अनिरुद्ध त्रिपाठी
जनवरी की ठंडी सुबह थी। कुंभ मेले का शोर हर दिशा में गूंज रहा था — गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम तट पर आस्था और भक्ति की एक अलग ही दुनिया बसी थी। साधु-संतों की आवाज़ें, ढोल-नगाड़ों की थाप, मंत्रों की गूंज और दूर-दूर से आए श्रद्धालुओं का उत्साह — सबकुछ मानो किसी दैवी रंगमंच का हिस्सा हो।
आठ साल का आरव अपने माता-पिता और बड़ी बहन समीरा के साथ पहली बार कुंभ मेले में आया था। छोटे शहर के इस मध्यमवर्गीय परिवार के लिए यह यात्रा एक धार्मिक कर्तव्य से बढ़कर एक पारिवारिक उत्सव थी।
“माँ, वो देखो हाथी! उसके ऊपर बाबा जी बैठे हैं!”
आरव की आँखों में चमक थी।
समीरा ने उसका हाथ कसकर पकड़ा।
“भाई, दूर मत जाना। बाबा जी तो बाद में भी देख सकते हैं। पहले माँ के साथ संगम स्नान करना है ना!”
आरव ने मुँह बनाया, लेकिन चुपचाप बहन के पीछे-पीछे चलने लगा। उनके माता-पिता कुछ कदम आगे थे। माँ बार-बार पीछे मुड़कर देखतीं, मानो उन्हें डर हो कि कहीं ये भीड़ उनके बच्चों को निगल न जाए।
कुंभ का मेला कोई साधारण मेला नहीं होता। लाखों लोगों का समंदर एक जगह इकट्ठा होता है, और हर चेहरा जैसे एक नई कहानी कहता है। कहीं नागा साधुओं का जुलूस निकलता, कहीं गंगा आरती की तैयारी होती। बच्चे, बूढ़े, महिलाएँ — सब आस्था की इस भीड़ में गुम से लगते।
“चलो, जल्दी करो,” पिता बोले, “आरती शुरू होने वाली है। भीड़ और बढ़ जाएगी।”
पर उसी वक्त समीरा की नज़र एक दुकान पर पड़ी — एक बूढ़ा आदमी रंग-बिरंगे गुब्बारे बेच रहा था। आरव की नज़र भी वहीं टिक गई।
“माँ, बस एक गुब्बारा ले लूँ?” उसने ज़िद की।
माँ ने हँसते हुए इजाज़त दी, “ठीक है, लेकिन समीरा के साथ जाना, अकेले बिल्कुल नहीं!”
आरव और समीरा गुब्बारे वाले की तरफ बढ़े।
भीड़ अचानक गहराने लगी। कहीं से कोई साधु दल नगााड़े बजाते हुए निकला। धक्कामुक्की सी होने लगी।
एक झटका — और समीरा का हाथ छूटा।
“आरव! रुको!” वह चिल्लाई, लेकिन एक महिला की गोद में बच्चा था, वो गिरने से बचाने में उलझ गई। लोग एक-दूसरे से टकरा रहे थे।
“माँ! दीदी!” आरव चीख रहा था, पर उसकी आवाज़ गुम हो रही थी।
वह क्षण — जब रिश्ता छूटा
आरव को कुछ समझ नहीं आया। उसकी नज़रें बहन को खोजती रहीं, पर चारों ओर अजनबी चेहरे थे। एक पल पहले तक जो परिवार उसके चारों ओर था, अब वह एक विशाल भीड़ में अकेला था।
उसने वहीं खड़े एक पुलिस वाले की वर्दी देखी और उसकी तरफ दौड़ा।
“अंकल! मैं खो गया हूँ… माँ नहीं दिख रही… दीदी भी नहीं…”
पुलिस वाला झुका, “बेटा, नाम क्या है? कहाँ से आए हो?”
“आरव… हम झाँसी से आए हैं… माँ का नाम सुनीता है… पापा का — दीपक…”
“अच्छा ठीक है, रो मत। चलो हमारे साथ चलो, वो अनाउंसमेंट कराएंगे।”
आरव को एक टेंट में ले जाया गया, जहाँ दर्जनों ऐसे ही खोए हुए बच्चे बैठे थे। कोई रो रहा था, कोई चुपचाप कोने में बैठा था।
वहीं पास एक माइक था, जिसमें महिला कर्मचारी बोल रही थी —
“एक आठ वर्षीय बालक मिला है, नाम आरव, नीली शर्ट पहने है। माता-पिता कृपया सूचना केंद्र पर संपर्क करें।”
दूसरी ओर समीरा बदहवास दौड़ रही थी। माँ रो रही थीं, पिता लोगों से पूछ रहे थे, फोटो दिखा रहे थे।
“मेरा भाई खो गया है! आठ साल का है… नीली शर्ट पहने था…” समीरा ने एक साधु को बताया, फिर एक दुकानदार को। पर हर जवाब में एक ही शब्द मिला — “नहीं देखा।”
वे सूचना केंद्र पहुँचे, वहाँ पंजीकरण कराए, पुलिस से बात की।
एक दिन, दो दिन… कोई खबर नहीं।
अंततः तीसरे दिन पुलिस ने कहा —
“शायद कोई परिवार उसे अपने साथ ले गया हो। या बच्चा खुद ही कहीं निकल गया हो। हम खोज रहे हैं।”
पर वो खोज कभी पूरी न हो सकी।
कुंभ के उस मेले ने एक आठ वर्षीय मासूम को उसके परिवार से जुदा कर दिया।
समीरा का बचपन वहीं रुक गया। हर त्योहार, हर जन्मदिन, हर मेले में बस एक ही सवाल गूंजता — “आरव कहाँ है?”
