Hindi - प्रेम कहानियाँ

कांच सा दिल

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कविता राठौर


दिल्ली विश्वविद्यालय की उस पुरानी लाइब्रेरी में जैसे समय ठहर गया था। दीवारों पर किताबों की महक और खिड़की से आती धूप की एक पतली परत उन पन्नों पर गिरती, जिनमें जाने कितनी कहानियाँ कैद थीं। आरव वहाँ रोज़ आता था—शायद किताबों से ज़्यादा खामोशी से मिलने। लेकिन उस दिन सब कुछ बदल गया। वो एक मेज़ के कोने पर बैठी थी, सफेद सूती सलवार-कुर्ते में, उसके बालों की लटें माथे पर बार-बार गिरतीं और वो बिना परवाह किए बस पढ़ती जाती। उसके सामने खुली थी साहिर लुधियानवी की शायरी”, और उसकी आँखों में जैसे हर शब्द समा रहा था। आरव वहीं ठिठक गया। शायद उस पल को समझने के लिए कोई शायरी भी कम पड़ती। उसने धीरे से आगे बढ़कर कहा, “माफ़ कीजिए… क्या ये किताब आप ले जाएंगी?” उसने चेहरा उठाया, एक पल को उसकी निगाहें आरव की आँखों में अटक गईं। फिर एक हल्की मुस्कान आई, “आपको भी साहिर पसंद हैं?” आरव मुस्कुराया, “पसंद से ज़्यादा… वो जैसे दिल के नक़्शे हैं मेरे।” उसने किताब की ओर इशारा करते हुए कहा, “लीजिए, आप पढ़ लीजिए। वैसे भी साहिर को कोई पढ़ ले, इतना ही काफ़ी है।” उसने किताब बढ़ा दी, लेकिन नज़रों का वो सिलसिला यहीं खत्म नहीं हुआ। “मैं अनन्या,” उसने कहा। “आरव,” उसने हाथ आगे बढ़ाया, और पहली बार किसी लाइब्रेरी में दो नामों के बीच एक कहानी जन्म ले रही थी।

उस दिन के बाद लाइब्रेरी बस किताबों की जगह नहीं रही। अनन्या और आरव की मुलाकातें अब तय होने लगीं—कभी हिंदी अनुभाग में, कभी पुरानी पत्रिकाओं की अलमारियों के पास। दोनों की रुचियाँ मिलती-जुलती थीं—शायरी, पुरानी फिल्में, उदासी से भरे गीत और लंबी खामोशियाँ। अनन्या को जब कोई बात नहीं कहनी होती, तो वो खिड़की के पास बैठ जाती और बाहर देखते हुए कहती, “बोलने से बेहतर है कभी-कभी बस देखना।” आरव चुपचाप बगल में बैठ जाता, जैसे उस चुप्पी में भी कुछ सुन रहा हो।

एक दिन जब बारिश हो रही थी, और लाइब्रेरी के बाहर पीपल का पेड़ बूँदों से भीग रहा था, अनन्या ने कहा, “पता है, जब बारिश होती है, मुझे अपनी नानी की रसोई याद आती है। खिड़की के पास बैठकर मैं चाय और गरम परांठे खाया करती थी।” आरव ने उसकी ओर देखा, “और अब?” “अब बस चाय है, और कुछ यादें,” उसने मुस्कुरा कर कहा, लेकिन मुस्कुराहट में एक भीगा सा कोना था। आरव ने उस पल को संभाल लिया। “तो आज मेरे साथ एक चाय और कुछ नई यादें?” उसने पूछा। अनन्या ने हामी भर दी।

कॉलेज के सामने वाले छोटे से टी स्टॉल पर वो पहली बार लाइब्रेरी के बाहर मिले। बारिश की हल्की फुहारें अब भी चल रही थीं और छत पर टपकती बूँदों के नीचे दोनों एक छतरी के तले खड़े थे। चायवाले ने कुल्हड़ थमाया और आरव ने कहा, “कभी-कभी लगता है कि ये छोटी-छोटी चीज़ें ही सबसे गहरी यादें बन जाती हैं।” अनन्या ने चाय का एक घूँट लेते हुए कहा, “कभी-कभी नहीं… ज़्यादातर।”

