कविता अग्रवाल
भाग 1: कॉफी मशीन के पास
ऑफिस की सातवीं मंज़िल पर हर सुबह नौ बजकर पैंतालीस मिनट पर कॉफी मशीन के पास एक तयशुदा सी हलचल होती थी। मशीन की टन-टन की आवाज़, प्लास्टिक के कपों की हल्की खनखनाहट और थोड़ी-सी सुबह की थकान लिए लोग—इन सबके बीच आकांक्षा का आना किसी नियम की तरह था। सफेद कुर्ते और नीली जींस में वो आती, मशीन के पास खड़ी होकर कॉफी का बटन दबाती, और जब तक मशीन गुनगुना कर उसके लिए गर्म कॉफी गिराती, वो अपनी नीली डायरी में कुछ लिख लेती।
उसी वक्त पहली बार आदित्य ने उसे देखा। वो नए-नए ट्रांसफर होकर आया था, आईटी डिपार्टमेंट का तेज़-तर्रार, मज़ाकिया और सबसे ज्यादा ‘पीपल्स पर्सन’ टाइप का लड़का। उसके आने से पहले कॉफी मशीन के पास हँसी-मज़ाक कम ही होता था, लेकिन अब जैसे हर सुबह वहाँ कोई छोटा-सा शो चलता था—जिसमें आदित्य होस्ट होता, और बाकी ऑफिस ऑडियंस।
“क्या आप आख़िरी कप ले गईं?” आदित्य ने पहली बार आकांक्षा से पूछा था, थोड़ा मुस्कुराते हुए, लेकिन शिकायती लहज़े में।
“हाँ,” आकांक्षा ने बिना मुस्कुराए, डायरी में कुछ नोट करते हुए कहा, “क्योंकि मैं समय पर आती हूँ।”
आदित्य थोड़ा चौंका, फिर हँस पड़ा। “ओह, तो ये टाइम की लड़ाई है?”
“नहीं। बस प्रोफेशनलिज्म की बात है।”
“दिलचस्प है,” आदित्य ने अपने खाली कप को देखा, फिर उसकी डायरी को, “क्या लिखती हैं आप हर दिन?”
“ये ज़रूरी नहीं जानना,” उसने हल्के से जवाब दिया और कॉफी लेकर चली गई।
आदित्य वहीं खड़ा रहा, कुछ पल, थोड़ी-सी हैरानी और बहुत-सी जिज्ञासा के साथ।
अगले दिन, आदित्य 9:40 पर पहुँच गया। इस बार मशीन चालू थी, और वो पहले से ही दो कप निकाल चुका था।
“अरे, आज आप पहले?” आकांक्षा ने पूछा।
“हाँ, ताकि मैं आख़िरी कप वाला ना कहलाऊँ। और ये रहा आपके लिए,” उसने कॉफी का कप आगे बढ़ाया।
आकांक्षा ने कप लिया, एक पल के लिए उसे देखा, फिर कहा, “शुक्रिया। पर ये आपकी जीत नहीं है, मैं बस लेट हो गई थी।”
“ठीक है, आधी जीत भी बड़ी बात होती है,” आदित्य ने आँख मारी।
धीरे-धीरे ये रोज़ की बात हो गई। दोनों कॉफी मशीन के पास मिलते, आदित्य कुछ बोलता, आकांक्षा थोड़ा जवाब देती, कभी-कभी मुस्कुराती, कभी डायरी में कुछ लिख लेती। बाकी ऑफिस वालों को ये अजीब लगता था—क्योंकि ‘मिस रूलबुक’, जो किसी से ज़्यादा बात नहीं करती थी, अब एक ‘चाय-प्रेमी IT लड़के’ से रोज़ मिलती थी।
एक दिन आकांक्षा नहीं आई। आदित्य ने वक्त पर दो कप निकाले थे, लेकिन एक कप ठंडा हो गया।
“क्या हुआ, आकांक्षा नहीं आई?” रोहित ने पूछा।
“शायद छुट्टी ली होगी,” आदित्य ने कहा, लेकिन उसकी नज़र दरवाज़े की तरफ ही रही।
दूसरे दिन आकांक्षा लौटी। आँखों के नीचे हल्का सूजन था, चेहरा थका हुआ।
“आप ठीक हैं?” आदित्य ने नर्म लहज़े में पूछा।
“हाँ। मम्मी अस्पताल में थीं। अब ठीक हैं।”
उस दिन आकांक्षा ने कॉफी मशीन के पास खड़े होकर कहा, “आपने मिस किया?”
“हाँ। और आपकी डायरी भी। मुझे जानना है, उसमें क्या लिखा?”
“हो सकता है एक दिन बता दूँ। अभी नहीं।”
अब बातचीत लंबी होने लगी थी। ऑफिस खत्म होने के बाद भी कभी-कभी वॉट्सऐप पर मैसेज आ जाते। ‘आज वाली कॉफी कुछ कम मीठी थी’, या ‘डायरी में मेरा नाम लिखा?’ जैसे हल्के-फुल्के सवाल।
एक दिन आदित्य ने पूछा, “आप हमेशा सब कुछ लिखती क्यों हैं?”
आकांक्षा ने कहा, “क्योंकि शब्द कभी झूठ नहीं बोलते। इंसान बोल सकता है, लेकिन शब्द नहीं।”
“तो मैं अब शब्द बन गया हूँ?”
“शायद। या शायद कहानी का किरदार।”
“कहानी कैसी?”
“अभी तो नाम सोच रही हूँ।”
“मैं बताऊँ?”
“बताइए।”
“कॉफी मशीन के पास मोहब्बत।”
उसने एक पल सोचा, फिर मुस्कुरा दी। “ज्यादा फ़िल्मी नहीं हो गया?”
