सोमा ठाकुर
रोहित ने जैसे ही बी.ए. अंतिम वर्ष की परीक्षा पास की, एक अजीब सा आत्मविश्वास उसके भीतर भर गया था। वह एक छोटे शहर का सीधा-सादा लड़का था, लेकिन आंखों में बड़े सपने पलते थे—अपने दम पर कुछ बनना, परिवार की हालत सुधारना, और समाज में सम्मान अर्जित करना। उसके पिता, श्री मनोहर लाल शर्मा, एक सेवानिवृत्त क्लर्क थे, जिनकी पेंशन से जैसे-तैसे घर चलता था। मां गृहिणी थीं और एक छोटी बहन कॉलेज में पढ़ रही थी। रोहित हमेशा से पढ़ाई में अच्छा था, लेकिन साधनों की कमी और प्रतियोगी माहौल ने उसे भीड़ का हिस्सा बना दिया था। ग्रेजुएशन खत्म होते ही उसने सरकारी नौकरियों की तैयारी में खुद को झोंक दिया—रेलवे, बैंक, एसएससी, पुलिस, और ना जाने क्या-क्या फॉर्म भरे, कोचिंग की किताबें जुटाईं, ऑनलाइन मॉक टेस्ट दिए। लेकिन हर बार कुछ अंक पीछे रह जाता। कुछ परीक्षाएं छूट भी जातीं क्योंकि फार्म भरने के पैसे नहीं होते थे। इन असफलताओं के बावजूद वह खुद को दिलासा देता, “शायद अगली बार, शायद अबकी बार।”
हर सुबह वह एक साफ-सुथरा झोला कंधे पर लटकाकर, किताबों से भरा हुआ, शहर के छोटे से पुस्तकालय या नदी किनारे की सीढ़ियों पर जा बैठता। वहीं वह पूरे दिन तैयारी करता, लंच में घर से लाई रोटी-सब्जी खाता और शाम होते ही वापस लौटता। कई बार उसकी मां पूछतीं, “कुछ बना क्यों नहीं अब तक? तेरे जैसे लड़के तो कॉल सेंटर में भी काम कर लेते हैं, तू भी कुछ कर ले बेटा।” पर रोहित हँस कर कहता, “मां, थोड़े दिन की बात है, एक बार सरकारी नौकरी लग जाए फिर तू ही सबसे कहेगी—देखो मेरा बेटा अफसर है।” पिता कुछ नहीं कहते, बस उसकी आंखों में देखकर सिर हिलाते। लेकिन धीरे-धीरे परिस्थितियां दबाव बनाने लगी थीं। मकान मालिक हर महीने किराए के लिए तगादा करने लगता, बहन की फीस, मां की दवा और खुद की किताबों का खर्च—सब कुछ पेंशन पर भारी पड़ने लगा। रोहित को लगने लगा था कि सिर्फ सपना देखने से पेट नहीं भरता।
एक दिन, जब एक और परीक्षा का रिज़ल्ट आया और उसमें भी उसका चयन नहीं हुआ, वह देर तक अपने कमरे में चुप बैठा रहा। दीवारों पर चिपके सफलता के प्रेरणादायक पोस्टर भी अब फीके लगने लगे थे। उसी रात उसके पिता ने कहा, “बेटा, कोशिश करना गलत नहीं है, लेकिन जब जिम्मेदारियां सिर पर हों तो हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहना भी सही नहीं। कुछ दिन कोई छोटा-मोटा काम कर ले, फिर जब समय और पैसे दोनों हों, तो दोबारा तैयारी कर लेना।” यह बात रोहित को चुभी जरूर, लेकिन सच्चाई को नकारना मुश्किल था। अगली सुबह उसने एक प्राइवेट सिक्योरिटी कंपनी का विज्ञापन देखा, जिसमें गार्ड की भर्ती चल रही थी—कम से कम पढ़ाई ग्रेजुएशन, तनख्वाह ₹१०,००० और वर्दी कंपनी की तरफ से। वह कुछ क्षण तक देखता रहा, फिर चुपचाप विज्ञापन को काटकर जेब में रख लिया। उसी शाम उसने कंपनी में आवेदन कर दिया और तीन दिन बाद उसे ड्यूटी जॉइन करने को कहा गया। जिस दिन वह पहली बार वर्दी पहनकर घर से निकला, उसके चेहरे पर आत्मगौरव और संकोच दोनों की हल्की छाया थी—लेकिन मन में एक बात स्पष्ट थी: “काम कोई भी हो, अगर ईमानदारी से किया जाए, तो वही सबसे बड़ा काम होता है।”
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गार्ड की ड्यूटी की पहली सुबह रोहित जल्दी उठ गया था। उसने कंपनी की दी हुई नीली यूनिफॉर्म, काली टोपी और चमकते जूते पहन लिए थे। आईने के सामने खड़ा होकर उसने खुद को देखा—एक नया रूप, एक नया मोड़। भीतर कहीं थोड़ी झिझक थी, शायद समाज की नजरों का डर, लेकिन उसके चेहरे पर दृढ़ संकल्प की हल्की चमक भी थी। पिता ने चुपचाप आकर उसके कंधे पर हाथ रखा और कहा, “काम में ईमानदारी रखना, बाकी इज़्ज़त अपने आप मिलेगी।” मां ने पूजा की थाली से तिलक लगाते हुए सिर पर हाथ फेरा, और बहन ने आधे मज़ाक में कहा, “भैया, अब तो तुम्हें देखकर डर लगने लगा है, एकदम पुलिसवाले लग रहे हो!” रोहित हँस पड़ा, लेकिन उसकी मुस्कान में हल्की-सी बेचैनी छिपी थी। जब वह बाहर निकला, गली के कुछ लोगों ने उसे देख लिया। किसी ने सरसरी निगाह डाली, किसी ने ताना कस दिया—“अरे पढ़ा-लिखा होकर चौकीदारी करने लगा?”, और कुछ तो बस हँस दिए। उसने नजरें झुकाईं नहीं, लेकिन भीतर कुछ टूटने जैसा महसूस हुआ।
