Hindi - यात्रा-वृत्तांत

कैलाश के द्वार तक

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अनिर्बान दास


उत्तर प्रदेश के एक छोटे से कस्बे के कोने पर खपड़ैल की छत वाला पुराना त्रिपाठी निवास खड़ा था। बाहर बरामदे में तुलसी चौरे पर दिया जल रहा था, जिसकी मद्धम लौ में रात की निस्तब्धता भी जैसे प्रार्थना कर रही थी। घर के भीतर दीवारों पर लगे पुराने चित्रों में गुज़रे समय की गूँज थी — कहीं शंकर भगवान की तस्वीर, तो कहीं लक्ष्मी देवी की धुंधली हो चुकी तस्वीर, जिनकी याद इस घर के हर कोने में बसी थी।

72 वर्ष के शंकरनाथ त्रिपाठी लकड़ी की चौकी पर बैठे, रुद्राक्ष की माला जपते हुए आँखें बंद किए शिव का स्मरण कर रहे थे। उनके चेहरे पर झुर्रियाँ जीवन के अनुभवों की कहानियाँ कहती थीं, पर आँखों में अब भी वही तेज, वही स्नेहिल जिज्ञासा थी जो जीवन भर उन्हें आगे बढ़ाती रही।

बरामदे के एक कोने में रमेश त्रिपाठी बैठा समाचार पत्र पढ़ रहा था। वह एक प्रतिष्ठित चिकित्सक था, जिले के सबसे बड़े अस्पताल में वरिष्ठ सर्जन। विज्ञान की दुनिया में उसने अपनी एक अलग पहचान बनाई थी। लेकिन आज उसके माथे पर चिंता की लकीरें खिंची थीं।

और आंगन में, आम के पेड़ के नीचे, मोबाइल फोन पर कुछ फोटो खींचता, आसमान की ओर देखते हुए घूमता फिरता 19 वर्षीय आदित्य था। वह आधुनिक पीढ़ी का प्रतिनिधि था, जिसे प्रकृति में भी इंस्टाग्राम की स्टोरीज दिखती थीं।

शाम गहराने लगी थी। शंकरनाथ ने माला समेटी, गहरी साँस ली और दोनों को आवाज़ दी,
“रमेश बेटा, आदित्य… इधर आओ, कुछ ज़रूरी बात करनी है।”

रमेश ने अखबार मोड़ा, चश्मा उतारा और पास आ बैठा। आदित्य भी उत्सुकता से दौड़ा आया।
“हाँ दादाजी, क्या हुआ? सब ठीक तो है न?” आदित्य ने पूछा।

शंकरनाथ ने दोनों को देखा। एक अपने कर्म और तर्क पर विश्वास करने वाला बेटा, दूसरा जिज्ञासु लेकिन उलझनों से भरा पोता।
“मैंने तय किया है…” वह रुके, जैसे शब्दों को तौल रहे हों, “मैं कैलाश मानसरोवर की यात्रा पर जाऊँगा।”

शब्द ऐसे थे जैसे आकाश से बिजली गिरी हो। रमेश चौक पड़ा।
“पिताजी! आप मजाक कर रहे हैं क्या? आपकी तबीयत, आपकी उम्र… ये कैसे संभव होगा?”

आदित्य भी चौंका लेकिन उसकी आँखों में रोमांच की चमक थी।
“वाओ! कैलाश मानसरोवर? दादाजी, क्या सचमुच? ये तो ज़बरदस्त एडवेंचर होगा!”

शंकरनाथ मुस्कुराए।
“हाँ बेटा, ये सिर्फ यात्रा नहीं, जीवन की अंतिम साधना होगी मेरे लिए। बहुत दिन से मन में संकल्प था, अब समय आ गया है।”

रमेश ने गहरी साँस ली।
“पिताजी, मैं समझता हूँ आपकी श्रद्धा को, लेकिन आप अपनी सेहत पर भी तो ध्यान दीजिए। वो रास्ते कितने कठिन होते हैं… ऑक्सीजन की कमी, ठंड, ऊँचाई…”

शंकरनाथ ने धीरे से रमेश का हाथ थामा।
“तुम्हें याद है, तुम्हारी माँ की अंतिम इच्छा थी कि हम दोनों कैलाश दर्शन करें। अब वो तो नहीं रहीं, लेकिन मैं उनका सपना पूरा करना चाहता हूँ। और इस बार… मैं अकेला नहीं जाऊँगा। तुम और आदित्य भी साथ चलोगे।”

रमेश अवाक रह गया।
“मैं…? और आदित्य…? पिताजी, मैं… मैं अस्पताल छोड़कर इतनी लंबी यात्रा पर कैसे जाऊँगा? और ये लड़का तो अभी बच्चा है!”

आदित्य बीच में बोल पड़ा,
“डैड! बच्चा नहीं हूँ मैं। और ये तो लाइफ टाइम एक्सपीरियंस होगा। प्लीज मना मत कीजिए। मैं साथ चलूँगा।”

रमेश असमंजस में था। उसका तर्कशील मन इसे एक भावनात्मक जिद मान रहा था। लेकिन शंकरनाथ की आँखों में आस्था की ज्वाला देख वह कुछ कह नहीं पाया।

उस रात तीनों अपने-अपने कमरों में लेटे थे। पर नींद किसी की आँखों में नहीं थी।

रमेश के मन में विचारों का झंझावात चल रहा था।
“क्या मैं पिता की इस अंतिम इच्छा को टाल सकता हूँ? क्या मेरा वैज्ञानिक दृष्टिकोण इस यात्रा की आवश्यकता को नकार सकता है? क्या जीवन सिर्फ विज्ञान और तर्क से चलता है?”

आदित्य का मन रोमांचित था।
“कितना मजा आएगा! कैलाश, मानसरोवर, पहाड़, बर्फ… और मैं अपनी फोटोज़ से सबको दिखा दूँगा, दादाजी की आस्था को भी अपने कैमरे में कैद कर लूँगा।”

और शंकरनाथ?
वो खिड़की से झाँकते चाँद को देख रहे थे।
“हे भोलेनाथ, तुम्हारे द्वार तक पहुँचने की राह दिखा देना। मैं अपने परिवार को भी उस शांति का अहसास कराना चाहता हूँ जिसे पाने को मैंने जीवन जिया।”

अगली सुबह रमेश ने नाश्ते की मेज़ पर चुपचाप घोषणा कर दी,
“ठीक है पिताजी। हम तीनों चलेंगे। मैं अस्पताल से छुट्टी की व्यवस्था कर लूँगा।”

शंकरनाथ के चेहरे पर जैसे आकाश खुल गया।
“भगवान तुम्हें सुखी रखे बेटा।”

आदित्य खुशी से उछल पड़ा।
“डैड, आप बेस्ट हो! अब तो मैं पूरी जर्नी डॉक्यूमेंट करूँगा!”

तीनों की यात्रा की तैयारी शुरू हो गई। कैलाश का द्वार अब उनका इंतजार कर रहा था।

***

त्रिपाठी निवास में हलचल मच गई थी। जिस घर में वर्षों से शांति और एक-सी दिनचर्या बसी थी, अब वहाँ कैलाश यात्रा की तैयारियों का उत्साह था।

शंकरनाथ त्रिपाठी रोज सुबह जल्दी उठकर अपनी प्रार्थना और पूजा में और अधिक लीन हो जाते। तुलसी चौरे पर दिया जलाना, शिव-स्तोत्र गुनगुनाना — अब इन सब में एक नई ऊर्जा थी। जैसे हर क्रिया उन्हें कैलाश के समीप पहुँचा रही हो।

रमेश ने जिम्मेदारियों का भार अपने कंधों पर उठा लिया था। अस्पताल से लंबी छुट्टी लेना आसान नहीं था, लेकिन पिता की इच्छा के आगे वह झुक गया। वह अपने जूनियर डॉक्टर्स को ज़रूरी निर्देश दे रहा था। साथ ही यात्रा की मेडिकल तैयारियों में लगा था — दवाओं का पाउच, ऑक्सीजन सिलेंडर, प्राथमिक चिकित्सा किट, उच्च स्थान पर चढ़ाई के लिए विशेष दवाएँ, ब्लड प्रेशर मॉनिटर — सब कुछ व्यवस्थित कर रहा था।

आदित्य का रोमांच चरम पर था। वह यूट्यूब पर कैलाश मानसरोवर यात्रा के वीडियो देखता, कैमरे की नई बैटरी मंगाता, और अपने दोस्तों को मैसेज करता —
“गाइज, कैलाश ट्रिप पे जा रहा हूँ! इट्स गॉना बी एपीक!”

