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कागज़ की नाव

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राजेश मिश्रा


पहली बारिश

सिवानपुर एक छोटा-सा गाँव था, जहाँ हर मौसम अपने पूरे रंग लेकर आता था। लेकिन सबसे प्यारा मौसम होता था — बारिश का। बारिश का पहला दिन जैसे किसी त्यौहार से कम नहीं होता था। मिट्टी की खुशबू हवा में तैरने लगती, आम के पेड़ों पर पत्तियाँ नाच उठतीं, और बच्चों के पैरों में जैसे पर लग जाते।

सात साल का बिट्टू, जो अपनी लाल फटी-पुरानी कमीज़ में बिल्कुल गुलमोहर के फूल जैसा लगता था, उस दिन सुबह से ही आसमान को ताक रहा था। बादल गरजते रहे, और जैसे ही पहली बूँद ज़मीन पर गिरी, बिट्टू दौड़ पड़ा।

“अम्मा!” वह चिल्लाया, “बारिश आ गई! कागज़ की नाव बना दूँ?”

अम्मा उस समय रसोई में थी, लकड़ी की आँच पर दाल चढ़ी थी, और सरसों का तड़का पूरे घर में खुशबू फैला रहा था। वह मुस्कराकर बोली, “बना ले, पर ज्यादा देर भीग मत जाना, और कीचड़ में गिरा तो देख लेना।”

बिट्टू पहले बरामदे की टूटी अलमारी से अपनी पुरानी हिंदी की कॉपी निकाली। उसके पन्ने पहले ही पीले हो चुके थे, लेकिन बिट्टू के लिए वो किसी खज़ाने से कम नहीं थे। उसने एक पन्ना फाड़ा और उँगलियों से चतुराई से मोड़ते हुए एक नाव बनाई। फिर एक और। और फिर दौड़ता हुआ बाहर चला गया।

गली के मोड़ पर जहाँ पानी बहता था, वहाँ उसने अपनी नाव छोड़ दी। नाव धीरे-धीरे पानी की धार में बहने लगी। बिट्टू तालियाँ बजा-बजाकर हँसने लगा।

“छप-छप-छप…” पानी में आवाज़ें उठतीं, और बिट्टू उन्हें सुनते हुए जैसे किसी जादुई दुनिया में पहुँच गया।

तभी एक धीमी सी आवाज़ आई, “अरे, मेरी भी एक नाव बनाओगे?”

बिट्टू चौंक गया। उसने पीछे मुड़कर देखा। एक लड़की खड़ी थी — पीली फ्रॉक में, गीले बाल माथे पर चिपके हुए, और हाथ में एक चप्पल जो शायद बारिश में टूट गई थी। उसके चेहरे पर हिचक भी थी, और उत्सुकता भी।

“तुम कौन हो?” बिट्टू ने पूछा।

“मैं बिंदिया। हम लोग अभी आए हैं गाँव में। बाबा ने यहाँ एक खेत लिया है,” उसने धीरे से कहा।

बिट्टू उसे देखता रहा कुछ पल। फिर अपनी कॉपी से एक और पन्ना फाड़ा, और बिंदिया के लिए भी एक नाव बना दी।

“ये लो। तुम्हारी नाव। अब हम दोनों दौड़ाएँगे,” उसने मुस्कराकर कहा।

बिंदिया की आँखों में चमक आ गई। वह अपने टूटी चप्पल को किनारे रखकर बिट्टू के पास आ गई। दोनों ने अपनी-अपनी नाव पानी में छोड़ी। नावें एक साथ आगे बढ़ीं, टकराईं, फिर अलग हो गईं।

बारिश और तेज़ हो गई थी। गाँव की गलियाँ गीली थीं, लेकिन बिट्टू और बिंदिया के मन जैसे सूखे हुए कागज़ की जगह अब पानी में बहते जा रहे थे।

शुरुआत हो चुकी थी — बारिश की, दोस्ती की, और एक कहानी की जो अभी बाकी थी।

धारा में बहते सपने

बिट्टू और बिंदिया की नावें अब रोज़ मिलती थीं, ठीक उस जगह पर जहाँ गाँव की गलियों से पानी बहकर छोटी-सी धारा बनाता था। वे दोनों सुबह की पहली बारिश का इंतज़ार करते, स्कूल से भागते-भागते आते, और कभी-कभी तो खाना भी भूल जाते — बस नाव तैरानी है, यही सबसे ज़रूरी बात थी।

“तेरी नाव हर बार आगे क्यों निकल जाती है?” बिंदिया ने एक दिन नाक सिकोड़ते हुए पूछा।

“क्योंकि मैं उसे बातों से समझाता हूँ,” बिट्टू ने गर्व से कहा, “देख, जैसे तू बकरी को समझा सकती है, वैसे ही मैं अपनी नाव को समझाता हूँ।”

बिंदिया हँस पड़ी। “झूठे कहीं के! मैं तो बकरी से भी डरती हूँ।”