“नहीं। ये सच्चा है।”
उस दिन डायरी में लिखा गया पहला शब्द था—मोहब्बत।
भाग २: डायरी में नाम
कॉफी मशीन आज भी अपनी पुरानी रफ्तार में थी—टन-टन की आवाज़ के साथ, उसी गर्म भाप के घेरे में दो कपों की मुलाकात तय थी। पर इस बार कुछ बदला था। आकांक्षा पहले से आई हुई थी, और उसने दो कप निकाल लिए थे। जब आदित्य आया, तो वह थोड़ा चौंका। “ये हुई ना बात,” उसने मुस्कुराते हुए कप लिया, “आज आपने मेरी जगह ले ली।” आकांक्षा ने हल्के से मुस्कुराकर कहा, “कभी-कभी नियम भी बदलने चाहिए।” आदित्य ने एक नज़र उसकी डायरी पर डाली। “आज फिर कुछ लिखा?” उसने पूछा। आकांक्षा ने डायरी बंद करते हुए कहा, “हाँ। पर तुम्हें नहीं दिखाऊंगी।” “क्यों?” “क्योंकि कुछ बातें बस अपने लिए होती हैं।” “और कुछ बातें… किसी एक के लिए,” आदित्य ने धीरे से कहा। आकांक्षा की आँखें थोड़ी भर आईं, पर उसने तुरंत नज़रें फेर लीं। “चाय नहीं पीते तुम?” उसने बात बदल दी। “पीता हूँ, लेकिन तुम्हारी कॉफी में अब मीठा ज़्यादा लग रहा है,” आदित्य ने मज़ाक किया। “डायरी का असर है शायद।”
दिन बीतते गए। अब सुबह की कॉफी दोनों के लिए एक आदत बन चुकी थी, और आदित्य को ये एहसास होने लगा था कि वो सिर्फ कॉफी के लिए नहीं आता—वो आकांक्षा के लिए आता है। उसकी डायरी, उसकी सधी हुई मुस्कान, उसके झुके बाल, और सबसे ज़्यादा—उसकी आँखें, जो बोलती कम थीं, लेकिन कहती बहुत कुछ थीं।
एक दिन आदित्य ने ऑफिस के बाहर मिलने का प्रस्ताव रख दिया। “आज शाम चाय पीएं?” आकांक्षा थोड़ी हिचकी। “शायद नहीं… आज नहीं।” “क्यों?” “बस… कुछ बातें ऑफिस के बाहर बिगड़ जाती हैं।” “और कुछ बातें बाहर आने से सँवर भी जाती हैं।” आकांक्षा ने कुछ नहीं कहा। बस, कॉफी का आखिरी घूंट लिया और चली गई।
उस रात आदित्य को नींद नहीं आई। वो समझ नहीं पा रहा था कि आकांक्षा क्यों कतराती है। क्या किसी रिश्ते का डर है? या फिर अतीत की कोई गाँठ? अगले दिन जब वो कॉफी मशीन के पास पहुँचा, आकांक्षा नहीं थी। उसने टाइम देखा—9:45। फिर 9:50… फिर 10:00। आदित्य बेचैन हो गया। तभी HR से एक मेल आया—“Miss Akanksha Mehra on personal leave for 2 days.”
वो दो दिन आदित्य ने जैसे किसी साइलेंट मोड में बिता दिए। उसकी हँसी गुम हो गई, मीटिंग्स में उसका ध्यान नहीं था, और कॉफी मशीन अब बस मशीन लगती थी।
तीसरे दिन आकांक्षा लौटी। पर वो पहले जैसी नहीं थी। उसकी आँखें थकी हुई थीं, और चेहरा जैसे कुछ छुपा रहा हो। आदित्य ने धीरे से पूछा, “सब ठीक है?” आकांक्षा ने सिर हिलाया। “हाँ। मम्मी की तबीयत फिर बिगड़ गई थी।” “कुछ चाहिए तो बताओ। मैं मदद कर सकता हूँ।” “तुम हर बार क्यों मदद करना चाहते हो?” आकांक्षा ने अचानक पूछा। “क्योंकि तुम्हें देखकर मुझे अच्छा लगता है। तुम्हारी बातें, तुम्हारी डायरी, तुम्हारा मुस्कुराना… सब कुछ।” आकांक्षा चुप हो गई। उसने धीरे से डायरी खोली और उसमें से एक पन्ना फाड़ा। वो पन्ना आदित्य को दिया।
उस पन्ने पर लिखा था:
“कुछ लोग ज़िंदगी में देर से आते हैं,
लेकिन जब आते हैं, तो दिल के सबसे गहरे कोने में घर बना लेते हैं।
तुम शायद नहीं जानते, पर तुम मेरे दिन की पहली रोशनी बन चुके हो।
कॉफी तो बस बहाना है… मोहब्बत तो तुम्हारे नाम की है।”
आदित्य को जैसे कुछ पल के लिए कुछ समझ नहीं आया। “ये तुमने… मेरे लिए लिखा?” आकांक्षा ने धीरे से सिर हिलाया। “हाँ। पर मैं नहीं चाहती थी कि तुम्हें पता चले।” “क्यों?” “क्योंकि मुझे डर था… कि कहीं तुम सिर्फ मज़ाक समझो। या फिर… ऑफिस की ये छोटी-सी दुनिया इसे हज़म ना कर पाए।” आदित्य ने उसका हाथ थामा। “अगर किसी बात को लेकर दिल डरता है, तो वो बात अक्सर सच्ची होती है। और ये मोहब्बत… बहुत सच्ची है। मेरे लिए भी।”
उस दिन पहली बार दोनों कॉफी मशीन के पास बिना कप के खड़े थे। पर दिल में जो गर्माहट थी, वो किसी कॉफी से कहीं ज़्यादा थी।
आकांक्षा ने मुस्कुराकर कहा, “अब कहानी का अगला अध्याय क्या होगा?” आदित्य ने आँखें चमकाते हुए कहा, “चलो ऋषिकेश चलते हैं। जहाँ तुमने कहा था कि गंगा के किनारे सब कुछ थम जाता है।”
“और वहाँ मैं डायरी बंद कर दूँगी।”
“नहीं,” आदित्य ने हँसकर कहा, “अब वो डायरी तुम्हारे हाथ में नहीं, मेरे दिल में है।”
और कहानी, कॉफी मशीन से शुरू होकर, अब एक नए सफर की ओर बढ़ चली।
भाग ३: अतीत की परतें
ऋषिकेश की बात एक कल्पना जैसी थी, लेकिन उस दिन ऑफिस में सब कुछ बदला-बदला लग रहा था। आदित्य को पहली बार महसूस हुआ कि एक लड़की, जिसके बारे में वो कुछ ज़्यादा नहीं जानता, उसके दिल में इतनी जगह कैसे बना गई। और आकांक्षा—जिसने अपने दिल के सबसे गहरे शब्द एक पन्ने पर लिखकर आदित्य को दे दिए—वो अब थोड़ा हल्का, लेकिन कहीं ना कहीं थोड़ा डरा हुआ महसूस कर रही थी। दिल की बात कह देना आसान नहीं होता, और जब वो बात किसी ऑफिस कोरिडोर के कॉफी मशीन के पास पलती हो, तब डर और भी गहरा हो जाता है।
दूसरे दिन सुबह जब आदित्य कॉफी मशीन के पास पहुँचा, आकांक्षा पहले से मौजूद थी, लेकिन आज उसके चेहरे पर वो शांति नहीं थी जो कल थी। वो कॉफी निकाल रही थी, लेकिन उसकी उँगलियाँ काँप रही थीं।
“तुम ठीक हो?” आदित्य ने धीरे से पूछा।
उसने चौंककर देखा। फिर कहा, “हाँ, बस थोड़ी नींद नहीं हुई कल रात।”
“क्यों? मेरी वजह से?”
