Hindi - प्रेतकथा

कोठी का आईना

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अविनाश त्रिपाठी


गांव के बीचोंबीच, ऊँचे-ऊँचे बरगद और पीपल के पेड़ों की छाया में, एक पुरानी हवेली खड़ी थी। चारों ओर जंगली घास ने ज़मीन को ढक लिया था और हवेली की दीवारें जगह-जगह से उखड़ चुकी थीं। बरसों की बरसात और धूप ने ईंटों पर काई जमा दी थी, मानो किसी ने उसे जानबूझकर त्याग दिया हो। टूटी खिड़कियों से आती हवा के साथ चरमराते दरवाज़ों की आवाज़ रात के सन्नाटे में किसी आत्मा की फुसफुसाहट सी लगती थी। कभी यह हवेली राजवीर सिंह के ज़मींदार परिवार की शान थी—जहां मेहमानों का तांता लगा रहता था, दावतें होती थीं और हवेली के आंगन में गुलाल व दीपों की रौनक बिखरी रहती थी। लेकिन अब, हवेली में बस अंधेरा और खामोशी थी, मानो वह अपने मालिकों से बदला लेने के लिए प्रतीक्षा कर रही हो। गांव के लोग वहां से गुजरते हुए नज़र झुका लेते थे, क्योंकि उनका विश्वास था कि यह जगह श्रापित है और इस हवेली की टूटी दीवारों में अब सिर्फ़ मौत का साया रहता है।

हवेली का आंगन बेहद विशाल था, लेकिन हर कोने में वीरानी पसरी थी। कभी जहां बच्चों की हंसी और मेले जैसा शोर गूंजता था, अब वहां सिर्फ़ झींगुरों की आवाज़ और सड़ांध भरी हवा थी। धूल की मोटी परत ने फर्नीचर और झाड़फानूसों को ढक लिया था, और मकड़ियों ने हर खंभे और छत को अपने जालों से लपेट रखा था। हवेली की सीढ़ियां इतनी चरमराती थीं कि किसी के चढ़ने पर लगता था जैसे वे तुरंत टूटकर गिर जाएंगी। बड़े दरबार हॉल के बीचोबीच एक टूटा हुआ झूमर लटका था, जो कभी इस कोठी की शान हुआ करता था। लेकिन सबसे डरावना हिस्सा हवेली का पिछला कमरा था—एक ऐसा कमरा जहां कोई जाने की हिम्मत नहीं करता था। यह कमरा हमेशा अंधकार से ढका रहता, चाहे दिन हो या रात। कमरे के बीचोबीच रखा था एक विशाल पुराना आईना—उसका फ्रेम लोहे और लकड़ी से बना हुआ था, जिस पर समय ने गहरी परछाइयाँ छोड़ दी थीं। आईने की सतह जगह-जगह से टूटी हुई थी, जैसे किसी ने गुस्से में उस पर वार किया हो, लेकिन फिर भी उसमें कोई अजीब सी ताक़त बाकी थी।

गांव में बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक, सभी इस आईने की कहानियां जानते थे। कहा जाता था कि यह आईना सामान्य काँच का नहीं है, बल्कि इसमें किसी आत्मा का वास है। जब भी कोई इसमें झांकता है, उसे अपना चेहरा नहीं दिखता बल्कि किसी अजनबी की परछाईं दिखती है। और यह परछाईं मौत का संदेश होती है—क्योंकि आईने में देखने वाला व्यक्ति अगले सात दिनों के भीतर रहस्यमयी ढंग से मर जाता है। गांव के कई लोगों ने इस श्राप को झेला था और उनकी मौतों ने इस अफ़वाह को और मजबूत कर दिया था। गांव वाले इस आईने को “मौत का आईना” कहते थे। इसलिए जब भी कोई राहगीर हवेली के पास से गुजरता, तो नज़रें झुकाकर जल्दी-जल्दी कदम बढ़ा देता। बच्चों को डरा-डरा कर सुलाने के लिए औरतें कहतीं—“सो जाओ, वरना कोठी का आईना तुम्हें बुला लेगा।” हवेली अब सिर्फ़ खंडहर नहीं थी, बल्कि गांव की दहशत और अंधविश्वास का प्रतीक बन चुकी थी। और इस हवेली की चुप्पी में छिपा था एक ऐसा रहस्य, जिसे कोई सुलझाने की हिम्मत नहीं करता था।

दिल्ली विश्वविद्यालय की शोध छात्रा अदिति हमेशा से रहस्यमयी कहानियों और लोककथाओं की ओर खिंचती रही थी। बचपन से ही उसे दादी की सुनाई परछाइयों और आत्माओं की कहानियाँ बेचैन भी करती थीं और आकर्षित भी। जब उसने अपने शोध विषय के लिए “भारतीय गांवों की लोककथाएं और उनकी सामाजिक जड़ों” चुना, तो उसके प्रोफेसर ने उसे कई जगहों का सुझाव दिया, मगर अदिति की नज़र गांव के बीचोंबीच खड़ी उस परित्यक्त हवेली की लोककथा पर टिक गई। अखबारों की पुरानी कतरनों और कुछ लोककथाओं के संग्रहों में उसने “कोठी का आईना” के बारे में पढ़ा था। एक ऐसा आईना, जो किसी का भविष्य नहीं बल्कि उसकी मौत दिखाता है। उसकी जिज्ञासा इतनी गहरी थी कि उसने बिना देर किए गांव की यात्रा का निश्चय कर लिया। ट्रेन से लंबा सफर तय करने के बाद, जब वह पहली बार गांव पहुँची, तो शाम ढल रही थी। लाल आभा से भरे आकाश के नीचे फैले खेत, छोटे-छोटे घर और दूर से दिखाई देती हवेली की टूटी मीनार उसे किसी पुराने चित्र जैसा लग रही थी। लेकिन उस चित्र में सौंदर्य से कहीं ज़्यादा एक अजीब-सा भय झलकता था। गांव वालों की आंखों में उसने वही भय देखा, जब उसने हवेली का रास्ता पूछना चाहा। लोग या तो चुप हो जाते या जल्दी-जल्दी रास्ता बदल लेते। एक बूढ़ी औरत ने तो सीधे कहा—“बिटिया, वहां मत जाना, कोठी के आईने ने बहुतों को निगल लिया है।” मगर अदिति के भीतर की शोधकर्ता जिज्ञासा इन चेतावनियों को अनसुना कर रही थी।

