रथिन गुप्ता
अंधविश्वास की धरती
लखनऊ की हलचल भरी गलियों और चमकती सड़कों से निकलते समय पावन त्रिपाठी के दिल में एक अजीब सी बेचैनी थी। पत्रकारिता और ब्लॉगिंग की दुनिया में वह नाम तो कमा चुका था, लेकिन उसकी आत्मा को हमेशा कुछ अनछुए रहस्यों की तलाश रहती थी, जो लोगों की जुबां पर किस्सों की शक्ल में ज़िंदा होते हैं, लेकिन जिनकी सच्चाई किसी ने जानने की हिम्मत नहीं की। उसके हाथ में उसकी नोटबुक थी, जिस पर लिखा था – “काले पानी की हवेली – एक अनकही दास्तान”। उसने कई रातें इस हवेली के बारे में पढ़ने, पुराने अखबारों की कटिंग इकट्ठा करने और गांव के बूढ़ों से फोन पर बात करने में लगाई थी। गांव का नाम सुनते ही ज़्यादातर लोग फोन काट देते, और जो रुकते भी, उनकी आवाज़ में कंपन होता। कहते थे, “बाबूजी, वहां मत जाइए… वो जगह आदमी को निगल लेती है।” पर पावन की जिज्ञासा ने डर पर जीत पाई। बस यही सोच कर वह लखनऊ रेलवे स्टेशन पर खड़ा था, अपने कंधे पर झोला टांगे, जिसमें कैमरा, कुछ किताबें और एक पुरानी टॉर्च रखी थी। ट्रेन की सीटी बजते ही उसने गांव की ओर सफर शुरू कर दिया। रास्ते भर खेतों की हरियाली, दूर-दूर तक फैले पीपल और बरगद के पेड़, और मिट्टी की खुशबू उसकी नाक से टकराती रही, लेकिन जैसे-जैसे वह मंज़िल के करीब आता गया, वैसा ही मौसम भी बदलता गया। बादलों की धुंधली चादरें सूरज को ढक चुकी थीं, और चारों ओर अजीब सा सन्नाटा फैल गया था। ट्रेन से उतरते ही पावन को गांव की वो पगडंडी दिखी, जो हवेली की ओर जाती थी — सूखी, धूल उड़ाती और वीरान। और उस पगडंडी के दोनों ओर फैला था डर का साम्राज्य, जो हर झोपड़ी और हर पेड़ की छांव में सांस लेता दिखता था।
गांव की चौपाल पर जब पावन पहुँचा, तो वहां बैठे बूढ़े-बुजुर्गों की निगाहें उसी पर टिक गईं। उसकी आंखों में चमक और हाथ में कैमरा देखकर वो धीरे-धीरे उठकर अपने घरों की ओर खिसकने लगे। गांव की हवा में एक अजीब गंध थी — जैसे बरसों से कोई डर, कोई रहस्य वहां सड़ता रहा हो। तभी एक अधेड़ उम्र का आदमी, जो सिर पर सफेद गमछा बांधे था, आगे बढ़ा। वो था गुलशन यादव, गांव का गाइड और कभी-कभार खेतिहर। पावन ने हाथ जोड़कर उसे नमस्ते किया और अपने आने का मकसद बताया। गुलशन के चेहरे पर पहले तो गुस्सा, फिर डर और फिर दया की लकीरें उभर आईं। उसने कहा, “साहब, यहां आने से पहले किसी ने आपको बताया नहीं? वो हवेली इंसान का नहीं, भूतों का डेरा है। यहां जिसने भी रात बिताई, वो दोबारा कभी न दिखा। और आप… आप तो शहर से आए हैं, इस मिट्टी की खुशबू और इस मिट्टी के खौफ को क्या जानें!” लेकिन पावन ने मुस्कुरा कर उसका हाथ थाम लिया। “मैं सिर्फ सच्चाई जानना चाहता हूं, और कुछ नहीं। अगर हवेली में भूत है तो उसे देख कर ही लौटूंगा, और अगर नहीं है, तो इन किस्सों का अंत कर दूंगा।” गुलशन ने गहरी सांस ली और कहा, “तो ठीक है, लेकिन मैं हवेली की देहरी तक ही जाऊंगा। उसके आगे आपकी जिम्मेदारी आपकी खुद की होगी।” गांव की गलियों से होते हुए पावन गुलशन के पीछे-पीछे चल पड़ा। रास्ते में बच्चे अपनी मांओं की ओट में छुपते, और औरतें खिड़कियों से झांकती रहीं। बूढ़े बरगद के पेड़ के नीचे बैठा एक साधु — रघुनंदन बाबा — आंखें मूंदे माला फेर रहा था। उसके होंठ धीमे-धीमे मंत्र बुदबुदा रहे थे, और उसकी मौजूदगी में हवा और भारी हो उठी। पावन की नज़र उस पर पड़ी, तो उसने एक क्षण को अपनी माला रोककर सिर हिलाया — मानो किसी अनकहे डर की चेतावनी दे रहा हो।
शाम ढलने लगी थी। सूरज की आखिरी किरणें जब गांव की गलियों को चूमती हुई पेड़ों की शाखाओं पर टिकने लगीं, तब पावन और गुलशन उस वीरान हवेली के सामने जा पहुंचे। हवेली की दीवारों पर काई जमी थी, जगह-जगह दरारें थीं और खिड़कियों के पट टेढ़े-मेढ़े लटके थे। हवेली का दरवाजा जंग खाए लोहे का था, और उसके ठीक पीछे एक बड़ा कुआं था, जिसका पानी गाढ़ा काला दिख रहा था — मानो किसी ने उसमें काली रात को घोल दिया हो। हवेली की छत पर उगे पीपल के पेड़ की डालियां हवा में हिल रही थीं, और उनके पत्तों की सरसराहट में जाने किस दर्द की आवाज़ शामिल थी। गुलशन ने डरते-डरते हवेली की देहरी पर कदम रोके और कहा, “बस, साहब, अब मैं यहीं रुकूंगा। आप आगे जाइए।” पावन ने अपनी टॉर्च निकाली, कैमरे की पट्टी कंधे पर टांगी और धीमे-धीमे कदमों से हवेली के भीतर प्रवेश किया। अंदर की हवा ठंडी थी, और हर दीवार, हर कोना, जैसे पावन को घूर रहा था। तभी अचानक उसके पैरों के नीचे से ज़मीन की नमी की बदबू और कुएं से आती एक सर्द हवा ने उसे कंपा दिया। उसने पीछे मुड़कर देखा — गुलशन अब दूर खड़ा था, और हवेली के दरवाजे पर अंधेरा पूरी तरह कब्जा जमा चुका था। पावन ने मन ही मन खुद को साहस दिलाया और सोचा — अब पीछे नहीं हट सकता। सच्चाई को जाना और दिखाना ही मेरी मंज़िल है। तभी, हवेली के भीतर कहीं दूर से जैसे किसी औरत की धीमी सिसकी की आवाज़ आई। पावन के दिल की धड़कन तेज हो उठी, और हवेली के अंधेरे में उसकी कहानी की असली शुरुआत हो चुकी थी…