ड्यूटी का स्थान एक प्राइवेट कॉर्पोरेट ऑफिस था, जहां दिनभर कर्मचारी आते-जाते रहते थे। उसकी ड्यूटी गेट पर बैठने की थी—आने-जाने वालों की एंट्री दर्ज करना, गाड़ी खड़ी कराना, और कैमरे की निगरानी रखना। शुरू में उसे यह सब बहुत नया और थोड़ा अजीब लगा, लेकिन कुछ ही दिनों में वह सब समझ गया। वह समय का पाबंद था, नियमों का सख्त पालन करता और कभी किसी से बदतमीजी नहीं करता। ऑफिस में काम करने वाले कई लोग उसे नजरअंदाज करते, कुछ नाम लेकर बुलाते नहीं बल्कि ‘गार्ड’ कहकर आदेश सुनाते—“ओ गार्ड, दरवाजा खोलो!”, “गार्ड, पानी लाओ!” रोहित को यह सब असहज लगता, लेकिन वह खुद को समझाता, “यह अस्थायी है। मैं यहां स्थायी पहचान के लिए नहीं आया, बस ज़िंदगी की एक सीढ़ी चढ़ रहा हूँ।” लेकिन यही सोच उसे भीतर से मजबूत करती रही।
महीनेभर बीत गए थे। तनख्वाह समय पर मिली और उसने घर में कुछ जरूरी चीज़ें खरीदीं—मां के लिए दवाई, बहन की किताबें और पिता की चश्मे की मरम्मत। घर में थोड़ी रौनक लौटी, और मां की आंखों में संतोष की झलक दिखी। लेकिन बाहर की दुनिया का व्यवहार अब भी वैसा ही था। एक दिन मोहल्ले के एक सज्जन ने उसके पिता से पूछ लिया, “आपका बेटा तो बड़ा पढ़ा-लिखा था न? फिर ये चौकीदारी क्यों कर रहा है?” पिता ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, “क्योंकि उसे काम की इज्ज़त करनी आती है, और खाली बैठकर सपने देखना उसे पसंद नहीं।” यह सुनकर रोहित का सीना गर्व से चौड़ा हो गया। उस दिन उसने तय किया—अब किसी की बातों का असर अपने मन पर नहीं चढ़ने देगा। वह काम को बोझ नहीं, ज़िम्मेदारी मानकर निभाएगा। खुद को साबित करने का वक्त अभी आया नहीं था, लेकिन वह जानता था—जब भी अवसर आएगा, वह उसे चूकने नहीं देगा।
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रोहित की नौकरी को अब कुछ हफ्ते बीत चुके थे। वह अपनी ड्यूटी में इतना ढल गया था कि समय पर आना, ड्यूटी के घंटों में सजग रहना और लोगों से सभ्यता से बात करना उसकी आदत बन गई थी। हालांकि वह जानता था कि यह उसका सपना नहीं था, लेकिन उसे इस बात का गर्व था कि उसने खाली बैठने के बजाय काम को चुना, और वह काम कोई गलत या चोरी-छिपे का नहीं था—वह अपने पसीने की कमाई खा रहा था। ऑफिस की इमारत सुबह ९ बजे से शाम ६ बजे तक चहल-पहल से भर जाती थी। गेट पर खड़े होकर वह सभी आने-जाने वालों के नाम, समय और उद्देश्य लिखता। शुरुआत में लोग उसे एक मामूली गार्ड मानते हुए तटस्थ नजरों से देखते थे, लेकिन धीरे-धीरे उसकी तमीज़ और निष्ठा ने कुछ लोगों का ध्यान खींचना शुरू कर दिया। कभी किसी का फोन गिर जाता, तो वह खुद जाकर उसे लौटाता, कभी कोई दस्तावेज़ छूट जाता, तो दौड़कर पहुंचाता। कोई गाड़ी गलत पार्क करता, तो वह नियमपूर्वक मना करता। वह सिर्फ ड्यूटी नहीं निभा रहा था, वह अपने अस्तित्व को सही साबित करने की कोशिश कर रहा था।
एक दिन ऑफिस की एक सीनियर महिला कर्मचारी, जो अक्सर गंभीर और व्यस्त नजर आती थीं, रोहित के पास से गुजरते हुए ठिठक गईं। “तुम हर दिन इतनी विनम्रता से ड्यूटी करते हो, क्या पहले भी कहीं काम किया है?” उन्होंने पूछा। रोहित ने सिर झुकाकर मुस्कुरा दिया, “नहीं मैडम, यह मेरी पहली नौकरी है।” वह पल छोटा था, लेकिन रोहित के लिए एक अदृश्य सम्मान था—किसी ने उसके काम को देखा, सराहा। हालांकि अधिकतर लोग अब भी उसकी उपेक्षा ही करते थे। कभी-कभी कोई उसे केवल आदेश देने का माध्यम समझता, तो कोई उसे ‘सिर्फ एक गार्ड’ समझकर बात करने की जरूरत नहीं समझता। फिर भी रोहित कभी शिकायत नहीं करता। वह जानता था कि यह समाज हमेशा काम के स्तर पर नहीं, उसकी छवि पर लोगों को आंकता है, और यही छवि धीरे-धीरे बदलनी थी—खुद को साबित करके, अपनी निष्ठा से, अपने कर्म से।