तीनों की तैयारियों का अंदाज अलग था, पर मंज़िल एक थी।

घर के भीतर माहौल बदल गया था। आस-पड़ोस के लोग जब सुनते कि शंकरनाथ त्रिपाठी जी कैलाश यात्रा पर जा रहे हैं, तो श्रद्धा से उनके हाथ जोड़ते। कई लोग आकर आशीर्वाद लेते, कोई तिलक लगाकर विदा करने की बात करता, कोई शिव की पूजा सामग्री भेंट करता।

शंकरनाथ की बहन, जो पास के गांव में रहती थीं, आईं और भाई का माथा चूमते हुए बोलीं,
“भैया, हमारे हिस्से की भी प्रार्थना कर आना भोलेनाथ से। तुम धन्य हो जो ये यात्रा कर पा रहे हो।”

रमेश की पत्नी मीना, जो शहर में अपनी माँ के यहाँ गई हुई थी, फोन पर चिंता जताती रही,
“रमेश, पिताजी की उम्र का ध्यान रखना। आदित्य को भी संभालना। ये पहाड़, ये ऊँचाई… तुम तो डॉक्टर हो, जान ही सकते हो!”

रमेश हर किसी को आश्वस्त करता,
“चिंता मत करो। मैं सब संभाल लूँगा।”

सामान की खरीदारी:
तीनों ने मिलकर यात्रा का जरूरी सामान खरीदा। गरम जैकेट, ऊन की टोपी, दस्ताने, ऊँचाई पर पहने जाने वाले जूते, धूप से बचने के लिए काला चश्मा, सनस्क्रीन। रमेश मेडिकल स्टोर से ज़रूरी दवाएँ लाए। आदित्य ने एक नया ट्राइपॉड और गो-प्रो कैमरा खरीदा।

दस्तावेजों की औपचारिकता:
पासपोर्ट, परमिट, आईडी कार्ड्स, यात्रा बीमा — इन सबकी औपचारिकताओं में रमेश का अनुभव काम आया।

मनोवैज्ञानिक तैयारी:
रमेश रात में मेडिकल जर्नल पढ़ता रहता — ऊँचाई पर बीमारी (Acute Mountain Sickness), ऑक्सीजन थिननेस, हाइपोथर्मिया।
शंकरनाथ मंत्रोच्चार करते हुए यात्रा की कल्पना करते।
आदित्य कैलाश के फोटो स्क्रीनसेवर पर लगाता और दोस्तों से व्हाट्सएप ग्रुप पर कैलाश चर्चा करता।

आख़िर वो दिन आया जब उन्हें अपने घर से विदा होना था। सुबह का समय था। घर के आंगन में हल्की धूप फैली थी। तुलसी चौरे पर दिया जल रहा था। घर के लोग, पड़ोसी, और रिश्तेदार उन्हें विदा करने आए थे।

शंकरनाथ ने घर की दहलीज पर माथा टेका।
“हे प्रभु, यदि लौटकर न आऊँ तो इस घर को अपनी कृपा में रखना।”

रमेश ने घर के दरवाजे को देखा और सोचा —
“कितनी बार मैं इस घर से निकला, पर आज ये अलग है। आज मैं पिता की इच्छा का ऋण चुकाने जा रहा हूँ।”

आदित्य मोबाइल से एक सेल्फी लेने से खुद को रोक न पाया —
“थ्री जनरेशन कैलाश मिशन — स्टार्ट्स टुडे!”

मीना की आँखें भर आईं। उसने शंकरनाथ के पैर छुए।
“पिताजी, आप जल्दी लौटिएगा। भोलेनाथ आप पर अपनी कृपा बनाए रखें।”

तीनों के हाथों में शिव की प्रतिमा दी गई।
मंगल ध्वनि के बीच वाहन रवाना हुआ। गाँव की गलियों से निकलते समय लोग हाथ जोड़कर विदा कर रहे थे।

आदित्य पहली बार घर को इस नजर से देख रहा था — जैसे हर गली, हर पेड़ उसे विदा कर रहा हो।

वाहन कस्बे की सीमा पार कर चुका था। दूर हिमालय की धुंधली रेखाएँ दिख रही थीं।

शंकरनाथ ने माला फिर से थाम ली।
रमेश ने अपना मेडिकल बैग पास खिसकाया।
आदित्य खिड़की से बाहर झांकते हुए बोल पड़ा —
“कितना सुंदर है ये सब! और ये तो बस शुरुआत है!”

गाड़ी बढ़ती रही… कैलाश के द्वार की ओर… एक यात्रा बाहर की, और एक भीतर की।

***

सूरज की किरणें जब धरती पर सुनहरी चादर बिछा रही थीं, तभी त्रिपाठी परिवार की गाड़ी शहर की सीमा से बाहर निकल रही थी। वाहन की खिड़की से आती ठंडी हवा में किसी अनजाने लोक की गंध थी।

शंकरनाथ की आँखें बंद थीं, होंठों पर मंत्रों की मूक गूंज थी। रमेश एक ओर बैठा, बार-बार अपनी चेकलिस्ट देखता, जैसे किसी ज़रूरी चीज़ की पुष्टि कर रहा हो। आदित्य का मन बाहर के नज़ारों में डूबा था — वो मोबाइल से फोटो लेता, विडियो बनाता और कभी-कभी वाहन की खिड़की से सिर निकालकर उस दृश्य को खुद में समेट लेना चाहता।

चार घंटे की बस यात्रा के बाद वे दिल्ली एयरपोर्ट पहुँचे। यहाँ की भीड़-भाड़, रोशनी और शोरगुल ने पहाड़ों की ओर ले जाने वाली शांति से बिल्कुल विपरीत माहौल खड़ा किया।

रमेश टिकट और पासपोर्ट संभालते हुए आगे-आगे चल रहा था। शंकरनाथ धीमे कदमों से एयरपोर्ट की विशाल इमारत को देख रहे थे। उनके लिए यह आधुनिकता का अजनबी संसार था। आदित्य के लिए यह रोमांच का हिस्सा था। वह एयरपोर्ट की चमचमाती इमारत, विशाल विमानों और भागती-दौड़ती दुनिया की तस्वीरें ले रहा था।

दिल्ली से काठमांडू की उड़ान में पहली बार शंकरनाथ ने विमान की खिड़की से बादलों को अपने नीचे बहते देखा। उनके मन में अनजानी श्रद्धा उमड़ आई।
“ये धरती की दुनिया से कितनी दूर है ये जगह… जैसे भोलेनाथ का दरबार यहीं कहीं होगा,” उन्होंने मन में सोचा।

रमेश अपने सीटबेल्ट को जांचते हुए खिड़की से बाहर देखने लगा। उसे ये उड़ान केवल यात्रा का साधन लग रही थी।
“बस ये सब सुरक्षित हो जाए। पहाड़ों की कठिनाई तब शुरू होगी,” उसके मन का डॉक्टर जाग उठा।

आदित्य कैमरे से बादलों की तस्वीरें लेने में मग्न था।
“इसे एडिट करूँगा तो क्या शॉट बनेगा!” वह बुदबुदाया।

काठमांडू पहुँचना जैसे किसी नई दुनिया में प्रवेश करना था।

हवा में एक अलग ठंडक थी — वो ठंडक जिसमें शिव की कथा, बर्फ की चोटियाँ और भक्ति की गंध मिली हुई थी।

एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही चारों ओर हरे पहाड़ों की श्रृंखला दिख रही थी। सड़क पर दौड़ती टैक्सियाँ, सजीव मंदिरों की घंटियाँ, और दुकानों से आती अगरबत्ती की खुशबू — सब कुछ एक सम्मोहन पैदा कर रहा था।

शंकरनाथ की आँखें एकटक पशुपतिनाथ मंदिर की दिशा में उठ गईं।
“बस कुछ दिन और… फिर कैलाश तुम्हारे द्वार पर होगा…” उन्होंने मन ही मन कहा।

रमेश ने एक होटल बुक कर रखा था। होटल पहुँचते-पहुँचते रात हो चली थी।

रात के भोजन के बाद तीनों अपने-अपने कमरों में थे।

शंकरनाथ का मन:
वो खिड़की पर खड़े होकर बाहर टिमटिमाते शहर की रोशनी को देख रहे थे।
“कितनी हलचल है इस संसार में, पर मन की शांति इन मंदिरों और कैलाश की गोद में ही तो है। क्या मैं अपने जीवन की पूर्णता देख पाऊँगा?”