माँ कुछ वर्षों बाद बीमार पड़ गईं, और इस सदमे से कभी उबर नहीं सकीं। पिता चुप रहने लगे। और समीरा? वह बड़ी हुई — तेज, समझदार, और जिद्दी। उसने पत्रकारिता चुनी — शायद इसलिए कि उसे दुनिया की हर गुम हुई चीज़ को तलाशने की लत लग गई थी।
लेकिन खुद की सबसे बड़ी तलाश — भाई की तलाश, अब भी अधूरी थी।
***
चौबीस साल बीत चुके थे।
संगम तट पर फिर से वही चहल-पहल थी। वही साधुओं की कतारें, वही धूनी रमाए हुए नागा साधु, वही मंत्रोच्चारण, वही घाटों की गूंज — लेकिन समीरा की नज़र इन सबके पार देख रही थी। उसके लिए यह मेला आस्था का नहीं, एक अधूरे रिश्ते का पड़ाव था।
समीरा अब एक सफल खोजी पत्रकार थी। बड़े न्यूज़ चैनलों पर उसकी रिपोर्टिंग चलती थी, वह सच्चाई के पीछे भागती थी — लेकिन उसके जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई अब भी अधूरी थी।
हर बार जब कुंभ मेला आता, वह अपनी सारी व्यस्तताएँ छोड़ देती। न चैनल की ज़िम्मेदारी, न कैमरे की रिपोर्टिंग — बस एक सूटकेस, एक पुराना लिफाफा जिसमें आरव की तस्वीर और उसका गणेश जी का लॉकेट पड़ा था, और एक संकल्प — शायद इस बार मिल जाएगा।
प्रयागराज स्टेशन पर उतरते ही उसकी स्मृतियाँ उसे घेरने लगीं। वही प्लेटफॉर्म, वही बाहर खड़ी ऑटो लाइन, वही भीड़ में बच्चों को थामे परिवार।
ऑटो वाले ने पूछा, “कहाँ चलना है मैडम?”
“त्रिवेणी घाट,” समीरा ने कहा, “और फिर सूचना केंद्र।”
ऑटो चलते ही खिड़की के बाहर का दृश्य आँखों में उतरने लगा — लेकिन मन कहीं और ही था।
“कितनी बार आई हूँ इस शहर में…” वह सोच रही थी, “…हर बार एक उम्मीद लेकर। और हर बार निराशा मिली। लेकिन इस बार कुछ अलग है, कुछ तो है हवा में…”
त्रिवेणी घाट पर उतरकर वह सीधा सूचना केंद्र पहुँची, जहाँ खोए-बिछड़े लोगों के पंजीकरण और रिकॉर्ड रखे जाते थे। कंप्यूटर अब नए हो गए थे, लेकिन कुछ रजिस्टर अब भी पुराने समय की तरह रखे जाते थे — पीली पन्नियों में लिपटे हुए, धूल जमे।
समीरा ने रिसेप्शन पर खड़ी महिला से कहा,
“मैं एक पत्रकार हूँ, लेकिन आज व्यक्तिगत कारण से आई हूँ। मुझे 2001 के कुंभ मेले के ‘बिछड़े बच्चों’ के रिकॉर्ड देखने हैं।”
महिला ने चौंककर देखा, फिर कुछ सोचते हुए अंदर के अफसर को बुलाया।
कुछ देर की बातचीत और परिचय के बाद समीरा को एक अलग कमरा दिखाया गया, जहाँ अलमारी में पुराने रिकॉर्ड थे।
घंटों तक फाइलें पलटने के बाद, एक नाम पर उसकी नज़र अटक गई —
“बालक – अज्ञात, उम्र – 8 वर्ष, वस्त्र – नीली शर्ट, विशेष चिन्ह – गले में पीतल का लॉकेट, पंजीकृत: दिनांक 18 जनवरी 2001”
उसकी उंगलियाँ थरथरा गईं।
“यह वही दिन था जब आरव खोया था!” उसने मन ही मन कहा।
रिकॉर्ड में आगे लिखा था —
“बच्चे को एक साधु समुदाय द्वारा आश्रम ले जाया गया — नाम: ‘महाशांत तपोवन’, लोकेशन: गंगा पार, अरैल क्षेत्र।”
आरव… आश्रम में?
समीरा तुरंत Google Map पर उस आश्रम का लोकेशन ढूंढने लगी। जगह अब भी मौजूद थी — गंगा के उस पार, जहां आमतौर पर श्रद्धालु कम जाते हैं, और जहां साइलेंस का साम्राज्य होता है।
उसने टैक्सी बुक की और अगले दिन सुबह वहाँ पहुँचने का निश्चय किया।
रात को होटल के कमरे में नींद नहीं आई। उसने बार-बार वही फाइल पढ़ी, आरव की तस्वीर देखी, और अपने मोबाइल में रिकॉर्डिंग चेक करती रही। जैसे कोई परीक्षा होने वाली हो।
अगली सुबह, कुंभ के कोलाहल से दूर, एक शांत कोने में वह आश्रम स्थित था। ईंट की दीवारों के बीच सादा दरवाजा, बाहर एक तख्ती — “शांति में सत्य है।”
समीरा ने दरवाजा खटखटाया। एक वृद्ध साधु निकले, चेहरे पर वर्षों की तपस्या की झलक।
“आपको किससे मिलना है, बेटी?” उन्होंने नरम आवाज़ में पूछा।
“मुझे एक व्यक्ति की तलाश है, जो 2001 में यहाँ लाया गया था। आठ साल का बच्चा था… गले में गणेश जी का लॉकेट था…”
साधु कुछ देर सोचते रहे। फिर बोले,
“हमारे आश्रम में एक युवक है… शांत स्वभाव का, ज्यादा नहीं बोलता। उसका नाम ‘शांतानंद’ रखा गया है। कोई अतीत नहीं बताता। कुछ वर्षों पहले कुंभ मेले से आया था…”
समीरा का दिल जैसे ज़ोर से धड़कने लगा।
“क्या मैं उससे मिल सकती हूँ?”
