Hindi - क्राइम कहानियाँ

काशी की अधूरी लाशें

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अभय वशिष्ठ


अध्याय १

वाराणसी की सुबहें अक्सर गंगा आरती की गूंज, शंखनाद और मंत्रोच्चार से जीवंत हो उठती हैं, लेकिन इन दिनों घाटों पर एक अजीब सा सन्नाटा छाया हुआ था। गंगा के किनारे बहती ठंडी हवा भी अब लोगों के दिलों को सुकून नहीं दे रही थी, क्योंकि लगातार कुछ दिनों से घाटों पर अधजली लाशें मिलने लगी थीं। काशी जैसे पवित्र नगर में, जहां मृत्यु को भी मोक्ष का द्वार माना जाता है, वहां अधजले शवों का यूं ही पड़े रहना एक असामान्य और भयावह दृश्य था। दशाश्वमेध घाट, मणिकर्णिका घाट और हरिश्चंद्र घाट—जहां हर रोज सैकड़ों दाह संस्कार होते हैं—इन दिनों चर्चा और डर का केंद्र बन चुके थे। स्थानीय नाविक और घाट पर काम करने वाले लोग आपस में फुसफुसाते, लेकिन खुलकर कुछ कहने से कतराते। “ये सब सामान्य है,” पुलिस बार-बार यही दोहराती रही, लेकिन लोगों की आंखों में डर और बेचैनी साफ झलकती थी। रात के अंधेरे में गंगा की लहरें चांदनी से जगमगातीं, लेकिन उन लहरों में बहकर आती अधजली लाशें उस सौंदर्य को भयानक बना देतीं। शहर के बुजुर्ग कहते—”काशी में ऐसा कभी नहीं हुआ।” जो लोग घाटों पर अंतिम संस्कार कराने आते, वे भी डर और अविश्वास की भावना से भर जाते। किसी का बेटा, किसी का पति, किसी का पिता—अधजले रूप में घाट किनारे पड़ा मिला तो सवाल उठना स्वाभाविक था कि आखिर ये सब हो क्या रहा है।

इसी बेचैनी के बीच पत्रकार अमितेश त्रिपाठी ने इस विषय पर रिपोर्ट लिखने की ठानी। तीस-बत्तीस वर्ष का अमितेश वाराणसी का ही रहने वाला था, लेकिन उसके लिए काशी के घाट केवल आध्यात्मिकता और पर्यटन का केंद्र नहीं, बल्कि समाज का आईना थे। उसका मानना था कि जो भी रहस्य घाटों में छिपा है, वह पूरे शहर की आत्मा से जुड़ा है। वह जानता था कि अधजली लाशें महज एक हादसा नहीं, बल्कि किसी गहरे षड्यंत्र का संकेत हैं। एक शाम जब वह अपने छोटे से प्रेस ऑफिस में बैठा नोट्स लिख रहा था, तभी उसके पास सूचना आई कि फिर एक अधजला शव मणिकर्णिका घाट पर मिला है। वह तुरंत अपनी डायरी, कैमरा और रिकॉर्डर लेकर घटनास्थल पर पहुंचा। वहां पहुंचते ही उसे गंगा किनारे भीड़ दिखाई दी। लोग आपस में कानाफूसी कर रहे थे, पुलिस वाले लापरवाही से शव को हटवाने की तैयारी कर रहे थे। अमितेश ने अपनी पैनी नजर से शव को देखा—यह शव अधजला तो था ही, लेकिन ऐसा लग रहा था जैसे इसे बीच में ही छोड़ दिया गया हो, मानो किसी ने जानबूझकर अधूरा छोड़ा हो। यह सामान्य चूक नहीं लग रही थी। उसने तस्वीरें खींचीं और कुछ स्थानीय लोगों से पूछताछ की। एक नाविक ने धीमी आवाज़ में कहा, “बाबूजी, इन दिनों कुछ गड़बड़ चल रहा है, रात को कई बार अजीब लोग घाट पर आते हैं, लेकिन पुलिस को सब दिखाई नहीं देता।” नाविक का डर साफ था, और उसके शब्दों ने अमितेश के मन में कई सवाल खड़े कर दिए।

उस रात जब अमितेश अपने घर लौटा, तो घाटों का वह दृश्य उसकी आंखों के सामने बार-बार घूमने लगा। गंगा की लहरों में तैरती अधजली लाशें, जलती चिताओं की आधी बुझी हुई लकड़ियां, और अंधेरे में खड़े लोग—ये सब मिलकर जैसे एक अदृश्य भय का जाल बुन रहे थे। उसने अपनी डायरी खोली और लिखा—”काशी की आत्मा में कुछ छुपा है, जिसे सामने लाना जरूरी है।” लेकिन उसे यह भी पता था कि यह काम आसान नहीं होगा। पुलिस इसे सामान्य मान रही थी, प्रशासन इस पर चुप था, और स्थानीय लोग डर के कारण बोल नहीं पा रहे थे। ऐसे में सच्चाई तक पहुंचने का रास्ता कठिन और खतरनाक था। फिर भी पत्रकार होने के नाते उसका कर्तव्य था कि वह इन घटनाओं के पीछे का सच उजागर करे। उसने निश्चय किया कि अगले कुछ दिनों तक वह लगातार घाटों पर नज़र रखेगा, रात में भी वहां जाएगा, और उन लोगों से बात करेगा जिनकी ज़िंदगी सीधे तौर पर इन घटनाओं से प्रभावित हो रही है। पहली अधजली लाश का रहस्य उसके लिए अब एक चुनौती बन चुका था—एक ऐसा रहस्य जो शायद पूरे शहर के अंधेरे पक्ष को उजागर करने वाला था। उसके मन में डर भी था और साहस भी, लेकिन यह साफ था कि “काशी की अधूरी लाशें” की कहानी अब सिर्फ घाटों की परछाई तक सीमित नहीं रहेगी, बल्कि धीरे-धीरे पूरे वाराणसी को हिला कर रख देगी।

