शिवांगी तिवारी
1
मुंबई से लगभग 40 किलोमीटर दूर, समंदर के किनारे एक छोटा-सा गांव है—रॉकविले। यह गांव शहर की चकाचौंध से दूर है, लेकिन वहां की सबसे खास और डरावनी चीज़ है—’काली चट्टान’। हर शाम समंदर के बीचोंबीच उस काली चट्टान पर एक अजीब-सा नीला उजाला दिखाई देता है। कोई नहीं जानता वो रोशनी आती कहाँ से है।
इसी गांव में पत्रकार आरव मेहरा आया था, एक स्टोरी की तलाश में। वो क्राइम रिपोर्टर था लेकिन इस बार उसने खुद चुना था रॉकविले आना। उसे किसी ने एक अनाम ईमेल भेजा था—
“If you want the story of your life, come to Rockville. The black rock hides more than just stones.”
आरव अपने कैमरा और नोटबुक लेकर पहुंचा गांव के एक पुराने लॉज में, जिसे चलाती थी एक बुजुर्ग महिला—सुमित्रा आंटी।
“चट्टान के पास मत जाना बेटा,” सुमित्रा आंटी ने चाय परोसते हुए कहा।
“क्यों?”
“क्योंकि जो गया, वो लौटा नहीं। या अगर लौटा भी… तो वैसा नहीं लौटा।”
आरव को ऐसे ही किस्सों की तलाश थी। उसने अगली सुबह तड़के उठकर चट्टान तक जाने की सोची।
रॉकविले के लोग चट्टान से डरते थे। वहां तक जाने वाली नावें भी सूरज ढलने से पहले लौट आती थीं। लेकिन आरव जिद्दी था।
अगले दिन सुबह 6 बजे वो फिशिंग डॉक पर पहुंचा और एक बूढ़े मछुआरे, इब्राहिम चाचा से नाव मांगी।
“पैसे कितने भी दो बेटा, मैं नहीं जाऊंगा,” इब्राहिम ने कहा।
“तब मुझे अकेले ही जाना होगा,” आरव ने कहा और खुद ही एक पुरानी बोट ले ली।
समंदर शांत था, लेकिन जब वो चट्टान के पास पहुंचा, पानी का रंग काला दिखने लगा। हवा भारी हो गई थी।
उसने बोट से उतरकर चट्टान पर कदम रखा। पत्थर गीले थे, लेकिन चमक रहे थे जैसे किसी ने उनपर तेल लगाया हो। तभी उसे एक पुराना दरवाज़ा दिखा, जंग लगा हुआ, जो चट्टान के अंदर था।
आरव ने कैमरा ऑन किया और दरवाज़े को खींचा। वो थोड़ा हिला, फिर अचानक चरमराते हुए खुल गया।
अंदर अंधेरा था। लेकिन जैसे ही उसने टॉर्च ऑन की, पत्थरों पर उकेरे गए कुछ अजीब चित्र दिखने लगे—मानव आकृतियाँ, कुछ जानवर जैसे प्राणी और एक वाक्य—
“सावधान, यहां नींद कभी पूरी नहीं होती।”
आरव मुस्कराया, “ये तो गोल्डमाइन है।”
लेकिन तभी टॉर्च झपकने लगी। और उसके पीछे से किसी के कदमों की आहट आई।
“कौन है?” उसने पीछे मुड़कर देखा, पर कोई नहीं था।
और फिर, दरवाज़ा खुद-ब-खुद बंद हो गया।
आरव अब चट्टान के अंदर फँस चुका था।
वो ज़ोर से चिल्लाया, “हैलो! कोई है?”
पर उसकी आवाज़ वापस गूंजकर आई, जैसे कोई बोल रहा हो—
“हैलो… कोई है… है… है…?”
उसने टॉर्च जलाकर आगे बढ़ना शुरू किया। रास्ता तंग था, पर आगे जाकर एक बड़ी सी गुफा खुलती थी। वहां बीचोंबीच एक पत्थर की वेदी थी, और उसपर रखी थी एक लाल किताब।
जैसे ही उसने किताब को छुआ, एक झटका लगा—मानो बिजली सी दौड़ गई हो।
फिर, कुछ आवाजें आने लगीं… किसी लड़की की चीख… किसी पुरुष की हँसी… और एक पुराना गीत, जो उसने कभी पहले नहीं सुना था।
आरव डर गया। उसने किताब उठाकर बैग में डाली और वापस मुड़ने लगा, तभी पीछे से किसी ने उसका कंधा पकड़ा।
वो पलटा, लेकिन वहां कोई नहीं था।
भागते हुए वो दरवाज़े तक पहुंचा, लेकिन वो अब बंद नहीं, गायब था।
चट्टान ने जैसे उसे निगल लिया था।
और अब, उसकी घड़ी बंद हो चुकी थी। मोबाइल सिग्नल नहीं था।
तभी, गुफा की दीवारों पर खुद-ब-खुद शब्द उभरने लगे—
“तुमने किताब ले ली। अब कहानी तुमसे शुरू होगी।”
2
आरव वहीं पत्थर की जमीन पर बैठ गया, पसीने से लथपथ, सांसें तेज़ और दिल की धड़कन जैसे किसी डमरू की तरह गूंज रही थी. उसके हाथों में अब भी वह लाल किताब थी जिसे छूते ही सब कुछ बदल गया था. गुफा की दीवारों पर जो शब्द उभरे थे, अब वो धीरे-धीरे धुंधले होकर अदृश्य हो रहे थे, जैसे कभी थे ही नहीं. “तुमने किताब ले ली। अब कहानी तुमसे शुरू होगी।” यह वाक्य उसके कानों में बांसुरी की तरह घूम रहा था, लेकिन यह बांसुरी मधुर नहीं थी—यह चेतावनी थी. उसने उठकर गुफा के चारों तरफ देखा. कोई दरवाज़ा, कोई रास्ता, कुछ भी नहीं दिख रहा था. सब कुछ वही था, लेकिन अजीब तरह से शांत. जैसे वक़्त यहाँ रुक गया हो. उसने बैग से पानी की बोतल निकाली और जैसे ही पानी पीने लगा, कुछ बूँदें ज़मीन पर गिरीं. अगले ही पल, ज़मीन काँपने लगी. ज़ोर से नहीं, पर इतना कि पत्थर की वेदी से एक पत्थर