रात में जब अदिति ने स्थानीय धर्मशाला में डेरा डाला, तो वहां भी लोगों ने उसे बार-बार चेताया। गांव की औरतें आपस में धीमी आवाज़ में बातें करतीं और जब भी अदिति का ज़िक्र होता, उनकी आंखों में चिंता झलकती। “इतनी हिम्मत कहां से आती है इस लड़की में? जो जगह हमारे बच्चे दिन में भी देखना नहीं चाहते, वहां यह अकेली चली जाएगी।” लेकिन अदिति का मन विचित्र रूप से दृढ़ था। उसने अपने नोट्स में लिखा—“अगर इस आईने की कहानी झूठ है, तो यह सिर्फ़ अंधविश्वास है, जिसे तोड़ना ज़रूरी है। और अगर इसमें कुछ सच्चाई है, तो यह भारत की उन अनकही लोककथाओं का हिस्सा है, जिन्हें आज की पीढ़ी भूल रही है।” अगली सुबह वह अपने कैमरे, नोटबुक और रिकॉर्डर के साथ हवेली की ओर निकल पड़ी। रास्ते में उसे एक पुराना तालाब मिला, जिसकी सतह पर सूखे पत्ते तैर रहे थे। तालाब के किनारे खड़े कुछ बच्चे चुपचाप उसे देखने लगे। उनमें से एक ने धीरे से कहा—“दीदी, आईने में मत झांकना।” अदिति ने बस मुस्कुराकर उनकी बात टाल दी और अपनी राह पकड़ ली। हवेली जैसे-जैसे नज़दीक आती, उसकी शक्ल और भयावह होती जाती। टूटी खिड़कियों से झांकती अंधेरी परछाइयाँ, ध्वस्त छत और सन्नाटा मानो उसके साहस को परख रहे थे।

अदिति ने जब हवेली के भीतर कदम रखा, तो उसकी सांसें कुछ पल के लिए थम गईं। अंदर हर कोना वीरान था, दीवारों पर उखड़ा हुआ प्लास्टर और जाले फैले थे। हवा में नमी और सड़ांध की गंध थी। उसके कदमों की आवाज़ बड़े हॉल में गूंज उठी, जिससे माहौल और डरावना लगने लगा। उसने कैमरा निकाला और हवेली के हर हिस्से की तस्वीरें लेने लगी। धीरे-धीरे वह उस कमरे तक पहुँची, जिसके बारे में गांव वालों ने कहा था कि वहां “मौत का आईना” रखा है। कमरे का दरवाज़ा आधा टूटा हुआ था, और उसके अंदर गहरी अंधेरी छायी थी। उसने टॉर्च निकाली और दरवाज़ा धकेलकर भीतर गई। कमरे के बीचोंबीच, एक भारी लकड़ी के फ्रेम में जड़ा टूटा हुआ आईना खड़ा था। उसकी सतह दरारों से भरी हुई थी, लेकिन फिर भी उसमें कोई अजीब सी चमक थी, जैसे दरारों के पीछे कुछ ज़िंदा हो। अदिति कुछ पल उसके सामने खड़ी रही। उसके भीतर डर भी था और खिंचाव भी। उसकी उंगलियां नोटबुक पर थीं, लेकिन आंखें आईने पर जमीं थीं। उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे आईना उसे बुला रहा हो, जैसे उसमें कोई अदृश्य शक्ति उसे अपनी ओर खींच रही हो। उसने गहरी सांस ली और मन ही मन तय किया—“मैं इस रहस्य को सुलझाकर ही रहूँगी। चाहे इसमें जान का खतरा ही क्यों न हो।” और यहीं से उसकी यात्रा एक साधारण शोध से बदलकर मौत और परछाइयों के खेल में प्रवेश करने लगी।

कमरे के बीचोबीच रखा वह टूटा हुआ आईना अदिति को किसी अदृश्य शक्ति की तरह खींच रहा था। बाहर से आती हवा ने टूटी खिड़की की लकड़ियों को हिलाया और उनके चरमराने की आवाज़ कमरे में गूंज उठी, मानो हवेली खुद उसे चेतावनी दे रही हो। लेकिन अदिति के कदम पीछे नहीं हटे। उसने धीरे-धीरे टॉर्च की रोशनी आईने पर डाली। दरारों से भरी उस सतह में उसकी उम्मीद थी कि उसे अपना ही प्रतिबिंब दिखेगा, शायद धुंधला या टेढ़ा-मेढ़ा, मगर जो दिखाई दिया, उसने उसकी सांस रोक दी। उसे खुद की शक्ल बिल्कुल नहीं दिखी—बल्कि सामने किसी और का चेहरा था। एक अजनबी आदमी, जिसकी आंखें गहरी काली थीं और चेहरा अजीब तरह से गंभीर। उसके होंठ हल्के से खुले थे, जैसे वह कुछ कहना चाहता हो, लेकिन कोई आवाज़ न निकल पा रही हो। अदिति हतप्रभ रह गई। उसने अपनी आंखें झपकाईं, फिर दोबारा देखा, लेकिन वह चेहरा वहीं था। दरारों के पीछे से झांकती वह परछाईं ऐसे लग रही थी जैसे वह उसी पर नज़र गड़ाए बैठी हो। उसकी रीढ़ की हड्डी में सिहरन दौड़ गई। एक पल के लिए उसका मन हुआ कि वह तुरंत कमरे से भाग जाए, लेकिन भीतर से कोई अजीब जिद कह रही थी—“यह सच है, इसे साबित करना होगा।” उसने कांपते हाथों से नोटबुक निकाली और जल्दबाज़ी में लिख डाला—“आईने में मेरा चेहरा नहीं… कोई और है… कोई अजनबी।”

उस रात अदिति धर्मशाला के कमरे में लेटी तो नींद उसकी आंखों से कोसों दूर थी। बाहर गांव में चारों ओर सन्नाटा पसरा था, बस कहीं-कहीं कुत्तों के भौंकने की आवाज़ आ रही थी। लेकिन उसके भीतर का सन्नाटा टूट चुका था। जब भी वह आंखें मूँदती, सामने वही अजनबी चेहरा उभर आता—काली आंखें, गहरी नज़र और बिना आवाज़ का अधूरा संवाद। देर रात आखिरकार थककर वह सो गई, लेकिन नींद में भी चैन नहीं मिला। सपनों में उसने खुद को फिर से उस हवेली में खड़ा पाया। चारों तरफ़ अंधेरा था और वह टूटा हुआ आईना उसके सामने। अचानक आईने से वही आदमी बाहर निकल आया और उसके चारों ओर घूमने लगा। वह उसकी पीठ पीछे खड़ा हो जाता, कभी कान के पास फुसफुसाता, लेकिन अदिति सुन नहीं पाती कि वह क्या कह रहा है। जब उसने पीछे मुड़कर देखा, तो वहां सिर्फ़ खाली अंधेरा था। सपना बार-बार टूटता और फिर शुरू हो जाता। हर बार उस चेहरे की परछाईं और करीब आती जाती। एक बार तो उसे लगा कि किसी ने उसका हाथ पकड़ लिया है—इतनी सर्द उंगलियां कि उसकी नींद खुल गई। पसीने से भीगी अदिति हांफ रही थी। उसने कमरे की बत्ती जलाई और कांपते हाथों से पानी पिया, लेकिन उसका डर कम नहीं हुआ।