वो रिश्ता जो किताबों से शुरू हुआ था, अब दिल की तहों तक उतर चुका था। वो एक-दूसरे को बिना कहे समझने लगे थे। आरव को अनन्या की आँखों का रंग याद हो गया था—हल्का भूरा, जैसे मिट्टी की खुशबू लिए हुए। अनन्या जान गई थी कि जब आरव अपनी बाँहें मोड़ कर माथे पर हाथ रखता है, तो वो किसी उलझन में होता है। उनका रिश्ता परिभाषाओं से परे था—ना इज़हार, ना वादा, फिर भी रोज़ साथ चलने की चाह।

एक शाम जब सूरज ढल रहा था और लाइब्रेरी बंद होने को थी, आरव ने कहा, “अगर तुम एक किताब होती, तो कौन सी होती?” अनन्या ने हँसते हुए कहा, “शायद रज़िया की डायरी’, जिसमें हर पन्ना अधूरा होता, पर फिर भी दिलचस्प।” आरव ने उसकी ओर देखा, “मैं तुम्हें पूरा पढ़ना चाहता हूँ।” ये वो वाक्य था, जिसे सुनकर अनन्या कुछ पल के लिए चुप रह गई। फिर धीरे से कहा, “और अगर मैं काँच सी निकली…?” “तो मैं खुद को शीशा बना लूंगा, ताकि तुम्हें टूटने से पहले समझ सकूं।”

उस दिन के बाद, वो मुलाकातें और भी गहराने लगीं। अनन्या के शब्द अब कम और आँखें ज्यादा बोलती थीं। आरव ने पहली बार जाना कि चुप्पियों में भी प्रेम होता है, और प्रेम में धैर्य। लेकिन जैसे हर कहानी के बीच एक मोड़ आता है, इस कहानी ने भी करवट लेने की तैयारी कर ली थी—एक मोड़, जहाँ दिल की धड़कनों की जगह समय की घड़ियाँ बोलने लगती हैं।

अनन्या पिछले कुछ दिनों से लाइब्रेरी नहीं आई थी। आरव हर रोज़ वही मेज़ देखता, वही खिड़की के पास की कुर्सी, वही पुरानी किताब जिसमें अनन्या ने एक बार गुलाब की सूखी पंखुड़ी रख दी थी, यह कहते हुए, “कभी-कभी शब्दों से ज़्यादा एक पंखुड़ी बोल जाती है।” पर अब सब चुप था। न उसका हँसता चेहरा, न वो आँखें जो बिना बोले हर बात कह देती थीं। आरव बेचैन था। न फोन नंबर था, न कोई सोशल मीडिया प्रोफाइल। बस कुछ मुलाकातें, और वो किताब जिसमें अनन्या की खुशबू अब भी बसी थी। उसने लाइब्रेरी के रिकॉर्ड खंगाले — पता चला कि अनन्या अंग्रेज़ी साहित्य की छात्रा है, सेकंड ईयर की, पर कोई और जानकारी नहीं मिली। एक दिन उसने हिम्मत करके इंग्लिश डिपार्टमेंट की नोटिस बोर्ड पर एक छोटा सा नोट चुपचाप चिपका दिया — “साहिर की किताब लौटानी है, अगर आप पढ़ चुकी हों तो। – आरव।” उसे उम्मीद कम थी, पर कुछ कहना जरूरी था।

दो दिन बाद, लाइब्रेरी के बाहर एक लिफाफा पड़ा था। अंदर वही किताब थी — साहिर लुधियानवी की शायरी, और बीच में एक सफेद कागज़। उस पर बस एक पंक्ति लिखी थी, “कुछ बातें लौटती नहीं, बस किताबें लौटाई जाती हैं। – अनन्या” आरव ने वो लाइन बार-बार पढ़ी। शब्दों में एक दूरी थी, पर कहीं कोई दर्द भी छुपा था। अब उसे यकीन था — कुछ हुआ है।

उसी दिन शाम को जब वो अपने हॉस्टल के कमरे में था, तभी उसका दोस्त नीरज आया। “तेरे बारे में कुछ सुन रहा था। इंग्लिश डिपार्टमेंट की एक लड़की… अनन्या… शायद उसे घर जाना पड़ा।” आरव चौक गया, “क्यों?” “उसकी माँ की तबीयत बहुत खराब है। कैंसर है शायद। उसने कॉलेज छोड़ दिया।” आरव को लगा जैसे किसी ने उसके सीने पर भारी पत्थर रख दिया हो। इतने दिनों की चुप्पी का जवाब मिल गया था — और वो जवाब शब्दों से नहीं, तकलीफ़ से आया था।