खिसककर ज़मीन पर गिरा और नीचे एक छोटा-सा गड्ढा खुल गया. आरव चौंका. वो तुरंत आगे बढ़ा और झुककर देखा. गड्ढे के अंदर सीढ़ियाँ थीं. पत्थर की, पुरानी, जर्जर. “अब या तो यहीं मर जाना है या नीचे जाकर सच्चाई जाननी है,” उसने खुद से कहा और टॉर्च पकड़कर नीचे उतरने लगा. हर कदम पर सीढ़ियाँ चरमरा रही थीं. नीचे अंधेरा था, लेकिन एक ठंडी हवा ऊपर आ रही थी, जिसमें एक अजीब सी गंध थी—पुराने खून और धूप-बत्ती जैसी मिली-जुली गंध. जैसे ही आरव नीचे पहुंचा, एक लंबा, पतला रास्ता दिखाई दिया. दाएं और बाएं दो रास्ते फूटते थे. दोनों पर एक-एक पत्थर रखा था, जिसपर अजीब से चिह्न बने थे. उसने कैमरा ऑन किया और दोनों प्रतीकों की तस्वीर खींची. तभी बैकग्राउंड में एक धीमी आवाज़ आई—किसी के गुनगुनाने की, बहुत धीरे, बहुत रहस्यमय. वो आवाज़ बाएं रास्ते से आ रही थी. आरव ने बिना ज़्यादा सोचे बाएं रास्ता चुना. जैसे ही उसने पहला कदम रखा, आसपास की दीवारों पर आकृतियाँ उभरने लगीं—एक औरत, जिसके हाथ में वही लाल किताब थी, और उसके पीछे खड़े थे कई चेहराविहीन लोग. अगले ही पल, टॉर्च बुझ गई. अंधेरा घना हो गया. आरव ने मोबाइल निकाला लेकिन वो भी पूरी तरह बंद हो चुका था. तभी सामने से धीमी रौशनी आती दिखी, पीली, कांपती हुई. उसने आगे बढ़ना शुरू किया. जैसे-जैसे वो पास गया, उसे लगा कोई बैठा है—एक औरत, लंबे बाल, साड़ी में, उसकी पीठ आरव की ओर. वो वही गाना गा रही थी जिसे आरव ने पहले सुना था. “एक बूँद नींद की गिरती है, चट्टानों पर… और कहानी जग उठती है…” आरव ने कांपती आवाज़ में कहा, “क… कौन हैं आप?” औरत ने जवाब नहीं दिया. उसकी पीठ अभी भी उसी तरफ थी. आरव ने थोड़ा और करीब जाने की कोशिश की, तभी औरत ने अपनी गर्दन घुमा ली—180 डिग्री. चेहरा उल्टा. आंखें सफेद. मुंह में से कोई शब्द नहीं निकला, सिर्फ़ एक तेज़ चीख. आरव ज़ोर से चिल्लाया और पीछे हटने लगा. पर पैर जकड़ गए थे. औरत धीरे-धीरे ऊपर उठी, हवा में, और उसके चारों तरफ़ वही नीली रौशनी फैलने लगी जो चट्टान पर दिखती थी. और फिर वो हवा में गायब हो गई. टॉर्च वापस जल उठी. और आरव वहीं खड़ा रह गया—साँसें टूटती हुई, विश्वास बिखरता हुआ. “ये सपना है,” उसने खुद को समझाने की कोशिश की. लेकिन तभी दीवार पर एक नया वाक्य उभरा—”यह सिर्फ शुरुआत है। अगले दरवाज़े तक पहुँचो, वरना नींद टूट जाएगी।” आरव अब समझ चुका था कि ये खेल नहीं है. ये कोई लोककथा नहीं, कोई भूतिया कहानी नहीं, ये कुछ बहुत गहरा और बहुत सच्चा है. वो पीछे नहीं मुड़ा. उसने सीधा रास्ता पकड़ा, जहाँ एक पत्थर का दरवाज़ा नज़र आ रहा था. दरवाज़े पर लिखा था—”वो जो सोया, उसने देखा। जो जागा, उसने खोया।” आरव ने हाथ बढ़ाया और दरवाज़ा खोला. दूसरी तरफ एक खुला कमरा था, बहुत बड़ा, लेकिन खाली. बीचोंबीच फिर वही वेदी, लेकिन इस बार वहाँ कोई किताब नहीं थी. वहां एक कांच की पेटी में आरव की ही तस्वीर रखी थी—जो उसने कभी खींचवाई ही नहीं थी. तस्वीर के नीचे लिखा था—“आरव मेहरा, तीसरा आगंतुक। नींद अधूरी। कहानी जारी।” और तभी कमरे के एक कोने से एक दरवाज़ा खुला, और बाहर से आती रोशनी आरव की आँखों में पड़ी. वो दौड़ा उस तरफ. दरवाज़े के पार एक सीढ़ी थी—ऊपर जाती हुई. आरव ने एक बार मुड़कर उस कमरे को देखा, फिर चुपचाप ऊपर चढ़ने लगा. हर कदम के साथ पीछे की आवाज़ें मिट रही थीं. और जैसे ही वो ऊपर पहुँचा—वो फिर रॉकविले के किनारे था. लॉज के बाहर. सुमित्रा आंटी बाहर खड़ी थी. उनके हाथ में वही लाल किताब थी. “तुमने उसे जगा दिया, आरव,” उन्होंने कहा. “अब बाकी लोग खुद आ जाएंगे।” “क… क्या मतलब?” “ये सिर्फ तुम्हारी कहानी नहीं थी। ये तो सिर्फ शुरुआत है…” और तभी किताब के पन्ने हवा में उड़ने लगे. समंदर से फिर नीली रोशनी उठी. और दूर एक नाव आ रही थी—नया आगंतुक लेकर. आरव चुप खड़ा रहा, और फिर धीमे से बुदबुदाया— “अब मेरी नींद शायद कभी पूरी नहीं होगी।”
3