अध्याय २

अगली सुबह सूरज की पहली किरणें जब गंगा की लहरों पर सुनहरी परछाई छोड़ रही थीं, तब भी घाटों का वातावरण सामान्य नहीं था। सामान्य दिनों में गंगा स्नान के लिए उमड़ने वाली भीड़ में श्रद्धा और भक्ति की लहर होती थी, लेकिन अब वहां डर और असमंजस का माहौल था। लोग स्नान तो कर रहे थे, लेकिन उनकी नजरें लगातार घाट की ओर घूम जातीं, जहां अधजली लाशें मिलने का सिलसिला पिछले दिनों ने शहर को विचलित कर रखा था। इसी समय पत्रकार अमितेश त्रिपाठी अपने नोट्स और रिकॉर्डर के साथ घाट की ओर निकला। उसकी आंखों में सवालों का समंदर था और दिमाग में एक ही विचार घूम रहा था—इन लाशों के अधूरे दाह संस्कार के पीछे कहीं कोई सुनियोजित चाल तो नहीं है? घाट पर पहुंचते ही उसने कुछ स्थानीय घाटियों, जो पीढ़ियों से दाह संस्कार के काम में लगे थे, उनसे बात करनी शुरू की। पहले तो वे डर और संकोच के कारण कुछ बोलने को तैयार नहीं हुए, लेकिन जब अमितेश ने उन्हें भरोसा दिलाया कि वह केवल सच जानना चाहता है, तब उनमें से एक बुजुर्ग घाटी ने धीमी आवाज़ में कहा—“बाबूजी, चिता की लकड़ी पूरी जलती है, यह हम लोग जानते हैं। लेकिन इन दिनों कुछ लाशें ऐसे अधूरी छोड़ दी जाती हैं जैसे किसी को जल्दी हो। कोई कहता है लकड़ी कम दी गई, कोई कहता है रस्में पूरी नहीं हुईं, लेकिन सच यह है कि कई बार हम लोगों को बीच में रोक दिया जाता है। कहते हैं कि परिवार वाले पैसे देकर चले गए हैं, पर हमें शक है कि इसके पीछे कोई और बात है।” अमितेश का दिल धक-धक करने लगा। यह कोई साधारण चूक नहीं, बल्कि किसी संगठित गतिविधि की ओर इशारा था।

अमितेश ने फिर घाट पर मौजूद एक पुजारी से बात की, जो अक्सर अंतिम संस्कार की विधियां कराते थे। पुजारी ने अपने अनुभव साझा करते हुए कहा, “बेटा, यहां मृत्यु भी मोक्ष की ओर ले जाने का मार्ग है, लेकिन इन दिनों कई रस्में अधूरी छोड़ी जा रही हैं। परिवार वाले कहते हैं कि पंडित जी जल्दी कर दीजिए, हमको जाना है। कभी-कभी तो लगता है कि मृतक का परिवार ही असली परिवार नहीं है। अजीब लोग आते हैं, पैसे फेंकते हैं और चले जाते हैं। हमें यह सोचकर घबराहट होती है कि कहीं कोई अधार्मिक और अपवित्र काम तो नहीं हो रहा।” पुजारी की यह बात अमितेश को भीतर तक हिला गई। उसने अपने कैमरे और रिकॉर्डर में जितना हो सकता था उतनी बातें दर्ज कीं। लेकिन इन सबके बीच उसके दिमाग में यह सवाल गूंज रहा था कि अगर परिवार वाले ही असली नहीं, तो ये शव कहां से आते हैं और अधजला छोड़ने के पीछे आखिर मंशा क्या है? जैसे-जैसे वह बातों को जोड़ता गया, वैसे-वैसे रहस्य और गहरा होता गया। इस बीच, वहां मौजूद पुलिस के एक अधिकारी ने अमितेश को घूरते हुए देखा और फिर उसकी ओर बढ़ा। उसका नाम इन्द्राणी मिश्रा था—वाराणसी पुलिस की एक ईमानदार इंस्पेक्टर, जो अपने सख्त रवैये और कर्तव्यपरायणता के लिए जानी जाती थीं। इन्द्राणी ने सीधे पूछा, “आप पत्रकार हैं न? लगातार लाशों की तस्वीरें खींचते हैं? सावधान रहिएगा, यह मामला उतना सीधा नहीं है जितना दिखता है।” अमितेश ने झट से कहा, “तो क्या आप भी मानती हैं कि इसमें कुछ गड़बड़ है?” इन्द्राणी ने चुप रहकर केवल इतना कहा, “सिर्फ इतना जान लीजिए कि यहां सब कुछ वैसा नहीं है जैसा लगता है। कई बार पुलिस भी मजबूर होती है।”

अमितेश को लगा जैसे पहली बार उसे कोई ऐसा इंसान मिला है जो उसके संदेह को समझता है। उसने इन्द्राणी से लंबी बातचीत की और अपने संदेह बताए। इन्द्राणी ने भी माना कि पिछले कुछ महीनों से घाटों पर कुछ अजीब हरकतें हो रही हैं—कभी अचानक लकड़ियों की कमी बताकर चिता अधूरी छोड़ दी जाती है, कभी शव के परिजनों की पहचान तक स्पष्ट नहीं होती। “कई बार हमें आदेश मिलता है कि बस मामला बंद कर दो, इसे सामान्य घटना मानो,” इन्द्राणी ने गंभीर स्वर में कहा। उनकी आवाज में दबे हुए गुस्से और लाचारी दोनों झलक रहे थे। अमितेश ने महसूस किया कि वह इस रहस्य को अकेले उजागर नहीं कर सकता, उसे किसी अंदरूनी मदद की जरूरत होगी। उसने इन्द्राणी से सहयोग मांगा, और कुछ सोचने के बाद उन्होंने हामी भर दी। “लेकिन सावधान रहना पड़ेगा,” इन्द्राणी ने चेतावनी दी, “ये लोग साधारण अपराधी नहीं हैं। इनकी जड़ें बहुत गहरी हैं, और हो सकता है कि हर अधजली लाश के पीछे एक ऐसा रहस्य छिपा हो जो पूरे शहर की अंतरात्मा को हिला दे।” उस रात जब अमितेश वापस लौटा, तो उसे यह अहसास था कि उसने पहला सुराग पा लिया है। अधजली लाशें केवल दुर्घटनाएं नहीं थीं, बल्कि किसी बड़े खेल का हिस्सा थीं। घाट पर पड़ी परछाइयां अब उसे केवल डरावनी नहीं, बल्कि रहस्यमयी भी लगने लगीं—और इन रहस्यों की गुत्थी सुलझाने के लिए उसने ठान लिया था कि चाहे कुछ भी हो जाए, वह सच्चाई को सामने लाकर ही रहेगा।

अध्याय ३

अमितेश ने अपनी नोटबुक और डायरी के पन्नों पर लगातार चिन्ह और तारीखें दर्ज करना शुरू कर दिया। उसने पिछले महीने में घाटों पर मिली हर अधजली लाश का ब्योरा तैयार किया—किस दिन, किस घाट पर, किस अवस्था में शव मिला और पुलिस ने इसे कैसे दर्ज किया। धीरे-धीरे उसकी नजर में एक पैटर्न उभरने लगा। कुछ शव ऐसे थे जिनकी पहचान साफ थी, लेकिन उनके परिजन या तो तुरंत गायब हो गए थे या शव को बीच में ही छोड़कर चले गए थे। और कुछ शव ऐसे थे जिनके बारे में कोई दावा ही नहीं करता था—जिन्हें उठाकर सीधे श्मशान पहुंचाया जाता, लेकिन आधी चिता में ही उनका अंत कर दिया जाता। अमितेश को समझ आने लगा कि यह सामान्य लापरवाही नहीं है, बल्कि एक सुनियोजित सिलसिला है। उसने घाट पर तैनात कुछ कर्मचारियों से भी पूछताछ की, लेकिन सभी या तो चुप हो गए या टालमटोल करने लगे। जब उसने पुराने अख़बारों की कतरनें और अस्पतालों की रिपोर्ट्स देखीं, तो पता चला कि कुछ शव अस्पताल से निकलने के बाद गायब हो गए थे और सीधे अधजली हालत में घाट पर मिले। यह जानकारी उसके लिए चौंकाने वाली थी, क्योंकि इसका मतलब था कि शवों को किसी कारणवश पूरी तरह दाह संस्कार से पहले ही ‘किसी और मकसद’ से इस्तेमाल किया जा रहा था। अब तक जो रहस्य केवल डर और शक की परछाई था, वह धीरे-धीरे एक भयावह सच्चाई का रूप लेने लगा।