सुबह होते ही जब वह बाहर निकली, तो उसे ऐसा लग रहा था जैसे कोई उसका पीछा कर रहा हो। रास्ते में चलते हुए वह बार-बार पीछे मुड़ती, लेकिन वहां कोई नहीं होता। फिर भी उसे एहसास होता कि कोई अदृश्य छाया उसके साथ-साथ चल रही है। गांव के चौराहे पर कुछ बच्चे उसे देख मुस्कुराए, मगर उसकी नज़र उनके पीछे उस खाली गली पर टिक गई, जहां उसे साफ लगा कि कोई खड़ा है। जैसे ही उसने ध्यान से देखा, वहां कुछ भी नहीं था। वह खुद को समझाने की कोशिश करती रही कि यह बस उसकी कल्पना है, शायद रात के बुरे सपनों का असर। लेकिन दिल की धड़कनें कह रही थीं कि यह सिर्फ़ सपना नहीं—वह अजनबी अब उसके साथ है। उसकी डायरी के पन्नों पर उसने लिखा—“आज मैंने पहली बार सचमुच डर महसूस किया। यह आईना सिर्फ़ कहानियों का हिस्सा नहीं है, इसमें कुछ है। कोई मुझे देख रहा है… शायद मेरी परछाईं से भी ज़्यादा करीब।” और यहीं से अदिति का शोध एक साधारण अकादमिक काम नहीं, बल्कि एक मौत और रहस्य के खेल में बदलने लगा था।

गांव की दहशत अब शहरों तक पहुँच चुकी थी। अख़बारों की सुर्खियों में लगातार छप रहा था—“रहस्यमयी मौतों ने गांव को जकड़ा”, “श्रापित कोठी फिर बनी खौफ का अड्डा”। इन खबरों ने पाठकों में सनसनी फैला दी थी। इसी बीच, एक स्थानीय अख़बार का क्राइम रिपोर्टर, देवेश, इस गांव भेजा गया। देवेश अपने काम के लिए जाना जाता था—निडर, जिज्ञासु और तेज़ नज़र वाला। उसने पहले भी कई रहस्यमयी मामलों की पड़ताल की थी, लेकिन ज़्यादातर अफवाहों को झूठा साबित किया था। उसकी सोच थी कि हर डर के पीछे या तो कोई अपराध छिपा होता है या इंसानी चालबाज़ी। लेकिन जब वह गांव पहुँचा, तो उसने लोगों के चेहरों पर जो खौफ देखा, वह उसके लिए नया था। गांववाले उससे बात करने से भी कतराते थे। यहां तक कि चाय की दुकान पर बैठने वाले लोग भी अचानक चुप हो जाते जब वह “कोठी का आईना” का ज़िक्र करता। उसे लगा जैसे यहां लोग सिर्फ़ डर में नहीं, बल्कि किसी अदृश्य जकड़न में जी रहे हों। रात को धर्मशाला में उसके लिए एक छोटा कमरा तय किया गया। वहीं उसकी पहली मुलाकात अदिति से हुई। वह नोटबुक में तेज़ी से कुछ लिख रही थी और उसके चारों ओर किताबें व कैमरा फैला था। देवेश ने बातचीत शुरू की और जल्दी ही जाना कि वह एक शोध छात्रा है और पिछले कुछ दिनों से हवेली और आईने पर काम कर रही है।

अदिति और देवेश की पहली बातचीत औपचारिक थी, लेकिन जल्दी ही दोनों को लगा कि उनकी राहें एक ही मक़सद से जुड़ी हैं। अदिति ने देवेश को बताया कि उसने खुद आईने में झांका है और वहां उसे किसी अजनबी आदमी का चेहरा दिखाई दिया। पहले तो देवेश ने इसे उसकी कल्पना मानकर टाल दिया, लेकिन अदिति की गंभीरता और उसकी आंखों में छिपा डर देखकर वह चुप हो गया। अदिति ने अपने सपनों का भी ज़िक्र किया—कैसे हर रात वही अजनबी उसका पीछा करता है और कैसे दिन में भी उसे लगता है कि कोई अदृश्य परछाईं उसके आस-पास मंडरा रही है। देवेश की पत्रकारिता की प्रवृत्ति जाग उठी। उसने नोट्स बनाते हुए कहा—“अगर इसमें ज़रा भी सच्चाई है, तो यह अब तक की मेरी सबसे बड़ी स्टोरी हो सकती है।” अदिति ने पलटकर कहा—“मेरे लिए यह रिसर्च नहीं, बल्कि अब ज़िंदगी और मौत का सवाल बन चुका है। अगर इस आईने का सच सामने नहीं आया, तो यह सिलसिला कभी खत्म नहीं होगा।” उस रात देर तक दोनों बात करते रहे। देवेश ने अपने अनुभव साझा किए कि कैसे उसने पहले भी तंत्र-मंत्र और भूतों से जुड़ी खबरें कवर की हैं, लेकिन अंत में सबके पीछे इंसानी लालच या झूठ निकलता है। अदिति ने दृढ़ आवाज़ में कहा—“यहां मामला अलग है। इस आईने में कुछ है, जो हमारे समझ से परे है।

सुबह होते ही दोनों ने साथ मिलकर हवेली की ओर जाने का निश्चय किया। रास्ते में गांववाले उन्हें घूरते रहे, जैसे वे दोनों किसी मौत की ओर बढ़ रहे हों। एक बुजुर्ग आदमी ने उन्हें रोका और कहा—“बेटा, उस जगह मत जाओ, वहां जो जाता है, वह लौटकर नहीं आता।” लेकिन देवेश ने हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया—“सच से भागना आसान है, पर जीना उसी के साथ पड़ता है।” अदिति चुपचाप उसके साथ बढ़ती रही। हवेली पहुंचकर देवेश ने पहली बार उसे नज़दीक से देखा। टूटी मीनारें, काई से भरी दीवारें और खामोश आंगन—उसे लगा मानो पूरा माहौल किसी रहस्य को दबाकर बैठा है। उसने कैमरा और टॉर्च निकाला और अदिति के साथ अंदर प्रवेश किया। हवेली की हवा में अजीब सर्दी थी, जैसे कोई अदृश्य आंखें उन्हें देख रही हों। जब वे उस कमरे में पहुँचे जहां आईना रखा था, देवेश कुछ देर चुप रहा। उसने अदिति की तरफ देखा और कहा—“अगर यह सचमुच मौत का आईना है, तो हमें मिलकर इसका सच बाहर लाना होगा। मैं अपनी कलम और अख़बार से इसे दुनिया के सामने लाऊँगा, और तुम अपने रिसर्च से।” अदिति ने सहमति में सिर हिलाया। उसी पल दोनों के बीच एक अनकहा समझौता हुआ—अब यह रहस्य अकेले का नहीं, बल्कि उनकी साझा लड़ाई बन चुका था।