एक शाम ऑफिस बंद होने के बाद, जब सब कर्मचारी निकल चुके थे, रोहित को एक फाइल का बंडल बेंच पर पड़ा दिखा। उस पर ‘Confidential’ लिखा था। उसने तुरंत कंपनी के वरिष्ठ सुरक्षा अधिकारी को फोन किया और फाइल की जानकारी दी। कुछ देर बाद वे खुद आए और कहा, “शुक्र है तुमने देखा, यह फाइल बहुत जरूरी थी।” उन्होंने रोहित की पीठ थपथपाई और कहा, “आजकल कम ही लोग इतने सजग होते हैं।” उस रात रोहित घर लौटा तो उसका चेहरा दमक रहा था। पिता ने पूछा, “खुश लग रहा है?” रोहित ने सिर हिलाते हुए कहा, “हां पापा, शायद आज मैंने खुद को गार्ड नहीं, जिम्मेदार समझा।” मां रसोई से मुस्कुराते हुए बोलीं, “अरे वाह, अब तो अपने बेटे की वर्दी में मानो सितारे लग गए हों।” घर में ठंडी दाल-चावल और मां के हाथ की बनी सब्जी के साथ वह संतोष की सबसे गर्म रोटी खा रहा था—जो मेहनत से पकी थी, सम्मान से सजी थी और आत्मगौरव से परोसी गई थी।
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रोहित अब नौकरी में स्थिर हो चुका था, लेकिन समाज की निगाहें अभी भी डगमगाई नहीं थीं। हर सुबह जब वह वर्दी पहनकर निकलता, मोहल्ले की कुछ आंखें उस पर टिक जातीं। कुछ बुज़ुर्ग उसे देखकर मुँह बिचकाते, “पढ़ाई-लिखाई सब व्यर्थ हो गई लगता है”, तो कुछ युवा उसके पीछे फुसफुसाते—“इतना पढ़ा, फिर भी गार्ड बन गया?” खासकर वही दोस्त जिनके साथ कभी वह चाय की दुकान पर बैठकर अफसर बनने के सपने साझा करता था, अब उससे कतराकर निकल जाते थे। कुछ तो मज़ाक में कहते, “अब तू ही हमें अंदर आने देगा ना यार, जब कोई दफ्तर चेक करने जाएँ?” उनके लहज़े में तंज था, और हँसी में वह ज़हर घुला था जो आत्मसम्मान को चुपचाप कुतरता चला जाता है। रोहित हँसने की कोशिश करता, लेकिन दिल में कहीं कसक उठती। घर लौटकर जब वह आईने में खुद को देखता, तो कभी-कभी मन करता उस वर्दी को उतार फेंके—पर फिर पिता की कही एक बात याद आती, “काम कोई भी हो, अगर मेहनत और ईमानदारी से किया जाए, तो वही सबसे बड़ा काम होता है।”
पड़ोस की एक आंटी, जो पहले अक्सर कहती थीं, “तुम्हारा बेटा तो बड़ा होनहार है”, अब मिलने पर बात तक नहीं करती थीं। एक बार उनकी बेटी ने रोहित को देखकर अपनी मां से धीमे से कहा, “मम्मी, यही वो भैया हैं जो गार्ड बन गए न?” रोहित ने सुन लिया था, लेकिन बिना कोई प्रतिक्रिया दिए वह सीधा आगे बढ़ गया। उसके आत्मसम्मान को गहरा धक्का पहुंचा था। लेकिन घर लौटते ही जब मां ने उसका माथा सहलाया और कहा, “तेरा कमाया हुआ खाना हमें सबसे मीठा लगता है बेटा”, तब वह सारा अपमान भूल गया। फिर भी, समाज की यह बेरुखी भीतर कहीं न कहीं असर करती जा रही थी। वह कभी-कभी सोचता, क्या यह वही लोग हैं जो तब तालियाँ बजाते जब वह अफसर बनता? क्या सिर्फ कुर्सी और पद की वजह से ही इंसान की कीमत होती है? वह अब इन सवालों से जूझने लगा था। लेकिन उसने ठान लिया था—वह किसी की सोच बदल नहीं सकता, पर खुद को कमजोर नहीं पड़ने देगा।
एक दिन ड्यूटी पर, ऑफिस का एक नया कर्मचारी पहली बार आया। रोहित ने विनम्रता से उसका नाम पूछा, उसे एंट्री रजिस्टर में साइन करने को कहा और गाड़ी पार्किंग की जानकारी दी। वह कर्मचारी चकित होकर बोला, “आपका तरीका बहुत प्रोफेशनल है, क्या आपने कहीं और ट्रेनिंग ली है?” रोहित ने मुस्कुराकर सिर्फ इतना कहा, “नहीं, बस जिम्मेदारी निभाना सीख लिया है।” उस दिन उसे एहसास हुआ कि हर कोई एक जैसा नहीं सोचता—कुछ लोग अब भी काम को देखकर इंसान की इज्जत करते हैं, न कि पद देखकर। उसी शाम पिता के पुराने दोस्त घर आए और बोले, “मनोहर, तेरे बेटे ने बड़ी समझदारी दिखाई है—काम छोटा बड़ा नहीं होता, यह बात हर कोई नहीं समझ पाता।” यह वाक्य जैसे रोहित के भीतर नई ऊर्जा भर गया। अब उसने तय कर लिया था कि वह न केवल अपनी ड्यूटी निभाएगा, बल्कि अपने अस्तित्व की इज्ज़त भी बनाए रखेगा—बिना किसी डर के, बिना किसी शर्म के, क्योंकि अगर काम ईमानदारी से हो रहा है, तो उसमें अपमान नहीं, सम्मान छिपा होता है।