उस रात आरव ने अनन्या के लिए एक चिट्ठी लिखी — जिसमें न शायरी थी, न कला, बस एक सच्चा साथ। “अगर कभी तुम्हें एक दोस्त की ज़रूरत हो, जो सिर्फ सुन सके, तो मैं हूँ। चाय, किताब और खामोशी — सब वहीं रखे हैं, जहाँ तुमने छोड़ा था।” उसने वो चिट्ठी पुराने टी स्टॉल वाले को दे दी, “अगर वो कभी वापस आए तो दे देना।”

महीनों बीत गए। कॉलेज में परीक्षाएँ आईं और चली गईं। गर्मी की छुट्टियों में आरव अपने घर गया, पर कहीं न कहीं एक कोना अधूरा था — जिसे अनन्या की हँसी भरती थी। फिर जुलाई की शुरुआत में जब मॉनसून लौटा, एक सुबह लाइब्रेरी की वही खिड़की फिर से भीगी हुई थी। और उसी कुर्सी पर, एक लड़की बैठी थी — वही सफेद सूती कुर्ता, वही आँखें। अनन्या लौट आई थी।

आरव को देखकर वो मुस्कुराई नहीं। बस देखा — गहराई से, लंबी साँस लेते हुए। आरव वहीं रुक गया। नज़दीक गया, बग़ैर कुछ कहे पास बैठ गया। दोनों कुछ मिनटों तक बस बारिश देखते रहे। फिर अनन्या ने धीरे से कहा, “वो पंखुड़ी अब भी किताब में है?” आरव ने जवाब दिया, “हाँ, और उस पर आज भी तुम्हारी खुशबू है।” उसने उसकी ओर देखा, पहली बार कुछ नमी उसके अपने गालों पर भी थी। “माँ अब नहीं रहीं,” उसने कहा। “पर आख़िरी दिनों में वो बस यही चाहती थीं कि मैं अपनी ज़िंदगी पूरी जिऊँ, अधूरी नहीं।”

आरव ने उसका हाथ थामा। “तुम अधूरी नहीं हो अनन्या, बस रुकी हुई थी। चलो, अब फिर से शुरुआत करते हैं… जहाँ कहानी थमी थी वहीं से नहीं… जहाँ से तुम चाहो वहाँ से।” अनन्या ने उसका हाथ नहीं छोड़ा। दोनों उठे और लाइब्रेरी के बाहर चलने लगे — उस भीगी हुई सड़क पर, जैसे हर बूँद एक नई पंक्ति लिख रही थी।

कॉलेज में अब दोनों को लोग साथ देख कर मुस्कुराने लगे थे। क्लास के बाद वो कैंटीन में घंटों बैठते, कविताओं पर बहस करते, पर अब रिश्ते में शायरी से ज़्यादा सच्चाई थी। आरव ने एक दिन उसे अपने स्केच दिखाए — जिनमें एक लड़की बार-बार उभरती थी, सफेद कुर्ते में, बारिश में खड़ी। “तुम हर जगह हो,” उसने कहा। अनन्या मुस्कुरा दी, “और तुम… मेरी हर चुप्पी में।”

लेकिन हर प्रेम कहानी सिर्फ खूबसूरत पलों की नहीं होती। अगले हफ्ते अनन्या के पिता ने उसे बुलाया — शादी की बात पक्की हो गई थी, बचपन के रिश्ते से। अनन्या हँसी, जैसे कोई मज़ाक हो। “मैं किसी और से शादी कर लूं, ये तो खुद से धोखा होगा।” पिता ने जवाब दिया, “प्यार से पेट नहीं भरता, ज़िम्मेदारियाँ निभानी होती हैं।”

वो एक ऐसी रात थी जब अनन्या ने खुद से भी सवाल किया — क्या वो अपनी माँ के कहे मुताबिक जी रही है, या फिर बस सामाजिक ढांचे में उलझ रही है? और वहीं, दूसरी तरफ आरव भी बेचैन था। उसे उस रिश्ते की परछाइयाँ दिखने लगी थीं, जो टूटने के डर से काँपने लगी थी।