अदिति और देवेश की हवेली से लौटने की ख़बर धीरे-धीरे पूरे गांव में फैल गई थी। लोग हैरत और डर से उन्हें देखते, जैसे उन्होंने कोई अक्षम्य गलती कर दी हो। उसी शाम गांव के मंदिर में पूजा का समय था, जहां दोनों पहुंचे। मंदिर का वातावरण शांत था—दीपक की लौ हल्की-हल्की हवा में कांप रही थी और घंटियों की ध्वनि पूरे आंगन में गूंज रही थी। मंदिर का पुजारी, सुरेश पंडित, सफ़ेद धोती-कुर्ते में बैठा मंत्रोच्चार कर रहा था। जब उसने अदिति और देवेश को देखा, तो उसके चेहरे पर चिंता और झुंझलाहट दोनों उभरी। आरती समाप्त होने के बाद उसने उन्हें एकांत में बुलाया। पंडित की आंखों में गहरी गंभीरता थी। उसने धीमी आवाज़ में कहा—“तुम दोनों कोठी में क्यों गए थे? क्या तुम्हें नहीं पता कि वहां क्या छुपा है? वह आईना कोई साधारण आईना नहीं है, वह मौत का द्वार है।” उसकी आवाज़ में ऐसी थरथराहट थी कि आसपास की हवा भी ठंडी लगने लगी। देवेश ने थोड़े व्यंग्य से कहा—“पंडित जी, हम सच जानना चाहते हैं। आप ही बताइए, आखिर उस आईने में ऐसा क्या है कि लोग उसका नाम तक लेने से डरते हैं?”

सुरेश पंडित कुछ पल चुप रहा, मानो तय कर रहा हो कि कितना कहना चाहिए। फिर उसने गहरी सांस ली और बोला—“यह कहानी सौ साल पुरानी है। गांव का ज़मींदार, राजवीर सिंह, बहुत ताक़तवर और घमंडी आदमी था। उसे हमेशा लगता कि दौलत और सत्ता से बढ़कर कुछ नहीं। लेकिन समय बदल रहा था, उसकी ज़मीनें धीरे-धीरे कम होने लगी थीं, और उसकी प्रतिष्ठा पर असर पड़ रहा था। तभी एक रात उसके पास एक अजनबी तांत्रिक आया। वह लंबा, दुबला और रहस्यमयी था। उसने राजवीर सिंह से कहा कि अगर वह अपनी शान और ताक़त हमेशा बनाए रखना चाहता है, तो उसे यह आईना खरीदना होगा। आईने के बारे में कहा गया कि यह साधारण शीशा नहीं, बल्कि एक ऐसा माध्यम है जिसमें परलोक की शक्तियां झांकती हैं। राजवीर सिंह ने बिना देर किए सौदा कर लिया। वह नहीं जानता था कि यह सौदा सिर्फ़ दौलत का नहीं, बल्कि खून का है।” पंडित की आंखें लाल हो उठीं। उसने आगे कहा—“उस दिन से हवेली में अजीब घटनाएं शुरू हो गईं। हर रात आईना किसी न किसी का चेहरा दिखाता—कभी नौकर, कभी रिश्तेदार, कभी गांव का कोई आदमी। और सात दिनों में वही व्यक्ति मर जाता। पहले सबने सोचा यह संयोग है, लेकिन जब मौतें लगातार बढ़ीं, तो सब समझ गए कि यह आईना श्रापित है।”

देवेश ने उत्सुक होकर पूछा—“तो फिर राजवीर सिंह ने इसे नष्ट क्यों नहीं किया?” पंडित ने कड़वी हंसी के साथ उत्तर दिया—“क्योंकि हर मौत के साथ राजवीर सिंह की ताक़त बढ़ती चली गई। उसकी ज़मीनें लौटीं, उसकी दहशत गांव पर और गहरी हुई। लोग डर से उसकी सेवा करने लगे। वह मानता था कि आईना उसे बलि दिलाकर उसकी सत्ता बचा रहा है। लेकिन उसने यह नहीं समझा कि आईना उसके घर और खानदान को धीरे-धीरे निगल रहा है। उसके बेटे रहस्यमयी ढंग से मरे, उसकी पत्नी अचानक पागल हो गई, और आखिरकार राजवीर सिंह अकेला रह गया। कहते हैं, मरने से पहले उसने चीखकर कहा था—‘आईना मुझसे भी बदला लेगा।’ उसके बाद से यह हवेली वीरान पड़ी है।” पंडित ने कंपकंपाती आवाज़ में चेतावनी दी—“बिटिया, बेटा… तुम लोग उस आईने से दूर रहो। वह हर रात किसी का चेहरा दिखाता है, और जो दिख गया, उसका अंत तय है। तुम्हें लगता है तुम सच्चाई जान लोगे, लेकिन जानकर भी कुछ नहीं कर पाओगे। मौत के इस खेल से कोई नहीं बचा।” अदिति और देवेश स्तब्ध खड़े रह गए। अदिति के मन में भय और दृढ़ संकल्प दोनों साथ-साथ पनप रहे थे। उसने मन ही मन सोचा—“अगर यह सच है, तो इसे खत्म करना ही होगा।” वहीं देवेश की आंखों में चुनौती की चमक थी। वह सोच रहा था—“शायद यह गांव का सबसे बड़ा राज है, और मैं इसे उजागर किए बिना नहीं छोड़ूंगा।” लेकिन दोनों ने महसूस किया कि इस चेतावनी के बाद उनकी राह और भी ख़तरनाक हो चुकी है।

संध्या का समय था। मंदिर से लौटने के बाद अदिति और देवेश गांव की गलियों से गुजर रहे थे। हवा में सीलन और धुएं की गंध थी, मानो पूरी बस्ती किसी अनदेखे बोझ से दब रही हो। अचानक उन्होंने देखा कि एक औरत, साधारण लेकिन अस्त-व्यस्त कपड़ों में, कुएं के पास बैठी सिसक रही थी। उसके चेहरे पर थकान, आंखों में बेशुमार दर्द और माथे पर अधजली बिंदी की छाया थी। यह नीलम थी—गांव की विधवा। अदिति उसके पास जाकर बैठ गई और धीरे से पूछा, “बहन, आप रो क्यों रही हैं?” नीलम ने लाल आंखें उठाकर उन्हें देखा, जैसे उसके भीतर जमे हुए सारे दुख एक ही पल में बाहर आने को आतुर हों। उसने पहले चुप्पी साधी, फिर टूटी हुई आवाज़ में बोली—“तुम दोनों भी उस कोठी में गए थे न? भगवान के लिए, वहां फिर मत जाना। वह आईना… वह किसी को नहीं छोड़ता।” उसकी आवाज़ कांप रही थी, पर उसकी आंखों में एक डरावनी सच्चाई झलक रही थी। देवेश ने साहस जुटाकर कहा, “हमें सब जानना होगा, नीलम दीदी। गांव के लोग बस आधा सच बताते हैं। आप बताइए, आखिर उस आईने ने आपके जीवन से क्या छीन लिया?”