गांव की पहली रात
पावन ने जैसे ही हवेली की चौखट लांघी, उसके कानों में सन्नाटे की एक तेज़ गूंज सुनाई दी। हवेली की दीवारें पुराने ज़माने की दर्द भरी कहानियों की तरह दरक रही थीं। चारों ओर धूल और जाले फैले थे। लकड़ी की सीढ़ियां चरमरा रही थीं, जैसे किसी अदृश्य यात्री के कदमों का भार अब भी उन पर हो। पावन ने अपनी टॉर्च की रोशनी को आगे बढ़ाया तो दीवारों पर सायरा के ज़माने की धुंधली तस्वीरें जमी हुई काई के पीछे से झांकती दिखीं — एक औरत की मुस्कुराती तस्वीर, जो वक्त की बेरहमी से मिट चुकी थी, लेकिन उसकी आंखें जैसे अब भी पावन की ओर ताक रही थीं। हवेली के भीतर की हवा ठंडी और बोझिल थी, जैसे हर सांस लेने पर कोई अदृश्य शक्ति उसे दबा रही हो। उसने अपने कैमरे से तस्वीरें लेना शुरू किया, लेकिन हर तस्वीर में एक अजीब धुंध सी दिखती — मानो कोई अदृश्य परछाईं कैमरे के लेंस पर अपना हक जताना चाहती हो। हवेली के पीछे से आती हवा कुएं के पानी की सड़ांध को पूरे घर में फैला रही थी। पावन ने अपनी नोटबुक में लिखा — “हवेली की हवा में बस एक ही गंध है — सड़े हुए काले पानी की, और एक ही आवाज़ — किसी भूली हुई आत्मा की सिसकियों की।” बाहर आसमान पर बादलों ने चांद को ढक लिया था, और हवेली के भीतर हर परछाईं और गहरी हो चली थी।
रात जैसे-जैसे गहराती गई, हवेली के भीतर डर अपनी जड़ें और मजबूत करने लगा। पावन ने अपने थके शरीर को हवेली के एक पुराने कमरे में बिछी जर्जर चारपाई पर डाल दिया। वो सोच रहा था कि गांववालों की कहानियां शायद सिर्फ डर फैलाने का एक जरिया होंगी, लेकिन तभी हवेली के पिछवाड़े से पायल की धीमी छन-छन सुनाई दी। पावन की रगों में खून जम सा गया। उसने कैमरे को उठाया और खिड़की से झांका, लेकिन बाहर केवल अंधकार था। तभी हवेली के भीतर दरवाज़े खुद-ब-खुद चरमरा कर हिलने लगे, मानो कोई अदृश्य ताकत उन्हें तोड़कर भीतर घुसना चाहती हो। पावन की सांसें तेज हो गईं, उसके माथे पर पसीना छलक आया। उसने खुद को संभालते हुए टॉर्च की रोशनी बाहर फेंकी तो एक क्षण के लिए उसे कुएं के पास एक धुंधली परछाईं दिखी — एक औरत की आकृति, झुकी हुई, बाल बिखरे हुए, और आंखें शून्य में ताकती हुई। पावन की टॉर्च की रोशनी उस पर पड़ी तो परछाईं धीरे-धीरे हवा में घुल गई। पावन हड़बड़ाकर कमरे से बाहर निकला, लेकिन हवेली का मुख्य दरवाज़ा जंग लगी सांकल की तरह अपनी जगह पर जड़ हो चुका था। बाहर निकलने का रास्ता जैसे किसी ने बंद कर दिया हो। हवा और ठंडी हो गई थी, और कुएं की बदबू और तीखी हो उठी। पावन ने पहली बार इस रहस्य से डर को अपने भीतर उतरते महसूस किया — वो डर, जो आंखों से दिखता नहीं, लेकिन आत्मा को जकड़ लेता है।
आधी रात का वक्त था। पावन ने खुद को संभालते हुए अपनी डायरी निकाली और कांपते हाथों से लिखा — “यहां कोई है। हवेली की हवा में वो मौजूद है। मैं इसे महसूस कर सकता हूं।” तभी हवेली के पिछवाड़े से फिर से वही पायल की आवाज आई और इस बार उसमें किसी के कराहने की ध्वनि भी घुली हुई थी। हवेली के चारों ओर की दीवारों से अजीब सी खरोंचने की आवाजें आने लगीं, जैसे कोई नाखूनों से उन्हें उधेड़ने की कोशिश कर रहा हो। पावन ने आंखें बंद कर लीं और मां का नाम लेकर एक गहरी सांस ली। तभी एक सर्द हवा का झोंका कमरे में घुसा और उसकी नोटबुक के पन्ने फड़फड़ाने लगे। उसके कैमरे की फ्लैश लाइट अपने आप चमक उठी, और उस रोशनी में पावन को एक पल के लिए सामने सायरा का चेहरा दिखा — उदास, करुण, और आंखों में नफरत और दर्द का ऐसा मिश्रण, जिसे देख कर पावन चीख पड़ा। हवेली की दीवारों से टकराकर उसकी चीख दूर गांव तक गूंजी। और फिर सब शांत हो गया — हवेली में फिर वही सन्नाटा, वही सड़ांध, वही इंतज़ार। पावन उसी चारपाई पर बैठा रह गया, दिल की धड़कनों की आवाज को अपने कानों में गूंजते सुनता रहा, और इंतज़ार करता रहा कि सुबह कब होगी।
हवेली की देहरी
सुबह की पहली किरणें अभी गांव की गलियों में उतर ही रही थीं कि पावन कांपता हुआ हवेली के दरवाजे से बाहर निकला। उसकी आंखों के नीचे काले घेरे उभर आए थे, और उसके बाल बिखरे हुए थे। रात की घटनाओं ने उसकी आत्मा तक को झकझोर दिया था। हवेली की ठंडी हवा अब भी उसके चारों ओर मंडरा रही थी, मानो रात का डर अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुआ था। पावन की नज़र सीधा उस काले कुएं पर पड़ी, जिसके पानी का रंग रात की स्याही से भी गहरा दिख रहा था। कुएं के किनारे उगे घास-पात पर ओस की बूंदें चमक रही थीं, लेकिन उनमें से भी सड़ांध की गंध उठ रही थी। पावन ने खुद को समेटते हुए गांव की ओर कदम बढ़ाए। गुलशन जो दूर से हवेली पर नजर रखे था, उसे देख भागता हुआ पावन की ओर आया। “साहब, आप जिंदा बाहर आ गए? भगवान की किरपा है!” गुलशन की आंखों में राहत और डर एक साथ दिख रहा था। पावन ने उसकी बात सुनी नहीं। उसकी नजरें अब भी हवेली पर टिकी थीं — उस वीरान हवेली पर, जो रातभर उसके सपनों और जागती आंखों दोनों में खौफ बनकर समाई रही। उसके कदम लड़खड़ाते हुए गांव की ओर बढ़े और हर झोपड़ी, हर दरवाजे से झांकती आंखें उसे देखने लगीं, जैसे किसी अजूबे को देख रही हों। पावन को लग रहा था जैसे हवेली ने उसे वापस भेजा नहीं, बल्कि अपने रहस्य के एक हिस्से के तौर पर गांववालों के सामने पेश किया हो।