साधु ने सिर हिलाया और इशारा किया, “घाट के पीछे पीपल के नीचे हर सुबह ध्यान करता है। आप देख सकती हैं।”
घाट के पीछे पीपल का एक विशाल पेड़ था। वहीं बैठा था एक युवक — सफेद धोती, कंधे पर चादर, लहराती दाढ़ी, शांत चेहरा। उसकी आँखें बंद थीं, जैसे किसी और दुनिया में हो।
समीरा ने धीमे कदमों से पास जाकर तस्वीर निकाली — वही पुरानी, जिसके कोने झड़ चुके थे।
“क्या ये… मेरा आरव है?”
उसने धीरे से कहा, “नमस्ते… क्षमा कीजिए… क्या आप शांतानंद हैं?”
युवक ने आँखें खोलीं — चमकदार, किंतु अनभिज्ञ।
“जी,” उसने शांति से कहा।
“क्या आपको अपना बचपन याद है? कोई परिवार? कोई बहन?”
उसने सिर झुकाया, “नहीं… केवल धुंधली परछाइयाँ… जैसे कोई सपना जो हर बार टूट जाता है।”
“ये तस्वीर देखिए,” समीरा ने आगे बढ़ाई।
“ये आप हैं… और मैं… आपकी बहन समीरा।”
वह तस्वीर को देखता रहा… फिर कुछ सोचते हुए गले से एक डोरी निकाली — उसमें वही पीतल का गणेश जी का लॉकेट था।
समीरा की आँखों से आँसू झरने लगे।
“आरव… तुम मिल गए…”
युवक ने अपनी आँखें बंद कर लीं। शायद कोई याद टकराई थी। एक चेहरा, एक आवाज़, एक कंधे पर रखा बचपन — वह धीरे से बोला,
“दीदी…?”
***
समीरा के सामने बैठा वह युवक — शांत चेहरा, गंभीर दृष्टि, और गले में वही पीतल का गणेश जी का लॉकेट — अब एक रहस्य नहीं रहा। वह आरव था… उसका भाई, जो वर्षों पहले भीड़ में खो गया था।
लेकिन 24 साल लंबा यह अंतराल एक गहरी खाई था — जिसमें यादें धुंधली थीं, पहचान अधूरी और भावनाएँ संकुचित।
“तुम्हें कुछ याद आता है, आरव?” समीरा की आवाज़ काँप रही थी।
युवक ने लॉकेट को छूते हुए कहा,
“कुछ-कुछ… जैसे कोई स्वप्न जिसे मैं बार-बार देखता हूँ… एक बच्ची जो मेरा हाथ पकड़े चल रही है, माँ की आवाज़… लेकिन चेहरे धुंधले हैं। मैं जब आँखें बंद करता हूँ, तो एक रंग — नीला — बार-बार सामने आता है।”
“तुम्हारी शर्ट नीली थी उस दिन…” समीरा ने कहा, “मैंने तुम्हारा हाथ कस कर पकड़ा था… पर भीड़ में वो हाथ छूट गया… और हम सब कुछ खो बैठे।”
आरव — अब शांतानंद — ने लंबी साँस ली।
“दीदी, मुझे ऐसा लगता है कि जब मैंने तुम्हें देखा, तो दिल ने कुछ पहचाना… पर दिमाग अब भी कश्मकश में है। क्या मैं… क्या मैं सच में वही बच्चा हूँ?”
समीरा ने उसकी हथेली अपने हाथ में ली,
“मुझे सबूत की ज़रूरत नहीं। माँ कहा करती थीं — ‘कभी-कभी दिल की पहचान ही सबसे बड़ा प्रमाण होती है।’ तुम वही हो आरव, मेरे आरव।”
समीरा ने आश्रम के गुरुदेव से मुलाक़ात की। वृद्ध महात्मा ने बताया:
“यह बालक 2001 में एक साधु के साथ आया था। पुलिस के प्रयासों से जब कोई परिजन नहीं मिला, तब हमने इसे यहीं रहने दिया। बहुत चुपचाप था। नाम नहीं बताता था। बस रोता रहता था और एक लॉकेट पकड़े सो जाता था।”
“फिर आप लोगों ने उसका नाम शांतानंद रखा?”