शाम ढल रही थी और दिल्ली की सड़कों पर पीली रोशनी की परत बिछने लगी थी। आरव अपने हॉस्टल की छत पर खड़ा था, हाथ में स्केचबुक, और मन में हज़ार सवाल। हवा में नमी थी, जैसे अनकहे शब्दों से भरी हुई। उसी सुबह अनन्या ने उसे फोन किया था—आवाज़ धीमी, उलझी, और शायद डर के साथ लिपटी हुई। “पापा ने मेरी शादी की बात पक्की कर दी है,” उसने कहा था। आरव ने कुछ पल कुछ नहीं कहा। सिर्फ साँसें सुनी थीं। वो जानता था कि ये दिन कभी न कभी आना था, लेकिन इतनी जल्दी और इतनी खामोशी से—इसकी कल्पना नहीं की थी।

नीचे कैंटीन से लड़कों की आवाजें आ रही थीं—किसी ने फिल्म की टिकट बुक की थी, कोई म्यूजिक बजा रहा था, और आरव की दुनिया… उसकी तो जैसे आवाज़ ही चली गई थी। उसने फोन कान से हटाया, स्क्रीन बंद की, और आसमान की ओर देखा। वहाँ तारे नहीं थे—बस धुँधली सी नीली चादर। वही चादर जिसके नीचे कभी वो अनन्या के साथ खामोशी बाँटता था।

अगले दिन कॉलेज में वो दोनों फिर मिले। लेकिन आज वो लाइब्रेरी नहीं थी। ना खिड़की, ना साहिर की किताब। सिर्फ एक सीढ़ियों वाला कोना, जहाँ आरव पहले कभी अकेले बैठा करता था, जब कुछ समझ न आता था। अनन्या वहीं बैठी थी, घुटनों पर चेहरा टिकाए। आरव धीमे से पास गया, और बिना कुछ कहे उसके बगल में बैठ गया। कुछ मिनट खामोशी रही। फिर उसने कहा, “मैंने मना कर दिया है। पापा से साफ कह दिया… मैं किसी और से शादी नहीं करूंगी।” उसकी आँखों में आँसू नहीं थे, पर आवाज़ में बगावत की थकावट थी। आरव ने उसकी ओर देखा। “तुमने ये मेरे लिए किया?” अनन्या ने उसकी आँखों में देखा, “नहीं। अपने लिए। लेकिन तुम हो तो हिम्मत मिलती है।”

उनके बीच जैसे कोई वादा नहीं था, फिर भी भरोसे की एक अदृश्य डोर थी, जो हर संकट में खिंच कर उन्हें और पास ले आती थी। अगले कुछ दिनों में अनन्या घर नहीं गई। हॉस्टल में ही रही। पिता ने बातचीत बंद कर दी थी। माँ अब नहीं थीं, और भाई विदेश में था। अनन्या की दुनिया सिमट कर आरव के आस-पास आ गई थी। लेकिन आरव जानता था कि यह स्थायी नहीं हो सकता। किसी दिन कुछ और बड़ा होगा—शायद कोई समझौता, कोई मजबूरी, या फिर कोई फैसला जो दोनों को फिर से दो राहों पर खड़ा कर देगा।

एक शनिवार की दोपहर अनन्या को तेज़ बुखार हो गया। आरव उसे हॉस्टल के गेट के पास से ऑटो में बैठाकर क्लिनिक ले गया। डॉक्टरी जाँच के बाद पता चला — टाइफॉइड। उसे आराम की सख्त ज़रूरत थी। हॉस्टल में अकेले रहना मुश्किल था, इसलिए आरव उसे अपने दोस्त नीरज के घर ले गया, जहाँ वो कुछ दिन पहले तक अकेला रह रहा था। नीरज अपने गाँव गया था और कमरा खाली था। वहीं, उसने अनन्या की देखभाल शुरू की—दवा, खाना, पानी, नींद। एक रात, जब बुखार थोड़ा कम हुआ और बारिश हो रही थी, अनन्या ने बिस्तर से उठकर खिड़की के पास बैठते हुए कहा, “अगर हम भाग जाएँ तो?” आरव हँसा नहीं। गंभीर हो गया। “कहाँ?” उसने पूछा। “जहाँ हमें कोई ना पहचाने। एक छोटा सा शहर, एक छोटा सा घर, कुछ किताबें, एक खिड़की और बहुत सी बारिश।”