“नहीं, तुम्हारी वजह से नहीं… खुद की वजह से।”
“मतलब?”
आकांक्षा ने कॉफी का कप आदित्य की तरफ बढ़ाया और कहा, “आज बाहर चलें? कहीं बैठकर बात करनी है।”
आदित्य ने बिना एक शब्द कहे सिर हिलाया।
दोपहर के बाद दोनों कनॉट प्लेस के एक शांत कैफे में बैठे। खिड़की के पास की टेबल, हल्की धीमी रोशनी, और सामने कॉफी के दो कप—लेकिन आज बात कॉफी की नहीं थी।
आकांक्षा ने गहरी साँस ली। “तुमने कभी पूछा नहीं कि मैं इतनी शांत क्यों रहती हूँ, या किसी से ज़्यादा घुलती-मिलती नहीं।”
“मैंने सोचा, शायद तुम स्वभाव से ऐसी हो।”
“थोड़ी हूँ, पर थोड़ी बनी भी हूँ। कुछ साल पहले मेरी सगाई हुई थी।”
आदित्य का दिल धक-से रह गया, पर उसने चुपचाप सुना।
“हम एक ही कॉलेज में थे, और फिर एक ही शहर में नौकरी मिली। सब कुछ सही लग रहा था, लेकिन धीरे-धीरे वो बदलने लगा। कंट्रोल करने लगा—मैं क्या पहनूँ, किससे बात करूँ, कितनी देर ऑफिस में रहूँ। एक दिन उसने मेरी डायरी पढ़ ली। उसमें मेरे कुछ निजी विचार थे… कुछ डर, कुछ सवाल… और उसे बुरा लग गया।”
“फिर?”
“फिर उसने कहा कि मैं ‘बहुत सोचती हूँ’, और ‘ज़िंदगी इतनी जटिल नहीं होनी चाहिए’। उसने रिश्ता तोड़ दिया। और मैं टूट गई।”
“तुमने किसी को बताया नहीं?”
“नहीं। क्योंकि सब यही कहते—’अच्छा ही हुआ’, ‘शायद वो तुम्हारे लिए सही नहीं था’—लेकिन कोई ये नहीं पूछता कि किसी सपने के टूटने से जो खालीपन आता है, वो कैसे भरा जाए।”
आदित्य ने उसका हाथ धीरे से पकड़ लिया। “मैं पूछता हूँ, आकांक्षा। आज, और हर दिन।”
वो आँखें झुका कर बोली, “इसलिए डरती हूँ… कि फिर किसी को पास आने दिया, और वो भी चला गया तो?”
“तो इस बार मैं नहीं जाऊँगा,” आदित्य ने कहा, “और अगर तुम चाहो तो हम साथ चल सकते हैं। धीरे-धीरे।”
एक लंबी चुप्पी के बाद आकांक्षा ने कहा, “तुम्हारी आँखों में झूठ नहीं है, आदित्य। पर मुझे वक्त चाहिए… थोड़ा खुद को समझने के लिए, और तुम्हें भी।”
“मैं इंतज़ार करूँगा।”
अगले कुछ हफ्तों में दोनों की दोस्ती और भी गहरी हुई। कॉफी मशीन अब उनका गवाह था—हर मुस्कान का, हर छोटी छेड़छाड़ का, और हर उस नज़र का जिसमें शब्दों से ज़्यादा भाव थे।
एक शाम, जब ऑफिस लगभग खाली हो चुका था, आकांक्षा ने आदित्य को कहा, “आज एक और पन्ना लिखा है। लेकिन तुम्हें अभी नहीं दूँगी।”
“कब?”
“जब तुम मुझे बिना कॉफी के भी पसंद करने लगो।”
“मैं तो अब डायरी के बिना भी पसंद करने लगा हूँ।”
दोनों हँस पड़े।
लेकिन कहानी यहीं नहीं रुकी। कुछ दिन बाद ऑफिस में एक मेल आया—”Mr. Aditya Roy is being considered for an on-site project in Singapore for six months.”
आदित्य को इस मेल की भनक नहीं थी। ये मेल उसके बॉस ने HR के ज़रिए भेजा था—और उसमें आकांक्षा का नाम भी था।
शाम को कॉफी मशीन के पास, आदित्य ने सीधे पूछा, “ये तुम्हारा फैसला था?”
आकांक्षा ने कहा, “मैंने सिर्फ प्रोसेस फॉरवर्ड किया, क्योंकि तुम्हारे बॉस ने रिक्वेस्ट किया था। लेकिन हाँ, मैं जानती थी।”
“तुमने मुझसे बात क्यों नहीं की?”
“क्योंकि मैं नहीं चाहती थी कि तुम्हारा फैसला मेरी वजह से बदले। ये तुम्हारे करियर का बड़ा मौका है।”
“और अगर मैं नहीं जाना चाहूँ?”