रॉकविले के आसमान में एक बार फिर बादल उमड़ आए थे. समंदर की लहरें जैसे किसी पुरानी भाषा में कुछ बुदबुदा रही थीं. सुमित्रा आंटी अब भी लॉज के बाहर खड़ी थीं, उनके चेहरे पर ना डर था, ना शांति—बस एक अजीब-सी स्वीकृति, जैसे सब कुछ पहले से पता हो. आरव उनके पास खड़ा, अब चुप हो गया था. उसके हाथ में अब किताब नहीं थी, लेकिन उसकी स्मृति में वह किताब जैसे दिमाग के हर कोने में जल रही थी. “तुमने उसे जगा दिया,” सुमित्रा आंटी ने फिर दोहराया. “किसे?” आरव ने पूछा. “जिसे नींद में रहना था, पर अब वो जाग चुका है.” आरव कुछ कहने ही वाला था कि पीछे से एक आवाज आई—काठ की नाव की पतवार की, जो धीरे-धीरे तट से टकरा रही थी. दोनों ने मुड़कर देखा. एक युवक नाव से उतर रहा था. उसकी उम्र लगभग 25 रही होगी, सफेद शर्ट और काले बैग के साथ, आंखों में उलझन और उत्सुकता. वो सीधा उनकी तरफ बढ़ा. “मुझे आरव मेहरा से मिलना है,” उसने कहा. “मैं… करण हूं. आपके ब्लॉग का बहुत बड़ा फैन.” आरव हैरान हुआ. “तुम यहां कैसे पहुंचे?” “आपकी आखिरी पोस्ट पढ़ी. जिसमें आपने लिखा था कि रॉकविले की चट्टान सिर्फ पत्थरों से नहीं बनी है. उस रात मुझे भी सपना आया—एक औरत नीली रौशनी में मुझे बुला रही थी.” सुमित्रा आंटी ने गहरी सांस ली. “अब चक्र पूरा हो रहा है,” उन्होंने कहा और लॉज के भीतर चली गईं. आरव और करण अकेले खड़े रह गए. “क्या सच में कुछ है उस चट्टान के नीचे?” करण ने धीरे से पूछा. आरव ने उसकी आंखों में देखा. वह वही उत्सुकता थी जो कभी उसके भीतर थी—उससे पहले के किसी ‘तीसरे आगंतुक’ के भीतर भी रही होगी. “हां,” आरव ने कहा. “और अब जब तुम आ ही गए हो, तो शायद तुम्हारा जाना भी ज़रूरी है.” “कहां?” करण ने पूछा. “जहां से मैं लौटा हूं. पर मैं नहीं जानता कि मैं अब भी वही हूं या कुछ और.” शाम तक दोनों ने चुपचाप लॉज में बैठकर इंतज़ार किया. फिर जैसे ही सूरज डूबने लगा, आरव ने करण को इशारा किया और दोनों निकल पड़े समंदर की ओर. इस बार आरव ने नाव नहीं ली. उसने चट्टान तक तैरने का फैसला किया. करण हिचकिचाया, पर उसके भीतर की जिज्ञासा डर से बड़ी थी. दोनों चट्टान तक पहुंचे. अब वो दरवाज़ा नहीं था जो पिछली बार दिखा था. वहां सिर्फ ठंडा, चिकना पत्थर था. लेकिन जैसे ही करण ने अपने बैग से एक छोटा सा कैमरा निकाला और तस्वीर खींची, पत्थर पर वही चिह्न उभरा जो आरव ने पहले देखा था. चट्टान कांपी और दरवाज़ा उभर आया. करण ने आरव की ओर देखा. “तुम नहीं आओगे?” आरव ने सिर हिलाया. “मैं अपना हिस्सा पूरा कर चुका हूं. अब ये तुम्हारी कहानी है.” करण ने धीरे-धीरे दरवाज़ा खोला और भीतर चला गया. अंधेरा पहले से गहरा था. गुफा वैसी ही थी, लेकिन अब दीवारों पर नई आकृतियाँ थीं—आरव की, और एक तीसरे पुरुष की, शायद करण की ही. करण आगे बढ़ा. उसे भी वही वेदी दिखी, लेकिन किताब की जगह वहां एक दर्पण रखा था. जैसे ही उसने दर्पण में झांका, उसे खुद का चेहरा नहीं दिखा. वहां एक लड़की थी—जिसकी आंखें लाल थीं, होंठों पर एक अधूरी मुस्कान, और उसके कानों में वही गीत गूंज रहा था—“एक बूँद नींद की गिरती है…” करण ने तुरंत पीछे मुड़ना चाहा, लेकिन अब रास्ता बंद था. दरवाज़ा गायब. टॉर्च झपकने लगी. और तभी गुफा की हवा बदल गई. वो औरत सामने खड़ी थी. वही, जो आरव ने देखी थी—लंबे बाल, उल्टा चेहरा, और हवा में तैरती हुई. लेकिन इस बार उसने गाना नहीं गाया. वो बोली. “क्यों आए हो? क्या जानना है?” करण कांपता हुआ बोला, “मैं… मैं सिर्फ एक कहानी चाहता था…” “कहानी?” औरत की आवाज़ अब जैसे कई आवाज़ों में गूंजने लगी. “तो सुनो, ये कहानी नहीं, एक सौदा है. जो आता है, वो कुछ छोड़ता है. तुम क्या छोड़ोगे?” करण घबरा गया. “क्या… क्या चाहिए?” “तुम्हारी सबसे गहरी नींद. जिससे तुम कभी नहीं जागते.” तभी सामने दर्पण टूट गया और पीछे एक दरवाज़ा खुल गया. आवाज़ आई—“चुनो, कहानी या जागना.” करण ने पलकें बंद कीं. और फिर एक लंबी सांस लेकर दरवाज़े की ओर बढ़ा. बाहर एक और गुफा थी. लेकिन इस बार दीवारों पर कुछ लिखा नहीं था. वहां सिर्फ एक पत्थर की मेज थी, जिसपर एक सफेद पन्ना रखा था और एक कलम. पन्ने पर लिखा था—“अब लिखो, जो तुमने देखा. वरना जो देखा, वो तुम्हें लिख देगा.” करण ने कांपते हाथों से कलम उठाई. उसने लिखना शुरू किया—“मैं तीसरा आगंतुक हूं. मेरी कहानी अभी बाकी है…” और जब वो लिखता गया, गुफा के दीवारों पर उसकी लिखी पंक्तियाँ खुद-ब-खुद उभरने लगीं. रॉकविले के समंदर पर नीली रोशनी फिर उठी. और लॉज में खड़े आरव ने दूर समंदर की ओर देखा. उसने सुमित्रा आंटी से पूछा, “अब क्या होगा?” उन्होंने कहा, “अब अगला इंतज़ार शुरू हुआ है. नींद की कतार कभी खत्म नहीं होती.”