गांव की चौपाल पर बैठा मुखिया विजय सिंह, जो अब तक हवेली की ओर नजरें गड़ाए बैठा था, पावन को देख कर उठ खड़ा हुआ। उसके माथे पर चिंता की लकीरें और गुस्से का भाव दोनों साफ झलक रहे थे। उसने पास आते ही पावन को घूरते हुए कहा, “हमने पहले ही कहा था बाबूजी, उस हवेली से दूर रहिए। आप अपनी जिद में हमारे गांव की शांति बिगाड़ना चाहते हैं? वहां जाने की हिम्मत अब किसी में नहीं रही, और आप शहर से आकर हमारे दुख को फिर से जगा रहे हैं।” पावन ने थकी हुई आवाज़ में कहा, “मुखियाजी, मैं सिर्फ सच्चाई जानना चाहता था। जो मैंने वहां देखा, वो… वो शब्दों में बयां नहीं कर सकता।” गांव के और लोग भी चौपाल पर जमा हो गए थे। बूढ़े, बच्चे, औरतें — सब की निगाहें पावन पर टिकी थीं। पावन ने अपनी नोटबुक निकाली और मुखिया को दिखाने लगा, जिसमें रातभर की घटनाओं के नोट्स थे। लेकिन मुखिया ने हाथ उठाकर मना कर दिया, “इन बातों को अपने पास ही रखो। जो वहां गया वो या तो मर गया या पागल हो गया। तुम बचे हो तो इसे भगवान का चमत्कार समझो। लेकिन अब गांव छोड़कर चले जाओ, इससे पहले कि हवेली का साया हम सब पर भारी पड़ जाए।” पावन को पहली बार अहसास हुआ कि यह रहस्य सिर्फ हवेली तक सीमित नहीं है — यह गांव की आत्मा में बस गया है, उसकी रगों में बह रहा है।
पावन ने तय कर लिया कि वो गांववालों की चेतावनी से डरेगा नहीं। वो हवेली की गुत्थी को सुलझाए बिना नहीं लौटेगा। उसने गुलशन से कहा, “तुम मेरे साथ चलोगे, मुझे हवेली के इतिहास के बारे में सब कुछ बताओ।” गुलशन पहले तो कांप गया, लेकिन पावन के दृढ़ निश्चय को देख चुपचाप सहमति में सिर हिलाया। तभी रघुनंदन बाबा चौपाल पर प्रकट हुए, हाथ में माला, आंखों में ऐसा तेज कि सब चुप हो गए। बाबा ने पावन की ओर इशारा कर कहा, “तुमने मौत के घर की देहरी पर कदम रखा है। हवेली अब तुम्हें अपने रहस्य में खींचेगी। अगर जान बचानी है तो लौट जाओ।” पावन ने बाबा की आंखों में झांका, जहां डर नहीं, बल्कि कोई गहरी सच्चाई छुपी थी। लेकिन उसके भीतर का पत्रकार अब डर से परे जा चुका था। वो जान चुका था कि हवेली की सच्चाई सिर्फ एक कहानी नहीं, बल्कि एक ऐसा सच है जिसे उजागर करने का समय आ चुका है। उसी शाम पावन और गुलशन हवेली के इतिहास को जानने गांव के सबसे बूढ़े आदमी, बूरे खान से मिलने निकल पड़े — और इस फैसले ने पावन की जिंदगी को हमेशा के लिए बदल देना था।
काले पानी की सिसकियाँ
गांव की बाहरी सीमा पर, जहां पुराना पीपल का पेड़ अपनी जटाओं से धरती को जकड़े हुए था, वहीं एक झोंपड़ी में बूरे खान रहते थे। बूरे खान की उम्र 90 पार हो चुकी थी, लेकिन उनकी आंखों में वो चमक अब भी थी जो किसी बड़े रहस्य के गवाह की होती है। पावन और गुलशन जब वहां पहुंचे, तो बूरे खान झोपड़ी के बाहर अपने खाट पर बैठे, तंबाकू मल रहे थे। पावन ने अदब से उनके पास बैठते हुए कहा, “बाबा, हमें हवेली की सच्चाई बताइए।” बूरे खान की सूखी उंगलियों ने तंबाकू का डिब्बा बंद किया और वो दूर हवेली की दिशा में देखने लगे। उनकी आवाज़ भूरी मिट्टी जैसी खुरदुरी थी, “बेटा, वो हवेली कभी रियासत के नवाब की थी। नवाब की एकलौती बहू सायरा बहुत खूबसूरत थी, लेकिन उसकी जिंदगी दुखों से भरी थी। नवाब का बेटा बेरहम था, सायरा पर अत्याचार करता था। एक रात बारिश में भीगती सायरा की चीखें हवेली की दीवारों में गूंजी थीं। वो कुएं तक दौड़ी थी, और वहीं छलांग लगा दी। लोग कहते हैं, नवाब ने उसके शव को कुएं से निकाला तक नहीं, उसी में दफना दिया।” बूरे खान की आवाज टूट गई। उन्होंने आगे कहा, “तब से कुएं का पानी काला हो गया। और हर अमावस की रात सायरा की आत्मा हवेली की गलियों में भटकती है। जिसने भी वहां रात बिताई, या तो गायब हो गया या पागल होकर लौटा। बेटा, उस हवेली से दूर रह, वो अब इंसानी जगह नहीं रही।” पावन ने बूरे खान की बातों को दिल में उतारा, लेकिन उसके अंदर की जिज्ञासा और भी तेज हो चुकी थी। गुलशन की हथेलियां पसीने से भीग गई थीं, और उसकी आंखों में डर साफ दिख रहा था।