“तो लोग कहेंगे कि आकांक्षा फिर किसी की ज़िंदगी की रुकावट बन गई।”
“मुझे लोगों की नहीं, सिर्फ तुम्हारी परवाह है।”
“पर मुझे अपनी करनी है,” आकांक्षा ने कहा, “मैं नहीं चाहती कि फिर से कोई रिश्ता अधूरा रह जाए… बिना नाम, बिना पहचान, सिर्फ कॉफी मशीन के कोने तक सीमित।”
आदित्य चुप हो गया।
आकांक्षा ने अपनी डायरी से एक और पन्ना फाड़ा, उसे बिना पढ़ाए आदित्य की जेब में डाल दिया और वहाँ से चली गई।
उस रात, आदित्य ने पन्ना निकाला और पढ़ा—
“अगर मोहब्बत को कोई नाम चाहिए, तो मैं ‘प्रतीक्षा’ रखूँगी।
अगर दूर जाना ही इसका रास्ता है, तो मैं हर रोज़ उस रास्ते पर तेरा नाम लिखूँगी।
तू लौटे ना लौटे, पर मैं तुझे जाने दूँगी—इस यकीन के साथ कि अगर ये सच्चा है, तो लौटेगा ज़रूर।”
भाग ४: बिछड़ने से पहले
शाम की रौशनी ऑफिस की खिड़कियों से छनकर ज़मीन पर लंबी परछाइयाँ बना रही थी। आदित्य कॉफी मशीन के सामने अकेला खड़ा था, दो कप हाथ में लिए—एक में अपनी पसंद की कड़क ब्लैक कॉफी और दूसरे में वही हल्की मीठी कॉफी, जो अब उसकी ज़िंदगी का स्वाद बन चुकी थी। पर आज आकांक्षा वहाँ नहीं थी। वो जानता था कि कुछ फैसले दिल से नहीं, हालात से लिए जाते हैं। और जब हालात मौन हो जाएँ, तब दिल सबसे ज़्यादा शोर करता है।
कंपनी का सिंगापुर प्रोजेक्ट एक बड़ा मौका था। विदेश में छह महीने, नई टीम, नया एक्सपोज़र—जिसके बाद प्रमोशन पक्का माना जा रहा था। पर वो प्रमोशन, जिसे पाने के लिए लोग सालों तक दौड़ते हैं, आदित्य के लिए अब बोझ लग रहा था। उस शाम जब उसने आकांक्षा की दी हुई चिट्ठी पढ़ी थी, उसके अंदर कुछ टूट गया था—या शायद कुछ नया बन गया था, जो उसे रोकना चाहता था, वहीँ, उसी कॉफी मशीन के पास।
अगले दिन आदित्य HR डिपार्टमेंट पहुँचा। उसके चेहरे पर एक अलग ठहराव था। आकांक्षा अपनी सीट पर थी, कंप्यूटर स्क्रीन पर आँखें टिकाए हुए, लेकिन दिल शायद पहले ही उसकी मौजूदगी महसूस कर चुका था। आदित्य ने दस्तक दी, हल्के से मुस्कराया।
“बात कर सकते हैं?” उसने पूछा।
आकांक्षा ने धीरे से सिर हिलाया और दोनों कॉमन एरिया की ओर चल पड़े। कॉफी मशीन खामोश थी, शायद उनके बीच की खामोशी से मेल खा रही थी।
“मैंने प्रोजेक्ट असाइनमेंट रिजेक्ट कर दिया है,” आदित्य ने कहा।
आकांक्षा का दिल जैसे एक पल के लिए थम गया। “क्यों?” उसने मुश्किल से पूछा।
“क्योंकि मैं वहाँ जाकर कुछ ऐसा खो दूँगा, जिसे मैंने बहुत मुश्किल से पाया है।”
“पर ये तुम्हारा करियर है, आदित्य।”
“और तुम मेरी ज़िंदगी।”
कुछ पलों तक दोनों खामोश रहे। फिर आकांक्षा ने कहा, “मैं नहीं चाहती कि कोई मेरे लिए अपने सपनों से समझौता करे। मैं फिर वही ग़लती नहीं दोहराना चाहती।”
“और मैं ये जानकर अपने सपनों में कैसे जी पाऊँगा कि तुम वहाँ अकेली हो, रोज़ उसी कॉफी मशीन के पास, मेरी कमी को नोट करती हुई?”
“मैं अकेली हूँ, ये तुमने कब मान लिया?”
“क्योंकि तुम्हारी आँखों में मैंने खुद को देखा है। और जब कोई किसी की आँखों में रह जाता है, तो उसका जाना आसान नहीं होता।”
आकांक्षा की पलकें भीगने लगीं, पर उसने खुद को सँभाला। “शायद हमें थोड़ा वक़्त चाहिए।”
“शायद,” आदित्य ने जवाब दिया, “पर वक्त तब ही काम आता है जब दो लोग उसे साथ बिताना चाहते हैं।”
उस शाम ऑफिस में एक farewell mail draft किया गया—“Congratulations Aditya Roy for his upcoming Singapore assignment. He’ll be joining the overseas team next Monday.”
मेल HR से गया था, लेकिन उसे टाइप करने वाले हाथ काँप रहे थे। आकांक्षा ने खुद को मजबूर किया, आदित्य की मुस्कान याद करते हुए, उसकी बातों को डायरी में समेटते हुए।
हफ्ता बीत गया।
शनिवार की सुबह आकांक्षा ऋषिकेश गई, अकेली। उसने वही जगह चुनी थी, जहाँ गंगा की धार शांति से बहती थी और किनारे एक शांत घाट पर बैठकर लोग खुद को सुन सकते थे। वहीं एक चाय की दुकान थी, जहाँ उसने पहली बार कॉलेज के दिनों में अपनी डायरी शुरू की थी। आज उसी डायरी का आखिरी पन्ना भरने का मन था।
उसी वक्त, आदित्य एयरपोर्ट पर था। बैग चेक-इन हो चुका था, बोर्डिंग पास हाथ में था, लेकिन दिल कहीं और था। फोन निकाला, व्हाट्सएप खोला—आकांक्षा का चैट बॉक्स खुला हुआ था। पिछली चैट में उसने लिखा था—“जाना है तो जाओ… लेकिन याद रखना, कुछ लोग लौटते नहीं, बस रुके रह जाते हैं वहीं, जहाँ से तुम गए थे।”
आदित्य ने फ़ोन बंद किया।
वो बोर्डिंग गेट तक गया, फिर ठिठक गया। उसने आसपास देखा—लोग सपनों की उड़ानों में थे, वो दिल की जड़ों में।
उसने बैग वापस मंगवाया।
रविवार दोपहर आकांक्षा घाट के किनारे बैठी थी। उसकी डायरी खुली थी, कलम हाथ में, पर शब्द नहीं निकल रहे थे। तभी किसी ने पीछे से आकर कहा, “अगर पन्ना खाली है, तो क्या मैं कुछ लिखूँ?”
उसने चौंककर पीछे देखा—आदित्य।
“तुम यहाँ कैसे?”
“मैंने फ्लाइट मिस कर दी।”
“क्यों?”
“क्योंकि मुझे वहाँ जाना था जहाँ दिल है, ना कि जहाँ डॉलर्स हैं।”
आकांक्षा कुछ कह नहीं सकी। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे, लेकिन वो मुस्कुरा रही थी।
आदित्य ने डायरी का पन्ना लिया और लिखा—
“जब तुम्हारी डायरी के पन्नों में मैं था, तब ही समझ जाना चाहिए था कि मेरी मंज़िल तुम्हारे ही पास है। अब चलो, साथ में एक नई डायरी शुरू करते हैं।”
उस दिन गंगा के किनारे एक कॉफी मशीन नहीं थी, पर मोहब्बत का वही स्वाद था। वही डायरी, वही दो लोग, और अब एक नई शुरुआत।
भाग ५: अब नाम देना है
ऋषिकेश की हवा में एक अजीब सी ठंडक थी, लेकिन उस दोपहर घाट के किनारे बैठे दो लोगों के बीच जैसे मौसम ही बदल गया था। गंगा की धार धीमी-धीमी बह रही थी, और उनके सामने बिछी डायरी के पन्ने हवा में फड़फड़ा रहे थे। आकांक्षा और आदित्य, जिनकी मोहब्बत कॉफी मशीन के बटन से शुरू हुई थी, आज ज़िंदगी के एक ऐसे मोड़ पर आ पहुँचे थे जहाँ किसी औपचारिक इजाज़त की ज़रूरत नहीं थी—बस एक स्वीकार था, एक स्वीकृति।
“तो अब क्या?” आकांक्षा ने धीमे स्वर में पूछा, उसकी आँखें गंगा की तरफ टिकी थीं।
“अब… नाम देना है,” आदित्य ने कहा।
“किसे?”