4
रॉकविले में रात उतर आई थी, लेकिन समंदर के उस पार नीली रोशनी अब पहले से ज़्यादा चमक रही थी। हवाओं में नमी थी, पर उस नमी में एक अनजाना डर घुला था। लॉज के बरामदे में सुमित्रा आंटी चुपचाप बैठी थीं। उनके सामने दिया जल रहा था, और पास में रखा था एक पुराना सा बक्सा, जिसपर मोटी ज़ंग लगी थी। आरव अब तक उस रोशनी की ओर टकटकी लगाए देख रहा था, जैसे वहां कुछ छूट गया हो। और शायद वाकई छूटा था—करण। जो अब उस रहस्यमय चट्टान के गर्भ में कहीं था, नींद और जागृति के बीच की सीमा पर। सुमित्रा आंटी ने अचानक बक्सा खोला। उसमें कई पुराने कागज़, एक कंपास, कुछ सिक्के और एक फटी हुई डायरी थी। आरव चौंका। “ये क्या है?” “ये उन लोगों की निशानियाँ हैं जो पहले गए… जो लौटे… या कभी नहीं लौटे,” सुमित्रा आंटी की आवाज़ कांप रही थी। “करण अब उस यात्रा में है। पर उसका सौदा अधूरा है।” “क्या मतलब?” “तुमने सौदा पूरा कर दिया था—अपनी नींद छोड़ दी थी। तुम अब कभी गहरी नींद में नहीं जा पाओगे। तुम हमेशा जागते रहोगे, सपने तुम्हें नहीं, तुम उन्हें देखोगे। लेकिन करण ने अब तक तय नहीं किया कि वो क्या छोड़ेगा। और जब तक वो फैसला नहीं करेगा, वो न इधर लौटेगा, न उधर जाएगा।” आरव की मुट्ठी कस गई। “क्या मैं… फिर जा सकता हूँ?” “तुम्हारे लिए दरवाज़ा अब नहीं खुलेगा,” आंटी बोलीं। “लेकिन कुछ दरवाज़े मन के होते हैं। और अगर करण ने तुम्हारा नाम लिखा, तो…” तभी हवा में कुछ सरसराहट हुई। लॉज के भीतर की खिड़कियां खुद-ब-खुद खुल गईं। किताबों की अलमारी से एक पुरानी किताब ज़मीन पर गिर पड़ी। आरव ने उसे उठाया—सफ़ेद कवर, कोई शीर्षक नहीं। उसने पन्ना पलटा। पहले पन्ने पर सिर्फ एक नाम था—”करण मेहरा”। और नीचे एक वाक्य—“जिसने देखा, वो अब लिखेगा।” आरव समझ गया कि करण अभी भी भीतर है—चट्टान के नीचे, समय से परे, और उसने उसे याद किया है। उसी पल गुफा के अंदर, करण उस सफेद कागज़ पर लगातार लिख रहा था। हर वाक्य उसके भीतर से निकल रहा था, जैसे कोई दूसरी चेतना उसे नियंत्रित कर रही हो। लेकिन अचानक कलम रुक गई। कमरे की हवा बदल गई। गुफा में फिर वो औरत प्रकट हुई—उल्टा चेहरा, बाल ज़मीन तक लटकते हुए। “तुम अब तक नहीं समझे,” उसने कहा। “तुम सौदा टाल रहे हो। और जब तक सौदा पूरा नहीं होगा, तुम यहीं सड़ते रहोगे।” करण ने कांपते हुए कहा, “मैं नहीं जानता कि क्या छोड़ूं…” “तो सोचो, क्या सबसे ज़्यादा प्यारा है तुम्हें?” करण की आंखों में उसकी बहन का चेहरा तैरने लगा—माही, जो अब अस्पताल में थी, कोमा में। वह वही थी जिसके इलाज के लिए उसने जॉब छोड़ा, यात्रा की, और आरव से प्रेरणा लेकर यहां आया। “मैं… मैं अपनी यादें दे सकता हूँ। उसके साथ की सारी यादें,” करण बोला। औरत ने सिर हिलाया। “अगर तुम वो दोगे, तो जब लौटोगे, वो तुम्हें नहीं पहचानेगी… और तुम उसे नहीं।” करण की आंखें भीग गईं। वो ज़मीन पर गिर पड़ा। “क्या और कोई रास्ता नहीं?” “नहीं। कहानी में किरदार तय करता है कि वो क्या खोएगा। और तुम्हारे पास सिर्फ यही है।” करण ने कुछ पल सोचा। फिर उठा, और कागज़ पर लिखा—“मैं अपनी सबसे प्यारी याद छोड़ता हूँ, ताकि कहानी पूरी हो सके।” गुफा कांपने लगी। दीवारें रोशन हो उठीं। और सामने एक दरवाज़ा खुला—लेकिन इस बार वो दरवाज़ा चट्टान के बाहर नहीं, लॉज के बरामदे में खुला। आरव और सुमित्रा आंटी दोनों ने देखा—हवा में दरवाज़ा बना, जैसे किसी अदृश्य हाथ ने चित्र खींचा हो। और उसमें से करण बाहर आया—थका हुआ, लेकिन जीवित। उसकी आंखों में शून्यता थी। आरव दौड़कर उसके पास आया। “तुम ठीक हो?” करण ने सिर हिलाया। “शायद। लेकिन मुझे याद नहीं… वो… माही कौन है?” आरव का दिल धक् से रह गया। सौदा पूरा हो गया था। सुमित्रा आंटी ने पास आकर कहा, “अब कहानी पूरी हुई। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि अंत आ गया।” करण चुप था। उसकी जेब से वही सफेद पन्ना बाहर निकल आया, जिस पर आखिरी वाक्य लिखा था—“हर आगंतुक के पीछे एक कहानी होती है। और हर कहानी एक आगंतुक की तलाश करती है।” समंदर शांत था, लेकिन उसकी सतह पर हल्की नीली लहरें अब भी डोल रही थीं। रॉकविले ने फिर एक अध्याय देखा था—एक और आगंतुक, एक और सौदा, एक और अधूरी नींद। लेकिन दूर समंदर में अब एक और नाव दिखाई दे रही थी—कोई नया चेहरा, नई जिज्ञासा, नई नींद। आरव ने सुमित्रा आंटी की ओर देखा। “क्या ये चक्र कभी टूटेगा?” “नहीं,” आंटी बोलीं, “जब तक दुनिया में कहानियों की भूख ज़िंदा है… रॉकविले ज़िंदा रहेगा।” और दूर से आती नाव की छाया नीली रोशनी में समाने लगी।
5