उस रात चांद बादलों में छिपा हुआ था। हवेली पर अंधेरा पूरी तरह उतर चुका था, जैसे आसमान ने अपनी काली चादर हवेली पर बिछा दी हो। पावन ने अपने झोले में टॉर्च, कैमरा और नोटबुक संभाली और गुलशन को गांव में छोड़, अकेला हवेली की ओर बढ़ा। रास्ते में सूखे पत्तों की चरमराहट और रात के जीवों की आवाजें उसकी हिम्मत की परीक्षा ले रही थीं। हवेली के करीब पहुँचते ही काले कुएं से उठती सड़ांध उसे भीतर तक बीमार कर रही थी, लेकिन उसने खुद को संभाला। दरवाजे की चरमराहट के साथ वो अंदर दाखिल हुआ। इस बार हवेली की हवा और ज्यादा ठंडी लगी, और भीतर गूंजती सिसकियों की आवाजें पहले से साफ सुनाई दे रही थीं। पावन ने कैमरा ऑन किया और हर कोने की तस्वीरें लेने लगा। कैमरे के फ्लैश की रौशनी में बार-बार दीवारों पर अजीब आकृतियाँ बनती दिखतीं — कोई औरत का चेहरा, कोई झुकी हुई परछाईं। पावन ने अपनी नोटबुक में लिखा: “हवेली की दीवारें सायरा की पीड़ा को अपनी दरारों में कैद किए हुए हैं। यहां की हवा सांसों में जहर घोलती है।” तभी हवेली के भीतर की हवाएं तेज़ हो गईं, खिड़कियों के पट खुद-ब-खुद खुलने-बंध होने लगे। और फिर वो हुआ जिसका डर था — कुएं की दिशा से एक तेज़ चीख हवा में गूंजी और हवेली की दीवारों से टकराकर पूरे गांव तक फैल गई। पावन के हाथ से कैमरा छूट गया और उसकी टॉर्च की रोशनी बुझने लगी।
हवेली के उस सन्नाटे में पावन खुद को अकेला और बेबस महसूस कर रहा था। वो भाग कर बाहर निकलना चाहता था, लेकिन दरवाजे की ओर बढ़ते ही उसने देखा — कुएं के पास कोई खड़ा है। वो आकृति सायरा की ही थी — लंबी जटाएं, सफेद लिबास, और आंखों में वो दर्द, जो मौत से भी बड़ा था। पावन की सांस रुक सी गई। सायरा की आत्मा की आंखें सीधे उसकी आत्मा को भेद रही थीं। अचानक हवेली की दीवारों पर खरोंचों की आवाजें गूंज उठीं, जैसे कोई अपने नाखूनों से उन्हें फाड़ रहा हो। हवेली का दरवाजा खुद-ब-खुद बंद हो गया और पावन भीतर कैद हो गया। उसने कांपते हाथों से अपनी नोटबुक में आखिरी लाइन लिखी — “सायरा की आत्मा अब मुझसे कुछ कह रही है। उसकी आंखों में एक कहानी कैद है। शायद वो चाहती है कि मैं उसे सुनूं… और इस हवेली की सच्चाई सबके सामने लाऊं।” उसी वक्त हवेली की हर दीवार से ठंडी हवा के थपेड़े आने लगे और पावन को लगा जैसे वो किसी अदृश्य शक्ति की गिरफ्त में जा रहा है। रात लंबी थी, हवेली का साया और भी गहरा हो गया था, और पावन की लड़ाई अब सिर्फ सच्चाई से नहीं, खुद अपने डर से भी थी।
गायब होने की शुरुआत
पावन हवेली के भीतर ठंडी, सड़ी हुई हवा में फंसा खड़ा था। हवेली का दरवाज़ा अब लोहे की जंजीरों जैसा भारी महसूस हो रहा था, और बाहर निकलने की हर कोशिश नाकाम थी। कमरे में अंधेरा गहराता जा रहा था, और सिर्फ उसकी अपनी धड़कनों की आवाज़ गूंज रही थी, जो अब कानों में बुरी तरह टकरा रही थी। हर बार जब वो दरवाज़े को धक्का देता, हवेली की दीवारें जैसे और सख्त हो जातीं। तभी कमरे के कोने से एक धीमी कराहट सुनाई दी। पावन ने कांपते हाथों से अपनी टॉर्च जलाई। रोशनी की धुंधली रेखा में उसे वही आकृति दिखी — सायरा की आत्मा, जो अब और साफ नजर आ रही थी। उसका चेहरा उदास था, लेकिन आंखों में अनकहे दर्द की आग जल रही थी। सायरा की आत्मा जैसे दीवारों से निकलकर धीरे-धीरे पावन के करीब आ रही थी। पावन की सांसें रुकने लगीं। उसकी टॉर्च की रोशनी कांप रही थी, और उसका कैमरा अपने आप फ्लैश करने लगा, हर फ्लैश में सायरा की आकृति और साफ होती जाती। सायरा की जटाओं से पानी टपकता दिखा — वो काले कुएं का पानी, जो अब हवेली की मिट्टी तक में समा चुका था।
रात का हर पल पावन के लिए एक सदी जितना लंबा लगने लगा। हवेली के दरवाजे पर अब वो खरोंचने की आवाजें और तेज़ हो चुकी थीं, जैसे कोई आत्मा या कोई शक्ति उसे बाहर निकालने नहीं देना चाहती। पावन की आंखों के सामने अब सायरा की परछाई हवेली की दीवारों पर नाचती सी दिखने लगी। सायरा की आत्मा ने अपना सिर उठाया, और पहली बार उसके होठ हिले — लेकिन वो आवाज हवा में विलीन हो गई, मानो हवेली की छत ने उस आवाज को कैद कर लिया हो। पावन ने अपने कानों पर जोर डाला। धुंधली-सी आवाज आई, “मुक्ति… मेरी मुक्ति…” ये शब्द जैसे हवेली की हर दरार से गूंज उठे। पावन को महसूस हुआ कि वो आत्मा कोई नुकसान पहुंचाना नहीं चाहती, वो बस अपनी अधूरी कहानी कहने आई है। लेकिन हवेली की बंधी हुई ताकतें उसे ऐसा नहीं करने दे रही थीं। तभी हवेली के फर्श पर जमी काई पर पावन की नजर पड़ी — वहां किसी ने नाखूनों से खरोंच कर लिखा था — “जो सुनेगा, वो बचेगा। जो अनसुना करेगा, वो मरेगा।” ये लाइन पढ़ते ही पावन को अपनी जान की परवाह से ज्यादा सायरा की पीड़ा समझने की जिद होने लगी। वो धीरे-धीरे आत्मा की ओर बढ़ा और अपनी कांपती आवाज़ में कहा, “कहो, मैं सुन रहा हूं।” हवेली की दीवारों ने एक बार फिर सायरा की कराह को दुहराया — लेकिन इस बार उसमें एक दुआ थी, एक फरियाद थी।