रमेश का द्वंद्व:
रमेश मेडिकल किट की जांच करता रहा। उसे सब कुछ व्यवस्थित करना था।
“काठमांडू तक तो सब ठीक है। आगे की राह कठिन है। पिताजी का स्वास्थ्य… आदित्य की सुरक्षा… मुझे सबका ध्यान रखना है।”

आदित्य का उत्साह:
आदित्य छत पर जाकर दूर पहाड़ों को निहार रहा था। कैमरे की ज़ूम लेंस से वह पहाड़ों की बर्फीली चोटियों को कैद करने की कोशिश कर रहा था।
“कितनी सुंदर रात है! ये तो बस शुरुआत है… असली रोमांच तो कैलाश की गोद में होगा।”

सुबह तीनों ने पशुपतिनाथ मंदिर के दर्शन किए। शंकरनाथ की आँखें भर आईं। उन्होंने मंदिर की घंटियों की गूंज में अपने भीतर शिव की उपस्थिति महसूस की।

रमेश ने वहाँ की भीड़ और आस्था को देख कर सोचा,
“कितना गहरा विश्वास है इन लोगों में। मैं क्यों अब तक इसे नजरअंदाज करता रहा?”

आदित्य ने मंदिर की भव्यता, पुजारियों की आरती, भक्तों की कतार — हर दृश्य को कैमरे में कैद किया।

तीनों ने अपनी यात्रा की अंतिम तैयारियाँ कीं। अगला पड़ाव लिपुलेख दर्रा और फिर तिब्बत सीमा की ओर था।

गाइड ताशी शेरपा से मुलाकात तय हो गई थी, जो उनकी कठिन यात्रा में साथी बनने वाला था।

रात को होटल की बालकनी से दूर दिखते पहाड़ों की ओर शंकरनाथ ने हाथ जोड़ कर प्रार्थना की।
“भोलेनाथ, अब तू ही सहारा है।”

***

काठमांडू की हलचल भरी गलियों और मंदिरों की घंटियों की गूंज अब पीछे छूट चुकी थी। गाड़ी पहाड़ों की ओर बढ़ रही थी। रास्ता ऊबड़-खाबड़ हो चला था। खिड़की से दिखते दृश्य बदलने लगे — नीचे गहरी घाटियाँ, ऊपर असीम आकाश और सामने बर्फ से ढकी चोटियाँ।

शंकरनाथ खिड़की से बाहर झाँकते हुए मंत्र पढ़ते रहे। रमेश ने अपने मेडिकल बैग को कसकर पकड़ा हुआ था। उसका मन हर मोड़ पर संभावित खतरों की कल्पना करता। आदित्य, जो अब तक कैमरे से हर दृश्य कैद कर रहा था, अब पहली बार यात्रा की कठिनाई को महसूस करने लगा था।

सड़क इतनी संकरी थी कि कई जगह गाड़ी को धीमा करना पड़ता। एक तरफ पहाड़ की दीवार और दूसरी ओर गहरी खाई। हवा में ठंडक बढ़ गई थी और ऑक्सीजन हल्की महसूस होने लगी थी।

एक मोड़ पर गाड़ी रुक गई। ड्राइवर ने कहा —
“आगे सड़क टूटी हुई है। पैदल ही आगे जाना होगा।”

शंकरनाथ ने छड़ी थामी और गाड़ी से उतर पड़े। रमेश ने पिता को सहारा देने की कोशिश की लेकिन शंकरनाथ ने मुस्कुराकर कहा —
“तुम्हें मेरी नहीं, खुद की जरूरत पड़ेगी बेटा।”

आदित्य का रोमांच अब थोड़ा डर में बदल रहा था।
“डैड, ये रास्ता कितना खतरनाक है ना!”

रमेश ने सिर हिलाया —
“यही असली यात्रा है, बेटा।”

करीब एक घंटे की पैदल यात्रा के बाद वे एक छोटे से गाँव में पहुँचे, जहाँ उनका इंतजार कर रहे थे ताशी शेरपा।

ताशी करीब 35 साल का एक दृढ़ निश्चयी, मजबूत कद-काठी का आदमी था। उसकी आँखों में पहाड़ों की चमक और चेहरे पर अनुभव की गहराई थी।

“नमस्ते! मैं ताशी हूँ। आप लोग मेरे साथ सुरक्षित यात्रा करेंगे।”

शंकरनाथ ने हाथ जोड़कर कहा —
“भोलेनाथ की कृपा से तुम हमारे पथप्रदर्शक बने हो।”

रमेश ने ताशी से रास्तों की कठिनाइयों और स्वास्थ्य संबंधी जोखिमों के बारे में विस्तार से चर्चा की। ताशी ने आश्वासन दिया —
“मैं इन पहाड़ों में पला-बढ़ा हूँ। डरने की जरूरत नहीं। सावधानी रखनी होगी, बस।”

आदित्य ने ताशी से दोस्ताना रिश्ता बनाते हुए पूछा —
“क्या आपने कैलाश को करीब से देखा है?”

ताशी मुस्कुराया —
“कैलाश को कोई नहीं देख सकता, केवल महसूस कर सकता है। पहाड़ पर भगवान का वास है।”

रात को एक छोटी सी कुटिया में ठहराव हुआ। बाहर ठंडी हवा चल रही थी। पहाड़ की चोटी पर आधा चाँद चमक रहा था।

शंकरनाथ का मन:
वे रातभर शिव का स्मरण करते रहे। हर बार हवा का झोंका उन्हें कैलाश की ओर बुलाता प्रतीत होता।

रमेश की चिंता:
रमेश पिता की सांसों की गति पर नजर रखे रहा। वह बार-बार ऑक्सीमीटर से उनकी जांच करता।
“ये ऊँचाई उन पर असर न डाले…”

आदित्य का आत्म-मंथन:
आदित्य को पहली बार मोबाइल नेटवर्क की कमी ने बेचैन किया। पर उसने बाहर निकलकर पहाड़ों की निस्तब्धता को महसूस किया।
“कितना विशाल है ये सब… और मैं अपनी छोटी दुनिया में ही उलझा रहा।”

सुबह होते ही तीनों ने अपना सफर शुरू किया। बर्फ जमी हुई थी, रास्ते पथरीले थे। ताशी शेरपा आगे-आगे चलता रहा, उनका मार्गदर्शक और रक्षक बनकर।

रास्ते में कई बार वे थके, रुके, साँसें उखड़ीं — लेकिन शंकरनाथ की आस्था उनकी ऊर्जा बनी रही। रमेश पिता को संभालता, आदित्य पिता और दादा दोनों का साथ देता।

एक मोड़ पर पहुँचते ही ताशी रुक गया —
“देखिए, वो रही कैलाश की पहली झलक।”

दूर कहीं बादलों के पार एक विशाल श्वेत आकृति दिखी — जैसे शिव का ध्वज आकाश से धरती पर टिका हो।

शंकरनाथ की आँखों से आँसू बह निकले।
“भोलेनाथ…” उनके होंठों से निकला।

रमेश और आदित्य दोनों निःशब्द हो गए। उस क्षण, विज्ञान, तर्क और रोमांच — सब मौन हो गए।

***

सुबह की ठंडी हवा में बर्फ के कण तैरते दिखाई दे रहे थे। चारों ओर सन्नाटा था — सिर्फ बर्फ पर उनके जूतों की चरमराहट सुनाई देती थी। सूरज की किरणें पहाड़ों की चोटियों को छू रही थीं, पर जमीन तक पहुँचते-पहुँचते वह गर्माहट खो देती थीं।

ताशी शेरपा सबसे आगे था — उसका हर कदम नपा-तुला, हर मोड़ की जानकारी जैसे उसकी आँखों में बसी हो। शंकरनाथ अपनी छड़ी के सहारे धीरे-धीरे चल रहे थे। रमेश का मन पिता की हर सांस पर टिका था। आदित्य का रोमांच अब गहरी गंभीरता में बदल चुका था — उसका कैमरा अब उसकी जेब में पड़ा था।