समंदर के ऊपर अंधेरा पूरी तरह पसर चुका था लेकिन रॉकविले के उस पार चमकती नीली रोशनी अब बुझने का नाम नहीं ले रही थी। वो जैसे किसी को बुला रही थी, किसी ऐसे को जो अभी आया नहीं, लेकिन जिसकी छाया पहले ही कहानी में उतर चुकी थी। लॉज के बरामदे में आरव चुपचाप खड़ा था। करण अब उसके पास बैठा था, उसकी आंखें सूनी थीं और वह लगातार अपनी उंगलियों से हवा में कुछ आकृतियां बना रहा था—जैसे कोई अनदेखे शब्दों को छूने की कोशिश कर रहा हो। “उसे अब भी याद नहीं है?” आरव ने सुमित्रा आंटी से पूछा। “नहीं,” उन्होंने धीमे से कहा, “लेकिन ये सिर्फ भूलना नहीं है। वो अब वैसा नहीं रहा जैसा था। उसके भीतर जो लौटा है, वो वही नहीं है।” करण अचानक बोला, “क्या मैं यहां पहले भी आया हूं?” आरव का कलेजा कांप गया। उसके भीतर एक डर था—कि क्या करण के साथ कुछ और भी आया है? क्या वो सिर्फ स्मृति खोकर लौटा है, या कुछ और समेट लाया है जो अब उसके भीतर सांस ले रहा है? “तुम्हें कुछ सपने आते हैं?” आरव ने पूछा। करण ने सिर झुकाया। “एक सपना बार-बार आता है… एक लड़की… वो अंधेरे कमरे में बैठी है… और कहती है—तुमने मुझसे मेरा नाम ले लिया… अब मैं तुम्हें नाम नहीं दूंगी…” सुमित्रा आंटी ने चौंक कर देखा। “नाम?” “हाँ,” करण बोला, “और फिर हर बार मैं उठ जाता हूँ… और मेरी उंगलियाँ जल रही होती हैं। जैसे किसी ने उन्हें अंदर से लिख दिया हो।” तभी उसके मोबाइल में एक नोटिफिकेशन आया। एक पुरानी ईमेल—जिसमें कोई लिंक था। विषय था: “The Return is Not Yours Alone”। आरव और करण दोनों ने देखा। ईमेल का कोई प्रेषक नहीं था। लिंक खोला तो एक वीडियो चला—ब्लैक एंड व्हाइट फुटेज। रॉकविले की चट्टान। और उसके सामने एक आदमी खड़ा था… बिलकुल करण जैसा। लेकिन उस वीडियो की तारीख थी—1996। करण चौंका, “ये… कैसे हो सकता है?” आरव ने कुछ कहा नहीं। लेकिन सुमित्रा आंटी ने धीमे स्वर में बुदबुदाया, “समय रेखा सीधी नहीं चलती रॉकविले में। जिसने सौदा किया, वो कभी-कभी पीछे चला जाता है… और जो लौटता है, उसके साथ उसका अतीत नहीं होता—बल्कि भविष्य किसी और का होता है।” करण की साँसें तेज़ हो गईं। “क्या मैं वही करण हूँ… या कोई और?” तभी लॉज की दीवार पर एक परछाई उभरी। बिलकुल इंसान जैसी, लेकिन उलटी। सिर नीचे, पाँव ऊपर। और वो धीरे-धीरे फर्श पर उतर आई, और दरवाज़े से बाहर चली गई। कोई दिखाई नहीं दिया, बस छाया। आरव तुरंत बाहर भागा। समंदर के किनारे एक पतली आकृति खड़ी थी—एक लड़की, जो दूर नीले पानी की तरफ देख रही थी। उसके बाल बहुत लंबे थे, और उसकी पीठ पर वही चिह्न था जो चट्टान के पत्थरों पर उकेरा था—तीन लकीरें, एक घेरे में। आरव पास गया। “कौन हो तुम?” लड़की ने बिना मुड़े कहा, “तुमने कहानी लिखी थी… लेकिन नाम किसी और ने दिया था। अब नाम लेने की बारी मेरी है।” “क्या मतलब?” “जिसने लौटा है, वो अब सिर्फ करण नहीं है। उसके भीतर मैं भी हूँ।” आरव का खून ठंडा हो गया। “तुम कौन हो?” “एक अधूरी आत्मा, जिसे करण ने अनजाने में अपने भीतर ला लिया… वो सौदा तब पूरा हुआ जब उसने कहा, ‘मैं अपनी सबसे प्यारी याद छोड़ता हूँ’… और मैं वही थी।” “माही?” आरव ने काँपते स्वर में पूछा। “नहीं,” उसने मुड़ते हुए कहा। उसकी आँखें काली थीं, पुतलियाँ नहीं थीं। “माही सिर्फ प्रतीक थी। मैं असल में वो हूँ जिसे इस चट्टान ने कभी पूरी तरह बाहर नहीं आने दिया। लेकिन अब मैंने रास्ता पा लिया है—करण के ज़रिए।” और वो अचानक गायब हो गई। पीछे करण चीखता हुआ बाहर आया, “वो मेरे भीतर कुछ फूंक रही है… मैं… मैं खुद को नहीं रोक पा रहा हूँ।” उसके हाथों की उंगलियों पर अब नीले चिह्न थे—वही चिह्न जो दीवारों पर उभरे थे। और तभी उसने ज़ोर से चीख मारी और गिर पड़ा। उसकी आंखें खुली थीं, पर वो कुछ नहीं देख रहा था। सुमित्रा आंटी दौड़कर आईं और उसके माथे पर एक काला धागा बाँधा। “वो पूरी तरह गया नहीं है। वो लड़ रहा है। लेकिन बहुत देर हो चुकी है।” “क्या हम उसे वापस ला सकते हैं?” आरव ने पूछा। “एक ही तरीका है,” आंटी ने कहा। “उस चट्टान को वापस नींद में भेज दो। तब जो जागा है, वो सो जाएगा।” “कैसे?” “उसके लिए तुम्हें फिर से नीचे जाना होगा… और इस बार किताब नहीं, बल्कि वो पन्ना जलाना होगा जो करण ने लिखा था। क्योंकि शब्दों में शक्ति होती है—और कहानी जब तक लिखी रहती है, आत्मा बंधी रहती है।” आरव ने वही सफेद पन्ना निकाला। उस पर अब भी वही वाक्य चमक रहा था—“मैं अपनी सबसे प्यारी याद छोड़ता हूँ, ताकि कहानी पूरी हो सके।” उसने पन्ना मोड़ा, और टॉर्च और माचिस लेकर समंदर की ओर बढ़ा। चट्टान पर पहुंचने तक रात का तीसरा पहर बीत चुका था। नीली रोशनी अब थक चुकी थी—जैसे किसी आत्मा की अंतिम फड़फड़ाहट। आरव ने दरवाज़ा ढूंढा, और जब नहीं मिला, तो वही वाक्य दोहराया—“एक बूँद नींद की गिरती है…” दरवाज़ा उभर आया। वो भीतर गया, गुफा अब चुप थी, और वेदी खाली। उसने पन्ना उसपर रखा, माचिस जलाई, और पन्ना जला दिया। जलते ही गुफा की दीवारें कांपने लगीं, एक औरत की चीख गूंज उठी, और नीली रोशनी अचानक बुझ गई। चट्टान फिर शांत हो गई। आरव वापस लौटा। करण अब बेसुध नहीं था। वो जाग गया था। और उसकी आंखों में लौट आई थी एक पहचान। “माही?” उसने धीमे से कहा। “तुम्हें याद है?” आरव ने पूछा। “हाँ,” वो बोला। “लेकिन… एक सपना था… जिसमें मैं कुछ और था। और कोई मेरे भीतर से बोल रहा था।” सुमित्रा आंटी मुस्कराईं। “अब नींद पूरी हुई है।” लेकिन समंदर अब भी था। और दूर से एक और नाव आती दिख रही थी।