नीलम के चेहरे पर एक दर्दनाक मुस्कान उभरी। उसने गहरी सांस ली और कहना शुरू किया—“मेरे पति, अर्जुन, बहुत खुशमिज़ाज इंसान थे। हमेशा मज़ाक करते रहते, लोगों को हंसाते। लेकिन यही आदत उनकी मौत का कारण बनी। एक रात, जब गांव के कुछ लोग शराब पीकर कोठी के पास से गुजर रहे थे, तो उनमें से किसी ने आईने की कहानी छेड़ दी। सब कहने लगे कि उसमें मौत दिखती है। अर्जुन ने हंसते हुए कहा—‘अगर इतना ही डरावना है तो मैं जाकर देख आता हूं।’ लोग मना करते रहे, लेकिन वह जिद पर अड़ा रहा। ‘डरना बुज़दिलों का काम है,’ यह कहकर वह हवेली में घुस गया। मैं भी वहां पहुंची थी, मैंने उसे रोका, उसका हाथ पकड़ा, पर उसने हंसते हुए कहा—‘अरे नीली, देखना कुछ नहीं होगा। ये सब बेकार की बातें हैं।’ और वह आईने के सामने खड़ा हो गया।” यह कहते हुए नीलम की आंखें भर आईं। उसने आगे कहा—“उस पल मैंने देखा कि उसके चेहरे से हंसी गायब हो गई। उसकी आंखें फैल गईं, जैसे उसने कोई ऐसा दृश्य देख लिया हो, जिसे वह कह भी नहीं सकता। उसने कुछ नहीं कहा, बस पीछे हट गया और मेरे कंधे पर हाथ रखकर चुपचाप बाहर आ गया। लेकिन उसी रात उसने करवटें बदलते हुए मुझे बताया कि उसे अपने सपनों में एक परछाईं दिखती है—किसी अनजाने आदमी की, जो हमेशा उसका पीछा करता है।”

नीलम का गला भर आया, उसकी उंगलियां आंचल को भींच रही थीं। उसने धीरे-धीरे आगे कहा—“सात दिनों तक वह बेचैन रहा। दिन में वह हंसने की कोशिश करता, लेकिन रात होते ही उसका चेहरा सफेद पड़ जाता। सातवें दिन सुबह वह खेत पर गया। मैं दोपहर तक उसका इंतज़ार करती रही, लेकिन वह लौटा नहीं। लोग कहने लगे कि अर्जुन तालाब के पास मृत पाया गया। कोई चोट नहीं थी, कोई लड़ाई नहीं हुई थी। बस उसकी आंखें खुली थीं, जैसे उसने आखिरी बार उसी परछाईं को देखा हो। डॉक्टर ने कहा दिल का दौरा पड़ा होगा, लेकिन मैं जानती हूं कि वह मौत आईने से आई थी। अर्जुन मज़ाक में गया था, पर मौत ने मज़ाक नहीं किया।” नीलम का शरीर सिहर उठा। उसने अदिति और देवेश की तरफ देखा और धीमी आवाज़ में कहा—“तुम्हें सच चाहिए था, तो सुन लो। उस आईने में झांकने वाला कभी भी चैन से नहीं जी सकता। चाहे वह पढ़ी-लिखी लड़की हो या शहर का पत्रकार। तुम दोनों अगर उससे दूर नहीं रहे, तो वही अंजाम तुम्हारा भी होगा।” उसके शब्द हवा में ठंडी लहर की तरह फैल गए। अदिति के भीतर भय की गहरी छाया उतर आई। उसे याद आया कि उसने खुद उस आईने में झांका था, और अब नीलम की कहानी उसकी रीढ़ में ठंडक भर रही थी। देवेश भी पहली बार थोड़ा हिचकिचाया। उसकी कलम और कैमरा इस रहस्य को उजागर करना चाहते थे, लेकिन अब उसके मन में यह सवाल गूंज रहा था—क्या कहीं यह कहानी सचमुच उनके अपने अंत की भूमिका तो नहीं लिख रही?

अदिति और देवेश के मन में अब तक सुनी कहानियाँ गहरे डर की तरह धंस चुकी थीं, लेकिन साथ ही एक जिद भी जाग चुकी थी—सच्चाई जानने की। नीलम की गवाही के बाद उन्हें यक़ीन हो गया कि इस रहस्य के पीछे केवल अंधविश्वास नहीं, बल्कि कोई ठोस रहस्य छिपा है। अगली रात, जब गांव अंधेरे में डूबा हुआ था और कोठी की दीवारों पर चांदनी की फींकी परछाइयाँ नाच रही थीं, वे दोनों साहस जुटाकर हवेली के भीतर घुसे। हवा में घुटन थी, सीलन और बासी धूल का गंध ऐसा लग रहा था मानो कोई अदृश्य परत उनके गले पर कस गई हो। टिमटिमाती टॉर्च की रोशनी से वे कोठी के पिछवाड़े पहुंचे, जहां पत्थरों के नीचे तहखाने का एक गुप्त दरवाज़ा छिपा था। दरवाज़े पर जंग लगे ताले थे, लेकिन पुरानेपन के कारण वे आसानी से टूट गए। जैसे ही दरवाज़ा चरमराकर खुला, भीतर से ठंडी हवा का झोंका बाहर आया, मानो सदियों से बंद कोई अंधकार अपनी कैद से मुक्त हो रहा हो। देवेश ने टॉर्च आगे बढ़ाई और अदिति का हाथ थामकर सीढ़ियों से नीचे उतरा। हर कदम के साथ उनकी सांसें भारी होती जा रही थीं, जैसे तहखाने की दीवारें उनकी धड़कनों को सुन रही हों।