जैसे-जैसे ऊँचाई बढ़ी, हवा और पतली होती गई। शंकरनाथ की सांसें तेज चलने लगीं। उनका चेहरा पीला पड़ने लगा।

रमेश ने तुरंत ऑक्सीमीटर निकाला —
“ओह नो! सैचुरेशन 75 पर आ गया है। पिताजी, बैठ जाइए।”

शंकरनाथ ने मना किया —
“नहीं बेटा… कैलाश पास है। रुकूंगा नहीं।”

लेकिन शरीर ने साथ देना बंद कर दिया। रमेश ने ऑक्सीजन सिलेंडर निकाला और पिता को मास्क पहनाया।

ताशी शेरपा ने कहा —
“हिम्मत रखिए। यह रास्ता कठिन है लेकिन यहाँ से वापसी भी उतनी ही कठिन है। कुछ देर रुक कर साँसें सामान्य होने दीजिए।”

आदित्य ने पहली बार अपने दादा को इस हाल में देखा। उसकी आँखें भर आईं। वह अपने रोमांच की कल्पना से निकलकर सच्चाई से रूबरू हो रहा था।

कुछ ही दूरी पर आगे बढ़े थे कि मौसम ने करवट ली। तेज हवाओं के साथ बर्फ के कण चेहरे पर चुभने लगे। पहाड़ों की चोटियों से बर्फ नीचे गिरने लगी। दृश्यता कम हो गई।

ताशी ने चिल्लाकर कहा —
“सब लोग एक-दूसरे का हाथ पकड़े रहिए। रास्ता खो बैठेंगे तो मुश्किल हो जाएगी।”

रमेश ने शंकरनाथ को बाँहों में थाम लिया। आदित्य ने रमेश का हाथ मजबूती से पकड़ लिया।

ताशी सबसे आगे चलता रहा, रास्ते की पहचान कराता रहा।

एक जगह पर वे रुक गए — एक छोटी सी गुफा जैसी जगह मिली जहाँ वे कुछ समय के लिए तूफान से बच सके।

ताशी ने अपनी थैली से सूखे मेवे और गरम चाय निकाली। उसने तीनों को बाँटा।
“ये पहाड़ आपको परीक्षा लेते हैं। लेकिन अगर मन साफ हो तो रास्ता मिल ही जाता है।”

शंकरनाथ ने आँखें बंद कर लीं। वो शिव का ध्यान करने लगे।
रमेश ने ताशी से कहा —
“तुमने हमें इस तूफान में बचाया। अगर तुम न होते तो…”

ताशी ने मुस्कुराकर जवाब दिया —
“मैं कुछ नहीं, ये तो पर्वतों की कृपा है। आप लोग सच्चे यात्री हैं, इसलिए रास्ता बचा।”

आदित्य ताशी को देखता रहा। उसके लिए यह गाइड नहीं, कोई अद्भुत व्यक्ति था — जिसने जीवन को प्रकृति के साथ एकाकार कर लिया था।

तूफान धीरे-धीरे थम गया। दूर कैलाश की धवल चोटी एक बार फिर दिखने लगी। सूरज की किरणें जैसे उन पर आशीर्वाद बरसा रही थीं।

तीनों बाहर निकले। शंकरनाथ ने हाथ जोड़कर कहा —
“शिव शंकर ने फिर रास्ता दिखाया।”

रमेश ने भीतर की हलचल को महसूस किया।
“विज्ञान यहाँ बेबस है। यहाँ विश्वास ही संबल है।”

आदित्य ने अपनी जेब से कैमरा निकाला। लेकिन अब वो फोटो खींचने के लिए नहीं, उस क्षण को याद रखने के लिए उसे अपने हाथ में थामे रहा।

शाम को वे एक सुरक्षित स्थान पर रुके। ताशी ने आग जलाई।

“तुम लोग जानते हो, कैलाश को लोग क्यों नहीं छूते? क्योंकि वो भगवान का घर है। हम उसके द्वार तक पहुँच सकते हैं, भीतर नहीं। और ये यात्रा हमें अपने भीतर के कैलाश तक पहुँचाती है।”

तीनों मौन हो गए। पहाड़ों की निस्तब्धता में आग की लपटें और ताशी के शब्द गूंजते रहे।

***

सुबह की पहली किरणों ने पहाड़ों पर सुनहरी आभा फैला दी थी। हवा में अब भी ठंडक थी, लेकिन उसमें मानसरोवर के समीप होने का अद्भुत उत्साह घुला हुआ था।

ताशी शेरपा ने मुस्कुराकर कहा,
“आज आपको भगवान शिव का दर्पण दिखेगा। चलिए, आगे बढ़ते हैं।”

शंकरनाथ की आँखों में आस्था की चमक थी। रमेश अपने पिता को सँभालता आगे बढ़ रहा था, और आदित्य की आँखें हर ओर फैले अद्भुत प्राकृतिक सौंदर्य को अपने भीतर समेट रही थीं।

घाटी के उस मोड़ पर पहुँचते ही दृश्य बदल गया। सामने फैली थी — नीले आकाश को छूती, हिमालय की गोद में बसी — मानसरोवर झील। झील की नीली सतह पर सूर्य की किरणें पड़कर उसे स्वर्णिम बना रही थीं।

शंकरनाथ ठिठक गए। उनके हाथ अपने आप जोड़ गए।
“हे शिव, हे प्रभु… आज मेरा जीवन सफल हो गया।”

रमेश भी निःशब्द था। वह जो विज्ञान में विश्वास करता आया था, उस झील के शांत जल में उसे ऐसा लगा जैसे सारी तर्कशीलता डूब गई हो।

आदित्य के कैमरे का लेंस भी जैसे कांप उठा। वह अपने आँसुओं को रोक न सका।
“ये सब किसी फिल्म का दृश्य नहीं है… ये तो सच है!”

ताशी ने झील के किनारे बैठकर कहा,
“ये जल केवल पानी नहीं। ये उस आस्था का प्रतीक है जो करोड़ों लोगों को खींच लाती है। इसे छूने से पहले मन को शुद्ध करना होता है।”

शंकरनाथ ने झील के जल को अपने मस्तक से लगाया। उनकी आँखों से आँसू बह निकले।
“तुमने बुलाया प्रभु, तुम्हारी कृपा है।”

रमेश ने भी झील के जल को अपनी हथेलियों में भरकर अपने चेहरे पर छिड़का। उसे लगा जैसे वर्षों का बोझ हल्का हो गया हो।

आदित्य पहली बार अपने फोन और कैमरे को जेब में रखकर झील के किनारे निःशब्द बैठ गया। उसकी आँखें मानसरोवर की गहराई में जैसे अपने सवालों के जवाब ढूँढ रही थीं।

शाम की बेला थी। तीनों झील के किनारे पत्थरों पर बैठे थे। दूर कैलाश पर्वत की छाया झील के जल पर पड़ रही थी। ताशी ने कहना शुरू किया —

“कैलाश और मानसरोवर की कथा हजारों वर्षों पुरानी है। कहते हैं जब शिव तपस्या करते थे तो उनके पास से बहती नदियाँ मानसरोवर से ही उत्पन्न होती थीं। यहाँ आकर लोग अपने पाप धोते हैं, पर सच में ये यात्रा पाप नहीं, अहंकार धोने की यात्रा है।”

शंकरनाथ ने सिर झुका लिया।
“सही कहते हो ताशी। ये यात्रा हमें अपने भीतर के कैलाश तक लाती है।”

रमेश ने भी अब इस यात्रा को केवल भक्ति नहीं, एक आत्म-अन्वेषण मान लिया था।

रात को झील के किनारे तारे इतनी नज़दीक दिखते जैसे हाथ बढ़ाकर छू सकते। शंकरनाथ ने शिव मंत्र का उच्चारण शुरू किया। ताशी और रमेश भी चुपचाप बैठ गए। आदित्य पहली बार बिना किसी तकनीक के, केवल अपनी आँखों से उस दिव्यता को महसूस कर रहा था।

उस रात तीनों को अपने भीतर की आवाज़ सुनाई दी —
एक आवाज़ जो कह रही थी,
“अब आगे का रास्ता कठिन है, पर मंज़िल करीब है।”