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रोहित अब अपने कार्य में पूरी तरह रच-बस गया था। सुबह पौने आठ बजे घर से निकलना, तय समय से दस मिनट पहले ऑफिस गेट पर पहुंचना, ड्यूटी शुरू होने से पहले परिसर का चक्कर लगाना और फिर एंट्री रजिस्टर, कैमरे की मॉनिटरिंग, पार्किंग की निगरानी—उसने यह सब एक मशीन की तरह नहीं, बल्कि ईमानदारी और जिम्मेदारी के साथ अपनाया था। बाकी गार्ड कभी-कभी देर से आते, मोबाइल पर समय बिताते या फिर झुंझलाकर बात करते, लेकिन रोहित हमेशा शांत और सजग बना रहता। उसकी यही आदतें अब ऑफिस के कई वरिष्ठ कर्मचारियों को दिखने लगी थीं। कुछ लोग उसे आदर से नाम से बुलाने लगे थे, और कोई-कभी चाय भेज देते थे। हालाँकि वह अब भी अपने को पद से नहीं, कर्म से आंकता था। उसे हर छोटी जिम्मेदारी बड़ी लगती थी, चाहे वह फाटक खोलना हो या कोई दस्तावेज़ संभालकर देना। हर चीज़ में उसने अनुशासन और शिष्टता का वह उदाहरण प्रस्तुत किया, जिसे देखकर कई पुराने गार्ड भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाए।
एक बार की बात है—बारिश का मौसम था, और बाहर जोरदार बौछार हो रही थी। उसी वक्त एक वरिष्ठ अधिकारी की कार कार्यालय में आई। पार्किंग में जगह कम थी और कुछ बाहर गाड़ियाँ गलत तरीके से खड़ी थीं। रोहित ने बिना एक पल गँवाए छाता उठाया और खुद ही गाड़ी हटवाने लगा। पानी में भीगते हुए भी वह सजगता से काम करता रहा, और फिर उस अधिकारी की कार को सुरक्षित स्थान पर लगवाया। अधिकारी ने जब देखा कि कोई कर्मचारी नहीं बल्कि गार्ड खुद ये सब कर रहा है, तो वे चौंक गए। उन्होंने कार से उतरकर पूछा, “इतना सब खुद क्यों कर रहे हो?” रोहित ने सहज भाव से उत्तर दिया, “यह मेरा काम है सर, और जब तक मैं यहां हूं, कोशिश करता हूं कि किसी को असुविधा न हो।” उस दिन पहली बार किसी सीनियर अफसर ने उसके बारे में ऑफिस मीटिंग में जिक्र किया। कहा, “हमें हर स्तर पर ऐसे लोगों की ज़रूरत है, जो सिर्फ काम नहीं, जिम्मेदारी निभाते हैं।”
धीरे-धीरे रोहित की यही लगन उसे भीतरी रूप से निखारने लगी। अब वह सिर्फ गार्ड नहीं था—वह अपने आत्मसम्मान का प्रहरी बन गया था। उसके चेहरे पर स्थिरता थी, बातों में आत्मविश्वास और व्यवहार में विनम्रता। लोग अब उससे सलाह लेने लगे थे कि कैसे ड्यूटी में अनुशासन बनाए रखें। जो पुराने साथी उसे पहले ताने देते थे, अब उसकी आदतों की तारीफ करते। एक बार एक नए गार्ड ने पूछा, “भैया, क्या आपने कहीं से ट्रेनिंग ली है? आपमें अफसरों वाली बात है।” रोहित मुस्कुराया, “जीवन ही सबसे बड़ी ट्रेनिंग है, बस उसे समझदारी से जीना सीखो।” वह खुद को किसी से बड़ा नहीं समझता था, लेकिन अब उसे इस बात का यकीन था कि जो भी इंसान अपने काम को पूरी ईमानदारी और अनुशासन से करता है, वह सम्मान का हकदार होता है, चाहे वह किसी भी पद पर क्यों न हो। यही विचार अब उसके भीतर स्थायी हो चुका था—कि मेहनत का कोई विकल्प नहीं, और ईमानदारी का कोई मोल नहीं लगाया जा सकता। उसे अब कोई ताना नहीं चुभता, कोई उपेक्षा उसे विचलित नहीं करती। वह जान चुका था कि असली इज्ज़त बाहर नहीं, भीतर से पैदा होती है—अपने काम, अपने विचार और अपने कर्म से।