“हमें। इस रिश्ते को। हमारी इस कहानी को।”
आकांक्षा मुस्कुरा दी। “तुम्हें लगता है कोई एक नाम काफी होगा?”
“शायद नहीं। लेकिन एक शुरुआत तो करनी होगी। जैसे तुमने कभी डायरी में पहला शब्द लिखा था—मोहब्बत।”
“और तुमने उसे ज़िंदा किया।”
दोनों की चुप्पी जैसे संवाद बन चुकी थी। और उनके बीच अब न कोई कॉफी मशीन थी, न ऑफिस की नियमों वाली दुनिया—सिर्फ एक नदी थी, एक धारा थी, और एक दिल से दूसरे दिल तक बहता यकीन।
अचानक आदित्य ने जेब से एक छोटा-सा लिफाफा निकाला। “ये कुछ दिन पहले खरीदा था, जब लगा था कि मुझे जाना होगा।”
“क्या है इसमें?”
“एक टिकट—ऋषिकेश की। मैं नहीं जानता था तुम आओगी या नहीं। लेकिन मैंने सोचा अगर तुम न भी मिली, तो कम से कम उस जगह को तो देख लूँ जहाँ तुम अपने दिल के सबसे करीब होती हो।”
आकांक्षा ने वो टिकट लिया, देखा और धीमे से बोली, “अब इस टिकट को डायरी में चिपकाऊँगी। एक याद के तौर पर।”
“नहीं,” आदित्य ने कहा, “एक शुरुआत के तौर पर।”
अगले कुछ दिन दोनों ने ऋषिकेश में बिताए। सुबह घाट पर बैठना, दिन में बाजारों की गलियों में घूमना, और शाम को गंगा आरती के वक़्त भीड़ में एक-दूसरे का हाथ थामे रहना। पहली बार आकांक्षा खुलकर हँसी, बिना डायरी के पन्नों में खुद को छिपाए। और पहली बार आदित्य ने महसूस किया कि ज़िंदगी की सबसे अच्छी बातें वही होती हैं जो प्लान किए बिना घटती हैं।
एक शाम दोनों एक पुराने पहाड़ी कैफे में बैठे थे, जहाँ लकड़ी की मेज़ें थीं और खिड़की से बादल टकराते थे। वहाँ बैठे-बैठे आदित्य ने पूछा, “तुम्हारी मम्मी से कब मिलवाओगी?”
आकांक्षा थोड़ी हँसी। “तुम तो जैसे सीधे शादी की बात कर रहे हो।”
“नहीं,” उसने कहा, “पर अब देर भी नहीं करनी चाहिए। जितना हम एक-दूसरे को समझ चुके हैं, उतना शायद कोई रिश्ता सालों में नहीं समझता।”
“ठीक है,” आकांक्षा ने कहा, “इस रविवार। पर एक शर्त है।”
“क्या?”
“तुम्हें उनकी पसंद की चाय पीनी पड़ेगी। बहुत मीठी और दूधवाली।”
“उससे मीठी तो तुम हो, झेल लूँगा।”
वो रविवार आया। दिल्ली के एक पुराने मोहल्ले में, जहाँ गलियों में बच्चों की पतंगें उलझी रहती हैं और घरों की छतों से पड़ोसिनें चिल्लाकर बात करती हैं—वहीं आकांक्षा का घर था। आदित्य थोड़ा नर्वस था, पर उसकी मुस्कान अडिग।
माँ ने आदित्य को देखा, फिर उसकी आँखों में कुछ ढूँढा। कुछ पल की खामोशी के बाद उन्होंने कहा, “अच्छा लड़का लगता है। पर मेरी बेटी बहुत सोचती है। क्या झेल पाओगे?”
“मैं उसे हर रोज़ समझने की कोशिश करूँगा। और अगर वो कुछ न भी बोले, तब भी उसके चेहरे से पढ़ लूँगा,” आदित्य ने जवाब दिया।
माँ की आँखें भर आईं। “बस यही तो चाहिए एक लड़की को—कि कोई उसे बिना कहे समझ ले।”
वो दिन जैसे एक सिलसिला बना गया।
ऑफिस में आदित्य की जगह अब नया ट्रेनी बैठा था, और लोग अभी भी कॉफी मशीन के पास ‘मिस मेहरा’ की टाइमिंग पर चुटकी लेते थे, लेकिन अब उन बातों में एक अजीब सी गर्माहट थी—क्योंकि सब जानते थे कि जब आदित्य आता था, तो वो एक कप एक्स्ट्रा कॉफी बनती थी।
अब आदित्य और आकांक्षा साथ घर ढूँढ रहे थे। “तुम्हें बालकनी चाहिए या स्टडी रूम?” आकांक्षा ने पूछा।
“जहाँ तुम हो, वो ही स्टडी रूम भी है, और लाइब्रेरी भी।”
“और तुम मेरे लिए वो कॉफी मशीन बन चुके हो—जिस पर हर दिन वापस लौटने का मन करता है।”
एक दिन आदित्य ने एक नया डायरी कवर छपवाया। फ्रंट पर टाइटल था: कॉफी मशीन के पास मोहब्बत और नीचे छोटा-सा नाम—Aditya & Akanksha’s Journal
“अब इस डायरी में हम दोनों लिखेंगे,” उसने कहा।
“फिर पहला पन्ना तुम्हारा,” आकांक्षा ने कलम उसकी ओर बढ़ाई।
आदित्य ने लिखा—
“मैंने सोचा था कि कॉफी से दिन शुरू होता है, पर फिर तुम मिली, और जाना—दिन किसी के होने से शुरू होता है।”
आकांक्षा ने दूसरा पन्ना भरा—
“और मैंने सोचा था कि मोहब्बत सिर्फ किताबों में होती है, पर फिर तुम आए, और मेरी डायरी ने सच बोलना शुरू किया।”
भाग ६: कुछ कहानियाँ आसान नहीं होतीं
दिल्ली की सर्दियाँ दस्तक दे चुकी थीं। हल्का कोहरा सुबह की खिड़की से झाँक रहा था और ऑफिस की बिल्डिंग की छत से लेकर कॉफी मशीन तक हर चीज़ पर एक मद्धम ठंडक उतर आई थी। लेकिन आकांक्षा और आदित्य की दुनिया में एक अलग सी गर्माहट बनी हुई थी—एक ऐसी गर्माहट जो कॉफी के कप से नहीं, साथ बिताए लम्हों से आती थी। अब दोनों एक किराए के अपार्टमेंट में साथ रहते थे। अभी शादी नहीं हुई थी, पर रिश्ता वैसा ही था—संजीदा, गहरा, और बेझिझक।
हर सुबह आदित्य उसकी पसंद की कॉफी बनाता, और आकांक्षा उसके लिए पराठा बेलती। दोनों मिलकर ऑफिस के लिए निकलते, और शाम को लौटते तो एक-दूसरे को देखकर दिन की सारी थकान उतर जाती। कभी-कभी आदित्य आकांक्षा की डायरी में कुछ छुपकर लिख देता था, जैसे—“आज तुम्हारी मुस्कान ने मीटिंग से ज़्यादा असर डाला,” या “तुम्हारे बालों की गंध कॉफी से बेहतर है।” और कभी आकांक्षा उसकी पॉकेट में एक नोट छोड़ देती—“आज जो कहा, वो थोड़ा ज़्यादा अच्छा लगा… फिर भी तुम्हारा शर्ट प्रेस नहीं था।”
ज़िंदगी जैसे कविता हो गई थी, जिसमें हास्य भी था, भावनाएँ भी और ढेर सारी वास्तविकता भी।
लेकिन एक दिन, सब कुछ वैसा नहीं रहा।
वो सोमवार सुबह थी। आदित्य जल्दी में था, उसे एक क्लाइंट मीटिंग के लिए गुड़गांव जाना था। घर से निकलते वक़्त आकांक्षा ने पूछा, “लंच पैक कर दूँ?”