***

भोर की हल्की किरणें जब मानसरोवर की सतह पर पड़ रही थीं, तब ताशी शेरपा ने तीनों को जगाया। आज का दिन सबसे कठिन होने वाला था — कैलाश पर्वत की परिक्रमा का पहला चरण शुरू होना था।

ताशी ने कहा,
“यह परिक्रमा शरीर नहीं, आत्मा से की जाती है। तैयार रहिए।”

शंकरनाथ ने मस्तक पर रुद्राक्ष की माला छूकर कहा,
“भोलेनाथ, अब तेरी परीक्षा स्वीकार है।”

रमेश ने मेडिकल किट को कसकर बाँधा। उसका मन शंका और साहस के बीच झूल रहा था।
आदित्य की आँखों में उत्साह था, पर अब उसमें गहराई भी थी।

रास्ता बर्फ से ढका हुआ था। हर कदम फिसलने का डर था। डोलमा दर्रा (5630 मीटर) उनकी पहली चुनौती था। ऑक्सीजन बेहद कम हो गई थी।

शंकरनाथ की सांसें फूल रही थीं, लेकिन उनका मन मंत्रोच्चार में डूबा था।
रमेश बार-बार ऑक्सीमीटर चेक कर रहा था।
“पिताजी, अगर सैचुरेशन 70 से नीचे गया तो हमें रुकना होगा।”

आदित्य पिता को मदद करता, कभी दादा का हाथ पकड़ता — दोनों को सहारा देता।
ताशी आगे-आगे रास्ता दिखाता रहा।

डोलमा दर्रे के पास पहुँचते ही हवाएँ तेज हो गईं। बर्फ के कण चेहरे पर सुई की तरह चुभते। दृश्यता लगभग शून्य हो चुकी थी।

रमेश ने दादा को रोकना चाहा,
“पिताजी, थोड़ा रुकिए।”

शंकरनाथ ने धीमे स्वर में कहा,
“अगर रुक गया बेटा, तो मन टूट जाएगा। चलने दो…”

ताशी ने एक पत्थर के पीछे सभी को बैठा कर थोड़ी देर बर्फीली हवा से बचाया। उसने गरम चाय पिलाई और कहा,
“मन को शांत रखिए। ये बर्फ हमें डराने नहीं, तपाने आई है।”

डोलमा दर्रे पर पहुँचते ही एक चमत्कारी क्षण आया।
हवा कुछ पल के लिए थमी। बादल हटे और कैलाश की चोटी पर सूरज की किरणें पड़ीं।

शंकरनाथ ने हाथ जोड़ दिए।
“शिवशक्ति का दर्शन है यह। धन्य हो गया मैं।”

रमेश और आदित्य दोनों निःशब्द उस अद्भुत दृश्य को देख रहे थे।

डोलमा दर्रा पार कर उतराई शुरू हुई। रास्ता और भी कठिन। बर्फ पर पैर फिसल रहे थे।
एक जगह शंकरनाथ गिर पड़े। रमेश और आदित्य ने मिलकर उन्हें उठाया।

ताशी ने कहा,
“यात्रा हमें गिरकर उठना सिखाती है। यही कैलाश का मार्ग है।”

शंकरनाथ ने ठंडी हवा में भी गर्म मुस्कान दी।
“हर गिरावट, शिव की परीक्षा है।”

शाम को वे एक छोटी सी गुफा में रुके। ताशी ने आग जलाई। बाहर कैलाश की छाया चाँदनी में और भी दिव्य लग रही थी।

तीनों थके थे, पर संतुष्ट थे। परिक्रमा का पहला दिन पूरा हुआ था।

शंकरनाथ ने कहा,
“अब जीवन की परिक्रमा पूरी करने की घड़ी आ रही है।”

रमेश ने पिता को पहली बार इस तरह से नमन किया — तर्क को छोड़ कर श्रद्धा से।
आदित्य ने कैमरा हाथ में लिया, पर फोटो नहीं खींचा — वो क्षण आँखों में कैद कर लेना चाहता था।

***

गुफा में सर्द हवा की सनसनाहट थी। बाहर कैलाश पर्वत चाँदनी में नहाया, दिव्य प्रतीक की तरह खड़ा था। गुफा के भीतर ताशी ने छोटी सी आग जला दी थी। उसकी हल्की आँच तीनों को गर्माहट दे रही थी।

शंकरनाथ गुफा की दीवार से टेक लगाए बैठे थे। उनकी आँखें अर्धमुद्रित थीं। चेहरा थका हुआ जरूर था, पर भीतर से असीम शांति में डूबा।
रमेश आग की लौ को निहारते हुए बैठा था। उसके भीतर आज एक अलग ही हलचल थी — विज्ञान, तर्क और अनुभव सब उस लौ में समाए जा रहे थे।
आदित्य गुफा की दीवार पर हाथ फेरता हुआ इस रात की निस्तब्धता को महसूस कर रहा था।

शंकरनाथ की चेतना मानो समय और स्थान से परे चली गई थी।
उन्हें अपने जीवन के सारे दृश्य दिखने लगे — बचपन में माँ की गोद, पिता की डाँट, युवावस्था में गाँव छोड़ कर शहर की ओर बढ़ना, विवाह, रमेश का जन्म, जीवन की जिम्मेदारियाँ, पत्नी की मृत्यु, और आज का यह क्षण।

“कितना भागा मैं जीवन भर… लेकिन सच्चा ठहराव तो यहाँ है… कैलाश की गोद में।”

उनकी आँखों से अश्रुधारा बह निकली। उन्होंने मन ही मन शिव को पुकारा —
“अब जो भी शेष है, तेरा है प्रभु।”

रमेश की आँखों में आग की लौ नाचती रही। वह वर्षों से डॉक्टर था — जीवन और मृत्यु के बीच की महीन रेखा का गवाह। पर आज पहली बार उसने अपनी सीमाओं को महसूस किया।

“पिताजी की सांसों पर मैं कितना पहरा दे सकता हूँ? हर औषधि यहाँ बौनी है।
शिव, अगर कहीं हो, तो आज मेरी प्रार्थना सुन लेना।”

रमेश का मन हल्का हुआ। उसने पहली बार अपने भीतर एक अपरिचित शांति को महसूस किया।

आदित्य गुफा से बाहर निकला। सामने फैला आकाश असंख्य तारों से भरा था। कैलाश की चोटी चाँदनी में ऐसी लग रही थी जैसे शिव स्वयं वहाँ विराजमान हों।

उसने कैमरा उठाया, फिर रख दिया।
“इस क्षण को कोई लेंस कैद नहीं कर सकता। ये तो आत्मा में बसता है।”

आदित्य ने आँखें बंद कर लीं। उसे लगा, जैसे वह अपनी सीमाओं को छोड़ कर आकाश में उड़ चला हो।

रात के बीच ताशी ने धीमे स्वर में कथा सुनाई —
“कैलाश परिक्रमा केवल शरीर की नहीं होती। ये मन की यात्रा है। जो अपने भीतर के शिव को पा लेता है, वही सच्चा यात्री होता है।”

शंकरनाथ, रमेश और आदित्य — तीनों ताशी की बातों में डूबते चले गए।

सुबह की पहली किरण गुफा के द्वार पर पड़ी। हवा में एक नई ताजगी थी। तीनों के चेहरे पर थकान के साथ एक दिव्यता भी दिख रही थी।

शंकरनाथ ने गहरी साँस ली —
“ये रात मेरी आत्मा का पुनर्जन्म थी।”

रमेश ने पिता को प्रणाम किया।
आदित्य ने गुफा की ओर देखते हुए मन ही मन कहा —
“ये रात मैं कभी भूल नहीं पाऊँगा।”

***

सुबह की पहली किरण कैलाश की चोटी पर पड़ चुकी थी। श्वेत बर्फ से ढकी उस चोटी पर सूरज की रोशनी ऐसे लग रही थी जैसे शिव का त्रिशूल आकाश से उतर आया हो।

गुफा से बाहर निकलते ही शंकरनाथ ने कैलाश को प्रणाम किया।
“अब मंज़िल पास है प्रभु। तेरी शरण में आया हूँ।”