आधी रात का समय बीत चुका था। हवेली के बाहर गांव की गलियों में सन्नाटा पसर चुका था, लेकिन हवेली के भीतर मौत का सन्नाटा अब भी पावन की हर सांस को डर में डुबोए हुए था। तभी एक ज़ोर की हवा का झोंका पूरे कमरे में फैल गया। टॉर्च की रोशनी बुझ गई, और पावन का कैमरा हाथ से छूटकर ज़मीन पर गिर गया। कैमरे की स्क्रीन पर अपने आप तस्वीरें बदलने लगीं — पहली तस्वीर सायरा की थी, दूसरी उसके कुएं में डूबने की, और तीसरी तस्वीर में हवेली के पुराने मालिक की परछाई। पावन को समझ में आ गया कि हवेली में अब कोई अदृश्य शक्ति उसकी परीक्षा ले रही है। सायरा की आत्मा अब सामने खड़ी थी, और उसकी आंखों से आंसूओं की जगह काले पानी की बूंदें टपक रही थीं। पावन ने जैसे ही आत्मा को देखने की हिम्मत जुटाई, सायरा की आकृति हवा में घुलने लगी और कमरे की हर दीवार पर उसकी परछाईं बिखर गई। अचानक हवेली के दरवाज़े की सांकल खुद-ब-खुद खुल गई, और एक तेज़ झोंका पावन को बाहर की ओर खींचता चला गया। वो गिरते-पड़ते हवेली के आंगन में आ गया। आकाश में बिजली चमकी और पावन ने अंतिम बार सायरा की आत्मा को हवेली की छत पर खड़ा देखा — वो आंखों में शांति लिए उसे देख रही थी, मानो कह रही हो कि उसकी कहानी का एक हिस्सा अब पावन के हवाले है। पावन वहीं ज़मीन पर बैठा हांफता रहा, और हवेली की रात ने अपने रहस्य के पन्ने उसके मन पर और गहरे लिख दिए। अब वो जानता था — वो इस रहस्य से भाग नहीं सकता, अब तो उसे इसके अंत तक जाना ही होगा।
नीलिमा की एंट्री
अगली सुबह सूरज की किरणें जब गांव के सूखे खेतों और बूढ़े पीपल की डालियों पर पड़ीं, तो गांव की हवाओं में अब भी रात की दहशत की परछाईं तैर रही थी। पावन, थका-मांदा, मटमैले कपड़ों में चौपाल पर बैठा, अपने नोटबुक के पन्नों को बार-बार पलट रहा था, मानो उन शब्दों में किसी समाधान की तलाश कर रहा हो। तभी धूल उड़ाती एक जीप गांव में दाखिल हुई। जीप से उतरी एक युवती — नीलिमा, पावन की छोटी बहन। वो पावन के चेहरे को देखते ही घबरा गई। “भैया, ये क्या हाल बना लिया है आपने? मुझे आपका मैसेज मिला तो मैं सब छोड़कर यहां चली आई।” नीलिमा के स्वर में घबराहट और दृढ़ता दोनों थीं। पावन ने थकी हंसी के साथ कहा, “नीलू, तुम क्यों आई? ये जगह अब तुम्हारे लिए सुरक्षित नहीं।” लेकिन नीलिमा के चेहरे पर वो जिद दिखी जो पावन में भी थी — सच्चाई जानने की जिद। उसने अपने कैमरे और नोटबुक का बैग उतारा और कहा, “अगर आप खतरे में हैं तो मैं भी आपके साथ हूं। अब इस रहस्य को मिलकर सुलझाएंगे।” गुलशन, जो दूर से ये देख रहा था, धीरे-धीरे पास आया और बोला, “बीबीजी, आप दोनों अब इस हवेली की कहानी का हिस्सा बन चुके हैं। अब पीछे लौटना आसान नहीं।” पावन और नीलिमा ने एक-दूसरे की ओर देखा, और दोनों ने तय कर लिया — अब हवेली का हर पन्ना खोलकर रहेंगे।
गांव वालों की भीड़ फिर से चौपाल पर जमा होने लगी थी। बूरे खान और रघुनंदन बाबा भी वहां पहुंचे। बाबा ने नीलिमा को देखते ही कहा, “बेटी, इस हवेली ने अपने रहस्य के कई पन्ने निगल लिए हैं। जो इसे खोलने जाता है, वो या तो लौटता नहीं, या फिर उसका मन दरक जाता है।” नीलिमा ने साहस से कहा, “बाबा, अब डर पीछे छूट चुका है। सायरा की आत्मा को अगर मुक्ति चाहिए, तो हम वो करेंगे जो ज़रूरी है।” बाबा ने सिर हिलाया और बोला, “तो सुनो। हवेली का रहस्य सिर्फ सायरा की मौत में नहीं छुपा। नवाब के बेटे ने हवेली में एक तांत्रिक को बुलाकर सायरा की आत्मा को बांधने की कोशिश की थी, ताकि उसका गुनाह छुपा रहे। लेकिन तांत्रिक विधि अधूरी रह गई। आत्मा न मुक्त हुई, न पूरी तरह बंधी। इसलिए वो आज भी हवेली में भटकती है।” ये सुनकर नीलिमा ने अपनी नोटबुक खोली और हवेली के पुराने नक्शे का चित्र बनाने लगी। गुलशन ने बताया कि हवेली के तहखाने में वो कमरा है जहां तांत्रिक क्रिया अधूरी रही थी। पावन ने निश्चय किया कि इस बार वो नीलिमा के साथ तहखाने तक जाएगा और हर सुराग जुटाएगा। नीलिमा ने अपने कैमरे की बैटरी चेक की और कहा, “आज रात हवेली से हमें जवाब मिलेगा।”
रात धीरे-धीरे गांव पर उतरने लगी। हवा में फिर वही जानी-पहचानी सड़ांध घुलने लगी थी। पावन और नीलिमा, हाथ में टॉर्च और कैमरा लेकर हवेली की ओर बढ़े। गुलशन दूर से उनकी ओर देखता रहा, उसकी आंखों में दुआ और डर दोनों झलक रहे थे। हवेली की जर्जर दीवारों ने जैसे उन्हें देखते ही सांसें थाम ली हों। अंदर पहुंचते ही दोनों ने दीवारों पर तांत्रिक चिह्नों को देखा — अधूरे मंत्र, उलझे हुए यंत्रों के निशान और जगह-जगह सूखी रक्त की बूंदों के धब्बे। तहखाने की सीढ़ियों से उतरते समय ठंडी हवा के झोंकों ने नीलिमा की टॉर्च बुझा दी। अब सिर्फ पावन की टॉर्च की हल्की रौशनी थी, जो तहखाने की नमी से जूझ रही थी। नीचे पहुंचते ही दोनों को एक पुरानी चौकी दिखी, जिस पर तांत्रिक विधि के टूटे-फूटे सामान अब भी पड़े थे। तभी सायरा की आत्मा की आवाज गूंजी — एक दर्द भरी पुकार, “मुक्ति दो…” हवेली की दीवारें फिर से खरोंचने लगीं, और तहखाने की हवा में एक अजीब कंपन फैल गया। पावन और नीलिमा ने हाथ थामे, और अपनी आंखों में अब डर नहीं, सायरा की मुक्ति का संकल्प भर लिया। आज रात हवेली की कहानी में एक नया मोड़ आने वाला था।
