं मिली। आरव की आत्मा तब से उसी कमरे में अटकी थी—ना जीवित, ना मृत। वह हर उस आत्मा को आकर्षित करता था, जो अधूरी थी, ताकि कोई उसे पहचान सके, कोई उसकी अधूरी कहानी को आवाज़ दे सके।

अर्जुन अब समझ चुका था कि “प्रोजेक्ट कुसुम” की सारी कहानियाँ—कुसुम, साक्षी, एंथनी, एलीना—सब इस एक कमरे से जुड़ी थीं। जैसे कमरा नंबर 9 भारत की भूली हुई आत्माओं की मातृगर्भ था। उनकी पीड़ा की जड़ यही थी।

फादर जॉन ने उस कमरे में प्रार्थना शुरू की, तेजस्विनी ने आरव की डायरी को पढ़कर उसकी पूरी कहानी दोहराई, और अर्जुन ने तीनों प्रतीकों को मिलाकर कमरे के मध्य एक चक्र बनाया। जैसे ही उन्होंने अंतिम मंत्र उच्चारित किया, कमरा कांपने लगा। सभी दीवारें एक पल के लिए पारदर्शी हो गईं, और हर आत्मा की एक झलक दिखाई दी—कभी किसी कंधे पर हाथ रखती, कभी किसी आंख में नमी बनकर।

फिर, एक अंतिम प्रकाश हुआ। आरव मुस्कराया और कहा:
“अब, मैं जा सकता हूँ। अब मुझे कोई नहीं रोकेगा।”

कमरा धीरे-धीरे अपनी चमक खोने लगा, और जैसे ही वह अंधकार में विलीन हुआ, दरवाज़ा अपने आप बंद हो गया। और दीवार पर लिखा हुआ था:

“सत्य अब स्वतंत्र है। धन्यवाद।”

उस दिन के बाद “कोठी का कमरा नंबर 9” बंद कर दिया गया। सरकार ने वहाँ कोई और जांच नहीं की। लेकिन अर्जुन की रिपोर्ट, “The Room of Remembered Pain,” एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ बन गई।

“प्रोजेक्ट कुसुम” ने अब भारत के हर राज्य में एक नई मुहिम शुरू की—“नामहीन आत्माओं की मुक्ति यात्रा”। और अर्जुन जानता था, कि कहीं न कहीं फिर एक दरवाज़ा खुलेगा।

पर वो अब डरता नहीं था।

अब वो समझता था।

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