रमेश पिता के चेहरे पर दृढ़ता और दिव्यता देख कर अभिभूत था। आदित्य अपने कैमरे को जेब में रख चुका था — उसकी आँखें इस अंतिम चरण को अपनी आत्मा में सँजो लेना चाहती थीं।

ताशी शेरपा ने कहा —
“आज अंतिम और सबसे कठिन चरण है। हर कदम सोच-समझकर रखना होगा।”

रास्ता अब पथरीला हो गया था। बर्फ के नीचे छुपे पत्थरों पर पैर फिसलने लगे। ऑक्सीजन और कम हो गई थी।

शंकरनाथ की सांसें उखड़ने लगीं। रमेश ने तुरंत ऑक्सीजन सिलेंडर लगाया, लेकिन शंकरनाथ ने हाथ हटा दिया।
“रमेश, ये शरीर शिव को अर्पित है। अब शिव ही सहारा हैं।”

रमेश की आँखें भर आईं।
“पिताजी, मैं आपको इस हालत में नहीं देख सकता।”

शंकरनाथ मुस्कुरा पड़े।
“डर मत बेटा। आज मैं अपने शिव से मिलने जा रहा हूँ।”

आदित्य ने दादा का हाथ पकड़ लिया।
“दादू, हम तीनों साथ हैं। मंज़िल तक एक साथ चलेंगे।”

कैलाश की तलहटी के पास एक तीखा मोड़ आया। वहाँ बर्फीली हवाएँ बहुत तेज थीं। हर कदम पर खतरा था कि पैर फिसले और खाई में गिर जाएँ।

ताशी आगे बढ़ा और एक चट्टान की आड़ में तीनों को खड़ा कर दिया।
“अब से हर कदम शिव के नाम पर रखिए। डर आपका सबसे बड़ा शत्रु है।”

शंकरनाथ ने शिव मंत्र का जाप शुरू किया। रमेश और आदित्य ने भी आँखें बंद कर प्रार्थना की।

धीरे-धीरे वे अंतिम मोड़ पार करने लगे। बर्फ उनके घुटनों तक पहुँच चुकी थी। शरीर कांप रहा था लेकिन मन अडिग था।

अंततः वे कैलाश की तलहटी तक पहुँच गए। सामने शिव का धवल धाम था। चोटी पर सूरज की किरणें ऐसी लग रही थीं जैसे शिव का आशीर्वाद बरस रहा हो।

शंकरनाथ घुटनों के बल बैठ गए।
“हे महादेव! अब जीवन का कोई मोह नहीं रहा। तेरी शरण में सुख है।”

रमेश ने पिता के कंधे पर हाथ रखा और कहा —
“पिताजी, आपने हमें जीवन का अर्थ सिखा दिया।”

आदित्य की आँखों से आँसू बह निकले।
“दादू, ये क्षण मेरी आत्मा में हमेशा जिंदा रहेगा।”

ताशी ने कहा —
“कैलाश का द्वार यहीं से खुलता है। इससे आगे कोई नहीं जाता। यहाँ से जो देखता है, वो अपने भीतर का कैलाश देख लेता है।”

तीनों ने हाथ जोड़ कर कैलाश को प्रणाम किया। हवा में एक दिव्य शांति फैल गई थी।

***

कैलाश की तलहटी पर बिताई उस दिव्य घड़ी के बाद अब लौटने का समय आ चुका था। सूरज की पहली किरणें जब पर्वत की बर्फीली चोटी पर पड़ीं, तब शंकरनाथ ने अपनी आँखें मूँदकर शिव को अंतिम प्रणाम किया।

“भोलेनाथ, जो पाया, तेरी कृपा से पाया। अब यह जीवन तेरा प्रसाद है।”

रमेश और आदित्य भी इस क्षण को अपने दिल में हमेशा के लिए कैद कर लेना चाहते थे। ताशी शेरपा ने संकेत किया —
“अब हमें लौटना होगा। मौसम कभी भी करवट बदल सकता है।”

लौटने का रास्ता वही था, पर तीनों के लिए अब वह अलग था। रास्ते की हर चट्टान, हर मोड़ अब उनके लिए गुरु जैसा बन गया था।

शंकरनाथ का मन:
हर कदम पर उन्होंने शिव मंत्र का जाप किया। उनके भीतर एक ऐसी शांति बस गई थी, जो उम्रभर की चिंताओं को हर चुकी थी।

रमेश का मन:
अब उसके भीतर का डॉक्टर नहीं, एक साधक जाग उठा था। उसने जीवन को केवल चिकित्सा या विज्ञान नहीं, एक तपस्या की तरह देखना शुरू कर दिया था।

आदित्य का मन:
पहाड़ों की हर झील, हर पत्थर अब उसके लिए केवल दृश्य नहीं, एक जीवंत अनुभव था। उसने पहली बार कैमरा निकाला, पर तस्वीरें खींचने के बजाय उसे वापस जेब में डाल दिया।

वापसी के रास्ते में मौसम ने एक बार फिर करवट ली। हवा तेज हो गई, बर्फबारी शुरू हो गई।

ताशी ने कहा,
“जल्दी चलिए, नीचे उतरना होगा। ये पहाड़ अंतिम परीक्षा लेना चाहते हैं।”

शंकरनाथ थक चुके थे, लेकिन उनके चेहरे पर संतोष था। रमेश और आदित्य ने मिलकर उन्हें सहारा दिया।

कई घंटे की कठिन यात्रा के बाद वे नीचे की सुरक्षित घाटी में पहुँचे।

मानसरोवर झील को अंतिम बार देखकर तीनों ने हाथ जोड़े। झील की नीली सतह पर गिरते बर्फ के कण ऐसे लग रहे थे जैसे शिव के आशीर्वाद की वर्षा हो रही हो।

शंकरनाथ बोले,
“अब यह जल मेरे मन में बस गया है। हर जीवन यात्रा का यही सार है।”

रमेश ने कहा,
“पिताजी, अब मैं जीवन को नए अर्थ में देख रहा हूँ।”

आदित्य ने कहा,
“अब मेरी तस्वीरें सिर्फ बाहर की नहीं होंगी। अब मैं भीतर झाँकूँगा।”

वापसी की रात वे ताशी के गाँव में रुके। वहाँ की सादगी, वहाँ के लोग और वहाँ की हवा में तीनों को एक नई ऊर्जा महसूस हुई।

ताशी ने कहा,
“आप लोग अब सच्चे यात्री बन गए हैं। कैलाश की यात्रा केवल शरीर की नहीं, आत्मा की होती है।”

शंकरनाथ, रमेश और आदित्य ने ताशी को गले लगा लिया।

अंततः वे काठमांडू लौटे। वही सड़कें, वही शोर, वही दुनिया — लेकिन उनके भीतर सब कुछ बदल चुका था।

शंकरनाथ अब भीतर से मुक्त थे। रमेश अब डॉक्टर नहीं, जीवन का साधक बन चुका था। आदित्य अब बाहर से नहीं, भीतर से फोटोग्राफर बन गया था।

***

कई सप्ताह की कठिन, पवित्र और आत्म-अन्वेषण की यात्रा के बाद तीनों—शंकरनाथ, रमेश और आदित्य—अपनी यात्रा पूरी कर अब अपने घर की चौखट पर लौट आए थे।

जैसे ही घर का दरवाजा खुला, पुराने परिचित वातावरण ने उनका स्वागत किया। पर आज सब कुछ अलग लग रहा था। वही घर, वही दीवारें, वही आँगन — लेकिन उनकी आँखों में कैलाश की छाया उतर आई थी।

घर लौट कर शंकरनाथ सबसे पहले अपने पूजा स्थान में बैठ गए। उन्होंने शिवलिंग पर मानसरोवर का जल चढ़ाया और आँखे मूँद कर ध्यान में लीन हो गए।

अब उनकी प्रार्थना में माँग नहीं थी, केवल आभार था।
“शिव, तूने बुलाया, तूने दिखाया। अब जो शेष जीवन है, वो तेरा है।”

हर सुबह वे उसी शांत भाव से जागते, घंटों ध्यान करते और अपने भीतर की शांति को सबमें बाँटते। गाँव और परिवार के लोग उन्हें अब केवल शंकरनाथ नहीं, ‘कैलाशवासी बाबा’ कहने लगे।