“नहीं यार, आज बाहर ही खा लूँगा। शायद देर हो जाएगी।”
वो जल्दी में था, लेकिन आँखों में वो नरमी थी जो कहती थी—”तुमसे जल्दी में भी प्यार है।”
आकांक्षा ने खिड़की से नीचे झाँकते हुए देखा कि आदित्य गाड़ी में बैठा और निकल गया। लेकिन उसका मन बेचैन था। उसने यूँ ही आदित्य की अलमारी खोली, शर्ट की तहें ठीक करते-करते एक फाइल गिर पड़ी। वो झुकी, और उसे उठा लिया।
फाइल पर लिखा था—”Confidential – Singapore Second Offer Letter”
वो चौंक गई। उसने तो सोचा था वो प्रस्ताव रिजेक्ट हो गया था। फिर ये?
उसने फाइल खोलकर देखा—डेट दो दिन पुरानी थी। और नीचे लिखा था—“Accepted via personal email communication – A. Roy”
उसका हाथ काँप गया। एक पल के लिए उसे कुछ समझ नहीं आया। क्या आदित्य फिर से जाने वाला है? और अगर हाँ, तो उसने बताया क्यों नहीं?
वो दिन आकांक्षा ने जैसे एक मशीन की तरह ऑफिस में बिताया। कोई मुस्कान नहीं, कोई डायरी नहीं, कोई कॉफी नहीं। शाम को आदित्य लौटा तो वही पुरानी हँसी और अपनापन उसके चेहरे पर था।
“आज बहुत थका दिया मीटिंग ने। चाय मिलेगी?” उसने पूछा।
आकांक्षा ने पूछा, “सिंगापुर कब जा रहे हो?”
आदित्य रुक गया। चाय का कप उसके हाथ से छूटते-छूटते बचा।
“तुम्हें कैसे पता चला?”
“फाइल गिर गई थी। अलमारी में रखी थी। मैंने पढ़ लिया।”
एक लंबी चुप्पी छा गई।
“मैं बताने वाला था,” आदित्य ने कहा, “बस… सही वक्त का इंतज़ार कर रहा था।”
“क्यों? क्या डर था?”
“डर था कि फिर वही कहोगी—‘मैं किसी की वजह नहीं बनना चाहती जहाँ वो अपने सपनों से समझौता करे।’ इसलिए मैंने सोचा, इस बार बताने की जगह, तय कर लूँ। इस बार मैं जा रहा था, तुम्हें साथ लेकर।”
“साथ लेकर?” आकांक्षा की आँखें भर आईं।
“हाँ। मेरा प्लान था कि तुम्हें सप्राइज़ दूँ। नई ज़िंदगी, नया शहर… और एक साथ नई शुरुआत। मैंने तुम्हारे लिए भी HR से बात कर ली थी। कंपनी में एक पोज़िशन है, जो तुम्हारे प्रोफाइल से मैच करती है।”
आकांक्षा कुछ बोल नहीं पाई। उसकी समझ में नहीं आया कि वो ग़ुस्सा करे या आँसू बहाए।
“तो ये सब अकेले तय कर लिया तुमने?” उसने धीमे स्वर में कहा।
“नहीं, मैं सिर्फ… तुम्हें खुश करना चाहता था।”
“लेकिन खुश वो नहीं करता जो सब छुपाकर करता है। ये रिश्ता तभी टिकता है जब दोनों की मर्ज़ी चले… सिर्फ एक की नहीं।”
“मैंने सोचा था कि…”
“बस!” आकांक्षा ने कहा, “यही तो बात है। तुमने सोचा। मैंने नहीं। और यही बात अब भारी लग रही है।”
उस रात दोनों ने खाना नहीं खाया। आदित्य बाहर बालकनी में खड़ा रहा, और आकांक्षा कमरे में अकेली डायरी के पन्नों को पलटती रही। हर पन्ना उसकी मुस्कान से भरा था, लेकिन उस दिन उसकी आँखों से आँसू गिरते रहे।
अगली सुबह आदित्य उठा तो देखा—डायरी टेबल पर रखी थी। उस पर एक चिट्ठी थी—
“शायद हम बहुत जल्दी सपनों को नाम देने लगे थे।
शायद हम दोनों सही थे, लेकिन सही वक़्त पर नहीं।
मुझे कुछ वक़्त चाहिए, अकेले।
ताकि मैं फिर से खुद को महसूस कर सकूँ,
बिना तुम्हारे, लेकिन तुम्हारी यादों के साथ।
मैं जा रही हूँ।
पर ये डायरी तुम्हारे पास रहनी चाहिए—क्योंकि इसमें मोहब्बत की पूरी कहानी है,
जिसे मैंने तुम्हारे लिए लिखा था।”
आदित्य ने चिट्ठी पढ़ी, और वो वहीँ ज़मीन पर बैठ गया। हाथ में डायरी, दिल में खालीपन, और आँखों में वो खामोशी जो सिर्फ अधूरी मोहब्बत में आती है।
भाग ७: जिस पन्ने पर ठहर गए थे
दिल्ली की सर्दियाँ तेज़ हो गई थीं, लेकिन आदित्य के कमरे में जैसे समय रुक गया था। उस सुबह जब उसने बिस्तर के पास रखी आकांक्षा की डायरी और उसकी चिट्ठी पढ़ी थी, तब से हर घंटा एक उम्र सा लग रहा था। पूरे कमरे में उसकी मौजूदगी थी—वो आधा बचा हुआ शैम्पू, बुकशेल्फ़ पर सहेजकर रखी उसकी चाय की कटोरी, और फ्रिज पर चिपका वो नोट जिसमें लिखा था: “आज टमाटर खत्म हो गए हैं, लेकिन तुम्हारी बातों का स्वाद अभी बाकी है।”
आदित्य चुपचाप उस डायरी को हर रात खोलता, कभी उसके लिखे लफ़्ज़ पढ़ता, कभी कोरे पन्ने गिनता। उसे लगता था जैसे उन पन्नों के बीच कहीं उसकी मोहब्बत गिरवी रखी है, और हर दिन जब वो उन्हें पलटता है, तो उसे बस एक हल्की-सी उम्मीद मिलती है—शायद आकांक्षा अब भी किसी पन्ने पर रुकी हो, सोच रही हो कि वापस लौटे या नहीं।
इधर आकांक्षा लोधी गार्डन के पास एक छोटे-से रेंटेड अपार्टमेंट में रह रही थी। उसने ऑफिस से एक महीने की छुट्टी ले ली थी, और अपनी सुबहें किताबों, दोपहरें चाय के साथ पुरानी फिल्मों और शामें खुद से लंबी बातें करते हुए बिताने लगी थी। उसे आदित्य की आदतें अब भी याद थीं—कैसे वो हर बात के बीच “वैसे सोचो तो…” कहकर विषय बदल देता था, या कैसे वो उसकी हर ग़लती पर कहता, “अब ये भी प्यारी लग रही है।”
पर उस दिन जब उसने देखा कि उसका जीवनसाथी बनने का फ़ैसला आदित्य अकेले ले रहा था, तो उसे फिर वही पुराना डर सताने लगा—क्या मैं फिर किसी की ज़िंदगी की सहायक भूमिका में रह जाऊँगी? क्या इस रिश्ते में मेरा अपना स्पेस बचा रहेगा?