“हाँ। क्योंकि वह अक्सर शांति में डूबा रहता था। जैसे किसी गहरे दुःख से खुद को बचा रहा हो। हमने उसे प्रेम, शिक्षा और साधना दी। वह बड़ा हुआ — लेकिन कभी भी बाहर की दुनिया से जुड़ाव नहीं रहा।”
“क्या आप उसे हमारे साथ जाने देंगे?” समीरा ने पूछा।
गुरुदेव मुस्कराए, “यदि उसका मन अनुमति दे, तो अवश्य।”
समीरा को अंदाज़ा था कि यह एक भावनात्मक पुनर्मिलन से कहीं अधिक कठिन होगा। आरव की स्मृति अधूरी थी, उसका मन आश्रम की शांति में रच-बस चुका था, और दुनिया के उस हिस्से से वह अनजान था जिसे समीरा “घर” कहती थी।
“मैं कुछ दिन यहीं रहूँगी,” समीरा ने ठान लिया, “जब तक कि तुम पूरी तरह याद नहीं कर लेते… या कम से कम ये स्वीकार नहीं कर लेते कि हम कौन थे… और अब क्या बन सकते हैं।”
आरव — या शांतानंद — ने ना नहीं की।
पुराने चित्र, नए संवाद
रात को समीरा ने अपने बैग से कुछ चीज़ें निकालीं —
एक पुराना फोटो एलबम, माँ की लिखी चिट्ठी जिसमें आरव के नाम की कविता थी, और वह अंतिम राखी जो समीरा ने उसे बाँधने से पहले खो जाने की वजह से बची रह गई थी।
“याद है तुम्हें ये?” उसने पूछा।
आरव ने चिट्ठी को हाथ में लिया। जैसे किसी लहर ने उसकी चेतना को छुआ।
“आरव, तू माँ की रौशनी है,
तेरी हँसी में घर की खुशी है…”
वह कविता धीरे-धीरे उसके मुँह से भी निकली।
“ये… ये कविता… मैंने… कहीं सुनी है… माँ गुनगुनाती थीं…” उसकी आँखें भर आईं।
“हाँ आरव, माँ तुम्हारे लिए गाती थीं… और हम सब तुम्हें ढूँढते रह गए।”
समीरा ने तीसरे दिन उसे संगम तट ले चलने को कहा।
“वहीं चलें जहाँ से सब शुरू हुआ।”
वह बोली, “कभी-कभी जहाँ से हम बिछड़ते हैं, वहीं से जुड़ाव की शुरुआत होती है।”
संगम तट की रेत पर चलते हुए शांतानंद की चाल रुक-रुक कर चलने लगी। कुछ स्थानों पर वह ठिठक जाता, जैसे कोई अनदेखी स्मृति वहाँ बसी हो।
एक जगह खड़ा होकर वह बोला,
“इस जगह को मैं जानता हूँ… यहाँ एक गुब्बारे वाला था… लाल रंग का गुब्बारा… दीदी ने मेरा हाथ पकड़ा था…”
समीरा का दिल धड़क उठा।
“हाँ आरव! वही दिन था! तुमने गुब्बारे की ज़िद की थी… और हम उस पल अलग हो गए…”
शांतानंद ने अपना सिर झुका लिया।
“क्यों यादें इतनी पीड़ा देती हैं?”
“क्योंकि वो हमें जोड़ती हैं… और कभी-कभी तोड़ती भी हैं।”
पहली बार — ‘दीदी’ शब्द
रात के भोजन के बाद आश्रम के चबूतरे पर चाँदनी फैली थी। समीरा चुपचाप बैठी थी। तभी आरव आया, और धीमे स्वर में कहा,
“दीदी…”
समीरा की आँखें छलक गईं।
“क्या फिर से कहोगे?”
“दीदी…” इस बार वह मुस्कराया।
वर्षों की दूरी उस एक शब्द से मिट गई। समीरा जानती थी — अब कोई शक नहीं, कोई भ्रम नहीं। यह उसका खोया हुआ भाई था — और अब उसे सिर्फ उसका हाथ नहीं थामना था, बल्कि दुनिया से उसे फिर से जोड़ना था।
अगली सुबह समीरा ने पूछा,
“क्या तुम मेरे साथ चलोगे, घर? माँ-पापा अब नहीं हैं… लेकिन मैं हूँ… तुम्हारे लिए एक नया जीवन, नई पहचान, और कुछ अधूरी कहानियाँ पूरी करने का अवसर है।”
आरव — अब पूरी तरह जागा हुआ — कुछ देर मौन रहा। फिर बोला,
“मैं इस आश्रम का ऋणी हूँ… पर अब मेरी आत्मा भी जवाब चाहती है — और शायद वो जवाब इस दीदी के साथ चलकर मिलेगा।”
समीरा ने उसका हाथ थामा — इस बार कोई भीड़ नहीं थी, कोई शोर नहीं — बस दो आत्माएँ, जो वर्षों बाद फिर से जुड़ गई थीं।
***
प्रयागराज से दिल्ली की ट्रेन जब स्टेशन पर पहुँची, तो समीरा के भीतर जैसे कोई युद्ध शांत हुआ। चौबीस साल की तलाश, हर मेले में किए गए अनगिनत सवाल, हजारों पोस्टर, अख़बार की खबरें और अधूरी दुआएँ — आज आरव को लेकर जब वह प्लेटफॉर्म पर उतरी, तो पहली बार उसे लगा… अब वह अकेली नहीं।
आरव — जो अब शांतानंद नहीं, बल्कि फिर से अपने बचपन की ओर लौट रहा था — ट्रेन के दरवाज़े पर खड़ा, भीड़ को देख रहा था।
“बहुत शोर है इस शहर में,” उसने धीरे से कहा।
“हाँ,” समीरा ने मुस्कराकर जवाब दिया, “लेकिन अब से इस शोर में तुम्हारी अपनी आवाज़ भी होगी।”
समीरा का फ्लैट सादा था — बुकशेल्फ, कैमरे और रिपोर्टिंग से भरा एक कोना, दीवार पर माँ-पापा की तस्वीरें और बीच में बचपन के कुछ स्केच — जिनमें एक छोटा लड़का नीली शर्ट में खड़ा था।
“यह तुम हो,” समीरा ने कहा।
आरव चुपचाप तस्वीर को देखता रहा।
“दीदी,” उसने पहली बार खुलकर पूछा, “क्या माँ को मेरा इंतज़ार था?”