6
रॉकविले का समंदर उस रात असामान्य रूप से शांत था, जैसे किसी गहरे संतोष के बाद ली गई लंबी साँस। नीली रोशनी, जो हफ्तों से चट्टान की छाती पर थरथरा रही थी, अब बुझ चुकी थी। लेकिन उस शांति में भी एक बेचैनी छुपी थी—जैसे कुछ थम कर सिर्फ इंतज़ार कर रहा हो। लॉज के बरामदे में तीन कुर्सियाँ रखी थीं। पहली पर आरव बैठा था, दूसरी पर करण, और तीसरी खाली थी—पर हवा जैसे वहाँ किसी की मौजूदगी महसूस कर रही थी। करण की आँखों में अब चेतना थी, पहचान थी, पर साथ ही एक उलझन भी थी। “मैं सचमुच लौटा हूँ न?” उसने धीरे से पूछा। आरव ने सिर हिलाया। “तुम अब फिर से वही हो, लेकिन अब वो अनुभव तुम्हारा हिस्सा है। वो गुफा, वो आत्मा, वो सौदा—तुम भूल तो सकते हो, लेकिन मिटा नहीं सकते।” करण की नज़र समंदर की ओर गई। “वो नाव… क्या वो किसी और को ला रही है?” आरव चुप रहा। नाव अब किनारे के पास थी, लेकिन धुंध और अंधेरे के बीच उस पर बैठे व्यक्ति का चेहरा दिखाई नहीं दे रहा था। नाव धीरे-धीरे पास आई। एक लंबा, पतला आदमी, लगभग 50 की उम्र का, खादी की सफेद कुर्ता-पायजामा पहने, एक बैग कंधे पर टांगे, पैर रखता है रॉकविले की रेत पर। वो ज़मीन को देखता है, फिर आसमान की तरफ़ देखता है और मुस्कराता है जैसे वो यहां पहले भी आ चुका हो। “नाम?” सुमित्रा आंटी लॉज से बाहर निकलती हैं। “नरेश त्रिवेदी,” वो आदमी कहता है। “लेखक हूँ। सपनों पर लिखता हूँ। पर अब लगता है खुद एक सपना देख रहा हूँ।” आरव और करण दोनों चौकते हैं। नरेश लॉज की खाली कुर्सी की तरफ बढ़ता है, बैठता है और बिना किसी भूमिका के कहता है, “मैंने भी वही नीली रोशनी देखी। और एक आवाज़ आई थी—’जो देखा गया, अब लिखा जाएगा।’ और फिर मुझे एक ईमेल मिला, एक अनाम ब्लॉग का लिंक, जिसपर बस एक पंक्ति थी—‘रॉकविले अब तुम्हारा इंतज़ार कर रहा है।’” करण ने फुसफुसाकर आरव से कहा, “वो पंक्ति… क्या तुमने वो पोस्ट की थी?” “नहीं,” आरव ने कहा, “मैंने वैसा कुछ नहीं लिखा।” तभी लॉज के पीछे से एक बिल्ली आई, सीधी नरेश के पास गई और उसकी गोद में बैठ गई। नरेश ने कहा, “मेरे सपने में भी यही बिल्ली थी।” सुमित्रा आंटी ने धीरे से बोला, “अब चक्र फिर से घूमेगा।” “पर क्या अब भी चट्टान जागेगी?” करण ने घबराकर पूछा। “नहीं,” सुमित्रा आंटी बोलीं, “अब चट्टान नहीं, कहानी जागेगी। ये आदमी चट्टान तक नहीं जाएगा… ये शब्दों के ज़रिए उसे जगा देगा।” आरव ने नरेश से पूछा, “आप यहां क्यों आए?” नरेश ने अपनी डायरी निकाली, एक पन्ना खोला जिसपर लिखा था—“हर आत्मा एक कहानी है, और हर कहानी एक इंतज़ार।” “मैंने ये सपना में लिखा,” नरेश बोला। “जब जगा, तो शब्द गायब थे—but मेरी उंगलियाँ स्याही से भरी थीं।” तभी लॉज के भीतर रखी घड़ी अचानक उल्टी चलने लगी। कमरे के बल्ब टिमटिमाने लगे। सुमित्रा आंटी ने तेज़ी से नरेश के पास जाकर उसकी हथेली खोली। उसकी हथेली पर वही चिह्न उभर आया था—तीन रेखाएँ एक घेरे में। करण पीछे हट गया। “वो तो मेरे हाथों पर भी था… पर तब जब मैंने सौदा किया था।” “लेकिन इसने अभी कुछ दिया नहीं,” सुमित्रा बोला। “तो फिर ये चिह्न कैसे?” नरेश शांत स्वर में बोला, “मैंने शब्द दिए हैं। लेकिन शायद मेरी आत्मा ने मुझसे बिना पूछे ही सौदा कर लिया।” तभी बाहर समंदर की लहरों से एक अजीब-सी ध्वनि आई—जैसे कोई स्त्री गा रही हो, बहुत दूर से, बहुत धीमे… “नींद में गिरा कोई शब्द, अब सांस बनकर निकलेगा…” करण चीख पड़ा, “वो फिर लौट आई!” लेकिन सुमित्रा ने उसे रोका। “नहीं। ये नई आत्मा है। पुरानी नहीं। चट्टान अब नहीं जागेगी—अब ये सब शब्दों से होगा। एक लेखक की कलम से।” नरेश ने मुस्कराकर आरव को देखा। “अब ये कहानी तुम्हारी नहीं, मेरी है। लेकिन तुम सब इसके किरदार रहोगे।” आरव और करण एक दूसरे की ओर देखने लगे—क्या वाकई वो फिर किसी कहानी में समा रहे हैं? तभी नरेश ने डायरी में कुछ लिखना शुरू किया। और उसके लिखते ही लॉज के दीवारों पर कुछ उभरने लगा—शब्द, वाक्य, दृश्य, और फिर चट्टान की छवि। नरेश ने लिखना बंद किया, तो सब गायब हो गया। “देखा?” वो बोला, “अब मैं लिखता हूँ, और वो घटता है।” आरव ने कांपते स्वर में कहा, “तो क्या तुम अब रॉकविले को फिर से जगा सकते हो?” “नहीं,” नरेश ने मुस्कराकर कहा। “मैं अब उसे नींद में ही रखूँगा—लेकिन हर बार एक नया किरदार बुलाऊँगा… जो बिना चट्टान पर कदम रखे भी उसकी कहानी जी ले।” करण ने पूछा, “और अगर कोई मना करे?” “तो वो खुद को भूल जाएगा। क्योंकि कहानी एक बार नाम चुन लेती है, तो फिर वो नाम उसका नहीं रहता।” लॉज की घड़ी अब बंद हो चुकी थी। बाहर अंधेरा गहराने लगा था। और नरेश की कलम से एक नई कहानी बहने लगी थी—एक ऐसी कहानी, जिसमें आने वाला कभी नहीं जान पाएगा कि वो पात्र है या लेखक। लॉज की तीसरी कुर्सी अब खाली नहीं थी। वो किसी ने भर ली थी—जिसे अभी कोई जानता नहीं, लेकिन जिसे अगली बार चट्टान पहचानेगी।