एक दिन वो लोधी गार्डन की बेंच पर बैठी थी, डायरी जैसी एक नोटबुक लिए, जिसमें अब वो खुद से संवाद लिख रही थी। तभी उसके पास उसकी पुरानी दोस्त प्रिया आई, जो उसे कॉलेज से जानती थी।
“तो तू भाग आई?” प्रिया ने बिना भूमिका के कहा।
“भागी नहीं… बस अलग हुई,” आकांक्षा ने धीमे स्वर में कहा।
“और वो? आदित्य?”
“उसने बहुत कोशिश की प्रिया, सच में। लेकिन… कभी-कभी प्यार भी भारी लगने लगता है, अगर उसमें साँस लेने की जगह ना हो।”
प्रिया ने गंभीर होकर पूछा, “और तुझे लगता है उसने तुझे कैद किया था?”
आकांक्षा कुछ कह नहीं पाई। उसकी चुप्पी ने ही जैसे जवाब दे दिया।
“मुझे एक बात बता,” प्रिया ने उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा, “क्या तू रोज़ उसके बारे में नहीं सोचती? क्या अब भी तू सुबह उठकर ये नहीं देखती कि उसने मैसेज किया या नहीं?”
आकांक्षा की आँखें नम हो गईं।
“तो तू भागी नहीं आकांक्षा… तू खुद से दूर चली गई है।”
उस शाम आकांक्षा ने पहली बार अपने फ़ोन में डायरी खोली, जहाँ आदित्य ने कभी उसे वॉट्सऐप पर भेजे हुए छोटे-छोटे विचार लिखे थे। उसने एक नोट पढ़ा—“अगर कभी खो जाओ तो वहीं वापस आना जहाँ हमारी पहली कॉफी ठंडी हो गई थी।”
वो हँस पड़ी, आँसू के बीच हँसी—और उसे लगा जैसे आदित्य अब भी वहीं खड़ा है, कॉफी मशीन के पास, दो कप लिए, एक अपने लिए और एक उसके लिए।
इधर आदित्य ने उस दिन एक फ़ैसला किया। उसने ऑफिस से एक दिन की छुट्टी ली और उसी गली में पहुँचा जहाँ वो पहली बार आकांक्षा को छोड़ने गया था। घर बंद था। नीचे एक बूढ़े चौकीदार ने बताया कि “मैडम जी महीने भर के लिए कहीं गई हैं। पर एक डिब्बा छोड़ा था आपके नाम का।”
आदित्य चौंका। “मेरे नाम का?”
“हाँ, उन्होंने नाम नहीं लिखा… बस कहा था कि अगर कोई लंबा लड़का आए, जिसकी आँखें हमेशा ढूँढती दिखें, तो उसे दे देना।”
आदित्य की आँखें भर आईं। उसने डिब्बा खोला—अंदर एक कप था, वही सफेद मिट्टी का मग जिस पर हाथ से लिखा था—“कॉफी मशीन से मोहब्बत तक का सफर।” और साथ में एक छोटा सा नोट।
“मैं हर बार डर जाती हूँ, लेकिन तुम हर बार थाम लेते हो।
मैं भाग जाती हूँ, लेकिन तुम्हारी मोहब्बत मुझे हर बार वापस खींचती है।
शायद अब वक्त है कि मैं रुक जाऊँ।
और अगर तुम अब भी वहीं हो,
तो मैं कल कॉफी मशीन के पास आऊँगी—एक आखिरी बार नहीं,
एक नई शुरुआत के लिए।”
अगले दिन सुबह, आदित्य नौ बजकर चालीस मिनट पर कॉफी मशीन के पास खड़ा था। पहले जैसा ही ऑफिस, वही खामोश दीवारें, वही मशीन का टनटनाना। लेकिन आज उसकी धड़कनें तेज़ थीं। और फिर नौ पैंतालीस पर—वो आई।
सफेद कुर्ता, नीली जींस, डायरी हाथ में और आँखों में हल्की सी घबराहट। आदित्य मुस्कुराया, “तुम लेट हो गईं।”
“हाँ,” उसने हँसते हुए कहा, “क्योंकि इस बार मैं सोचती रही—कि तुम्हारे साथ जो रिश्ता है, वो फिर से उसी जगह से शुरू होना चाहिए जहाँ हमने साथ में पहली बार कॉफी पी थी।”
“और डायरी?”
“इस बार खाली है। अब तुम भरोगे।”
“तो फिर पहले पन्ने पर क्या लिखूँ?”