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अक्टूबर की एक ठंडी शाम थी। ऑफिस में त्योहारों की छुट्टियों का माहौल था, कर्मचारी जल्दी-जल्दी घर लौट रहे थे। शाम की शिफ्ट पर रोहित तैनात था। उस दिन उसने ड्यूटी के दौरान कुछ असामान्य हरकतें महसूस कीं—दूसरी बिल्डिंग के पीछे की पार्किंग में एक अनजान गाड़ी बार-बार आती और कुछ मिनट रुककर चली जाती। पहले उसने सोचा शायद कोई कर्मचारी होगा, लेकिन जब लगातार तीन दिन तक वही गाड़ी बिना किसी उद्देश्य के आती रही, तो उसका चौकन्ना दिमाग सतर्क हो गया। उसने गाड़ी का नंबर नोट किया, कैमरे के फुटेज चेक किए और सुरक्षा रजिस्टर में उस नंबर का कोई रिकॉर्ड न मिलने पर संदेह और पुख्ता हो गया। कंपनी की सुरक्षा पॉलिसी के अनुसार, किसी भी अज्ञात गतिविधि की सूचना देना जरूरी था, लेकिन रोहित ने सोचा कि जब तक कोई पक्का प्रमाण न हो, वह सीधे उच्चाधिकारियों को नहीं बताएगा। इसलिए उसने खुद निगरानी करने की योजना बनाई।
चौथे दिन, उसी संदिग्ध गाड़ी से दो व्यक्ति उतरे और बिल्डिंग के पीछे की दीवार के पास कुछ समय तक रुके। रोहित ने दूर से देखा कि वे कुछ इशारों में बात कर रहे थे, और उनमें से एक ने इमारत की खिड़की की तरफ देखा, जो आमतौर पर स्टोरेज रूम की ओर खुलती थी। यह वही स्टोरेज था जिसमें ऑफिस के पुराने दस्तावेज़ और कुछ इलेक्ट्रॉनिक उपकरण रखे जाते थे। उस रात ड्यूटी खत्म होने के बाद भी रोहित वहीं छुपकर बैठ गया। उसने अगले दिन के लिए सीनियर गार्ड से ड्यूटी बदल ली थी ताकि रात की पूरी निगरानी कर सके। आधी रात को फिर वही गाड़ी आई—इस बार वे व्यक्ति खिड़की तक पहुंचे और किसी उपकरण से ताला खोलने की कोशिश करने लगे। रोहित ने बिना देर किए तुरंत बैकअप गार्ड को कॉल किया, और पुलिस को सूचना दी। खुद अकेले उन दोनों के सामने पहुंचकर वह चिल्लाया, “कौन हो तुम लोग? यहां क्या कर रहे हो?” वे चौंककर भागने लगे, लेकिन रोहित ने उनमें से एक को पकड़ लिया। बाकी गार्ड और पुलिस के आने तक वह मजबूती से उसे पकड़े रहा।
पुलिस पूछताछ में पता चला कि वे व्यक्ति एक गैंग के सदस्य थे, जो कंपनियों के स्टोरेज रूम से इलेक्ट्रॉनिक सामान चुराकर उन्हें ब्लैक मार्केट में बेचते थे। कैमरे के फुटेज, रोहित की गवाही और घटनाक्रम की सटीक जानकारी के कारण चोरी की यह कोशिश विफल हो गई थी। अगली सुबह ऑफिस के डायरेक्टर और वरिष्ठ अधिकारी खुद रोहित से मिलने आए। उन्होंने उसका धन्यवाद किया, कंधे पर हाथ रखकर कहा, “अगर तुम जैसे कर्मचारी हर जगह हों, तो अपराधियों की हिम्मत ही न हो।” रोहित ने मुस्कुराते हुए कहा, “मैंने बस अपनी ड्यूटी निभाई, सर।” लेकिन भीतर कहीं वह जानता था—यह सिर्फ ड्यूटी नहीं थी, यह आत्मसम्मान और जिम्मेदारी की वह लड़ाई थी जो उसने खुद से और समाज से एक साथ लड़ी थी। उस रात जब वह घर पहुंचा, तो मां ने बिना कुछ पूछे ही उसकी थाली में दो रोटियाँ और रख दीं, जैसे समझ गई हों कि आज का दिन उसके बेटे के जीवन में एक नई इबारत लिख गया है।
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संदिग्धों की गिरफ्तारी के अगले दिन पूरा ऑफिस रोहित की बहादुरी के किस्से से गूंज उठा। रिसेप्शन से लेकर चौथी मंज़िल तक, हर कोई “गार्ड साहब” को लेकर बातें कर रहा था—“उसने अकेले चोर को पकड़ लिया!”, “पुलिस आने तक छोड़ा तक नहीं!” रोहित, जो अब तक लोगों के लिए एक मौन और विनम्र गार्ड था, अब अचानक सबकी नजरों का केंद्र बन गया था। सुबह ऑफिस आते ही मैनेजर ने उसे अंदर बुलाया और कहा, “तुमने जो किया, वो बहादुरी है। तुमने न सिर्फ कंपनी का नुकसान रोका, बल्कि एक मिसाल कायम की।” फिर उन्होंने उसे एक ‘स्पेशल एप्रिसिएशन सर्टिफिकेट’ और ₹5000 का इनाम थमाया। यह पहली बार था जब रोहित के हाथ में कोई ऐसा प्रमाण था जो सिर्फ डिग्री नहीं, उसकी कर्मठता और ईमानदारी का प्रमाण था। लेकिन सबसे बड़ी बात यह थी कि अब लोग उसे ‘गार्ड’ नहीं, ‘रोहित जी’ कहकर संबोधित करने लगे थे।