तहखाने के भीतर का दृश्य उनकी कल्पना से कहीं अधिक भयावह था। धूल और मकड़ी के जालों से ढंकी अलमारियाँ, टूटी हुई लकड़ी की पेटियाँ और बिखरे हुए काग़ज़ चारों तरफ फैले थे। एक कोने में लोहे का पुराना संदूक रखा था, जिस पर तांत्रिक चिह्न खुदे हुए थे। अदिति ने कांपते हाथों से संदूक खोला, तो उसमें पीली पड़ चुकी पोथियाँ, तांत्रिक मंत्रों से भरी पांडुलिपियाँ और कुछ पुराने नक्शे रखे मिले। उन्होंने पन्ने पलटने शुरू किए। अचानक एक पन्ने पर मोटे अक्षरों में लिखा दिखाई दिया—“दर्पण–बंदी प्रयोग”। अदिति ने तेज़ आवाज़ में पढ़ना शुरू किया—“जो आत्मा अधूरी इच्छा लेकर भटकती है, उसे दर्पण में बांधा जा सकता है। परंतु दर्पण आत्मा को तभी शांत रख सकता है जब उसे समय-समय पर नया शिकार मिले। अन्यथा वह दर्पण से बाहर आकर अपने बंधन को तोड़ देगी।” इन शब्दों ने दोनों को सन्न कर दिया। देवेश ने गहरी सांस ली और कहा—“यानी यह आईना सिर्फ़ कांच नहीं, बल्कि एक कैदखाना है… किसी आत्मा का। और यही आत्मा हर सात दिनों में एक नया जीवन मांगती है।” अदिति की आंखों में भय की चमक उभर आई। उसे अपना वह पल याद आया, जब उसने पहली बार आईने में झांका था और किसी अजनबी परछाईं को देखा था। अब उसे समझ आ गया था कि वह परछाईं केवल भ्रम नहीं थी, बल्कि उसी कैद आत्मा की निशानी थी।

अचानक तहखाने की दीवारें जैसे सिसकने लगीं। अदिति और देवेश ने एक धीमी गूंज सुनी—मानो कोई स्त्री रो रही हो, बहुत पास से, लेकिन दिखाई कहीं नहीं दे रही। टॉर्च की रोशनी हिलती रही, दीवारों पर अजीब आकृतियाँ उभरने लगीं। देवेश ने पांडुलिपि को कसकर पकड़ लिया और फुसफुसाया—“ये आत्मा इस कोठी में जिंदा है, और आईना उसकी जेल। राजवीर सिंह ने सौ साल पहले जिस तांत्रिक से यह आईना खरीदा था, उसने शायद इसी आत्मा को बांधने का काम किया होगा। लेकिन तब से यह चक्र चलता आ रहा है—हर शिकार, हर मौत, इस आत्मा की भूख को शांत करती रही है।” अदिति के होंठ कांप उठे। उसने दीवार पर उकेरे गए एक चित्र को देखा—वह एक औरत की आकृति थी, जिसके चेहरे पर घूंघट था और आंखें जली हुई-सी लग रही थीं। अदिति ने फुसफुसाकर कहा—“शायद यह वही है… वही आत्मा जो दर्पण में कैद है।” तभी तहखाने की हवा अचानक ठंडी होकर बर्फ़-सी हो गई, और उनके सामने रखा आईना, जो धूल में आधा दबा था, अचानक चमक उठा। उसमें अंधेरे के बीच वही परछाईं झलकने लगी। अदिति और देवेश के दिलों की धड़कनें तेज़ हो गईं। उन्होंने समझ लिया था कि सच्चाई सामने आ गई है, लेकिन साथ ही यह भी कि इस सच्चाई तक पहुंचकर उन्होंने मौत को खुद ही अपने करीब बुला लिया है।

कोठी की पुरानी हवाओं में एक अजीब-सी घुटन थी, मानो दीवारों ने सदियों से अपने भीतर अनगिनत चीखें, रुदन और रहस्य कैद कर रखे हों। अदिति और देवेश तहखाने से बाहर निकलते ही सीधे हवेली के सबसे अंदरूनी हिस्से में पहुंचे, जहां अब भी बूढ़ा ज़मींदार राजवीर सिंह अपने पुराने पलंग पर बैठा था। उसकी आंखें धंसी हुई थीं, चेहरा झुर्रियों से भरा और सांसें भारी थीं, लेकिन उनमें एक अजीब किस्म की चमक थी—जैसे सदियों पुराना कोई रहस्य अब बाहर आने वाला हो। उसने दोनों को देखा और एक लंबी सांस लेकर कहा—“तुम लोग अब उस सच्चाई तक पहुंच चुके हो, जिसे सुनने की हिम्मत इस गांव में किसी ने नहीं की। लेकिन याद रखना, यह सच्चाई जितनी डरावनी है, उतनी ही लहूलुहान भी।” अदिति ने काँपती आवाज़ में कहा—“ये आईना आखिर है क्या? और इसमें क्यों हर किसी को मौत दिखाई देती है?” राजवीर सिंह की आंखें झुक गईं, और उसने धीमी आवाज़ में कहना शुरू किया—“यह आईना मेरे पूर्वजों का सबसे बड़ा पाप है, और साथ ही उनकी सबसे बड़ी ताक़त भी। सौ साल पहले मेरे दादा के पिता, ठाकुर रणविजय सिंह, ने एक तांत्रिक से समझौता किया था। उस समय ज़मींदारी खत्म होने की कगार पर थी, दौलत लुट रही थी, और उनका रुतबा गिर रहा था। वे किसी भी कीमत पर ताक़त और अमीरी वापस पाना चाहते थे। तब तांत्रिक ने उन्हें यह आईना दिया—कहा गया कि इसमें एक आत्मा कैद है, और वही आत्मा उन्हें वैभव और शक्ति लौटाएगी। लेकिन इसके बदले, हर पीढ़ी से आत्मा एक बलि मांगेगी।”

देवेश ने माथे पर पसीना पोंछते हुए पूछा—“तो ये सब मौतें, ये अभिशाप… ये कोई दुर्घटना नहीं थी, बल्कि एक सौदे का हिस्सा?” राजवीर सिंह की आंखें भर आईं, और उसकी आवाज़ काँप उठी। “हाँ… हर पीढ़ी ने यह बलि दी है। मेरे पिता ने, मेरे दादा ने, और अब मेरे सामने भी यह सिलसिला चलता रहा है। जब भी कोई इस आईने में झांकता है, आत्मा उसे अपना शिकार बना लेती है। सात दिनों के भीतर उसकी सांसें थम जाती हैं। बदले में, हमारी ज़मींदारी फिर से फलती-फूलती रही, हमारे खजाने भरे रहते, हमारी जमीनें सुरक्षित रहीं। लोग समझते थे कि राजवीर सिंह का घर कभी बर्बाद क्यों नहीं होता, जबकि बाकी जमींदार कंगाल हो गए—लेकिन यह दौलत दरअसल मौत की कीमत पर खरीदी गई थी।” अदिति की आंखें नम हो गईं। उसे एहसास हुआ कि यह केवल अंधविश्वास नहीं, बल्कि एक ऐसा पाप था जिसे पीढ़ियों ने ढोया और गांव वालों पर थोपा। उसने धीरे से पूछा—“और आप? आपने इस रहस्य को छिपाए क्यों रखा? आपने क्यों नहीं इस श्राप को तोड़ने की कोशिश की?” बूढ़ा ज़मींदार हंस पड़ा, लेकिन वह हंसी दर्द और टूटन से भरी थी। “मैंने कोशिश की थी… मैंने सोचा था कि इस आईने को तोड़ दूं, लेकिन तांत्रिक की पोथियों में साफ लिखा था—यदि दर्पण तोड़ा गया, तो आत्मा अपनी कैद से मुक्त हो जाएगी और पूरा गांव उसकी चपेट में आ जाएगा। मैं डर गया… अपनी औलाद, अपनी जायदाद, अपने गांव के विनाश से डर गया। इसलिए मैंने खामोशी ओढ़ ली और यह अभिशाप चलता रहा।”