फिर वे दोनों हँसते-हँसते पानी के छींटे एक-दूसरे पर फेंकने लगे।

बिंदिया के घर में हालात थोड़े अलग थे। उसका पिता, गणेश यादव, रोज़ खेतों में मज़दूरी करता था। माँ बीमार रहती थी। और बिंदिया, आठ साल की होते हुए भी घर के सारे कामों में हाथ बँटाती थी — पानी भरना, लकड़ियाँ चुनना, माँ के लिए चावल पकाना। लेकिन जब भी नाव की बात आती, वह सब कुछ भूल जाती।

“तेरे घरवाले नहीं डाँटते?” बिट्टू ने एक दिन पूछा।

“डाँटते हैं,” बिंदिया बोली, “पर जब मैं कहती हूँ कि बिट्टू ने बुलाया था, तो अम्मा चुप हो जाती हैं।”

“अरे वाह! तो मैं तेरी ढाल हूँ!” बिट्टू ने छाती फुलाकर कहा।

एक दिन दोनों ने सोचा कि नावों की रेस होगी — जिसकी नाव सबसे दूर तक जाएगी, वो विजेता।

बिट्टू ने अपनी नाव के पीछे एक छोटा-सा पंख जोड़ दिया, और बिंदिया ने फूल की पंखुड़ी अपनी नाव पर चिपका दी।

“नाम क्या है तेरी नाव का?” बिट्टू ने पूछा।

“सपना,” बिंदिया बोली।

“क्यों?”

“क्योंकि मैं चाहती हूँ कि सपना बहता रहे, डूबे नहीं।”

बिट्टू थोड़ी देर चुप रहा। फिर बोला, “मेरी नाव का नाम है ‘उड़ान’।”

फिर दोनों ने एक साथ कहा, “चलो, छोड़ते हैं!”

नावें पानी में उतरीं। धारा तेज़ थी। हवा में बरसात की महक घुली हुई थी। और बच्चों की आँखों में सपने, उम्मीदें, और थोड़ी सी जिद भी।

बिंदिया की ‘सपना’ थोड़ी हिचकी, फिर धारा में बह चली। बिट्टू की ‘उड़ान’ सीधी निकली, फिर एक मोड़ पर जाकर अटक गई।

“मेरी सपना जीत गई!” बिंदिया चिल्लाई।

“नाव जीत गई, पर दोस्ती हार गई!” बिट्टू ने नकली उदासी दिखाते हुए कहा।

बिंदिया हँसी, “चल झूठे! कल फिर से रेस होगी।”

धीरे-धीरे बारिश का मौसम और भी भीगता चला गया। खेतों में हरियाली आ गई, गाँव की गलियाँ भरी रहने लगीं, और उन दोनों की नावें रोज़ नयी दिशा में बहती रहीं।

लेकिन एक दिन, जैसे मौसम बदलता है, ज़िंदगी ने भी करवट ली।

टूटी नाव, भीगा दिल

उस दिन सुबह से ही आसमान पर बादलों की बैठक लगी थी — गहरे, भारी, और थोड़े गुस्सैल। बिजली एक बार नहीं, बार-बार चमक रही थी। बिट्टू खिड़की से झाँकते हुए बोला, “आज तो मस्त बारिश होगी।”

पर अम्मा ने रोक दिया, “आज बाहर मत जाना। बिजली बहुत तेज़ है, और नाले का पानी भी बढ़ गया है।”

बिट्टू का मन बुझ-सा गया। उसने चुपचाप अपनी कॉपी उठाई, एक पन्ना फाड़ा और कमरे में ही नाव बनाने लगा। पर बिना बिंदिया के, खेल अधूरा लगता था।

उधर, बिंदिया ने भी बिना किसी को बताए चुपचाप अपनी ‘सपना’ नाव को जेब में रखा और घर से निकल गई। उसे पता था कि बिट्टू आज नहीं आएगा, पर फिर भी दिल ने कहा — “आज उसकी ‘उड़ान’ के बग़ैर भी, मेरी ‘सपना’ को बहना है।”

नदी के पास पानी अब धारा नहीं, तूफ़ान बन चुका था। बिंदिया ने जूते हाथ में लिए, और कीचड़ से भरे रास्ते पर चलते हुए उस जगह पहुँची जहाँ वे रोज़ नावें छोड़ते थे।

उसने काँपते हाथों से अपनी नाव निकाली। बारिश ने पन्ना गीला कर दिया था, पर नाव अब भी नाव थी — और उसका सपना भी।

“जा… बह जा…” उसने धीरे से कहा।

जैसे ही उसने नाव को पानी में रखा, एक ज़ोरदार बिजली चमकी। डर से बिंदिया पीछे हट गई, उसका पाँव फिसला, और वह कीचड़ में गिर गई। उसके कपड़े गीले और मैले हो गए, पर वो उठी और मुस्कराकर देखा — उसकी ‘सपना’ नाव बह रही थी।

पर तभी, एक तेज़ लहर आई और नाव को खींचकर पत्थरों से टकरा दिया। नाव चकनाचूर हो गई।

बिंदिया की आँखों में आँसू आ गए। बारिश और आँसू अब अलग-अलग नहीं रहे।

वो दौड़ती हुई घर पहुँची। माँ ने डाँटा नहीं, बस भीगती बेटी को चुपचाप अपनी गोद में खींच लिया।

अगले दिन स्कूल में बिट्टू ने पूछा, “तू आई थी कल?”