हालांकि बाहरी तारीफों ने उसकी मेहनत का मूल्य चुकाया, लेकिन अंदर से रोहित ने खुद को उसी साधारण इंसान की तरह बनाए रखा। वह अब भी रोज़ समय से पहले आता, ड्यूटी से एक मिनट पहले भी नहीं हटता, और सहयोगियों के साथ नम्र व्यवहार करता। लेकिन उसकी नजरों में आत्मविश्वास का एक नया तेज था। अब वह खुद को नीचा नहीं समझता था—क्योंकि समाज ने जो पद के आधार पर जो सीमाएं बना रखी थीं, वह उसे अपने कर्म से तोड़ चुका था। एक दिन ऑफिस के एक सीनियर अधिकारी ने लंच के समय उसे अपने केबिन में बुलाया। रोहित थोड़ा सकुचाते हुए गया। अधिकारी बोले, “मैं तुम्हें पहली बार देख रहा हूं इतने आत्मविश्वास के साथ। बताओ, आगे क्या करना चाहते हो?” रोहित ने हल्की मुस्कान के साथ उत्तर दिया, “सर, मैं अफसर बनने का सपना लेकर आया था, लेकिन अब समझ गया हूं कि अफसर सोच में होता है, पद में नहीं। फिर भी, अगर आगे कुछ बेहतर करने का अवसर मिले, तो मैं तैयार हूं।”
यह सुनकर अधिकारी गंभीर हो गए। उन्होंने कुछ देर रोहित की प्रोफाइल देखी, फिर बोले, “तुम जैसे कर्मचारियों की हमें जरूरत है—जो जिम्मेदारी को समझें, डरें नहीं, और ईमानदारी से काम करें। हमारी कंपनी की सुरक्षा विभाग में सुपरवाइजर की पोस्ट खाली है। तुम्हें अपॉइंटमेंट लेटर जल्दी ही मिलेगा।” यह सुनकर रोहित कुछ पल तक चुप रह गया। उसके भीतर की सारी पीड़ा, संघर्ष, अपमान, मेहनत और इंतजार एक साथ उमड़ पड़े। वह कुछ कह नहीं पाया, बस आंखों में हल्की नमी लिए सिर झुका लिया। ऑफिस से निकलकर जब वह कंपनी परिसर के बाहर खड़ा हुआ, तो उस गेट की तरफ देखा जहां वह महीनों खड़ा रहा था—लोगों की निगाहें सहता, ताने सुनता, खुद को सिद्ध करता। आज वही गेट उसे नए जीवन के प्रवेश द्वार की तरह लग रहा था।
घर लौटने पर उसने सबसे पहले अपने पिता को वह नियुक्ति पत्र दिखाया। बूढ़े आंखों में चश्मा चढ़ाकर उन्होंने धीरे-धीरे अक्षर पढ़े और फिर रोहित के कंधे पर हाथ रखकर कहा, “तेरे जैसे बेटे के लिए हमें कोई चिंता नहीं। तुझ पर भरोसा था, और तुझे खुद पर भरोसा बना रहा, यही सबसे बड़ी जीत है।” मां ने पूजा की थाली से आरती उतारी, और बहन ने मोबाइल पर उसकी फोटो खींचकर लिखा—“मेरे भाई ने साबित कर दिया कि मेहनत का कोई काम छोटा नहीं होता।” उस रात पहली बार रोहित ने छत की ओर देखा और आसमान को जवाब दिया—“मेरे सपने पूरे नहीं हुए, मैंने उन्हें रास्ता दिखा दिया।”
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सुपरवाइज़र की नई पोस्ट मिलने के बाद रोहित की ज़िंदगी में बदलाव की रफ्तार तेज हो गई। अब वह न सिर्फ खुद की ड्यूटी देखता था, बल्कि चार अन्य गार्डों की टीम को भी निर्देश देता था। पहले जिनके साथ वह समान स्तर पर काम करता था, अब वही उससे सीनियर की तरह आदेश लेते थे। लेकिन रोहित का व्यवहार नहीं बदला—वह अब भी सबके साथ सहयोग करता, गार्डों के चाय-नाश्ते का ध्यान रखता, और ज़रूरत पड़ने पर उनके लिए शिफ्ट बदलने में भी संकोच नहीं करता। उसके काम का तरीका ऐसा था कि कोई भी उसे देखकर यह नहीं कह सकता था कि यह वही लड़का है जिसे कभी ‘सिर्फ गार्ड’ कहकर अनदेखा किया गया था। अब उसके पास कंपनी का एक छोटा सा केबिन था, जिसमें वह बैठकर ड्यूटी चार्ट बनाता, सुरक्षा रिपोर्ट लिखता और सिसिटिभि निगरानी का मासिक विश्लेषण तैयार करता। वह पद में जरूर बदला था, पर सोच में पहले से भी ज्यादा विनम्र और जिम्मेदार बन चुका था।
ऑफिस के सीनियर स्टाफ, जिनकी नजरें पहले केवल उनकी सीट तक सीमित रहती थीं, अब रोहित के काम पर गौर करने लगे थे। कुछ अधिकारी उससे सलाह लेने लगे कि सुरक्षा व्यवस्था को और कैसे बेहतर बनाया जा सकता है। एक बार कंपनी में एक विदेशी डेलीगेशन आने वाला था, और सुरक्षा इंतजाम को लेकर एक बड़ी मीटिंग हुई। उसमें रोहित को भी आमंत्रित किया गया। सबके सामने उसने स्पष्ट और व्यावहारिक सुझाव दिए—जैसे चेकपोस्ट की संख्या बढ़ाना, वाहन पास सिस्टम लागू करना, और इमरजेंसी रिस्पांस टीम तैयार करना। डायरेक्टर ने उसकी बातें ध्यान से सुनीं और कहा, “आपके सुझाव में व्यावहारिकता है और अनुभव की झलक भी।” यह वाक्य किसी पदोन्नति से कम नहीं था। यह सम्मान सिर्फ जिम्मेदारी के बदले नहीं, बल्कि उस भरोसे का था जो उसने अपने काम से अर्जित किया था।