इसी दौरान अमितेश की मुलाकात हुई नीहा गुप्ता से, जो स्थानीय स्तर पर समाजसेवा के कार्यों में सक्रिय थीं। नीहा एक जुझारू महिला थीं, जिनकी उम्र तीस के आसपास थी, और जो सालों से घाटों और श्मशान की समस्याओं को उठाती रही थीं। उन्होंने अनेक बार प्रशासन को पत्र लिखे थे कि शव-दाह गृहों की स्थिति सुधारनी चाहिए, लेकिन हर बार उनकी शिकायतें दबा दी गईं। जब नीहा ने सुना कि अमितेश इस रहस्य पर काम कर रहा है, तो वह खुद उससे मिलने आईं और बोलीं, “अगर सच जानना है तो मेरे साथ चलो, मैं तुम्हें असली स्थिति दिखाती हूं।” शाम ढल रही थी, आकाश लालिमा से भर रहा था और घाटों पर दीपक जलने लगे थे। नीहा उसे श्मशान की गहराई तक ले गईं, जहां आम लोग अक्सर जाने से कतराते थे। वहां का दृश्य अमितेश ने पहले कभी इतने करीब से नहीं देखा था—लकड़ी के अधजले ढेर, राख में दबे आंशिक शव, और चारों ओर से आती तीखी गंध। नीहा ने गंभीर स्वर में कहा, “तुम देख रहे हो न? यह घाट केवल मोक्ष का स्थान नहीं रहा, यहां एक व्यापार चलता है। कई बार परिवार वालों को कहा जाता है कि लकड़ी खत्म हो गई है, या रस्म जल्दी निपटानी है, और जब वे पैसा देकर चले जाते हैं, तो शव अधूरा छोड़ दिया जाता है। फिर वही शव किसी और मकसद से उठाकर ले जाया जाता है।” अमितेश का मन विचलित हो गया। उसके कैमरे और डायरी में अब केवल तथ्य नहीं, बल्कि मानवीय त्रासदी भी दर्ज होने लगी।

नीहा ने उसे और गहरे राज बताए—कैसे रात के अंधेरे में कुछ लोग ट्रकों और नावों के जरिए अधजली लाशों को उठाकर ले जाते हैं। “ये शव कहां जाते हैं, किस काम आते हैं, यह पूरी तरह साफ नहीं है, लेकिन इतना जान लो कि यह सब केवल लकड़ी या रस्म की कमी का मामला नहीं है। यह एक संगठित गिरोह है जो लाशों का इस्तेमाल अपने काले धंधे में करता है।” नीहा की बात सुनकर अमितेश के रोंगटे खड़े हो गए। उसके मन में अब स्पष्ट था कि यह मामला साधारण अपराध से कहीं बड़ा है। उसने नीहा से वादा किया कि वह इस सच को उजागर करने में पीछे नहीं हटेगा। उस रात गंगा किनारे लौटते समय उसकी आंखों के सामने अधजली लाशों की तस्वीरें घूम रही थीं—कभी लहरों में डूबती-उतराती, कभी राख में दबकर पड़ी, और कभी किसी अजनबी के कंधे पर चुपचाप उठाई जाती। अब यह केवल ‘मृतकों की कहानी’ नहीं रह गई थी, बल्कि जीवितों के पाप और अपराध की कहानी थी। और इस कहानी को बाहर लाने के लिए अमितेश ने ठान लिया कि चाहे खतरा कितना भी बड़ा क्यों न हो, वह घाटों की परछाई से पर्दा जरूर उठाएगा।

अध्याय ४

रात का समय था, और वाराणसी की गलियों में गंगा की ठंडी हवाएं बह रही थीं। लेकिन अमितेश के मन में बेचैनी का तूफ़ान उठ रहा था। नीहा गुप्ता से मिली जानकारी ने उसकी सोच की दिशा ही बदल दी थी। अब मामला केवल अधजली लाशों तक सीमित नहीं रहा था, बल्कि यह साफ दिख रहा था कि लाशों के पीछे एक व्यवस्थित और संगठित धंधा चल रहा है। उसने अपने नोट्स को बार-बार पढ़ा और उसमें उन जगहों को चिन्हित किया जहां लगातार अधजली लाशें पाई गई थीं। इन सभी घटनाओं का एक केंद्र बिंदु था—दीनानाथ शुक्ला का शव-दाह गृह। दीनानाथ शुक्ला वर्षों से घाट पर चिताओं का प्रबंधन करते आए थे। लोग उन्हें एक पारंपरिक घाटी मानते थे, जो धार्मिक कार्यों में निपुण थे। लेकिन धीरे-धीरे यह अफवाह फैलने लगी थी कि उनकी निगरानी में शवों का दाह संस्कार अक्सर अधूरा छोड़ दिया जाता है। अमितेश ने यह बात जब इंस्पेक्टर इन्द्राणी मिश्रा को बताई, तो उन्होंने गहरी सांस लेते हुए कहा, “तुम्हारी बात सच भी हो सकती है। हमें भी कई बार रिपोर्ट मिली है कि शुक्ला के दाह गृह में गड़बड़ी है, लेकिन हर बार मामला दबा दिया गया। लगता है अब हमें खुद जाकर देखना होगा।” इस निर्णय ने अमितेश के भीतर डर और उत्साह दोनों पैदा कर दिए।

अगले दिन शाम होते ही अमितेश और इन्द्राणी शुक्ला के शव-दाह गृह की ओर निकले। दाह गृह घाट से थोड़ा हटकर, गंगा किनारे एक पुराने परिसर में था। बाहर से देखने पर यह सामान्य सा लग रहा था—लकड़ियों के ढेर, राख से भरे चबूतरे, और कुछ मजदूर व्यस्त दिखाई दे रहे थे। लेकिन जैसे ही अमितेश और इन्द्राणी ने भीतर कदम रखा, माहौल अजीब सा लगा। चारों ओर अधजली लकड़ियों का ढेर और हवा में तैरती भारी गंध थी। इन्द्राणी ने औपचारिकता के तहत शुक्ला से बातचीत शुरू की। शुक्ला, एक ठिगना और चतुर चेहरा लिए आदमी, मुस्कुराकर बोला, “इंस्पेक्टर साहिबा, यहां सब ठीक है। आप जानती हैं, लोग जल्दी में रहते हैं, कभी लकड़ी कम पड़ जाती है, तो अधजली चिता भी दिख जाती है। इसमें कोई गड़बड़ नहीं।” लेकिन अमितेश की नजरें इधर-उधर घूम रही थीं। उसने देखा कि एक कोने में कुछ चिताएं आधी जली अवस्था में पड़ी थीं, और वहां कोई परिजन नहीं था। उसने धीरे से इन्द्राणी से कहा, “क्या तुम देख रही हो? ये शव अकेले पड़े हैं, जैसे इन्हें बीच में ही छोड़ दिया गया हो।” इन्द्राणी ने तुरंत अपने स्टाफ को संकेत देकर कुछ मजदूरों से पूछताछ करवाई। लेकिन मजदूर टालमटोल करने लगे और बोले कि परिवार वाले पैसे देकर चले गए थे। तभी अमितेश ने गौर किया कि लकड़ी के ढेर के पीछे कुछ अजीब सा हलचल हो रही है।