आरव उसकी कल्पना में बह गया। वो जानता था ये सिर्फ एक कल्पना थी, लेकिन उस पल में उसे सच मानना आसान लगा। उसने उसके बालों को सहलाया, “अगर तुम चाहो, तो मैं तुम्हारे साथ हर रास्ते पर चल सकता हूँ—फिर चाहे वो कल्पना का हो या हकीकत का।” अनन्या ने उसकी हथेली थाम ली। कमरे में बस बारिश की आवाज़ थी, और दो दिल जो अपनी दुनिया खुद बना रहे थे—सच्ची या झूठी, ये तय करना ज़रूरी नहीं था।

लेकिन जैसे हर कहानी में एक तूफान आता है, अगले दिन अनन्या के पापा दिल्ली आ पहुँचे। वो गुस्से में नहीं थे, बल्कि अजीब शांत थे। उन्होंने बस इतना कहा, “चलो घर। अब बहुत हो चुका।” अनन्या ने विरोध नहीं किया। शायद थक गई थी। लेकिन जाते-जाते उसने आरव को देखा, जैसे आँखों ही आँखों में कुछ कह रही हो। कोई माफ़ी नहीं, कोई वादा नहीं। बस एक ऐसा मौन जो चीखता था—‘शायद फिर कभी।’

आरव ने उसे रोका नहीं। उसने जाना कि प्रेम में कभी-कभी रोकना नहीं, बस समझना होता है। उसने उसे जाते देखा—सफेद सूती कुर्ता, बाल खुले, और वो नज़रे जो अब शायद फिर कभी पीछे न देखें।

उसके बाद के दिन आरव के लिए खाली थे। किताबें, स्केचबुक, लाइब्रेरी—सब अधूरा सा लगने लगा। वो चुप हो गया। दोस्तों ने कहा, “पागल हो गया है तू। एक लड़की के लिए इतना टूट गया?” लेकिन वो समझ नहीं सके कि ये सिर्फ एक लड़की की बात नहीं थी। ये उस हिस्से की बात थी, जो अब उसके भीतर ही कहीं खो गया था।

एक शाम, जब सूरज ढल रहा था और खिड़की से बाहर झाँकते हुए उसने स्केचबुक खोली, तो पहली बार कोई और चेहरा उकेरा। वो अनन्या नहीं थी, ना ही उसकी याद। वो बस एक लड़की थी — अधूरी आँखों वाली, जो शायद फिर कभी मिलेगी भी नहीं, लेकिन जो अब उसके अंदर बैठ गई थी — हमेशा के लिए।

वक़्त गुज़रता गया। दिल्ली की गर्मियाँ अपने पूरे शबाब पर थीं, और आरव की ज़िंदगी एक खाली पन्ने सी लगने लगी थी। उसने कॉलेज खत्म कर लिया था, और फाइन आर्ट्स की डिग्री हाथ में लेकर घर लौटा था — भोपाल। वहाँ दीवारें नई थीं, पर अकेलापन वही पुराना। हर शाम वो अपनी स्केचबुक उठाता, कभी माँ के कंधे पर सिर टिकाता, तो कभी अपने पुराने कमरे की खिड़की से आसमान तक देखता रहता। अनन्या के जाने के बाद उसने कभी संपर्क नहीं किया। न उसे फोन किया, न कोई संदेश। शायद उसे डर था — कि जो आवाज़ लौटेगी, वो उसकी नहीं होगी। या शायद प्रेम को मौन में रखना ज़्यादा सच्चा था।