जैसे-जैसे रोहित की पहचान एक मेहनती और ईमानदार अफसर के रूप में बढ़ने लगी, वैसे-वैसे समाज की धारणा भी बदलने लगी। मोहल्ले के वही लोग जो कभी ताने मारते थे, अब नम्रता से अभिवादन करते थे। पड़ोस की आंटी, जिन्होंने पहले अपनी बेटी को रोहित से दूर रहने की सलाह दी थी, अब बेटे से कहती थीं, “रोहित भैया जैसे बनो—संघर्षशील और सज्जन।” उसके पुराने दोस्त, जिनके लिए कभी वह मज़ाक था, अब मिलने पर कंधे पर हाथ रखकर कहते, “भाई, तुझसे बहुत कुछ सीखने को मिला।” लेकिन सबसे सुखद पल वह था जब उसकी छोटी बहन कॉलेज में ‘प्रेरणादायक व्यक्तित्व’ पर निबंध लिखते समय अपने भाई रोहित का ज़िक्र करती है। उसका चेहरा चमक उठा था, और उसकी आंखों में वो चमक थी जो सिर्फ आत्मसम्मान और स्वीकार्यता से आती है।
एक दिन कंपनी के चेयरमैन ने रोहित को मुख्य ऑफिस बुलवाया। वहाँ बैठकों में उच्च अधिकारी, विभाग प्रमुख और पुराने अनुभवी अफसर मौजूद थे। चेयरमैन ने रोहित की ओर इशारा कर कहा, “यह व्यक्ति हमारे संस्थान की असली ताकत है—पद से नहीं, काम से बड़ा। हमें गर्व है कि हमारे पास रोहित जैसे कर्मचारी हैं, जिन्होंने यह सिखाया कि जिम्मेदारी निभाने के लिए सिर्फ कुर्सी नहीं, नीयत चाहिए।” वह क्षण जैसे समय के कैनवास पर चित्रित हो गया। रोहित खड़ा रहा, मुस्कराता रहा, और भीतर-ही-भीतर अपने जीवन की उस पहली सुबह को याद करता रहा—जब उसने पहली बार वर्दी पहनकर निकला था और कुछ लोगों की हँसी, कुछ की घृणा, कुछ की उपेक्षा उसके पीछे पड़ी थी।
अब वह खुद को किसी पद, वेतन या सम्मान से नहीं मापता था। वह जान चुका था कि सबसे बड़ा सम्मान वही है, जो अपने आत्मविश्वास और ईमानदारी से अर्जित किया जाता है—जो किसी प्रमाण पत्र या पदवी का मोहताज नहीं होता। और यही सोच उसे हर दिन, हर काम और हर कठिनाई में नयी ऊर्जा देती थी—जैसे कोई अदृश्य दीपक उसके भीतर निरंतर जलता रहता हो, यह कहता हुआ: “तू सही राह पर है, क्योंकि तू अपने कर्म को पूजा की तरह निभाता है।”
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सुपरवाइज़र पद की ज़िम्मेदारी मिलते ही रोहित की भूमिका में एक नई गंभीरता आ गई थी। अब वह सिर्फ सुरक्षा गार्ड नहीं था, बल्कि कंपनी की सम्पूर्ण सुरक्षा व्यवस्था का व्यवस्थापक था। पहले जहाँ वह केवल एक एंट्री रजिस्टर संभालता था, अब वह पूरे परिसर की सुरक्षा रणनीतियाँ तय करता था, सिसिटिभि रिपोर्ट तैयार करता, और नाइट शिफ्ट गार्डों की रिपोर्ट की समीक्षा करता था। यूनिफॉर्म अब भी वही थी, पर उसमें अब अधिकार का एक आभा जुड़ गया था। नई कुर्सी, नया टेबल, और नामपट्ट के साथ ‘Security Supervisor – Rohit Sharma’ देखकर उसका मन कई बार पीछे लौट जाता—जब लोग उसे केवल एक वर्दीधारी चौकीदार के रूप में देखते थे। लेकिन अब स्थिति बदल चुकी थी। अब लोग उसे देखकर मुस्कुराते थे, “गुड मॉर्निंग सर!” कहते थे, और कई तो उससे सुझाव भी लेते थे—सिर्फ सुरक्षा संबंधी नहीं, बल्कि जीवन के अनुभवों को लेकर भी। उसकी साधारण वाणी में अनुभव की गहराई और सोच की सच्चाई झलकती थी, जो हर सुनने वाले को छू जाती थी।
मोहल्ले में भी अब रोहित की पहचान बदल चुकी थी। जो चेहरे पहले तिरस्कार से उसकी ओर देखते थे, वही अब विनम्रता से नमस्ते करते। एक दिन मोहल्ले के युवक उसके पास आए और बोले, “भैया, हमारे कॉलेज में कैरियर गाइडेंस सेशन है। आप आएंगे और बताएंगे कि कैसे आपने इतना कुछ पाया?” यह सुनकर रोहित कुछ देर तक मौन रह गया। क्या वह जो कर रहा है, वह किसी के लिए प्रेरणा बन सकता है? लेकिन फिर उसने मुस्कुरा कर हाँ कहा। कॉलेज के सेमिनार हॉल में जब उसने मंच पर खड़े होकर कहा, “मैंने कभी अफसर बनने का सपना देखा था, लेकिन अब मुझे समझ आया कि अफसर पद से नहीं, सोच से बनता है,” तो पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा। उस दिन पहली बार वह मंच पर था, जहाँ लोग उसके विचार सुनना चाहते थे। यह वही रोहित था जिसे कभी एक छोटा सा गार्ड समझकर लोग दरकिनार कर देते थे, और आज वही आवाज़ लोगों के दिलों तक पहुंच रही थी।