अदिति और देवेश के दिल पर अब भय के साथ-साथ गुस्सा भी था। उन्हें लग रहा था कि इस हवेली की दीवारें केवल इतिहास नहीं, बल्कि इंसानी लालच की कब्रगाह हैं। अदिति ने कठोर स्वर में कहा—“आपके पूर्वजों ने अपनी ताक़त और दौलत बचाने के लिए मासूमों की बलि चढ़ाई। क्या आपको पता है, कितनी ज़िंदगियाँ इस आईने ने निगल लीं?” राजवीर सिंह की आंखों से आंसू बह निकले। उसकी आवाज़ टूट गई—“मुझे पता है… और यही बोझ मुझे दिन-रात खाता है। मैं हर चीख अपने कानों में सुनता हूं, हर आह अपनी नींद में महसूस करता हूं। लेकिन अब देर हो चुकी है। यह आईना हमारी पीढ़ियों से जुड़ा हुआ है, और इसका खून का प्यासा इतिहास किसी बलिदान के बिना खत्म नहीं हो सकता।” उसके शब्दों ने कमरे में ठंडक और गहरी कर दी। अदिति और देवेश ने एक-दूसरे की ओर देखा—अब उनके सामने सिर्फ़ एक ही रास्ता था, इस रहस्य का अंत करना, चाहे उसकी कीमत कितनी भी भारी क्यों न हो। बाहर हवेली के आंगन में हवा चीखने लगी, जैसे कोई अदृश्य आत्मा अपनी भूख के साथ और ज्यादा बेचैन हो रही हो।

कोठी की घड़ी ने जैसे ही बारह बजाए, हवेली के हर कोने में एक ठंडी सनसनाहट फैल गई। यह वही रात थी जिसका इंतज़ार अदिति और देवेश पिछले दिनों से कर रहे थे, लेकिन यह इंतज़ार उत्सुकता से ज़्यादा भय और अनिश्चितता से भरा हुआ था। आज अदिति के आईने में झाँकने का सातवाँ दिन था—वह दिन, जब गांव की लोककथाओं के अनुसार, मौत सामने आकर खड़ी हो जाती थी। बाहर का गांव सो चुका था, लेकिन हवेली के भीतर एक अजीब बेचैनी तैर रही थी। दीवारों पर लटकते मकड़ी के जाले हिल रहे थे, मानो किसी अदृश्य हाथ ने उन्हें छेड़ दिया हो। अदिति ने देवेश की ओर देखा—उसकी आंखों में थकान थी, लेकिन साथ ही दृढ़ता भी। दोनों ने तय कर लिया था कि आज चाहे जो हो जाए, इस रहस्य को सामने लाकर ही रहेंगे। पुराने कमरे के बीचोंबीच रखा टूटा-फूटा आईना अब और भी ज्यादा डरावना लग रहा था। उस पर जमी धूल में भी जैसे किसी अनदेखे चेहरे की परछाई उभरती और मिट जाती थी। अदिति के दिल की धड़कनें तेज़ थीं, लेकिन उसने अपनी नोटबुक कसकर पकड़ रखी थी—मानो लिखना ही उसकी आख़िरी ढाल हो। देवेश अपने कैमरे के साथ तैयार था, उसकी उंगलियाँ कांप रही थीं लेकिन उसकी नज़र आईने पर जमी थी। तभी, अचानक हवेली की हर खिड़की अपने आप बंद होने लगी और कमरे का दरवाज़ा जोरदार आवाज़ के साथ अंदर से बंद हो गया। वे दोनों अब फँस चुके थे, और यह सन्नाटा इतना गाढ़ा था कि सांसें भी बोझिल लगने लगीं।

धीरे-धीरे कमरे का तापमान गिरने लगा, और उनके आसपास की हवा घनी होकर किसी अंधकार की चादर की तरह उन्हें लपेटने लगी। आईना अब हल्की-हल्की रोशनी छोड़ने लगा, जैसे भीतर किसी और दुनिया की आग सुलग रही हो। अदिति ने घबराकर पीछे हटना चाहा, लेकिन उसके कदम जमीन में गड़े हुए महसूस हुए। अचानक आईने में वही चेहरा प्रकट हुआ—वही अजनबी आदमी की परछाईं, जो पहली बार अदिति को दिखी थी। लेकिन इस बार वह धुंधली आकृति नहीं थी, बल्कि पूरी तरह स्पष्ट—चमकती आँखें, झुर्रियों से भरा डरावना चेहरा और एक ऐसी मुस्कान, जिसमें मानो सदियों की भूख छिपी हो। उसका चेहरा धीरे-धीरे आईने से बाहर निकलने लगा, जैसे कोई इंसान पानी की सतह से ऊपर आ रहा हो। देवेश ने कैमरा उठाकर उसकी तस्वीरें खींचने की कोशिश की, लेकिन कैमरे की स्क्रीन तुरंत काली हो गई और केवल एक डरावनी फुसफुसाहट सुनाई दी—“अब मेरी बारी है।” अदिति के गले में जैसे कांटे अटक गए, उसकी सांसें तेज़ होने लगीं। उसने महसूस किया कि वह चेहरा केवल उसे देख रहा है, मानो उसकी आत्मा को खींच लेने के लिए निकल आया हो। कमरे में रखे बर्तन अपने आप गिरने लगे, खिड़कियों की सलाखें हिलने लगीं और हवेली की पुरानी दीवारें कराहने लगीं। यह वह क्षण था, जब लोककथाओं की कहानियां हकीकत में बदल रही थीं, और सन्नाटा अब मौत की आहट में बदल चुका था।