बिंदिया ने हाँ में सिर हिलाया।

“और नाव?”

“डूब गई…” वह बुदबुदाई।

बिट्टू कुछ देर चुप रहा, फिर अपनी कॉपी से एक पन्ना फाड़ा। बड़ी सफाई से नाव बनाई। फिर जेब से रंगीन कागज़ निकाला, और उस पर लिखा — “सपना २”।

“ये तेरे लिए। ये डूबेगी नहीं। हम मिलकर इसे रोज़ बहाएँगे।” उसने कहा।

बिंदिया की आँखों में नमी थी, पर अब वो आँसू नहीं थे — वो एक नए सपने की चमक थी।

बारिश थम रही थी। पर दो दिलों में नावें अब भी बह रही थीं।

  1. धूप की नाव

बरसात थम गई थी। गाँव की गलियों में अब धूप उतर आई थी — पीली, चमकती, और गर्माहट से भरी। खेतों में मिट्टी की महक अब धूप में पक रही थी, और हर गड्ढे में जो कल तक पानी से भरा था, अब बस थोड़ी सी नमी थी।

बिट्टू और बिंदिया दोनों को यह बदलाव अजीब-सा लगा। जैसे कोई प्रिय मेहमान अचानक विदा हो गया हो। अब न तो बारिश की चुप्पी थी, न धारा की सरसराहट। पर मन में नावें अब भी बह रही थीं।

“अब तो पानी ही नहीं बचा,” बिट्टू बोला, एक दोपहर जब वे पेड़ की छाया में बैठे थे।

“तो क्या हुआ? हम नावें उड़ाएँगे!” बिंदिया ने मुस्कराते हुए कहा।

“हवा में?”

“हाँ! तू उड़ान की बात करता है न हमेशा? अब देख, सपना उड़ेगा भी!”

बिट्टू थोड़ी देर चुप रहा, फिर बोला, “ठीक है। कल रंगीन कागज़ लाऊँगा। और हम हवा की रेस लगाएँगे।”

अगले दिन वे दोनों रंग-बिरंगे कागज़ों से नावें बनाए, पतली लकड़ियों की मदद से उनके नीचे पंख जोड़ दिए — जैसे पतंग के हों। और जब दोपहर की हवा थोड़ी तेज़ चली, उन्होंने नावें छोड़ दीं।

नावें अब पानी में नहीं, हवा में बह रही थीं। कभी एक नाव ज़्यादा ऊँचाई लेती, तो कभी दूसरी।

गाँव के बच्चे पास आकर चकित होकर देखने लगे। “ये क्या है?” उन्होंने पूछा।

“हवा की नाव,” बिंदिया बोली, आँखों में चमक लेकर।

धीरे-धीरे यह खेल गाँव में फैल गया। बच्चे अब बारिश के इंतज़ार के बगैर भी नाव बनाते, रंग भरते, और उन्हें उड़ाते।

बिट्टू और बिंदिया अब केवल दोस्त नहीं थे, वे उस खेल के जनक बन गए थे जो बारिश के बाद भी चलता रहा।

एक दिन स्कूल में मास्टरजी ने पूछा, “तुम लोग दोपहर में कहाँ रहते हो?”

“नाव उड़ाते हैं,” बिट्टू बोला।

“कहाँ?”

“जहाँ पहले पानी था, अब वहाँ हवा है।”

मास्टरजी हँस पड़े। फिर बोले, “अच्छा, कल तुम दोनों अपनी नावें लेकर आना। स्कूल के बच्चों को सिखाओ।”

अगले दिन स्कूल के मैदान में, बिट्टू और बिंदिया ने सबको अपनी तरह से नाव बनाना सिखाया — सपनों को उड़ाना सिखाया।

बिंदिया ने आख़िर में कहा, “बारिश हो या न हो, सपना डूबना नहीं चाहिए।”

बिट्टू ने जोड़ा, “और उड़ान कभी थमनी नहीं चाहिए।”

सूरज ढल रहा था। धूप अब सोने-सी हो गई थी। बच्चों की नावें हवा में तैर रही थीं — जैसे किसी नई दुनिया की ओर उड़ रही हों।

बिंदिया और बिट्टू ने एक-दूसरे की ओर देखा, मुस्कराए। और फिर एक साथ, अपनी आख़िरी नावें हवा में छोड़ीं।

इस बार नावों के नाम कुछ नहीं थे। वे अब केवल सपने थे।

– समाप्त –

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