रमेश अपने अस्पताल लौटा। अब वो डॉक्टर रमेश नहीं था, वो सेवा रमेश बन चुका था। मरीजों से अब वह केवल दवाइयाँ नहीं, स्नेह और हिम्मत भी बाँटता।

कभी मरीजों की धड़कनें सुनते समय उसे कैलाश की निस्तब्धता याद आ जाती।
“जीवन सांसों में नहीं, उसके अर्थ में है।”

उसकी आँखों में अब किसी की पीड़ा देख कर आँसू भी आ जाते और उसके शब्दों में दिलासा होता।

आदित्य ने लौटते ही अपनी सारी तस्वीरें कंप्यूटर पर उतारीं। लेकिन उसे एहसास हुआ कि कैलाश की यात्रा की असली तस्वीरें तो उसकी आत्मा में कैद हैं।

उसने कैमरा उठाया, पर इस बार वो बाहर की नहीं, भीतर की तस्वीरें खींचना चाहता था — लोगों की आँखों में छुपे सवाल, हिम्मत, और उम्मीदें।

उसकी प्रदर्शनी का नाम था — “आत्मा का कैलाश”। और हर चित्र लोगों को भीतर झाँकने पर मजबूर कर देता।

तीनों की यात्रा की कहानियाँ गाँव में, रिश्तेदारों में, और मित्रों में फैल गईं। लोग उनसे मिलने आते, यात्रा के अनुभव सुनना चाहते। लेकिन शंकरनाथ हर किसी से कहते —
“कैलाश कोई जगह नहीं, ये अपने भीतर की शांति पाने की यात्रा है। तुम्हें वहाँ जाने की ज़रूरत नहीं, अगर मन सच्चा हो तो कैलाश तुम्हारे भीतर है।”

रमेश स्वास्थ्य शिविरों में मुफ्त सेवा शुरू कर चुका था। आदित्य बच्चों को फोटोग्राफी सिखाने लगा — ताकि वो दुनिया को सुंदर नजरों से देख सकें।

कई रातों को तीनों अपने आँगन में बैठ कर आसमान की ओर देखते। वही चाँद, वही तारे — पर अब उन सब में कैलाश की यादें बस गई थीं।

शंकरनाथ धीमे स्वर में कहते —
“कैलाश बुलाता नहीं, अपने पास खींच लेता है। और जब लौटाता है, तो नया बना कर।”

रमेश और आदित्य सिर झुका कर सहमति जताते। उनके जीवन का हर दिन अब एक नई साधना बन चुका था।

***

समय बीतता गया, लेकिन कैलाश की यात्रा की स्मृतियाँ शंकरनाथ, रमेश और आदित्य के जीवन का हिस्सा बन चुकी थीं। वो स्मृतियाँ किसी किताब के पन्ने नहीं थीं — वो उनके विचारों, कर्मों और शब्दों में बस गई थीं।

शंकरनाथ प्रातः काल अपने छोटे से आँगन में बैठ कर शिव मंत्र का जाप करते। उनकी आँखों में वो शांति दिखती, जो लोग दूर-दूर से देखने आते।
“बाबा, हमें भी अपने अनुभव सुनाइए…”
गाँव के लोग, बच्चे, युवा, सब उनके चारों ओर बैठ जाते।

शंकरनाथ धीरे स्वर में कहते —
“कैलाश पर पहुँचने के लिए बड़े-बड़े साधन नहीं चाहिए। सच्चा हृदय चाहिए। यात्रा बाहर की नहीं, भीतर की होती है। अगर तुम्हारा मन पवित्र है, तो तुम्हारे घर का आँगन भी कैलाश बन सकता है।”

रमेश अब अस्पताल से बाहर भी सेवा करने लगा था। वह गाँव-गाँव जाकर स्वास्थ्य शिविर लगाता, मुफ्त इलाज करता। पर उसकी चिकित्सा सिर्फ दवा तक सीमित नहीं रहती।

“तुम्हारा साहस ही तुम्हारी सबसे बड़ी औषधि है,” वह मरीजों से कहता।
कई बार वह मरीजों की नब्ज पर हाथ रखते हुए मानसरोवर के जल की शीतलता महसूस करता। और यही शीतलता वह अपने शब्दों में भर कर मरीजों को देता।

उसने एक छोटी-सी किताब लिखनी शुरू की —
“कैलाश से जीवन तक” — जिसमें उसने कैलाश यात्रा और चिकित्सा की समानता को शब्दों में बाँधा।

आदित्य ने अपनी फोटोग्राफी को नई दिशा दी। उसने गाँव के बच्चों और युवाओं को फोटोग्राफी सिखाना शुरू किया। वह कहता,
“तस्वीर केवल बाहर की सुंदरता नहीं दिखाती, यह तुम्हारे मन को भी दर्पण दिखाती है।”

उसने कैलाश यात्रा पर आधारित अपनी प्रदर्शनी लगाई। हर तस्वीर में पहाड़ नहीं, भावनाएँ थीं — आस्था, संघर्ष, शांति, और आत्म-साक्षात्कार।

प्रदर्शनी का नाम रखा गया —
“कैलाश: आत्मा की यात्रा”
लोग दूर-दूर से उसे देखने आते। कई दर्शकों की आँखें नम हो जातीं।

तीनों की जीवन शैली गाँव और समाज में एक नई जागृति ले आई।
लोग अब अपनी रोजमर्रा की भाग-दौड़ से समय निकाल कर ध्यान करते, दूसरों की सेवा करते और भीतर झाँकने की कोशिश करते।

गाँव के बच्चों में अब सवाल होते —
“बाबा, क्या हम भी कैलाश जा सकते हैं?”
शंकरनाथ मुस्कुराते और कहते —
“तुम्हारा मन सच्चा हो तो हर रास्ता कैलाश तक जाता है।”

रात को तीनों फिर कभी-कभी एक साथ बैठते। आसमान की ओर देखते हुए वे कैलाश यात्रा की स्मृतियों को एक-दूसरे से बाँटते।

शंकरनाथ कहते,
“हम कैलाश से लौट तो आए, पर वो कैलाश अब हमारे भीतर बस गया है।”

रमेश जोड़ता,
“और अब हर दिन हम उसकी परिक्रमा करते हैं — सेवा और प्रेम से।”

आदित्य कहता,
“मेरे हर चित्र में वो कैलाश बोलता है, जो शब्दों से परे है।”

***

समय अपनी गति से बहता रहा। कैलाश यात्रा की स्मृतियाँ अब केवल स्मृतियाँ नहीं रहीं, वे तीनों की जीवनशैली बन चुकी थीं। हर दिन, हर पल जैसे एक नई परिक्रमा का हिस्सा था — वो परिक्रमा जो जीवन की सच्ची साधना थी।

शंकरनाथ ने अपने घर के एक कोने को छोटा-सा आश्रम बना दिया। वहाँ न रत्नों से सजे देवालय थे, न महंगे प्रतीक। बस एक शिवलिंग, एक दीपक, और उनकी सादगी भरी प्रार्थना।

गाँव के लोग हर सुबह वहाँ आकर बैठते। शंकरनाथ उन्हें शिव तत्त्व, जीवन की परिक्रमा और आत्म-शांति के बारे में बताते।

उनकी बातें अब उपदेश नहीं होतीं — वे अनुभवों की सच्ची गूँज होतीं।
“कैलाश की परिक्रमा तो कर ली बेटा, अब जीवन की परिक्रमा करो — करुणा, सेवा और विनम्रता के साथ।”

उनकी सादगी ने गाँव के बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक के मन को छू लिया।

रमेश ने अपने अस्पताल को केवल इलाज की जगह नहीं, सेवा का केंद्र बना दिया। वह निर्धनों के लिए मुफ्त दवाएँ देता, हर मरीज से पहले उनके मन की पीड़ा समझता।

उसकी चिकित्सा अब शारीरिक नहीं, आत्मिक भी थी।
“बीमारी शरीर की हो या मन की, उसका इलाज प्रेम और धैर्य से ही होता है।”

उसने अपने बेटे और बेटी को भी सिखाया —
“डिग्री से डॉक्टर नहीं बनते, सेवा से बनते हैं।”

उसकी लिखी किताब “कैलाश से जीवन तक” अब गाँव-गाँव पढ़ी जाने लगी थी।

आदित्य की तस्वीरें अब अखबारों और पत्रिकाओं में नहीं, गाँव के चौपालों और स्कूलों की दीवारों पर सजी रहतीं।