चेहरे ने जब पूरी तरह आईने से बाहर कदम रखा, तो कमरे में एक ऐसी ठंडक फैल गई कि अदिति और देवेश की उंगलियाँ सुन्न पड़ गईं। वह आकृति अब उनके सामने खड़ी थी—एक धुंध-सा शरीर, लेकिन इतना ठोस कि उसका अस्तित्व अस्वीकार नहीं किया जा सकता था। उसकी आंखों में गहरी लाल चमक थी, और उसके पैरों के पास काले धुएँ के घेरे फैल रहे थे। अदिति की रीढ़ की हड्डी में सिहरन दौड़ गई, लेकिन उसने खुद को टूटने नहीं दिया। उसने धीमी आवाज़ में देवेश से कहा—“याद रखना, अगर ये आत्मा आईने से बाहर निकल आई तो यह सिर्फ़ मुझे नहीं, पूरे गांव को निगल जाएगी।” देवेश ने कांपते होंठों से जवाब दिया—“तो हमें इसे वापस कैद करना होगा… किसी भी तरह।” लेकिन आत्मा ने जैसे उनके विचार सुन लिए हों। उसने गहरी, गूंजती हुई आवाज़ में कहा—“सात दिन पूरे हुए, अब आत्मा का सौदा निभाना होगा। तुम्हारी सांसें मेरी हैं।” उसके बोलते ही कमरे की हर चीज़ जैसे चीख उठी—लकड़ी के दरवाज़े अपने आप थरथराने लगे, छत से मिट्टी झरने लगी, और हर कोने से एक डरावनी घुटन निकलने लगी। अदिति और देवेश को अब समझ आ गया था कि यह केवल मौत का आईना नहीं, बल्कि एक कैदखाना था, जिसकी कैदी आत्मा अब आज़ादी और खून दोनों की भूखी थी। वह रात केवल सातवें दिन का अंत नहीं, बल्कि जीवन और मृत्यु की आखिरी लड़ाई का आरंभ थी।

१०

हवेली की घड़ी ने जैसे ही एक बजाया, कमरा मानो मौत के बोझ तले दब गया। अदिति और देवेश अब पूरी तरह आत्मा के सामने खड़े थे, और हवा में फैली ठंडक उनकी सांसों को जमा देने लगी थी। आईने से बाहर आया चेहरा अब और भी साफ़ था—उसकी आंखें खून-सी लाल, आवाज़ गहरी और भयानक, और उसके चारों ओर काले धुएं के बवंडर घूम रहे थे। वह धीरे-धीरे अदिति की ओर बढ़ा, जैसे उसकी आत्मा को खींच लेना चाहता हो। देवेश ने कांपते हुए अपनी जेब से वह पोथी निकाली, जिसमें तांत्रिक ने सौ साल पहले मंत्र और चेतावनियाँ लिखी थीं। पन्ने फट चुके थे, लेकिन उन पर लिखे शब्द अब मानो जलने लगे। अदिति ने किताब पर नज़र डाली और अचानक उसे समझ आया—आईना ही वह दरवाज़ा है, जिससे यह आत्मा दुनिया में आती है, और वही उसका कैदखाना भी है। जब तक वह आईना सलामत रहेगा, आत्मा का अस्तित्व मिट नहीं सकता। यह अहसास अदिति के भीतर बिजली की तरह दौड़ा। उसका डर धीरे-धीरे गुस्से में बदल गया। उसने देवेश का हाथ कसकर पकड़कर कहा—“अगर हमें बचना है, तो इसे यहीं खत्म करना होगा।” देवेश की आंखों में भय साफ़ झलक रहा था, लेकिन उसने सिर हिलाया। आत्मा अब बेहद करीब आ चुकी थी, और उसकी सांसों की सड़ांध कमरे को घेरने लगी थी।

अदिति ने पास रखी एक लोहे की छड़ उठाई और कांपते हाथों से आईने की ओर बढ़ी। आत्मा ने एक भयानक गर्जना की—इतनी तेज़ कि हवेली की दीवारें हिल उठीं। उसने अदिति की ओर झपट्टा मारा, मानो उसे रोकना चाहता हो। अचानक हवा का दबाव इतना बढ़ गया कि देवेश ज़मीन पर गिर पड़ा और उसकी कैमरा दूर जा गिरा। अदिति के कानों में सिर्फ़ एक ही आवाज़ गूंज रही थी—हजारों आत्माओं की चीख, जो इस आईने में कैद थीं। उसकी आंखों के सामने पल भर के लिए कई दृश्य उभरे—नीलम का पति, वह सारे ग्रामीण जिनकी मौतें रहस्यमयी ढंग से हुईं, और हवेली के पुराने ज़मींदार, जो एक-एक करके इस आत्मा का शिकार बने थे। अदिति का दिल बैठने लगा, लेकिन उसने खुद को ज़ोर से संभाला। उसने पूरी ताक़त से छड़ उठाकर आईने पर वार किया। पहला प्रहार होते ही आईने पर एक लंबी दरार उभर आई और कमरे में अंधेरा और गहरा हो गया। आत्मा ने चीख मारकर कहा—“नहीं! तुम नहीं समझती, मैं कभी खत्म नहीं हो सकता।” उसकी आवाज़ इतनी डरावनी थी कि कांच के टुकड़े खुद ही झनझनाने लगे। अदिति ने दूसरी बार पूरी ताक़त से वार किया, और इस बार आईना टुकड़ों में बिखर गया।

जैसे ही आईना टूटा, कमरे में एक भयंकर विस्फोट-सी गूंज उठी। दीवारें हिलने लगीं, खिड़कियाँ अपने आप टूट गईं और भीतर का अंधेरा अचानक एक तेज़ चीख के साथ बाहर निकल गया। आत्मा का चेहरा अब विकृत हो चुका था—उसकी लाल आंखें बुझने लगीं, और उसका शरीर धुएँ की तरह छितराने लगा। उसने आखिरी बार अदिति की ओर देखा, जैसे बदला लेने का वादा कर रहा हो। फिर एक कर्कश चीख के साथ वह धुंध हवा में घुल गई और कमरे में भयानक सन्नाटा छा गया। अदिति ज़मीन पर गिर पड़ी, उसकी सांसें तेज़ थीं और हाथ खून से लथपथ। देवेश उसके पास दौड़ा और उसे संभाला। बाहर गांव में अचानक कुत्तों के भौंकने और मंदिर की घंटियों की आवाज़ सुनाई दी, जैसे रात का अंधकार टूट चुका हो। लेकिन कमरे में अभी भी एक अजीब ठंडक बाकी थी—मानो आईना टूटने के बाद भी उसका असर पूरी तरह मिटा नहीं हो। अदिति ने टूटी हुई कांच की किरचियों की ओर देखा, उनमें से एक पर उसे ऐसा लगा जैसे वही चेहरा अब भी उसकी ओर मुस्कुरा रहा है। उसके दिल में एक सवाल गूंजा—क्या सचमुच आत्मा खत्म हो गई, या वह अब किसी नए रूप में लौटने का रास्ता खोज रही है?

समाप्त

 

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