7
रॉकविले अब तक जितना रहस्यमय था, अब उससे कहीं ज़्यादा चुप था। जैसे किसी पुस्तक का अंतिम पन्ना पलटा गया हो, लेकिन लेखक ने कलम नीचे नहीं रखी। लॉज के भीतर दीवारों पर अब नियमित रूप से अजीब शब्द उभरते रहते—कभी संस्कृत जैसे, कभी उर्दू जैसे, और कभी तो किसी अनजानी भाषा के जो उच्चारण भी नहीं किए जा सकते थे। ये सब शुरू हुआ था जिस दिन नरेश त्रिवेदी ने लॉज में प्रवेश किया और अपनी डायरी खोलकर पहला वाक्य लिखा। आरव और करण ने जितना बचा था, अब खुद को उससे भी बाहर महसूस करने लगे थे। “हम अब सिर्फ दर्शक हैं,” करण ने एक दिन कहा, “इस कहानी में न हम लेखक हैं, न पात्र। हम बस वो लोग हैं जिनसे कहानी गुजरती है।” आरव अब भी हर सुबह समंदर किनारे जाकर उस चट्टान को देखता, जो अब न तो चमकती थी, न कांपती। लेकिन उसे विश्वास था कि उसका मौन अस्थायी है। चट्टान किसी और भाषा में संवाद कर रही थी—शब्दों के बाहर की भाषा में। एक रात, जब बिजली चली गई, नरेश लॉज के भीतर मोमबत्तियाँ जलाकर बैठा रहा। उसकी डायरी अब काली हो चुकी थी—सफ़ेद पन्ने अब गाढ़े स्याह रंग के हो चुके थे, लेकिन जैसे ही वह उस पर लिखने के लिए कलम रखता, वो अपने आप जल उठती। सुमित्रा आंटी ने कहा था, “तुम्हारी कहानी अब आग से लिखी जा रही है। इसका अर्थ है—तुम अब सिर्फ लेखक नहीं रहे, भोगने वाले बन चुके हो।” “लेकिन मैं तो बस शब्दों को पकड़ रहा हूँ,” नरेश ने कहा था, “जैसे वो हवा में तैर रहे हों और मैं उन्हें लिख भर रहा हूँ।” “वही तो खतरा है,” आंटी बोलीं, “जब शब्द तुम्हारे नहीं होते, तब कहानी भी तुम्हारी नहीं होती। और जो अपनी कहानी का मालिक नहीं होता, वो अंत का रास्ता नहीं चुन सकता।” उसी रात करण ने सपना देखा—उसने खुद को एक पत्थर की गुफा में बंद पाया। गुफा की दीवारें किताबों से बनी थीं, और उन किताबों में उसका ही चेहरा बार-बार उभरा, जैसे कोई पृष्ठ पलटे जा रहे हों और हर बार उसका ही नाम दोहराया जा रहा हो। “करण… करण… करण…” हर उच्चारण के साथ उसकी साँसें तेज़ होती गईं और वह अचानक जाग उठा—पसीने से लथपथ, गला सूखा हुआ। उसने नरेश को जगाया और कहा, “तुम जो लिख रहे हो, उसमें मेरा नाम बार-बार आ रहा है। ऐसा क्यों हो रहा है?” नरेश कुछ नहीं बोला। उसने बस डायरी का पिछला पन्ना पलटा, और दिखाया कि वहाँ लिखा था—“करण त्रिवेदी, आगंतुक नहीं… उत्पत्ति है।” करण हिल गया। “त्रिवेदी? मेरा उपनाम तो मेहरा है!” “शब्द अपना रास्ता खुद चुनते हैं,” नरेश बोला, “हो सकता है तुम उस आत्मा की अगली कड़ी हो, जिसे कभी चट्टान ने जन्म दिया था।” आरव उस पंक्ति को बार-बार पढ़ रहा था। करण त्रिवेदी। मतलब ये सिर्फ एक संयोग नहीं था। हो सकता है करण पहले भी आया हो, किसी दूसरे रूप में। और हो सकता है कि नरेश की कहानी करण के भीतर से ही निकल रही हो। सुमित्रा आंटी ने अपनी पुरानी बक्सियों से एक धातु की पट्टिका निकाली। उसपर उकेरा था एक प्रतीक—तीन रेखाएँ, एक घेरे में, और नीचे लिखा था—“त्रि-शब्द आत्मा: एक समय, एक देह, एक मार्ग।” “ये क्या है?” करण ने पूछा। “ये रॉकविले की मूल कहानी का प्रतीक है,” आंटी बोलीं, “जिस आत्मा ने पहली बार इस चट्टान को देखा, उसने तीन बार जन्म लिया, तीन बार सौदा किया, और हर बार एक हिस्सा पीछे छोड़ दिया। वो आत्मा ‘त्रिवेदी’ कहलाई।” करण अब समझ गया था—शायद वो ही है तीसरी बार जन्मी आत्मा। और अब नरेश जो लिख रहा है, वो सिर्फ कहानी नहीं… इतिहास था। आत्मा का, चेतना का, और शायद खुद समय का। तभी अचानक लॉज की दीवारें काँप उठीं। बल्ब फूटने लगे। आरव दौड़कर बाहर निकला—समंदर में फिर नीली रोशनी! लेकिन वो पहले जैसी शांत नहीं थी। अब उसमें लहरें उफान मार रही थीं, जैसे समंदर खुद कुछ कह रहा हो। चट्टान की सतह पर दो आकृतियाँ दिखाई दीं—एक पुरुष और एक स्त्री। दोनों की छायाएँ हवा में तैर रही थीं। “कौन हैं ये?” करण ने काँपते स्वर में पूछा। “ये वही हैं,” आंटी बोलीं, “जिन्होंने कहानी शुरू की थी। और अब वे लौट आए हैं… कहानी को खत्म करने।” नरेश ने डायरी बंद कर दी। “अब आखिरी अध्याय मेरे हाथ में नहीं है।” “तो किसके हाथ में है?” आरव ने पूछा। “उसके… जो अगली बार आएगा,” नरेश बोला। “उसका नाम हम नहीं जानते, लेकिन वह इस चक्र को तोड़ेगा।” “और वो आएगा कैसे?” करण ने पूछा। नरेश ने आसमान की ओर देखा, जहाँ बादलों के बीच एक तारा चमक रहा था, बाकी सब गायब। और जैसे किसी ने हवा में कहा हो—“कहानी खुद चलती है… और जब वक्त होगा, वो खुद अपना लेखक चुनेगी।”