“लिखो… इस बार डर नहीं है। इस बार हम साथ हैं।”
कॉफी मशीन से दो कप निकले। आदित्य ने एक उसे थमाया और कहा, “अब हर सुबह यहीं मिलेंगे।”
“और हर शाम साथ लौटेंगे,” आकांक्षा ने कहा।
कॉफी की भाप अब सर्दियों को पिघला रही थी। और उनके बीच की मोहब्बत अब एक किताब बनने जा रही थी—जिसमें हर पन्ना साथ लिखा जाएगा।
भाग ८: हमारी आख़िरी कॉफी नहीं
शादी का कार्ड हल्के गुलाबी रंग में छपा था—सरल, बिना किसी दिखावे के। सामने बड़े अक्षरों में लिखा था:
“आदित्य और आकांक्षा—कॉफी से शुरू हुई कहानी अब ज़िंदगी बन रही है।”
नीचे तारीख थी: 14 फरवरी।
स्थान: दिल्ली का एक पुराना, छोटा लेकिन खूबसूरत बाग़ान, जहाँ फूलों की खुशबू और रिश्तों की गर्माहट साथ-साथ बहती थी।
आकांक्षा चाहती थी कि शादी में भी वैसा ही सुकून हो जैसा उनकी मोहब्बत में था—कम लोग, लेकिन अपने। और आदित्य को इससे कोई शिकायत नहीं थी। उसने हँसते हुए कहा था, “जितने कम लोग होंगे, उतनी ही ज़्यादा कॉफी बचेगी हमारे लिए।”
शादी की तैयारियाँ सादगी से भरी थीं। कोई बैंड-बाजा नहीं, कोई शोर नहीं, बस एक खूबसूरत मंडप, जिसके पीछे आदित्य ने एक कॉफी मशीन लगवाई थी—ठीक वैसी ही जैसी ऑफिस की थी। उसने उसे खुद ढूँढा, रिफर्बिश्ड मशीन खरीदी, और पीछे एक छोटी-सी पट्टी पर लिखवाया—“जहाँ से मोहब्बत ने पहली बार भाप ली थी।”
शादी के दिन आकांक्षा एक हल्के गुलाबी बनारसी साड़ी में थी, बालों में गजरा और आँखों में वो चमक जो सिर्फ तब आती है जब कोई अपना अतीत माफ कर चुका होता है और भविष्य को खुली बाँहों से अपनाने को तैयार हो।
आदित्य ने हल्के क्रीम रंग का कुर्ता पहना था, और उसके गले में झूलती शेरवानी की चेन बार-बार उसकी घबराहट छिपा नहीं पा रही थी।
जब फेरे शुरू हुए, तो पूजा के मंत्रों से ज़्यादा गवाही दे रही थी वो पुरानी कॉफी मशीन। रिश्तेदार समझ नहीं पा रहे थे कि इस मशीन का वहाँ क्या काम है, लेकिन आदित्य और आकांक्षा जानते थे—ये वही थी जिसने उन्हें रोज़ थोड़े-थोड़े कदमों में पास लाया, जिस पर हर कप में उनका रिश्ता खौलता रहा।
फेरे पूरे हुए, और जैसे ही आदित्य ने सिंदूर लगाया, आकांक्षा ने कान में फुसफुसाकर कहा, “अब ये डायरी तुम्हारे पास नहीं रहेगी, ये अब हमारी होगी। आधा तुम लिखना, आधा मैं।”
शादी के बाद वे दोनों ऋषिकेश नहीं गए, न कोई बड़ी डेस्टिनेशन वेडिंग ट्रिप। वो गए वहीं—अपने पुराने अपार्टमेंट में। वही पुरानी खिड़की, वही बुकशेल्फ़, वही रैक जहाँ कॉफी मग रखे थे, और वही बेड जिसकी चादर कभी-कभी अधूरी रहती थी क्योंकि दोनों एक-दूसरे को देखना ज़्यादा पसंद करते थे, सलीके से बिछी चादर से ज़्यादा।
अब उनका रूटीन बदल चुका था। सुबह की कॉफी अब सिर्फ आदित्य नहीं बनाता था, कभी आकांक्षा भी चुपचाप उठकर दो कप बना देती थी, और फिर दोनों बालकनी में बैठकर एक-दूसरे की आँखों में वही पुराना स्वाद ढूँढते थे।
एक दिन आकांक्षा ने कहा, “हमारी कहानी को किताब में बदलना चाहिए।”
“कौन सी कहानी?”
“हमारी। कॉफी मशीन वाली। डायरी से किताब तक।”
“तुम लिखो,” आदित्य ने कहा।
“हम दोनों लिखेंगे।”
तो अब दोनों ने मिलकर एक किताब लिखना शुरू किया। नाम वही था—“कॉफी मशीन के पास मोहब्बत।”
आकांक्षा के शब्दों में गहराई थी, आदित्य के लहज़े में सरलता। और जब दोनों मिलते, तो पाठकों को वो एहसास मिलता जो पहली बार कॉफी पीने पर होता है—हल्का गर्म, थोड़ा मीठा, और हमेशा के लिए याद रहने वाला।
कुछ महीनों बाद किताब छपी। लॉन्च के दिन एक छोटे से बुक कैफे में इवेंट रखा गया। लोगों ने पढ़ा, तारीफ की, और पूछा—“क्या ये असली कहानी है?”
आदित्य हँसकर कहता, “कहानी तो असली है, बस मशीन थोड़ी पुरानी है।”
एक पत्रकार ने आकांक्षा से पूछा, “आप दोनों इतने अलग स्वभाव के हैं, फिर कैसे निभा लिया?”
आकांक्षा ने मुस्कुराकर जवाब दिया, “क्योंकि हम दोनों एक-दूसरे की चुप्पियों को समझते हैं। और जहाँ शब्द कम पड़ते हैं, वहाँ कॉफी बोलती है।”
शाम को जब दोनों घर लौटे, आदित्य ने कहा, “अब अगली किताब किस बारे में होगी?”
आकांक्षा ने कहा, “शायद हमारे बच्चों के नामों पर।”
“बच्चे?” आदित्य चौंका।
“हाँ,” आकांक्षा ने हँसते हुए कहा, “मैं माँ बनने वाली हूँ।”
उस पल आदित्य की आँखें नम हो गईं। उसने आकांक्षा को गले लगा लिया और कहा, “तो फिर अगली डायरी हम तीन लोग मिलकर लिखेंगे।”
वो कॉफी मशीन अब भी उनके घर के कोने में थी। अब उसमें कॉफी से ज़्यादा यादें उबलती थीं। और हर बार जब दोनों वहाँ बैठते, तो उन्हें वही पुराना ऑफिस याद आता, वही पहली कॉफी, वही पहली लड़ाई, और वही पहली मुस्कान जो मोहब्बत में बदली थी।
कहते हैं कि कुछ कहानियाँ कभी खत्म नहीं होतीं, वो बस नए पन्नों में ढल जाती हैं। “कॉफी मशीन के पास मोहब्बत” अब कोई कहानी नहीं थी—वो आदित्य और आकांक्षा के जीवन का हिस्सा बन चुकी थी।
और अब, जब कोई उनसे पूछता, “आपकी लव स्टोरी कहाँ शुरू हुई थी?”
तो आकांक्षा जवाब देती, “जहाँ एक कप कॉफी खत्म हुआ था… और मोहब्बत ने शुरुआत की थी।
समाप्त