तांत्रिक विधि की तैयारी
रात का अंधकार हवेली को अपनी बांहों में जकड़े खड़ा था। हवेली की दरारों से निकलती सड़ांध और हवा में तैरती सिसकियों ने पावन और नीलिमा की हिम्मत को हर पल आज़माना शुरू कर दिया था। तभी हवेली के बाहर से मंतरपाठ की धीमी आवाजें हवेली की दीवारों से टकराकर भीतर तक गूंज उठीं। रघुनंदन बाबा, हाथ में त्रिशूल और कमंडल लिए, हवेली के दरवाजे पर खड़े थे। उनके चेहरे पर भस्म की लकीरें थीं, और आंखों में ऐसा तेज़ जो अंधकार को चीर सकता था। पावन और नीलिमा ने बाबा को देखते ही राहत की सांस ली। बाबा ने भीतर आते ही हवेली की जमीन पर गंगा जल का छींटा मारा और मंत्र पढ़ते हुए चारों कोनों में दीये जलाए। हवेली की हवा में जैसे एक पल को शांति उतर आई, लेकिन अगले ही क्षण दीवारों से तेज़ खरोंचने की आवाजें उठीं। बाबा ने आंखें मूंदी और कहा, “इस हवेली की आत्मा अब जाग चुकी है। आज इसकी मुक्ति की घड़ी है। लेकिन याद रहे, हवेली की ताकत हमें हर पल रोकने की कोशिश करेगी। तुम्हें अपने डर पर काबू पाना होगा।” पावन और नीलिमा बाबा के साथ तहखाने की ओर बढ़े, जहां तांत्रिक क्रिया की तैयारी शुरू होनी थी। तहखाने की हर सीढ़ी पर बाबा ने गंगा जल और भभूत छिड़की और हर कदम पर एक मंत्र उच्चारित किया। हवेली की नींव जैसे हर मंत्र पर कांपती दिखी, मानो वो अपने भीतर कैद रहस्य को अब और छुपा नहीं सकती थी।
तहखाने में पहुंचते ही बाबा ने जमीन पर पांच दिशाओं में दीपक जलाकर एक त्रिकोण आकृति बनाई और बीच में लाल कपड़ा बिछाया। पावन और नीलिमा ने बाबा की हर तैयारी को ध्यान से देखा। बाबा ने तहखाने के कोनों में घंटियां टांग दीं और कहा, “ये घंटियां हवेली की नकारात्मक शक्ति को रोके रखेंगी। जब मंत्रोच्चार शुरू होगा, हवेली की आत्मा तुम्हारे सामने प्रकट होगी। तब डरना मत, बस मेरी आवाज का अनुसरण करना।” बाहर हवेली की दीवारों पर अब खरोंच और तेज़ हो चुकी थी, और हवाओं में ऐसी गूंज उठने लगी थी, मानो सौ औरतें एक साथ कराह रही हों। नीलिमा का चेहरा सफेद पड़ गया, लेकिन पावन ने उसका हाथ थाम कर हिम्मत दी। बाबा ने अपने कमंडल से गंगा जल निकाल कर बीच में छिड़कते हुए मंत्र शुरू किया। “ॐ भूतपिशाच निकट न आवे…” मंत्रों की आवाज तेज़ होती गई और हवेली की दीवारें अंदर से धड़कने लगीं। तभी दीयों की लौ तेज़ हवा में डगमगाने लगी, और तहखाने के एक कोने में एक धुंधली आकृति उभरने लगी — सायरा की आत्मा, जो अब पहले से ज्यादा साफ और सजीव दिख रही थी। उसकी आंखों में अब भी वो करुण पुकार थी, लेकिन उसके चेहरे पर एक हल्की उम्मीद की रेखा भी दिखने लगी थी।
मंत्रोच्चार के बीच हवेली के भीतर का डर अब अपने चरम पर था। खिड़कियां खुद-ब-खुद खुलने-बंध होने लगीं, तहखाने की दीवारों से धूल झरने लगी। सायरा की आत्मा धीरे-धीरे तहखाने के बीच बने त्रिकोण के किनारे पर आकर खड़ी हो गई। बाबा ने अपनी आंखें खोलीं और तेज़ आवाज में कहा, “सुन सायरा! तेरी मुक्ति का समय आ गया है। अपनी पीड़ा सुना और इस लोक से मुक्त हो जा।” सायरा की आत्मा की आंखों से काले पानी की बूंदें गिरने लगीं, और उसकी आवाज गूंजी, “कुएं के पानी में मेरा खून मिला है… नवाब के बेटे ने मुझे मारा और वहीं डुबाया… मेरी आत्मा तभी मुक्त होगी जब वो कुंआ मिट्टी से भर जाएगा… जब मेरी कहानी सच होकर दुनिया के सामने आएगी…” हवेली की दीवारें जैसे हर शब्द के साथ सिहर उठीं। पावन ने कांपती आवाज में कहा, “मैं वादा करता हूं, सायरा। तुम्हारी कहानी मैं सबको सुनाऊंगा। तुम्हारा कुआं मैं मिट्टी से भरवाऊंगा।” अचानक हवेली की हवा शांत हो गई, सायरा की आत्मा ने सिर झुकाया और धीरे-धीरे धुंध में घुलती चली गई। बाबा ने अंतिम मंत्र का उच्चारण किया और तहखाने की घंटियां एक साथ बज उठीं। हवेली का डर जैसे एक पल को थम गया था, लेकिन पावन जानता था — अब असली लड़ाई शुरू होगी। सायरा की मुक्ति की प्रक्रिया की शुरुआत हो चुकी थी, लेकिन हवेली की जंजीरों को पूरी तरह तोड़ना बाकी था।
काले कुएं की विदाई
सुबह होते ही पावन और नीलिमा गांव के चौपाल पर पहुंचे। उनकी आंखों में थकान थी लेकिन इरादों में लौ जल रही थी। पावन ने मुखिया विजय सिंह और गांव के सभी लोगों को बुलाकर कहा, “अब वक्त आ गया है कि हम इस हवेली के डर को मिटा दें। सायरा की आत्मा तब तक मुक्त नहीं होगी जब तक वो कुआं मिट्टी से न भर दिया जाए।” गांव वाले एक-दूसरे की ओर देखने लगे, उनके चेहरों पर बरसों का डर तैर गया। लेकिन नीलिमा की आवाज गूंजी, “अब अगर हम डर के आगे झुक गए तो ये हवेली हमें हमेशा डराती रहेगी। चलिए, इस कुएं को भरते हैं।” गुलशन ने आगे बढ़कर सबसे पहले अपनी कुदाल उठाई। धीरे-धीरे बाकी गांव वाले भी अपने-अपने औजार लेकर हवेली की ओर बढ़े। हवेली की दीवारें उन्हें आते देख जैसे फिर से कांप उठीं। हवाओं में फिर वही सिसकियां तैरने लगीं। लेकिन इस बार पावन और नीलिमा के इरादों ने गांव के हर इंसान में साहस भर दिया था। कुएं के पास पहुंचकर सबने मिलकर मिट्टी, पत्थर और चूना डालना शुरू कर दिया। हर फावड़ा मिट्टी डालते ही कुएं से उठती सड़ांध कमजोर होने लगी, लेकिन तभी हवेली की आत्मा ने अपने अंतिम दांव चले।