धीरे-धीरे इन्द्राणी और अमितेश दोनों वहां पहुंचे। जैसे ही उन्होंने लकड़ियों को हटवाया, एक छिपा हुआ रास्ता नजर आया जो दाह गृह के पीछे की ओर जाता था। दोनों ने टॉर्च जलाकर जब रास्ते का पीछा किया, तो सामने एक छोटा सा कमरा दिखाई दिया। कमरे का दृश्य भयावह था—वहां कुछ शव पूरी तरह से अधजली अवस्था में पड़े थे, और उन पर कोई अंतिम संस्कार की रस्में नहीं हुई थीं। ऐसा लग रहा था जैसे उन्हें जानबूझकर बचाकर रखा गया हो। कुछ शवों पर अस्पताल की पट्टियां और टैग लगे थे, जिन पर अब भी नंबर लिखे हुए थे। इन्द्राणी का चेहरा गुस्से से तमतमा गया। “इसका मतलब है कि ये लोग शवों को दाह संस्कार से पहले ही गायब कर देते हैं और किसी और काम में इस्तेमाल करते हैं,” उन्होंने कठोर स्वर में कहा। अमितेश का दिल धड़कने लगा—यह सबूत वही था जिसकी उसे तलाश थी। लेकिन उसी क्षण पीछे से आवाज आई—“बहुत खोद लिया तुम लोगों ने। अब यहां से जिंदा निकलना मुश्किल होगा।” यह आवाज खुद दीनानाथ शुक्ला की थी, जो अपने कुछ साथियों के साथ दरवाजे पर खड़ा था। उसकी आंखों में लालच और क्रूरता झलक रही थी। इन्द्राणी ने तुरंत अपनी रिवॉल्वर निकाली और कहा, “शुक्ला, अब तुम्हारा खेल खत्म है।” लेकिन अमितेश जानता था कि असली लड़ाई अभी शुरू हुई थी, क्योंकि ये शव केवल मौत की कहानी नहीं थे, बल्कि उस काले कारोबार की चाबी थे जो पूरे वाराणसी के घाटों पर पसरा हुआ था।

अध्याय ५

अमितेश ने जैसे ही दीनानाथ शुक्ला के गुप्त कमरे में पड़े शवों को देखा, उसके भीतर कुछ टूटने सा लगा। उसने कभी नहीं सोचा था कि मोक्ष और श्रद्धा की नगरी वाराणसी में लाशों का यह व्यापार चलता होगा। अगले कई दिनों तक उसने लगातार छानबीन जारी रखी। इन्द्राणी मिश्रा की मदद से उसे पुलिस की कुछ पुरानी फाइलें मिलीं, जिनमें अनसुलझे मामलों का जिक्र था। कुछ लाशें अस्पताल से निकलने के बाद गायब हुई थीं, तो कुछ का रिकॉर्ड अधूरा था। जांच में धीरे-धीरे यह सच सामने आया कि दीनानाथ और उसका गिरोह अधजली लाशों का इस्तेमाल केवल लापरवाही या धार्मिक रस्मों के नाम पर नहीं कर रहा था, बल्कि यह उनके लिए एक संगठित कारोबार था। शवों के अंग, जैसे त्वचा और हड्डियां, काले बाजार में ऊंची कीमत पर बेची जा रही थीं। अमितेश को ऐसे मेडिकल दलालों के नाम भी मिले जो इन अंगों को गुप्त नेटवर्क के जरिए बड़े शहरों तक पहुंचाते थे। वह जितना गहराई में उतरता गया, उतना ही भयावह सच सामने आता गया। इन अंगों का इस्तेमाल अवैध मेडिकल प्रयोगों, तंत्र-मंत्र, और यहां तक कि विदेशी कंपनियों द्वारा बनाए जाने वाले ‘कॉस्मेटिक प्रोडक्ट्स’ तक में होता था। अमितेश के सामने अब यह केवल घाटों का रहस्य नहीं था, बल्कि एक अंतरराष्ट्रीय स्तर का काला कारोबार खुल रहा था।

अमितेश ने जब इस मामले को दस्तावेजों और गवाहियों के साथ जोड़ना शुरू किया, तो उसे पता चला कि लाशों से केवल अंग ही नहीं, बल्कि उनके साथ रखी धार्मिक सामग्री—जैसे शव पर चढ़े वस्त्र, चांदी-तांबे के सिक्के, ताबीज और यहां तक कि श्मशान में इस्तेमाल की गई लकड़ियां भी चुपके से बेच दी जाती थीं। गरीब और अनजान परिवारों को धोखा देकर कहा जाता कि लकड़ी महंगी है, वे जितना पैसा दे सकते हैं उतना देकर चले जाएं, और बाकी का दाह संस्कार प्रबंधन खुद कर लेगा। लेकिन असलियत यह थी कि शव को पूरी तरह जलाया ही नहीं जाता था। उसके कपड़े, गहने, और धार्मिक सामग्री निकालकर अलग कर ली जाती थी और फिर अधजली लाश को या तो गंगा में बहा दिया जाता या गुप्त कमरों में छिपा लिया जाता। नीहा गुप्ता ने अमितेश को बताया कि वाराणसी के आसपास के बाजारों में अक्सर ऐसे कपड़े और ताबीज बिकते हैं, जिन्हें साधारण लोग दूसरी बार भी इस्तेमाल कर लेते हैं, बिना जाने कि वे किसी मृतक के थे। यह सुनकर अमितेश को झटका लगा—लोग मोक्ष की आस्था लेकर घाट पर आते थे और वहीं उनकी श्रद्धा का सबसे बड़ा अपमान हो रहा था। उसने अपने कैमरे से तस्वीरें खींचीं, गुप्त रिकॉर्डिंग्स कीं, और धीरे-धीरे यह पूरा नेटवर्क उसके सामने नक्शे की तरह साफ हो गया।