समीरा की आँखें भर आईं।
“हर साँस में। आखिरी दिन तक उनके तकिए के नीचे तुम्हारी तस्वीर और लॉकेट था। वे हर बार तुम्हारा जन्मदिन मनाती रहीं — बिना केक, बिना दिए, बस एक दीया जलाकर…”
आरव ने दीवार पर लगी उनकी तस्वीर को झुककर प्रणाम किया।
“काश मैं उन्हें देख पाता…”
“अब उनके आशीर्वाद से ही तुम मेरे पास लौटे हो।”
दिल्ली की तेज़ रफ्तार और चमचमाती इमारतों के बीच आरव जैसे एक धीमे पंख की तरह उड़ रहा था — हर चीज़ नई थी, हर अनुभव पहली बार का। मोबाइल, मेट्रो, इंटरनेट, लिफ्ट, बड़े मॉल… सब कुछ उसे चकित करता।
“तुम कभी स्कूल नहीं गए?” समीरा ने पूछा।
“नहीं,” आरव ने कहा, “आश्रम में पढ़ना-लिखना सिखाया गया था, संस्कृत, योग, ध्यान… लेकिन विज्ञान, इतिहास या समाज का कोई संपर्क नहीं था।”
“कोई दोस्त?”
“केवल ध्यान करने वाले साधक… जो सुबह उठते, दिनभर सेवा करते और शाम को मौन हो जाते। हँसी वहाँ कम होती थी।”
“अब से हँसी तुम्हारे साथ होगी,” समीरा ने कहा।
समीरा ने मनोवैज्ञानिक और न्यूरोलॉजिस्ट की अपॉइंटमेंट ली। डॉक्टर ने कई टेस्ट किए।
“यह आंशिक स्मृति लोप (partial memory loss) का मामला है,” डॉक्टर ने बताया।
“संभावना है कि बचपन की दुर्घटना या मानसिक आघात से मस्तिष्क ने कुछ हिस्सों को बंद कर दिया है। लेकिन जो चीजें भावनात्मक रूप से गहराई से जुड़ी हैं — जैसे वह लॉकेट, वो कविता — वे धीरे-धीरे लौट सकती हैं।”
“कोई इलाज?” समीरा ने पूछा।
“इलाज नहीं, समय और स्नेह। आप जितनी अधिक भावनात्मक और स्थिरता से जुड़ी यादें साझा करेंगी, उसकी पहचान खुद बनने लगेगी।”
एक शाम, समीरा ने अपने स्टोर रूम से एक पुरानी ट्रंक निकाली।
उसमें आरव की एक अधूरी डायरी थी — उसकी हैंडराइटिंग में कुछ तोतली पंक्तियाँ:
“मुझे चूहे से डर लगता है।
दीदी ने मुझे आज रोटी में चीनी दी।
कल मेरा बैग गुम हो गया।
पापा कहते हैं मैं सुपरमैन हूँ…”
आरव पन्नों को उलटते-पलटते चुप बैठा रहा। अचानक वह पन्ना देखकर ठिठक गया, जिसमें एक चित्र बना था — एक पीपल का पेड़, उसके नीचे दो बच्चे और पास में लाल गुब्बारा।
“मैंने यह बनाया था?” उसने पूछा।
“हाँ। यह वही दिन था… कुंभ मेले वाला…”
आरव की साँसें तेज़ होने लगीं।
“कुछ… कुछ याद आने लगा है… तुमने गुब्बारे वाले से झगड़ा किया था क्योंकि मैं रो रहा था… फिर शोर… बहुत शोर… किसी ने मुझे खींच लिया… फिर अंधेरा… और फिर गंगा की ठंडी हवा…”
स्मृति लौट रही थी।
समीरा की रिपोर्ट — ‘खोए हुए के नाम’
समीरा ने एक रिपोर्ट बनाना शुरू किया:
“कुंभ में खोए लोग: 20 वर्षों का सच”
उसने कैमरे पर आरव से बातचीत रिकॉर्ड की — कैसे एक बच्चा सालों तक अपनी पहचान से दूर रहा, कैसे वह आश्रम में पला, और कैसे स्नेह की भाषा ने उसे वापस जोड़ा।
“क्या तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारी कहानी सुनें?” समीरा ने पूछा।
आरव ने सिर हिलाया,
“अगर मेरी कहानी से कोई और बच्चा अपने घर लौट सके — तो हाँ।”
टीवी पर जब कहानी चली…
कुछ ही दिनों में रिपोर्ट वायरल हो गई। चैनलों ने “खोए हुए भाई-बहन का पुनर्मिलन” शीर्षक से इसे चलाया।
लेकिन एक दिन — समीरा के इनबॉक्स में एक अजीब ईमेल आया।
विषय:
“आपके भाई के बारे में कुछ और भी जानता हूँ — कृपया संपर्क करें।”
प्रेषक: शिवानंद जी — पूर्व साधु, महाशांत तपोवन
संदेश में लिखा था:
“आपका भाई जब आश्रम आया था, वह अकेला नहीं था। कुछ और भी हुआ था उस दिन।
सब जानना चाहें, तो मुझसे मिलिए — मैं अब ऋषिकेश में हूँ।”
***
समीरा और आरव, दोनों ऋषिकेश पहुँचे। सामने गंगा शांत बह रही थी, लेकिन समीरा के मन में तूफान था। शिवानंद जी — वह व्यक्ति जो 24 साल पहले एक पाँच वर्षीय बच्चे के साथ महाशांत आश्रम पहुँचा था — आज भी जीवित था, और कुछ ऐसा जानता था जो अब तक कोई नहीं जान पाया।
गेरुआ वस्त्रों में, लंबी सफेद दाढ़ी, तीखी आँखें। शिवानंद जी अब सामान्य जीवन में थे, उन्होंने सन्यास त्याग दिया था। लेकिन उनके चेहरे पर गहराई अब भी थी — जैसे वक्त की परतों के पीछे कई अनकहे राज़ दबे हों।
बैठक के दौरान, जब आरव और समीरा उनके सामने बैठे, तो शिवानंद जी ने आरव की ओर देखकर एक लंबी साँस ली।
“तुम बड़े हो गए… लेकिन तुम्हारी आँखें वैसी ही हैं — डरी हुई, चुपचाप सब समझने वाली।”
आरव ने शांत स्वर में कहा, “आप मुझे जानते हैं?”