ऑफिस में उसके प्रति सीनियर मैनेजमेंट का रवैया भी पूरी तरह बदल गया था। कुछ माह बाद जब कंपनी का वार्षिक मूल्यांकन हुआ, तो सुरक्षा विभाग को ‘सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन’ का दर्जा मिला। रिपोर्ट में साफ़ लिखा था: “श्री रोहित शर्मा के नेतृत्व में सुरक्षा विभाग ने अनुशासन, सतर्कता और टीम भावना का श्रेष्ठतम उदाहरण प्रस्तुत किया है।” यह रिपोर्ट कंपनी न्यूज़लेटर में प्रकाशित हुई और डायरेक्टर ने खुद आकर कहा, “आपने साबित किया कि असली लीडर वो नहीं होता जो आदेश देता है, बल्कि वो जो खुद उदाहरण बनता है।” यह सम्मान किसी अवार्ड या मेडल से कहीं बड़ा था। अब रोहित केवल गार्डों का सुपरवाइज़र नहीं था—वह कंपनी की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा बन चुका था, एक ऐसा नाम जो संघर्ष, धैर्य और कर्म की मिसाल था। और वह जानता था, यह सब उसे किसी ने नहीं दिया—यह उसकी मेहनत और ईमानदारी की कमाई थी।
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अब रोहित की पहचान उसके काम, सोच और आचरण से थी—not just a security supervisor, बल्कि एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जिसे देखकर लोग समझते थे कि “काम कोई भी छोटा नहीं होता, अगर उसे ईमानदारी से किया जाए।” उसके ऑफिस में नई भर्तियों की ट्रेनिंग में अब उसका नाम उदाहरण के रूप में लिया जाता। वह स्वयं नए गार्डों को ट्रेन करता, उन्हें ड्यूटी की बारीकियाँ सिखाता और साथ ही जीवन का सबसे जरूरी पाठ पढ़ाता—”आदमी का मूल्य उसके काम से नहीं, उसकी नीयत और मेहनत से तय होता है।” एक बार एक नया गार्ड, जिसका चेहरा उदास था, बोला, “सर, मेरा सपना बैंक में नौकरी का था, लेकिन अब ये गार्ड की पोस्ट मिली है।” रोहित ने उसकी ओर देखकर कहा, “सपनों की ऊंचाई तब पूरी होती है जब आप जमीन से शुरू करने से न डरें।” और उस गार्ड की आंखों में जो चमक आई, वही रोहित के सबसे बड़े सम्मान का प्रतीक थी।
एक साल बीतते-बीतते, कंपनी ने सुरक्षा विभाग के वार्षिक समीक्षा सत्र में रोहित को ‘Employee of the Year’ के पुरस्कार से नवाज़ा। सभागार में जब उसे मंच पर बुलाया गया, तो सभी तालियों से उसका स्वागत कर रहे थे—सिर्फ एक सुपरवाइज़र के रूप में नहीं, बल्कि एक प्रेरणा के रूप में। डायरेक्टर ने हाथ में माइक लिया और कहा, “इस शख्स ने हमें ये सिखाया कि वर्दी पहनने वाला हर व्यक्ति अफसर ही होता है, फर्क सिर्फ इतना है कि कोई पद से, कोई अपने आत्मसम्मान से।” यह सुनकर रोहित की आंखें भर आईं। उसने मंच पर खड़े होकर कहा, “जब मैंने पहली बार गार्ड की ड्यूटी शुरू की थी, तब बहुतों ने ताना मारा था। लेकिन आज मैं कह सकता हूँ कि अगर मैंने वो ताने सहकर हार मान ली होती, तो आज आप सबके सामने खड़ा न होता।” पूरा सभागार खड़ा हो गया और तालियों की गूंज में रोहित का चेहरा आत्मगौरव से दमक उठा।
घर लौटकर जब वह मां के हाथ की बनी खिचड़ी खा रहा था, बहन ने उसके सामने अखबार रखा—जिसमें हेडलाइन थी:
“एक गार्ड से अफसर तक—रोहित शर्मा की प्रेरक यात्रा”
उसके पिता ने मुस्कराकर अखबार के पन्ने को सहलाया और धीमे से कहा, “बेटा, अब तेरा हर दिन मेरा गर्व बन गया है।” रोहित ने अखबार बंद किया, और आकाश की ओर देखा—मन ही मन किसी अदृश्य शक्ति को धन्यवाद देते हुए। अब वह जान चुका था कि सम्मान पद से नहीं, मेहनत से मिलता है। इस यात्रा ने उसे सिखा दिया था कि छोटे काम करने वाला व्यक्ति छोटा नहीं होता—छोटा वह होता है जो मेहनत से भागता है, और बड़ा वह जो हर काम को पूरी निष्ठा से करता है।
सीख: मेहनत का कोई काम छोटा नहीं होता, और कोई भी सपना तब तक असंभव नहीं जब तक आप हार न मानें।
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