इन्द्राणी मिश्रा ने जैसे-जैसे इस काले धंधे की तहकीकात आगे बढ़ाई, यह साफ हुआ कि दीनानाथ शुक्ला केवल एक मोहरा था। उसके पीछे बड़े नाम शामिल थे—स्थानीय नेता, भ्रष्ट पुलिस अफसर, और कुछ बाहरी कारोबारी जो इस धंधे से मोटा मुनाफा कमा रहे थे। अमितेश ने अपनी रिपोर्ट लिखते हुए महसूस किया कि यह केवल अपराध की कहानी नहीं है, बल्कि एक ऐसी सच्चाई है जो इंसानियत के नाम पर धब्बा है। उसने अपने लेख का शीर्षक मन ही मन रखा—“मोक्ष के शहर में मौत का बाजार”। लेकिन उसके भीतर डर भी बैठ गया था। जितना सच सामने आता गया, उतना ही यह खतरा बढ़ता गया कि अगर उसने इसे छापा, तो उसका और उसके करीबियों का जीना मुश्किल हो जाएगा। मगर उसके सामने अधजली लाशों की आंखें घूम रही थीं, जैसे वे कह रही हों कि उनकी आत्मा तब तक मुक्त नहीं होगी जब तक उनका सच सामने नहीं आता। यही सोचकर उसने इन्द्राणी और नीहा के साथ ठान लिया कि अब चाहे कितना भी बड़ा गिरोह क्यों न हो, इस काले कारोबार का परदा उठाना ही होगा। यह अध्याय अमितेश के लिए एक निर्णायक मोड़ था—अब वह सिर्फ पत्रकार नहीं रहा, बल्कि उन आत्माओं का साक्षी बन गया था जो न्याय मांग रही थीं।

अध्याय ६

अमितेश को जब से दीनानाथ शुक्ला के दाह गृह में छिपे हुए शव और अवैध व्यापार के सुराग मिले थे, तब से वह दिन-रात उसी सोच में डूबा रहता। उसका कैमरा, रिकॉर्डर और नोटबुक अब उसके सबसे बड़े हथियार बन चुके थे। मगर धीरे-धीरे उसे महसूस होने लगा कि उसकी हर हरकत पर किसी की नजर है। घाटों पर घूमते समय उसे कई बार एहसास हुआ कि कोई अजनबी उसे दूर से घूर रहा है। कभी कोई नाविक अनचाहे उसके पास आकर पूछ लेता, “काहे भैया, बहुत लिख-पढ़ रहे हो घाट के बारे में?” तो कभी रात को लौटते वक्त साइकिल के पीछे किसी अज्ञात मोटरसाइकिल की आवाज गूंजती। अमितेश की समझ में आ गया कि गिरोह को उसके कामकाज का पता चल चुका है। एक शाम जब वह गंगा किनारे चुपचाप वीडियो रिकॉर्डिंग कर रहा था, तभी अचानक उसके पास एक पत्थर आकर गिरा। पत्थर पर एक कागज लिपटा हुआ था, जिस पर लिखा था—“सच खोजने वाला जल्दी ही खुद चिता में जलता है।” अमितेश की उंगलियां कांप उठीं। यह धमकी साफ-साफ बताती थी कि अब मामला सिर्फ रहस्य खोजने का नहीं रहा, बल्कि उसकी जान खतरे में पड़ चुकी थी।

धीरे-धीरे यह खतरा और गहरा होता गया। अमितेश ने रात में श्मशान घाट की गतिविधियों को रिकॉर्ड करने का निश्चय किया। कैमरा छिपाकर उसने मजदूरों और दलालों की बातें रिकॉर्ड करनी शुरू कीं। लेकिन तभी अचानक उसे लगा जैसे कोई पीछे से उसके कंधे पर हाथ रख रहा हो। उसने पलटकर देखा, वहां कोई नहीं था—सिर्फ हवा में उड़ती राख और अंधेरे में डोलती लपटें। उसका दिल तेज़ी से धड़कने लगा। वह चुपचाप बैठा रहा, लेकिन तभी उसके कैमरे के लेंस पर अचानक रोशनी पड़ी। किसी ने टॉर्च जलाई थी। अमितेश ने घबराकर कैमरा समेटा और छिपने के लिए लकड़ियों के ढेर के पीछे भागा। दूर से फुसफुसाहट की आवाजें आ रही थीं—“यही है वो पत्रकार… इसे सबक सिखाना होगा।” वह सांस रोके पड़ा रहा और कई मिनट तक हलचल होती रही। किसी तरह वह वहां से भाग निकला, लेकिन उसके मन में यह डर घर कर गया कि गिरोह अब उसकी मौत की साजिश रच रहा है। अगले दिन उसने जब इन्द्राणी मिश्रा को सब बताया, तो वह सख्त हो गईं। “अमितेश, अब ये खेल खतरनाक हो चुका है। सबूत इकट्ठा करना जरूरी है, लेकिन तुम्हारी जान उससे ज्यादा जरूरी है।” वहीं नीहा ने भी उसे समझाया, “तुम अकेले मत निकलो, वरना घाट की राख में तुम्हारा नाम भी शामिल हो जाएगा।” लेकिन अमितेश जानता था कि अगर उसने अभी पीछे हट गया, तो अधजली लाशों की आवाजें हमेशा उसे सताती रहेंगी।

फिर भी, खतरा लगातार उसके और करीब आता गया। एक रात जब वह अपने कमरे में बैठा नोट्स लिख रहा था, खिड़की से बाहर अचानक काला धुआं भीतर आने लगा। भागकर उसने खिड़की खोली, तो देखा नीचे कोई आग जलाकर भाग रहा था। उसके दरवाजे पर भी खून से लिखा एक संदेश छोड़ा गया था—“अब भी वक्त है, पीछे हट जा।” अमितेश का गला सूख गया, लेकिन उसने अपने भीतर दृढ़ निश्चय महसूस किया। यही डर दरअसल इस गिरोह की सबसे बड़ी ताकत थी, और अगर उसने डर को जीतने दिया तो पूरी जांच खत्म हो जाएगी। अगले दिन उसने और सावधानी बरतने का निश्चय किया। अब वह हर कदम फूंक-फूंक कर रखता, कैमरा और रिकॉर्डिंग्स को सुरक्षित जगह पर रखता और इन्द्राणी तथा नीहा से लगातार संपर्क में रहता। लेकिन उसके दिल की गहराइयों में यह बात भी बैठ चुकी थी कि गिरोह किसी भी वक्त हमला कर सकता है। खतरे की घंटी बज चुकी थी, और यह सिर्फ शुरुआत थी। अमितेश को अब तय करना था कि वह मौत के इस साये से कैसे लड़ेगा—एक पत्रकार की तरह, या उन आत्माओं के साक्षी की तरह जो मोक्ष की जगह अपमान में बदल दी गई थीं।