शिवानंद जी चुप रहे। फिर बोले:
“उस दिन कुंभ के मेले में मैं अपने गुरु के साथ सेवा में था। हम हर दिन लावारिस बच्चों की मदद करते थे। तभी शाम को शोर मचा — भीड़ में एक बच्चा रोता हुआ दौड़ रहा था। उसके हाथ में एक लाल गुब्बारा था, आँखें डर से भरी हुईं।”
“तुम उसे लेकर आश्रम पहुँचे?” समीरा ने पूछा।
“हाँ… लेकिन कहानी इतनी सीधी नहीं है,” उन्होंने कहा।
एक अनकहा मोड़ — अपहरण या दुर्घटना?
“मैंने देखा था,” शिवानंद जी बोले, “कि वह बच्चा अकेले नहीं भाग रहा था। कोई उसे खींच रहा था — एक युवक, जिसकी दाढ़ी थी और गले में भगवा दुपट्टा।”
समीरा और आरव दोनों चौंक गए।
“क्या आप कहना चाहते हैं कि…” समीरा ने पूछा, “उसे कोई उठा कर ले जा रहा था?”
“हाँ,” शिवानंद जी बोले, “शुरू में मुझे लगा, वह कोई साधु है जो बच्चे को बचा रहा है। लेकिन जब मैं पास पहुँचा, तो वह युवक भीड़ में ग़ायब हो गया और बच्चा वहीं गिर पड़ा। उसके सिर पर चोट थी — शायद किसी पत्थर से लगी।”
आरव अपनी कनपटी पर हाथ रखकर धीरे-धीरे कुछ याद करने की कोशिश करने लगा।
“वो आदमी… लाल चोला… गंध आ रही थी उस से… कुछ तीखी गंध… और उसने मेरे मुँह पर रुमाल रखा था…”
“चंद्रकेतन था वो,” शिवानंद जी ने कहा, “एक बदनाम साधु जिसने मेले में कई बच्चों को गायब किया था। बाद में वो पुलिस की फाइल में ‘गायब’ हो गया। उसका कोई सुराग नहीं मिला।”
“आपने कभी पुलिस को कुछ नहीं बताया?” समीरा ने कठोर स्वर में पूछा।
“बताया था,” वे बोले, “लेकिन कोई ध्यान नहीं देता था। बच्चे रोज़ खोते थे। मैंने सोचा, बच्चा अब सुरक्षित है, उसका अतीत बहुत पीड़ा दे सकता है — इसलिए मैंने चुप्पी साध ली।”
आरव अब काँप रहा था।
“इसका मतलब,” वह बोला, “मैं बस भीड़ में नहीं खोया था… मुझे कोई ले जा रहा था… शायद… किसी गलत इरादे से…?”
समीरा का दिल काँप गया। वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी कि उसका भाई सिर्फ ग़ायब नहीं हुआ था, बल्कि अपहरण का शिकार हो सकता था।
“शायद उस समय मेरी चोट और डर ने मुझे सब भूलने पर मजबूर कर दिया,” आरव बुदबुदाया, “लेकिन अब… अब जैसे सब सामने आ रहा है।”
पुराने दोष — नया न्याय?
समीरा ने लौटते ही पूरी घटना को पुलिस तक पहुँचाने का निश्चय किया। वह पत्रकार थी — अब सिर्फ बहन नहीं, एक सामाजिक उत्तरदायित्व भी था उसके कंधों पर।
उसने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई और पुराने केस की फ़ाइल निकलवाई। चंद्रकेतन का नाम एक लिस्ट में था — “2011 में लापता, संदिग्ध साधु, मानव तस्करी में शक।”
“हम इस केस को फिर से खोलेंगे,” पुलिस अधिकारी ने कहा, “क्योंकि अब हमारे पास गवाह और पीड़ित दोनों हैं।”
एक दिन आरव ने समीरा से पूछा:
“क्या मैं फिर से स्कूल जा सकता हूँ?”
समीरा मुस्कराई, “तुम चाहो तो कॉलेज भी!”
आरव ने हँसते हुए कहा, “शुरुआत तो कक्षा 5 से ही करनी पड़ेगी।”
समीरा ने उसे एक विशेष शिक्षण केंद्र में दाखिला दिलाया, जहाँ वयस्कों को शिक्षा दी जाती थी। वहाँ उसकी पहचान ‘आरव शर्मा’ के नाम से पुनः दर्ज हुई।
मीडिया, समाज और समाज का मुँह
जैसे ही यह केस फिर से उभरा, समीरा की रिपोर्ट और आरव की कहानी देशभर में चर्चा का विषय बन गई।
एक दिन एक वृद्ध महिला गेट पर आई। उसके हाथ में कुछ फोटो थे।
“क्या यह आरव है?” उसने पूछा।
समीरा ने पूछा, “आप कौन हैं?”