उसने हर चित्र में जीवन की परिक्रमा को दर्शाया — एक किसान का संघर्ष, एक माँ की ममता, एक बच्चे की मासूमियत।

उसकी प्रदर्शनी अब गाँवों की यात्रा करने लगी। लोग तस्वीरें देखकर अपने भीतर झाँकने लगे।
“ये तस्वीरें तुम्हारे अंदर छुपे कैलाश की झलक दिखाती हैं,” आदित्य कहता।

तीनों की साधना का असर गाँव की हवा में घुल गया।
लोग एक-दूसरे की मदद करने लगे। किसान आपस में बीज और औजार बाँटने लगे। युवाओं में नशे और आलस्य की जगह श्रम और सेवा का भाव जागा।

गाँव के छोटे मंदिर में अब हर पूर्णिमा पर साधना होती। वहाँ कोई बड़ा पंडित नहीं होता, बस लोग मिलकर भजन गाते और शांति का अनुभव करते।

एक शाम शंकरनाथ आँगन में बैठे कैलाश की दिशा में निहार रहे थे। रमेश और आदित्य भी पास ही थे।

शंकरनाथ बोले —
“कैलाश की परिक्रमा तो पूरी हो गई बेटा, अब जीवन की परिक्रमा भी पूरी होने को है। बस यही कामना है कि ये परिक्रमा दूसरों की सेवा और प्रेम में पूर्ण हो।”

रमेश और आदित्य ने उनके चरण छुए। उनकी आँखों से श्रद्धा के आँसू बह निकले।

***

वर्षों बीत गए। शंकरनाथ की उम्र अब अस्सी पार कर चुकी थी। उनका शरीर भले ही दुर्बल हो गया था, पर उनकी आत्मा अब भी कैलाश की बर्फीली चोटियों की तरह अडिग और शीतल थी।

गाँव में अब उन्हें कोई शंकरनाथ नहीं कहता था। वे सबके लिए बाबा कैलाशवासी बन चुके थे। सुबह-शाम उनका आँगन गाँव वालों से भर जाता। बच्चे उनकी कहानियाँ सुनते, बड़े उनकी सीखों से प्रेरणा लेते।

अब वे प्रायः आँगन में बैठे रहते, कैलाश की दिशा में निहारते और धीमे स्वर में शिव मंत्र का जाप करते।

एक दिन शाम को उन्होंने रमेश और आदित्य को पास बुलाया।
“बेटा, समय आ गया है जब इस शरीर की यात्रा पूर्ण होगी। पर मेरी आत्मा अब भी उस कैलाश की परिक्रमा करती रहेगी। तुम दोनों जीवन की परिक्रमा को अधूरा मत छोड़ना।”

रमेश की आँखें छलक आईं।
“पिताजी, आप हमारे जीवन का आधार हैं। हमें छोड़कर क्यों कह रहे हैं ऐसा?”

शंकरनाथ मुस्कुराए।
“मुझे कौन छोड़ कर जाता है बेटा? मैं तो हर सांस में, हर सेवा में, हर प्रेम में रहूँगा। शरीर तो केवल एक वस्त्र है — अब शिव मुझे अपने धाम बुला रहे हैं।”

रमेश ने ठान लिया कि अब वह अपनी चिकित्सा सेवा को और व्यापक करेगा।
“पिताजी, आपकी सेवा ही मेरी साधना होगी।”

उसने गाँव में एक नया केंद्र शुरू करने का संकल्प लिया — “बाबा कैलाश सेवा केंद्र” — जहाँ गरीबों को मुफ्त दवा, भोजन और शिक्षा दी जाएगी।

आदित्य ने दादा के अंतिम दिनों को अपनी आत्मा की आँखों से देखना शुरू किया। उसने चित्र बनाए — शांति में लीन शंकरनाथ, शिव को निहारते शंकरनाथ, और शंकरनाथ के चेहरे की वह दिव्यता, जो शब्दों में नहीं बंध सकती थी।

उसकी प्रदर्शनी का नाम था — “जीवित कैलाश”।

एक पूर्णिमा की रात, जब आकाश शिव के आभा से जगमगा रहा था, शंकरनाथ ने अपनी अंतिम साँस ली। उनके चेहरे पर एक दिव्य मुस्कान थी। उनके होंठों से अंतिम शब्द फिसले —
“हर आत्मा का कैलाश उसके भीतर है… वही शिव है… वही शांति है…”

गाँव वालों ने उन्हें उसी आँगन में दफनाया जहाँ वे साधना करते थे। उस स्थान पर एक छोटा-सा पत्थर रखा गया जिस पर लिखा था —
“बाबा कैलाशवासी — जिसने जीवन को परिक्रमा बना दिया।”

शंकरनाथ की शिक्षा गाँव से निकल कर आस-पास के जिलों में फैलने लगी।
रमेश का सेवा केंद्र गरीबों के लिए आशा की किरण बना।
आदित्य की तस्वीरें देश-विदेश में लोगों को जीवन के अर्थ से रूबरू कराने लगीं।

बच्चे अब शिव और कैलाश की कहानियों में शंकरनाथ को देखते।

***

शंकरनाथ की देह भले ही इस धरती से विदा हो चुकी थी, लेकिन उनकी आत्मा गाँव की हवा में, हर दिल में, और हर सेवा में जीवित थी। उनकी शिक्षाएँ किसी किताब के पन्नों तक सीमित नहीं थीं — वे अब गाँव के जीवन में घुल चुकी थीं।

रमेश ने पिता के स्वप्न को एक नई ऊँचाई पर पहुँचाया। “बाबा कैलाश सेवा केंद्र” अब केवल चिकित्सा का स्थान नहीं रहा।
वहाँ अब बच्चों के लिए विद्यालय, युवाओं के लिए रोजगार प्रशिक्षण और वृद्धों के लिए आश्रय बना दिया गया।

रमेश हर सुबह शिव मंत्र के साथ सेवा केंद्र का दिन शुरू करता। मरीजों के इलाज के साथ वह जीवन के अर्थ की बातें करता। लोग अब उसे सिर्फ डॉक्टर नहीं, “सेवा बाबा” कहने लगे थे।

आदित्य की प्रदर्शनी “जीवित कैलाश” देश-विदेश में घूमी। हर चित्र ने हजारों लोगों को प्रेरित किया।
उसने युवाओं की एक टीम बनाई, जो समाज की सकारात्मक तस्वीरें खींच कर गाँव-गाँव दिखाती।

उसका कहना था —
“दादू ने सिखाया था कि कैलाश कहीं दूर नहीं, हर सेवा में है। यही अब मेरी कला का उद्देश्य है।”

गाँव अब पूरी तरह बदल गया था। बच्चे शिव भजन गाते हुए बड़े होते। युवा नशा और आलस्य छोड़ कर श्रम और सेवा में जीवन बिताने लगे।
हर पूर्णिमा को गाँव के लोग बाबा कैलाशवासी के आँगन में एकत्र होते, दीप जलाते और सेवा का संकल्प लेते।

गाँव का नाम ही अब बदल गया था —
लोग उसे “कैलाशपुर” कहने लगे थे।

समय बीतता रहा। रमेश वृद्ध हुआ, आदित्य के बच्चे बड़े हुए।
लेकिन शंकरनाथ की विरासत एक दीपक की तरह पीढ़ी-दर-पीढ़ी जलती रही।

बच्चे जब भी सेवा केंद्र जाते, वहाँ एक दीवार पर बड़े अक्षरों में लिखा पढ़ते —
“हर आत्मा का कैलाश उसके भीतर है — बाबा कैलाशवासी”

यही वाक्य उनके जीवन की दिशा बनता।

एक रात रमेश, आदित्य और उसके बच्चे आँगन में बैठे थे। सामने वो पत्थर था जहाँ शंकरनाथ की स्मृति थी। चाँदनी रात में हवा में एक अलौकिक शांति थी।

रमेश ने कहा —
“पिताजी की परिक्रमा अब हमारी जिम्मेदारी है।”

आदित्य बोला —
“और इस दीपक को बुझने नहीं देंगे।”

उस रात, आकाश में कैलाश की आकृति तारे-तारे चमक रही थी। मानो स्वयं शिव आशीर्वाद दे रहे हों।

 

 

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