8
रॉकविले की रात अब चुप नहीं थी। समंदर पर फिर से उभरी नीली रोशनी हवा में झूल रही थी, पर इस बार वह डरावनी नहीं, बल्कि जैसे किसी दबी हुई सच्चाई की तरह चमक रही थी—कोमल और गहरी। लॉज के बाहर तीनों खड़े थे—आरव, करण और नरेश। चट्टान की सतह पर दो आकृतियाँ अब और स्पष्ट हो गई थीं—एक पुरुष और एक स्त्री, जो हाथों में किताब और दीपक लिए हुए खड़े थे। और फिर जैसे किसी अदृश्य हाथ ने हवा में लिखना शुरू किया—“जब कथा को कोई न सुने, तब कथा खुद उतरती है देह में।” सुमित्रा आंटी चुपचाप लॉज के भीतर से बाहर आईं, उनके हाथ में वही पुराना धातु का ताबीज़ था जिसमें त्रि-रेखा और वृत्त बना हुआ था। उन्होंने उसे करण की गर्दन में बाँध दिया। करण काँप गया, “ये क्यों?” “क्योंकि अब तुम कथा हो। और कथा को बाँधने का एकमात्र तरीका है—उसे पहचान देना।” आरव ने सशंकित होकर पूछा, “लेकिन अगर करण अब कथा है, तो क्या उसे अब खुद को भूलना होगा?” नरेश ने गहरी सांस ली, “शायद नहीं। लेकिन उसे अब एक निर्णय लेना होगा—क्या वो कथा होकर जियेगा, या मानव होकर लड़ेगा।” “और मैं क्या कर सकता हूँ?” करण ने थरथराते स्वर में पूछा। तभी चट्टान पर आकृतियाँ एक साथ बोल पड़ीं—कोई आवाज़ नहीं, सिर्फ़ हवा में गूंजते शब्द—“जो तीसरी बार जागा है, वही तीसरे द्वार को बंद कर सकता है।” नरेश की आंखें खुली की खुली रह गईं। “तीसरा द्वार?” “रॉकविले की कहानी कभी दो आत्माओं से शुरू हुई थी,” सुमित्रा आंटी ने कहना शुरू किया। “एक लेखक था—जिसने आत्माओं को शब्द दिए। और एक आत्मा थी—जिसे चट्टान ने रूप दिया। पहली बार जब उन्होंने मिलकर सौदा किया, चट्टान जाग गई। दूसरी बार, चट्टान ने स्वयं शब्द चुन लिए। लेकिन तीसरी बार… कहानी खुद को मनुष्य बना चुकी है—करण के रूप में।” करण अब घुटनों के बल बैठ गया। “तो मैं… सिर्फ़ पात्र नहीं हूं?” “नहीं,” आरव ने कहा। “तुम अब कहानी की चेतना हो। अगर तुम खुद को मुक्त नहीं करोगे, ये चक्र नहीं रुकेगा। और अगला आगंतुक… वो कहानी में घुल जाएगा।” “कैसे?” करण की आवाज़ टूटी हुई थी। “तुम्हें गुफा में जाना होगा। और जहाँ तुमने पहली बार अपने नाम का सौदा किया था, वहीं जाकर वो नाम वापस लेना होगा।” “पर तब क्या होगा?” नरेश ने कहा, “तब कहानी पूरी हो जाएगी। और पूरी कहानी कभी किसी को नहीं छोड़ा करती—वो सब कुछ ले लेती है। यादें, देह, चेतना… सब कुछ।” करण ने एक बार सबकी ओर देखा। फिर अपने गले से ताबीज़ उतारा और मुठ्ठी में कस लिया। “मैं तैयार हूँ।” आरव ने उसका हाथ थामा। “मैं साथ चलूँ?” करण मुस्कराया। “इस बार नहीं। ये दरवाज़ा सिर्फ मुझे दिखेगा।” और वह अकेला बढ़ चला समंदर की ओर, उस चट्टान की ओर, जिसने न जाने कितनों को निगला और फिर किसी न किसी रूप में लौटा दिया। रात के तीसरे पहर में चट्टान के नीचे एक बार फिर दरवाज़ा उभरा, इस बार बग़ैर किसी टॉर्च, किसी किताब, या मंत्र के। दरवाज़ा खुद खुला और करण भीतर चला गया। गुफा अब पहले से बदली हुई थी—ना वो वेदी थी, ना किताब, ना दर्पण। सिर्फ़ दीवारें थीं जिन पर करण का चेहरा बार-बार उभर रहा था। “तुमने हमें बनाया…” एक हवा सी आवाज़ आई। “अब हमें मिटाओ, तभी तुम अपने आप में लौट पाओगे।” करण ने ताबीज़ खोला। भीतर एक कागज़ था—सफ़ेद, लेकिन उसपर शब्द खुद-ब-खुद उभरने लगे—“मैं अपनी कहानी से बाहर निकलता हूँ।” कागज़ जलने लगा। दीवारें कांपने लगीं। और गुफा के ऊपर से एक नीली रौशनी सीधी आसमान तक उठी। आरव और नरेश ने देखा—समंदर का पानी एक बार के लिए पिघलते कांच जैसा हो गया था। और फिर सब थम गया। सुबह हुई। पहली बार रॉकविले में सूरज सीधे चट्टान पर पड़ा। न कोई नीली रोशनी, न कोई दरवाज़ा, न कोई गूंज। करण कहीं नहीं था। आरव किनारे तक भागा, चट्टान को देखा—एक छोटी सी मूर्ति वहाँ खड़ी थी, जिसके चेहरे पर एक मुस्कान थी। सुमित्रा आंटी आईं। “कथा अब वस्त्र छोड़ चुकी है,” उन्होंने कहा। “अब वो सिर्फ़ स्मृति रहेगी। और स्मृति तब तक जीवित है जब तक कोई उसे याद करे।” नरेश ने अपनी डायरी बंद कर दी। “तो क्या ये अंत है?” आरव ने पूछा। आंटी ने धीमे से सिर हिलाया। “नहीं। ये तो बस उस चक्र का विश्राम है… जो अब शायद किसी और रूप में लौटेगा। लेकिन तब तक, रॉकविले को नींद मिली है।” आरव, जो कभी पत्रकार था, अब बस एक साक्षी रह गया था। नरेश, जिसने कथा को शब्द दिए, अब चुप रहकर दुनिया को देखने वाला बन गया। और करण… वह अब कथा के पार चला गया। चट्टान शांत थी। पर हर लहर जब लौटती, तब हवा में एक गीत जैसा गूंजता—
“कथा थी, कथा है, कथा रहेगी…
कभी शब्द में, कभी चुप्पी में…
पर जब तुम सुनोगे,
तब वो फिर से उतर आएगी।”
— समाप्त —
				
	

	