“मैं रुक्मिणी देवी हूँ — मेरा बेटा 1998 में खो गया था… मुझे शक है कि चंद्रकेतन ने ही उसे भी गायब किया था।”
आरव ने उनकी तस्वीर देखी और चुप रहा। फिर धीमे से बोला:
“मैं उन्हें नहीं जानता… लेकिन मैं आपकी मदद करना चाहता हूँ।”
अब आरव अकेला नहीं था — वह अब खोजने वालों का हिस्सा बन चुका था।
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कुंभ मेला — वही स्थान, वही घाट, वही गंगा की कलकल, वही आस्था की भीड़। पर समीरा और आरव के लिए यह एक साधारण तीर्थ नहीं था। यह उनकी यादों की जड़ था — खोने और फिर पाने की धरती। अब, वर्षों बाद, वे इस मेले में एक नए उद्देश्य के साथ लौटे थे।
अबकी बार वे खोजने आए थे — खोने नहीं।
समीरा ने NGO और मीडिया के साथ मिलकर एक अभियान शुरू किया था:
“खोया-पाया केंद्र – हम तुम्हें ढूंढ़ लेंगे।”
हर घाट, हर पंडाल, हर पवित्र डुबकी लेने वाले के पास वे एक सन्देश लेकर पहुँचे:
“अगर आप किसी खोए बच्चे को देखें — हमें बताएं।
अगर आप खुद बिछड़े हैं — हम आपकी मदद करेंगे।”
आरव अब 29 वर्ष का युवक था। उसके चेहरे पर अनुभव की छाया थी, लेकिन आत्मविश्वास की भी रौशनी। उसके हाथों में अब किताबें नहीं, बल्कि बच्चों की तस्वीरें थीं — जो गुम हो चुके थे।
वह अब ‘खोया-पाया अभियान’ का चेहरा बन चुका था — हर अख़बार, टीवी चैनल, और सोशल मीडिया पर उसका सन्देश गूंज रहा था।
“अगर मैं लौट सकता हूँ,” वह कहता था, “तो कोई भी लौट सकता है। बस ज़रूरत है एक आवाज़ की।”
मेले में एक चेहरा — छाया की वापसी?
एक दिन, आरव बच्चों के लावारिस शिविर में गया। वहाँ एक 10 साल का लड़का मिला — चुपचाप बैठा, किसी से बात नहीं कर रहा था।
“क्या नाम है तुम्हारा?” आरव ने पूछा।
लड़के ने कोई जवाब नहीं दिया।
आरव ने धीरे से उसकी हथेली पर हाथ रखा — जैसे किसी पुराने घाव को समझ रहा हो।
“डरो मत। मैं भी कभी ऐसा ही खो गया था।”
लड़का धीरे से फुसफुसाया: “उस बाबा ने मुझे खींचा था… बोलता था मेरे माँ-बाप की मौत हो गई है… अब मैं उसका शिष्य हूँ…”
आरव की साँस रुक गई। उसने बच्चे को ध्यान से देखा — गले में वही गेरुए धागे की माला… और पीठ पर जलने का पुराना निशान।
“क्या वो बाबा चंद्रकेतन था?”
आरव ने धीरे से पूछा।
बच्चे ने सिर हिलाया।
“हाँ… उसने मुझे ‘शांति’ नाम दिया था… मुझे ध्यान करना सिखाता था… मगर रात को… वह…”
लड़के की आँखों में भय तैर आया, और वह सहमकर चुप हो गया।
समीरा और आरव तुरंत हरिद्वार पुलिस से संपर्क में आए। लड़के के बयान के आधार पर पुलिस ने 2028 के मेले में सक्रिय कुछ संदिग्ध साधुओं की एक लिस्ट बनाई। चंद्रकेतन — जो 2011 से लापता था — उसकी नई पहचान की अफ़वाहें थीं।
एक भेष बदले हुए बुज़ुर्ग, जो एक छाया की तरह बच्चों के शिविरों के आसपास मंडराता था, अब संदेह के घेरे में था।
समीरा ने CCTV फ़ुटेज मंगवाया।
एक वीडियो में, एक गेरुआ वस्त्रधारी व्यक्ति बच्चे के पीछे-पीछे जाते हुए दिखा — चेहरे पर गहरी आँखें, सफेद दाढ़ी, और गले में लकड़ी की माला।
आरव ने स्क्रीन पर उँगली रख दी।
“यही है। यही था उस दिन… यही था जिसने मुझे भी खींचा था…”
पुलिस ने विशेष अभियान चलाया। आखिरकार, उस संदिग्ध को संगम के पास एक छोटे टेंट से पकड़ा गया।
उसका असली नाम था केतन गिरी, पर कई वर्षों से वह “स्वामी वैराग्यनंद” के नाम से सक्रिय था।
जाँच में सामने आया कि:
उसने वर्षों में कम से कम 12 बच्चों को अपने प्रभाव में लिया।
बच्चों को झूठे नाम और ध्यान-शिक्षा के बहाने आश्रमों में भेजा जाता था।
कुछ बच्चों को भिक्षावृत्ति, कुछ को बाल श्रम और कुछ को अन्य अवैध कार्यों में धकेला गया।
चंद्रकेतन उर्फ वैराग्यनंद अब कानून के शिकंजे में था। पर न्याय की राह लंबी थी।
अदालत में जब आरव गवाही देने पहुँचा, तो सन्नाटा छा गया।
जज ने पूछा, “क्या आप आरोपी को पहचानते हैं?”