अध्याय ७

अमितेश की जांच अब उस मोड़ पर पहुँच चुकी थी, जहाँ सच धीरे-धीरे अपना चेहरा दिखाने लगा था। धमकियों और पीछा किए जाने के बावजूद उसने सबूत इकट्ठा करने का सिलसिला नहीं रोका था। इन्द्राणी मिश्रा की मदद से उसे आखिरकार उस नाम तक पहुँचना संभव हुआ, जो इस पूरे काले कारोबार का मुख्य सूत्रधार था—राहुल वर्मा। यह नाम सुनकर अमितेश को झटका लगा, क्योंकि राहुल केवल एक अपराधी ही नहीं था, बल्कि शहर में एक सम्मानित व्यापारी और समाजसेवी के रूप में भी पहचाना जाता था। उसने घाटों पर दान-पुण्य के आयोजन किए, मंदिरों को चढ़ावा दिया, और गरीबों के लिए भोजन के शिविर लगाए। लेकिन पर्दे के पीछे, वही आदमी अधजली लाशों के कारोबार का सबसे बड़ा मालिक था। उसकी पहुंच नेताओं से लेकर कुछ पुलिस अधिकारियों तक फैली हुई थी, और यही वजह थी कि इतने सालों से यह धंधा बिना किसी रुकावट के चलता रहा। अमितेश और इन्द्राणी ने जब एक गुप्त बैठक की योजना बनाई, तो यह साफ हो गया कि राहुल तक पहुँचना आसान नहीं होगा। हर गली, हर घाट, हर चौराहे पर उसके आदमी फैले हुए थे। अमितेश को अब अपनी पत्रकारिता की पैनी नजर और जासूसी जैसी सूझबूझ का इस्तेमाल करना था। यह अब खबर लिखने का मामला नहीं रहा था, बल्कि सीधे उन लोगों के जाल में फँसने का खतरा था, जो मौत को भी धंधे की तरह चलाते थे।

आखिरकार वह क्षण आया जब अमितेश और इन्द्राणी ने राहुल वर्मा का सामना किया। यह मुलाकात घाट किनारे एक पुराने गोदाम में हुई, जहाँ रात को अक्सर संदिग्ध गतिविधियाँ होती थीं। अमितेश ने अपने कैमरे को छुपाकर चालू किया और इन्द्राणी के साथ अंदर पहुँचा। गोदाम की अंधेरी दीवारों पर टिमटिमाती लालटेनें लटक रही थीं, और भीतर लकड़ियों के ढेरों के बीच कुछ संदूक पड़े थे जिनमें धार्मिक सामग्री और शवों के कपड़े भरे थे। अचानक पीछे से भारी कदमों की आहट आई और राहुल वर्मा अपने चार गुर्गों के साथ सामने आया। उसके चेहरे पर आत्मविश्वास और व्यंग्य भरी मुस्कान थी। “तो यह है वह पत्रकार,” उसने हंसते हुए कहा, “जिसे लगता है कि मोक्ष की नगरी का सच वह दुनिया को दिखा देगा। क्या तुम्हें लगता है कि तुम्हारी कलम हमारे सिक्कों से ज्यादा ताकतवर है?” अमितेश ने हिम्मत जुटाकर उसकी आंखों में देखा और बोला, “ताकतवर नहीं, लेकिन सच हमेशा झूठ से बड़ा होता है।” यह सुनकर राहुल ने ठहाका लगाया और इशारा करते ही उसके गुर्गे आगे बढ़े। इन्द्राणी ने तुरंत अपनी बंदूक निकाली और स्थिति को नियंत्रित किया, मगर यह साफ था कि अब वे दोनों दुश्मन के असली अड्डे में घिर चुके थे। अमितेश का दिल तेजी से धड़क रहा था, लेकिन उसके दिमाग में सिर्फ यही चल रहा था कि यह सबूत दुनिया के सामने लाना है, चाहे जान का खतरा क्यों न उठाना पड़े।

इसके बाद की हर पल एक शतरंज के खेल जैसा था। राहुल ने उन्हें धमकाते हुए कहा कि उसका नेटवर्क इतना बड़ा है कि कोई भी गवाह जिंदा नहीं रह सकता। “यह घाट, यह श्मशान, यह शहर—सब हमारे हैं। पुलिस से लेकर नेता तक सब हमारे इशारे पर चलते हैं,” उसने कहा। लेकिन अमितेश जानता था कि अगर डर गया तो यही उसकी सबसे बड़ी हार होगी। उसने चुपके से अपने जैकेट की जेब में छुपाए माइक्रोफोन की ओर इशारा किया, जो सारी बातचीत रिकॉर्ड कर रहा था। इन्द्राणी भी सतर्क थी; उसने अपने साथियों को पहले ही बैकअप के लिए तैयार रखा था। अचानक बाहर से सायरन की आवाज गूंजी और पुलिस की गाड़ियाँ गोदाम के बाहर आ खड़ी हुईं। राहुल के चेहरे पर पहली बार तनाव की झलक दिखाई दी। उसके आदमी इधर-उधर भागने लगे। अफरातफरी में अमितेश ने संदूक खोलकर वहां रखी सामग्री और दस्तावेज कैमरे में कैद कर लिए। यह वही पल था जिसका वह इंतजार कर रहा था—गिरोह के असली चेहरे को बेनकाब करने का। लेकिन साथ ही उसे यह भी अहसास हो गया कि राहुल जैसे लोग इतनी आसानी से हार मानने वाले नहीं हैं। उनके पास पैसा, ताकत और खून से सने हाथों की लंबी परछाई थी। यह जीत की शुरुआत जरूर थी, लेकिन जाल में फंसे रहने का खतरा अभी खत्म नहीं हुआ था। अमितेश ने गहरी सांस ली और खुद से कहा—अब यह कहानी केवल अखबार की हेडलाइन नहीं, बल्कि न्याय और अन्याय की निर्णायक लड़ाई बन चुकी है।

अध्याय ८

अमितेश की महीनों की कड़ी मेहनत, नींद रहित रातें और जान पर खेलकर की गई जांच आखिरकार रंग लाई। उसने अपने पास पर्याप्त सबूत इकट्ठा कर लिए थे—गुप्त रिकॉर्डिंग्स, कैमरे में कैद तस्वीरें, दस्तावेज़ और प्रत्यक्षदर्शियों के बयान। हर सबूत दीनानाथ शुक्ला और राहुल वर्मा के गिरोह की करतूतों की ओर साफ-साफ इशारा कर रहा था। अधजली लाशों के पीछे छुपा कारोबार अब रहस्य नहीं रहा था। अमितेश ने बड़ी सावधानी से सबूतों को इकट्ठा किया और उन्हें सुरक्षित जगह पर रखा। उसे पता था कि गिरोह के लोग अब भी उसे ढूंढ रहे हैं, इसलिए उसने इन्द्राणी मिश्रा और नीहा गुप्ता को भी इस योजना में शामिल किया। सबूत इकट्ठा करने के साथ-साथ उसने यह भी सुनिश्चित किया कि गिरोह के लोग किसी तरह इन्हें नष्ट न कर पाएं। अमितेश को अपनी कलम पर विश्वास था, लेकिन इस बार कलम से ज्यादा सबूत बोलने वाले थे। जब उसने पहली बार पूरी फाइल सामने रखी, तो इन्द्राणी ने गंभीर स्वर में कहा—“अब इन्हें सामने लाने का समय आ गया है। अगर आज हमने सच नहीं दिखाया, तो ये अधजली लाशें हमेशा गुमनाम रहेंगी।” अमितेश की आंखों में थकान जरूर थी, लेकिन भीतर एक अटूट ज्वाला भी थी।