हवेली की हवाएं अब तूफान बन चुकी थीं। काले बादलों से आसमान ढक गया और तेज़ आंधी ने मिट्टी उड़ाकर गांव वालों की आंखें बंद कर दीं। खिड़कियां खुद-ब-खुद धड़ाधड़ खुलने-बंध होने लगीं। कुएं के आसपास की ज़मीन कांपने लगी, मानो कोई उसे भीतर से तोड़कर बाहर निकलने की कोशिश कर रहा हो। एक गहरी गड़गड़ाहट के साथ हवेली की छत से पुरानी ईंटें टूटकर गिरने लगीं। गांव वालों में से कुछ डरकर पीछे हटने लगे, लेकिन पावन ने पुकारा, “रुको! अगर आज हम पीछे हटे तो ये हवेली हमेशा जीती रहेगी।” नीलिमा ने दोनों हाथ जोड़कर सायरा की आत्मा से कहा, “तुम्हें मुक्ति चाहिए, तो हमें ताकत दो। हमें इस कुएं को भरने दो।” हवाओं की आवाज धीमी होने लगी। गांव वालों ने फिर से मिट्टी डालना शुरू किया। हर फावड़ा कुएं को थोड़ा और भरता जा रहा था। तभी अचानक काले कुएं के पानी ने उबाल मारना शुरू कर दिया। पानी की बूंदें उछल-उछल कर गांव वालों पर गिरने लगीं, लेकिन अब किसी ने पीछे हटना नहीं चाहा। पावन और नीलिमा ने खुद अपने हाथों से मिट्टी उठाई और कुएं में डालते गए।
घंटों की मेहनत के बाद कुएं का मुंह आखिरकार मिट्टी से भर गया। आखिरी फावड़ा मिट्टी डालते ही हवेली की दीवारों से आई सायरा की कराह हवा में गूंजी — लेकिन इस बार उसमें पीड़ा नहीं थी, उसमें शांति थी। हवाओं का तूफान थम गया, काले बादल धीरे-धीरे छंटने लगे और सूरज की पहली किरण हवेली की टूटी खिड़कियों पर पड़ी। गांव वालों ने राहत की सांस ली। पावन ने अपनी नोटबुक खोली और आखिरी लाइन लिखी: “सायरा को मुक्ति मिली। हवेली अब सिर्फ एक पुरानी इमारत है, डर का नाम नहीं।” नीलिमा ने पावन की ओर देखा और कहा, “अब इस कहानी को दुनिया के सामने लाना होगा। ताकि कोई और सायरा फिर किसी हवेली में न कैद हो।” गांव के लोग धीरे-धीरे लौटने लगे, और हवेली की वीरानी में अब सिर्फ मिट्टी की महक और सायरा की आत्मा की शांति बची थी। पावन ने हवेली की ओर अंतिम बार देखा — अब वो हवेली उसकी कहानी की किताब का आखिरी पन्ना थी।
नई सुबह की दस्तक
काले पानी का कुआं अब पूरी तरह मिट्टी में दब चुका था। हवेली, जो बरसों से गांव वालों के दिलों पर डर की परछाई बनी थी, अब शांत खड़ी थी, जैसे अपनी हार को स्वीकार कर चुकी हो। सूरज की किरणें हवेली की टूटी दीवारों और झांकती खिड़कियों पर पड़ीं तो वो इमारत अब डरावनी नहीं, बल्कि थकी हुई लगने लगी। पावन और नीलिमा चौपाल पर बैठे थे। उनके सामने वो नोटबुक खुली थी जिसमें पावन ने रातों की दहशत, सायरा की पुकार और हवेली की परतें दर्ज की थीं। नीलिमा ने अपने कैमरे की तस्वीरों को देखकर कहा, “भैया, इन तस्वीरों में अब डर नहीं, एक अधूरी कहानी की तसवीरें हैं। हमें इसे लिखना ही होगा, ताकि लोग जाने कि हवेली डर की निशानी नहीं, एक औरत की अधूरी पुकार थी।” पावन ने सिर हिलाया। उसकी आंखों में अब वो बेचैनी नहीं थी, बल्कि एक लेखक की जिम्मेदारी की चमक थी। गांव के लोग चौपाल पर जमा होकर पावन और नीलिमा की ओर उम्मीद से देख रहे थे। बूरे खान ने कहा, “बेटा, तुमने जो कर दिखाया, वो कोई राजा-महाराजा भी न कर पाया। अब हमारी नसलें हवेली के साये से आज़ाद रहेंगी।” पावन ने विनम्रता से कहा, “ये आपकी हिम्मत थी। अब ये कहानी सबको बतानी है, ताकि कोई और सायरा कहीं न कैद हो।”
पावन और नीलिमा ने गांव में दो दिन और रुककर रिपोर्ट तैयार करना शुरू किया। नीलिमा हर तस्वीर को ध्यान से चुन रही थी — हवेली की जर्जर खिड़कियां, मिट्टी से भरा कुआं, तहखाने के टूटे यंत्र, बाबा के मंत्रों के बीच जलते दीये और वो अंतिम तस्वीर जिसमें सूरज की किरण हवेली की छत को छू रही थी। पावन ने अपने शब्दों में सायरा की पुकार को उतारना शुरू किया — “कभी कोई हवेली सिर्फ ईंट-पत्थरों का ढांचा नहीं होती। उसके भीतर सिसकियों की गूंज होती है। इस हवेली में सायरा का दर्द गूंजता था, जिसे हमने सुना और मुक्ति दिलाई।” पावन ने सच्चाई लिखते वक्त हर उस डर को शब्दों में ढाला, जो उसने रातों में महसूस किया था — हवेली की दीवारों पर खरोंचने की आवाजें, कुएं के काले पानी की बूंदें, सायरा की आत्मा की आंखों में कैद दर्द। गुलशन हर रोज़ उनके लिए खाना और चाय लेकर आता और चुपचाप बैठकर रिपोर्ट बनती देखता। गांव की औरतें अब बेझिझक चौपाल के कुएं से पानी भरने लगी थीं और बच्चे हवेली के सामने खेलते दिखते। पावन ने नोट किया — “डर मिटते ही जिंदगी लौट आती है। हवेली अब गांव की जिंदगी का हिस्सा बन रही है।” नीलिमा ने कहा, “ये रिपोर्ट डर की नहीं, उम्मीद की कहानी बनेगी।”