आरव ने बिना काँपे उसकी ओर देखा।
“हाँ, यही है। यही वह व्यक्ति है जिसने मुझे 2004 के कुंभ में अपहरण किया था… मेरे बचपन, मेरी माँ, मेरी दुनिया को मुझसे छीना…”
उस दिन आरव की आवाज़ में सिर्फ पीड़ा नहीं, प्रतिशोध की गरिमा थी।
मेले के आखिरी दिन, गंगा आरती के समय, समीरा और आरव घाट पर साथ बैठे।
“आज तुमने सिर्फ एक अपराधी को नहीं, अतीत की छाया को भी हराया है,” समीरा बोली।
आरव मुस्कराया।
“अब कुंभ मेरे लिए डर की जगह नहीं, शक्ति की जगह है।”
गंगा की लहरें धीमे-धीमे बह रही थीं, जैसे अतीत को अपने साथ बहाकर भविष्य के नए द्वार खोल रही हों।
***
आरव अब एक नाम बन चुका था।
“आवाज — खोए बच्चों की तलाश” नामक संस्था के संस्थापक और संचालक के रूप में, वह हर वर्ष सैकड़ों बच्चों को उनके परिवारों से मिलाने में मदद करता।
समीरा, अब एक सम्मानित पत्रकार और लेखक, उस सफर को किताबों में दर्ज कर चुकी थी —
“खोया हुआ कोई नहीं होता” नाम की उनकी किताब बेस्टसेलर बन चुकी थी।
लेकिन दोनों के दिल में अब भी एक कोना अधूरा था —
उनके माता-पिता।
कुंभ के मेले में जब आरव खोया था, उसके बाद उनके माता-पिता ने हर संभव कोशिश की थी — अखबारों में इश्तहार, पुलिस केस, साधु-संतों से प्रार्थना… लेकिन कोई जवाब नहीं मिला।
सालों तक ढूँढ़ते-ढूँढ़ते वे एक दिन अचानक गायब हो गए।
समीरा को यह कभी नहीं पता चला कि वे कहाँ चले गए थे — गाँव के लोग कहते थे कि वे हिमालय चले गए — मोक्ष की तलाश में।
अब, तीन दशक बाद, समीरा और आरव को उम्मीद नहीं थी कि वे कभी उन्हें फिर देख पाएंगे।
एक चिट्ठी — जो हवा में लौट आई
एक दिन, आरव को संस्था के पुराने लॉकर से एक पुराना लिफाफा मिला —
पीला पड़ चुका, लेकिन नाम साफ लिखा था: “आरव के लिए”
तारीख: 15 मार्च 2005
भीतर एक हाथ से लिखी चिट्ठी थी:
“बेटा आरव,
अगर कभी यह पत्र तुम्हारे पास पहुँचे, तो जान लेना कि हम तुम्हें कभी नहीं भूले।
हमने तुम्हें हर मेले में ढूँढ़ा, हर साधु से पूछा, हर सपने में तेरा चेहरा देखा।
अब हम हिमालय जा रहे हैं। अगर भाग्य ने चाहा, तो तुम वहाँ तक पहुँचोगे…
माँ-पापा”
आरव ने चुपचाप वह पत्र पढ़ा और कहा,
“अब हमें हिमालय जाना होगा… यह अधूरी यात्रा पूरी करने के लिए।”
महीनों की खोज और रिकॉर्ड की जाँच के बाद, समीरा और आरव उत्तराखंड के एक छोटे से गाँव पहुँचे — जो मुख्य मार्ग से कई किलोमीटर दूर था।
वहाँ, एक छोटा सा आश्रम था — “नंदा तपोवन”
एक वृद्ध साध्वी ने उनका स्वागत किया।
“तुम आरव हो?” उन्होंने पूछा।
आरव ने स्तब्ध होकर हाँ में सिर हिलाया।
साध्वी ने मुस्कराकर कहा,
“तुम्हारे माँ-पिता यहीं रहते थे। वे हर दिन घाट पर आकर प्रार्थना करते थे कि उनका बेटा कहीं से लौट आए…”
“…वे अब कहाँ हैं?” समीरा ने डरते हुए पूछा।
साध्वी ने एक ओर इशारा किया —
दो समाधियाँ बनी थीं — संगमरमर की, एक पर लिखा था ‘सत्यनारायण शर्मा’ और दूसरी पर ‘गायत्री देवी’।
आरव घुटनों पर बैठ गया। हाथ जोड़कर आँखें मूँद लीं।
कोई आँसू नहीं — बस एक भारी साँस…
क्योंकि वह जानता था — वो लौट तो चुका था, पर थोड़ी देर हो चुकी थी।
समीरा और आरव ने अपने माता-पिता की स्मृति में उसी गाँव में एक स्कूल बनवाया —
“गायत्री-सत्यनारायण शिक्षालय”
जहाँ हर वह बच्चा, जो खोया, मिला, और फिर से जुड़ा — पढ़ सके, बढ़ सके, और किसी और के खोने से बच सके।
कुंभ मेला अब उनके लिए सिर्फ आस्था नहीं — एक यात्रा की पहचान थी।
अब वे हर कुंभ में जाते थे,
पर खोए हुए की तरह नहीं —
उन्हें ढूँढ़ने वालों की तरह।
“कुंभ के मेले में खोया” — समाप्त