सुबह का समय था, जब अमितेश ने अपनी रिपोर्ट को अंतिम रूप दिया और उसे स्थानीय मीडिया हाउस में भेजा। खबर छपते ही शहर में भूचाल आ गया। अखबार की सुर्खियों में बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था—“काशी के घाटों पर मौत का सौदा!” टीवी चैनल्स पर लगातार यह खबर चल रही थी कि कैसे अधजली लाशों को बीच में ही रोककर उनका इस्तेमाल काले कारोबार में किया जा रहा था। रिपोर्ट में दीनानाथ शुक्ला के दाह गृह की गुप्त तस्वीरें, संदूक में छुपाई गई सामग्री, और राहुल वर्मा के साथ हुई बातचीत के अंश भी शामिल थे। मीडिया में इस खुलासे ने सनसनी मचा दी। आम लोग हैरान और आक्रोशित थे। घाटों पर आने वाले श्रद्धालु खुद को ठगा महसूस कर रहे थे—जहाँ वे अपने प्रियजनों की आत्मा की शांति के लिए अंतिम संस्कार करते थे, वहीं उनके शव अपमानित होकर अपराधियों की जेब भरने का जरिया बने हुए थे। भीड़ जमा होकर प्रशासन से सवाल पूछने लगी। टीवी पर गुस्से से भरे परिजनों की आवाजें गूंजने लगीं—“क्या यही है मोक्ष की नगरी? क्या यही है श्रद्धा का सम्मान?” इस खुलासे ने पुलिस प्रशासन को भी कठघरे में खड़ा कर दिया। जिन अधिकारियों ने पहले इसे मामूली घटना बताया था, उनकी चुप्पी अब शक में बदल गई थी।

इस खुलासे के बाद काशी का माहौल पूरी तरह बदल गया। घाटों पर लोगों की भीड़ सिर्फ पूजा और स्नान के लिए नहीं, बल्कि न्याय की मांग के लिए भी इकट्ठा होने लगी। शहर के कोनों-कोनों में लोग अमितेश की रिपोर्ट की चर्चा करने लगे। वह अब सिर्फ एक पत्रकार नहीं रहा, बल्कि उन आवाज़ों का प्रतिनिधि बन चुका था जिन्हें कभी बोलने का मौका नहीं मिला। इन्द्राणी मिश्रा ने तुरंत गिरोह के कई सदस्यों को गिरफ्तार किया और उनके ठिकानों पर छापेमारी शुरू की। हर छापे में नये सबूत निकलते गए—गायब किए गए शवों की सूची, धार्मिक वस्तुओं की तस्करी के रेकॉर्ड, और यहां तक कि स्थानीय नेताओं की मिलीभगत के दस्तावेज़। नीहा गुप्ता ने भी समाज में जागरूकता फैलाने की जिम्मेदारी ली और पीड़ित परिवारों को एकजुट किया। दूसरी ओर, दीनानाथ और राहुल जैसे मुख्य आरोपी फरार हो गए थे, लेकिन अब उनका चेहरा बेनकाब हो चुका था। पूरा शहर जानता था कि घाटों की राख में लिपटा हुआ सबसे बड़ा पापी कौन है। इस खुलासे ने न केवल अपराधियों की नींव हिला दी, बल्कि काशी की आत्मा को भी झकझोर दिया। अमितेश जानता था कि लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है—गिरोह अभी भी पूरी तरह पकड़ा नहीं गया है, लेकिन यह पहला और सबसे बड़ा कदम था। उसने अपने भीतर एक शांति महसूस की, जैसे अधजली लाशों की वे गुमनाम आत्माएं अब उसकी मेहनत के जरिये न्याय की ओर बढ़ रही हों।

अध्याय ९

काशी में खुलासे की गूंज इतनी तेज थी कि अब उसे दबाना नामुमकिन हो गया था। अखबारों की सुर्खियां, टीवी चैनलों की डिबेट्स और आम लोगों के गुस्से ने प्रशासन को हिला कर रख दिया था। पहले जो पुलिस अधिकारी इस मामले को मामूली दुर्घटना बताकर टाल रहे थे, अब उन्हीं पर सवालों की बौछार हो रही थी। दबाव इतना बढ़ गया कि उच्चाधिकारियों को सीधे हस्तक्षेप करना पड़ा। इन्द्राणी मिश्रा को केस की विशेष जांच की जिम्मेदारी सौंपी गई और अमितेश को सरकारी सुरक्षा दी गई। लेकिन यह जिम्मेदारी जितनी बड़ी थी, खतरा भी उतना ही गहरा था। दीनानाथ शुक्ला और राहुल वर्मा जैसे अपराधी अभी पूरी तरह गिरफ्त से बाहर थे और उनके समर्थक हर जगह फैले हुए थे। फिर भी, इस बार हालात अलग थे—अब पूरा शहर गवाह बन चुका था। घाटों पर जुटी भीड़ दिन-रात नारे लगा रही थी, “मोक्ष का सौदा बंद करो! मृतकों का सम्मान लौटाओ!” लोगों के इस समर्थन ने इन्द्राणी और अमितेश को और मजबूती दी। दोनों ने तय किया कि सबूतों को अदालत में ऐसे तरीके से पेश किया जाएगा कि कोई ताकत उन्हें झुठला न सके।

अदालत का वह दिन काशी की जनता कभी नहीं भूल सकती। कोर्टरूम खचाखच भरा हुआ था। मीडिया कैमरे हर कोने में तैनात थे और बाहर हजारों लोग खड़े थे, जो फैसला सुनने का इंतजार कर रहे थे। इन्द्राणी ने मामले की कमान अपने हाथों में ली और एक-एक सबूत अदालत के सामने रखा। अधजली लाशों की तस्वीरें, दाह गृह से मिली संदिग्ध वस्तुएं, और सबसे अहम—राहुल वर्मा और दीनानाथ के बीच की बातचीत की गुप्त रिकॉर्डिंग। हर सबूत के साथ अदालत का माहौल और गंभीर होता गया। जब कैमरे पर दिखाई गईं वे तस्वीरें, जिनमें शवों के कपड़े और धार्मिक वस्तुएं काले बाजार में बिक रही थीं, तो पूरा कोर्टरूम स्तब्ध रह गया। अमितेश ने गवाही देते हुए विस्तार से बताया कि किस तरह उसने अपनी जान जोखिम में डालकर यह सच्चाई बाहर निकाली। उसकी आवाज में थकान थी, लेकिन सच्चाई का भार उसे और दृढ़ बना रहा था। वकीलों की बहस के दौरान गिरोह के वकील लगातार सबूतों पर सवाल उठाने की कोशिश करते रहे, लेकिन हर बार इन्द्राणी ठोस जवाब और नए दस्तावेज़ों के साथ खड़ी हो जातीं। धीरे-धीरे अदालत के सामने साफ हो गया कि यह मामला केवल कानून का नहीं, बल्कि पूरे समाज के विश्वास और आस्था का है।