आखिरी दिन पावन और नीलिमा ने गांववालों को इकट्ठा किया। उन्होंने अपनी रिपोर्ट की एक-एक बात गांववालों को सुनाई — सायरा की कहानी, हवेली का सच, और उस रात की आखिरी जंग। हर शब्द पर गांववालों की आंखें नम होती गईं। बूरे खान ने कहा, “बेटा, अब तुम्हारी कलम हमारे लिए वरदान है। इसे दुनिया तक पहुंचाओ।” पावन ने अपनी नोटबुक बंद करते हुए कहा, “ये कहानी सिर्फ एक गांव की नहीं, हर उस औरत की है जो अन्याय की शिकार हुई और जिसकी आवाज कहीं गुम हो गई। मैं वादा करता हूं, ये हवेली अब डर की मिसाल नहीं, एक चेतावनी बनेगी कि अन्याय का अंत ज़रूरी है।” गांववालों ने तालियां बजाकर उनका हौसला बढ़ाया। उसी शाम पावन और नीलिमा ने अपनी रिपोर्ट और तस्वीरों को पैक किया और गांव से विदा ली। गुलशन और गांव के लोग उन्हें विदा करने आए। हवेली की ओर देखते हुए पावन ने आखिरी बार कहा, “अब ये हवेली हमारे शब्दों में जिंदा रहेगी, न कि हमारे डर में।” जीप के धूल उड़ाते पहिए गांव की गलियों में एक नई सुबह की दस्तक छोड़ गए — एक सुबह जो हवेली की दहशत से नहीं, सायरा की मुक्ति की कहानी से शुरू हुई थी।
कहानी का अंतिम पन्ना
शहर लौटते ही पावन और नीलिमा ने अपनी सारी नोटबुक्स, कैमरे की तस्वीरें और हवेली के नक्शे सामने फैला लिए। कई रातों तक जागकर दोनों ने मिलकर रिपोर्ट तैयार की — एक दस्तावेज़ जो न सिर्फ हवेली की कहानी थी, बल्कि अन्याय के खिलाफ उठी एक आवाज भी। रिपोर्ट का शीर्षक रखा गया: “काले पानी की हवेली: एक आत्मा की मुक्ति की दास्तान”. पावन ने हर लाइन में सायरा की पीड़ा को उतारा और नीलिमा ने हर तस्वीर को शब्दों से जोड़ दिया। उन्होंने अखबार और एक प्रतिष्ठित पत्रिका को अपनी रिपोर्ट भेज दी। कुछ ही दिनों में रिपोर्ट छप गई। पूरे शहर में हलचल मच गई — अखबार की हेडलाइन थी, “डर की हवेली नहीं, दर्द की पुकार थी”। टीवी चैनलों ने पावन और नीलिमा का इंटरव्यू लिया, जिसमें पावन ने कहा, “हमारी कोशिश सिर्फ एक आत्मा को मुक्ति दिलाना नहीं थी, बल्कि समाज को ये दिखाना थी कि अन्याय का अंत ज़रूरी है, चाहे वो किसी हवेली की दीवारों में छुपा हो या इंसानी दिलों में।” गांव के लोग भी टीवी पर खुद को देखकर गर्व से भर उठे। गुलशन ने चौपाल पर अखबार की वो कटिंग फ्रेम करवाकर टांग दी। हवेली, जो बरसों से डर का पर्याय थी, अब न्याय की कहानी बन चुकी थी।
हवेली पर अब सरकार की मोहर लग चुकी थी — एक ऐतिहासिक धरोहर के रूप में। जिला प्रशासन ने निर्णय लिया कि हवेली को एक स्मारक के रूप में संरक्षित किया जाएगा, जहां लोग आकर जान सकें कि कैसे एक आत्मा ने बरसों बाद अपनी मुक्ति पाई। गांव में पहली बार लोग बिना डर के हवेली के पास से गुजरते और अपने बच्चों को उसकी कहानी सुनाते। चौपाल पर शाम को जब लोग बैठते, तो पावन और नीलिमा की बहादुरी की मिसाल दी जाती। बूरे खान ने कहा, “बेटा, अब हमारी आने वाली पीढ़ियों को डर की नहीं, हिम्मत की विरासत मिलेगी।” हवेली के आसपास सरकार ने साफ-सफाई कराई, टूटे हिस्सों को संभाला और वहां एक पट्टिका लगाई जिस पर लिखा था — “यह वह स्थान है जहां अन्याय के खिलाफ एक आवाज़ ने वर्षों से कैद आत्मा को मुक्त किया।” पावन और नीलिमा फिर एक बार गांव आए और उस पट्टिका के सामने खड़े होकर सायरा की आत्मा के लिए मौन प्रार्थना की। पावन ने महसूस किया कि हवेली की हवाएं अब सर्द नहीं, बल्कि शांत थीं। जैसे सायरा की आत्मा सचमुच अपने गंतव्य तक पहुंच गई हो।
पावन ने अपनी रिपोर्ट को एक किताब का रूप दिया, जिसका नाम रखा गया: “काले पानी की हवेली: सच्चाई की आवाज”. किताब की हर प्रति उस आवाज को दुनिया तक पहुंचाने का जरिया बनी, जिसे बरसों तक हवेली की दीवारों ने दबाए रखा था। नीलिमा ने किताब का विमोचन करते हुए कहा, “ये कहानी हर उस आवाज़ के लिए है जिसे समाज ने कभी अनसुना किया।” किताब को पढ़कर लोगों की आंखें नम हो जातीं और वो सोच में पड़ जाते कि कहीं उनके आसपास भी कोई सायरा अपनी मुक्ति के इंतजार में तो नहीं। पावन को देशभर से बुलावा आने लगा — कभी स्कूलों में, कभी सेमिनारों में, जहां वो बच्चों और युवाओं को हवेली की कहानी सुनाता और बताता कि डर को जीतने के लिए सच्चाई से बड़ा कोई अस्त्र नहीं। गांव में अब हवेली बच्चों की जिज्ञासा का केन्द्र बन चुकी थी, डर का नहीं। पावन ने अंत में अपनी डायरी में आखिरी लाइन लिखी: “कहानी पूरी हुई, लेकिन हर इंसान के दिल में ऐसी हवेलियां छुपी होती हैं, जिनकी दीवारें किसी सायरा की पुकार कैद करती हैं। उन दीवारों को तोड़ना अब हमारी जिम्मेदारी है।” सूरज की लालिमा में नहाई हवेली अब सिर्फ एक इमारत थी — एक ऐसी इमारत जो दर्द, डर और मुक्ति की अनोखी गाथा बन चुकी थी।