आखिरकार, अदालत ने अपना फैसला सुनाया। दीनानाथ शुक्ला को न्याय के कटघरे में पेश किया गया और गिरोह के कई बड़े सदस्य दोषी करार दिए गए। उनके खिलाफ हत्या, धोखाधड़ी, धार्मिक भावनाओं का अपमान और काले धन की तस्करी के मामले दर्ज हुए। कई पुलिसकर्मी और स्थानीय नेता भी संलिप्त पाए गए और उन्हें निलंबित कर दिया गया। अदालत ने साफ कहा कि काशी जैसे पवित्र स्थल पर इस तरह का घिनौना अपराध न केवल कानून का उल्लंघन है, बल्कि मानवता के खिलाफ भी अपराध है। फैसले के बाद बाहर खड़ी भीड़ ने तालियां बजाकर और नारे लगाकर अपनी खुशी जताई। लोगों की आंखों में संतोष था कि उनके प्रियजनों की आत्माओं का अपमान अब रुक सकेगा। इन्द्राणी ने गहरी सांस ली, जैसे उसके कंधों से वर्षों का बोझ उतर गया हो। अमितेश ने बाहर आकर भीड़ को देखा, जहां हर कोई उसे धन्यवाद कह रहा था। वह जानता था कि लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है—गिरोह के कुछ हिस्से अब भी सक्रिय हैं, और आगे भी चुनौतियां आएंगी। लेकिन आज, इस अदालत के फैसले ने यह साबित कर दिया था कि जब सच और न्याय साथ खड़े हों, तो किसी भी जाल, किसी भी अंधेरे, और किसी भी अपराधी का अंत निश्चित होता है। काशी की घाटों की परछाइयों में छुपा पाप अब उजाले में आ चुका था, और यही न्याय की असली जीत थी।

अध्याय १०

काशी की वह भयावह स्थिति, जिसने पूरे शहर को हिला कर रख दिया था, धीरे-धीरे सामान्य होने लगी। अधजली लाशों का रहस्य अब रहस्य नहीं रहा, बल्कि न्याय की मिसाल बन चुका था। घाटों पर फिर से मंत्रोच्चार की गूंज सुनाई देने लगी, गंगा की लहरों पर दीपक बहने लगे और लोग श्रद्धा से अपने प्रियजनों का अंतिम संस्कार करने आने लगे। फर्क सिर्फ इतना था कि अब हर किसी की आंखों में एक सतर्कता भी थी। दाह गृह पर कड़ी निगरानी रखी जाने लगी थी, और प्रशासन ने भी यह सुनिश्चित कर दिया था कि भविष्य में इस पवित्र जगह पर कोई अपमानजनक घटना न हो। आम लोग अब अमितेश को सिर्फ एक पत्रकार नहीं, बल्कि घाटों की आत्मा का प्रहरी मानने लगे थे। उसकी रिपोर्ट ने न केवल अपराधियों को बेनकाब किया, बल्कि समाज को यह भी दिखाया कि अगर सच्चाई को उजागर करने का साहस हो, तो सबसे अंधेरी परछाइयों को भी मिटाया जा सकता है। शाम ढलते समय जब गंगा आरती की रोशनी घाटों को सुनहरी आभा में रंग देती, तो लगता जैसे काशी ने अपनी आत्मा को फिर से पा लिया हो।

दूसरी ओर, नीहा गुप्ता ने अपने काम को एक नए आयाम में बदल दिया। उन्होंने स्थानीय लोगों और स्वयंसेवकों के साथ मिलकर “संस्कार सुरक्षा समिति” बनाई, जो यह सुनिश्चित करती कि हर मृतक का अंतिम संस्कार पूरी मर्यादा और सम्मान के साथ हो। उन्होंने महिलाओं और युवाओं को भी इस मुहिम से जोड़ा, ताकि समाज का हर वर्ग अपनी जिम्मेदारी समझ सके। उनके प्रयासों से घाटों की व्यवस्था सुधरने लगी—लोगों को दाह संस्कार की सही विधियां सिखाई गईं, पुजारियों और घाट कर्मियों को पारदर्शिता बरतने के लिए प्रशिक्षित किया गया। नीहा ने यह भी तय किया कि इस संघर्ष की कहानी सिर्फ काशी तक सीमित न रहे, बल्कि पूरे देश को पता चले कि श्रद्धा और इंसानियत से खिलवाड़ बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। उन्होंने कार्यशालाओं और जनसभाओं के जरिये लोगों को जागरूक किया, और धीरे-धीरे यह आंदोलन एक सामाजिक बदलाव का रूप लेने लगा। इन्द्राणी मिश्रा भी उनके साथ खड़ी रहीं, और कानून व्यवस्था के जरिये इस बदलाव को स्थायी बनाने की कोशिश करती रहीं। घाटों पर अब हर चेहरा उम्मीद और शांति का प्रतीक बन चुका था।

अमितेश ने अंततः अपनी अंतिम रिपोर्ट पूरी की—एक लंबी रिपोर्ट, जो सिर्फ एक अपराध की कहानी नहीं थी, बल्कि साहस, सच्चाई और न्याय की लड़ाई का दस्तावेज़ थी। जब वह अपनी रिपोर्ट का आखिरी पन्ना लिख रहा था, तो उसके मन में उन अधजली लाशों की छवियां बार-बार उभर रही थीं, जिनकी गुमनाम आत्माओं ने उसे यह लड़ाई लड़ने के लिए मजबूर किया था। उसने लिखा—“काशी के घाट केवल पवित्रता और मोक्ष का प्रतीक नहीं हैं, बल्कि यह जिम्मेदारी भी हमारी है कि यहाँ आने वाली हर आत्मा को उसका पूरा सम्मान मिले। अगर हम चुप रहेंगे, तो पाप बढ़ेगा; अगर हम आवाज़ उठाएंगे, तो अंधकार मिटेगा।” रिपोर्ट प्रकाशित होते ही यह पूरे देश में चर्चा का विषय बन गई। हर जगह यह संदेश फैल गया कि न्याय के लिए आवाज़ उठाना जरूरी है। कहानी भले ही यहाँ समाप्त हो रही थी, लेकिन इसका प्रभाव दूर तक फैला। घाटों पर गंगा की लहरें अब भी बह रही थीं, आरती की लौ अब भी लहरा रही थी, लेकिन इस बार उनमें सिर्फ आस्था ही नहीं, बल्कि सच्चाई और साहस की ताकत भी झलक रही थी। काशी ने अपने घावों को भर लिया था, और घाटों की शांति ने यह संदेश दिया कि न्याय की लड़ाई कभी व्यर्थ नहीं जाती।

-समाप्त-

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