छह महीने बीत गए। एक दिन भोपाल की एक आर्ट गैलरी में उसका स्केच लगा — “शीशे के पीछे”। वो स्केच था एक लड़की का, जो खिड़की के पास बैठी थी, एक हाथ में चाय का प्याला, और आँखें जैसे बाहर देखती नहीं, भीतर झांकती थीं। दर्शकों को वो एक कल्पना लगी, लेकिन आरव जानता था — वो कल्पना नहीं, याद थी। उस शाम जब प्रदर्शनी खत्म हुई, और आरव थक कर दीवार के पास बैठा था, तभी एक आवाज़ ने उसे चौंका दिया — “क्या ये स्केच तुम्हारा है?” वो आवाज़ जानी-पहचानी थी, पर उसने तुरंत यकीन नहीं किया। जब उसने चेहरा उठाया, सामने अनन्या खड़ी थी। वही आँखें, पर अब उनमें थकावट थी। वही मुस्कान, पर अब कुछ संभली हुई।

आरव कुछ कह नहीं पाया। बस खड़ा हो गया। “तुम यहाँ?” उसने पूछा। अनन्या ने जवाब दिया, “भोपाल में एक स्कूल में पढ़ाती हूँ। आर्ट गैलरी की खबर अखबार में देखी थी। बस… आ गई।” कुछ पल दोनों चुप रहे। फिर अनन्या ने कहा, “इस स्केच की आँखें… बहुत मेरी जैसी लगती हैं।” आरव मुस्कुराया, “क्योंकि वो हैं तुम्हारी।” उसके बाद दोनों बाहर आए, पास के कैफे में बैठे। टेबल पर चाय आई, लेकिन दोनों के हाथ कप तक नहीं बढ़े। ज़्यादा समय नहीं बीता था, पर लग रहा था जैसे ज़िंदगी के कई जन्म गुज़र गए हों।

अनन्या ने खुद बताया — उसने शादी नहीं की। अपने पिता से अलग एक शहर में आकर पढ़ाना शुरू कर दिया। उसने माँ की आख़िरी इच्छा को याद रखा — “अपनी जिंदगी को अपनी शर्तों पर जीना।” लेकिन यह कहते हुए उसकी आवाज़ थोड़ी कांप गई, “कभी-कभी लगता है, मेरी शर्तें बहुत महंगी थीं।” आरव ने उसकी ओर देखा, “या फिर दुनिया बहुत सस्ती थी।” अनन्या ने पहली बार आँखें भर लीं। “मैंने तुम्हें बहुत मिस किया,” उसने कहा। “और मैं अब भी करता हूँ,” आरव ने जवाब दिया।

उस रात दोनों बहुत देर तक टहलते रहे — भोपाल की झील के किनारे, जहाँ दूर बत्तियाँ टिमटिमा रही थीं और पानी में रात की परछाइयाँ डोल रही थीं। वो अनगिनत बातें दोहराईं — साहिर की शायरी, पहली मुलाक़ात, बारिश वाली चाय, और वो आखिरी खामोश विदाई।

“क्या हम फिर से शुरू कर सकते हैं?” अनन्या ने पूछा। उसकी आवाज़ में डर नहीं था, बस एक ईमानदारी थी। आरव चुप रहा। फिर कहा, “शुरुआत तब होती है जब कोई अंत न हो। हमारी कहानी कभी खत्म नहीं हुई थी।”

अगले कुछ हफ्तों में वे फिर मिलने लगे। इस बार प्रेम में अधीरता नहीं थी, ना कोई इज़हार, ना कोई दिखावा। बस साथ होने की एक सरल स्वीकृति थी। अनन्या की नौकरी अब उसकी प्राथमिकता थी, और आरव ने भोपाल में ही एक आर्ट क्लास शुरू कर दी — बच्चों को रंगों के ज़रिए सपने देखना सिखाने लगा। दोनों की दुनिया सादी थी, पर अब उसमें एक स्थिरता थी — बिना नाटक, बिना ग़लतफहमी।

एक दिन अनन्या ने आरव से कहा, “क्या तुम कभी मेरे पापा से मिलोगे?”
आरव थोड़ा ठिठका, “क्या वो अब भी…?”
“वो अब भी कठोर हैं,” उसने कहा, “लेकिन अब अकेले हैं। मैं चाहती हूँ, तुम उन्हें वैसे नहीं, बल्कि मेरे हिस्से की कहानी की तरह मिलो।”

आरव ने सिर हिलाया। कुछ दिन बाद अनन्या ने भोपाल से दिल्ली का टिकट बुक किया। दोनों गए — उसके पिता से मिलने। वह मुलाक़ात आसान नहीं थी। शुरू में सिर्फ चाय रखी गई, और कमरे में खामोशी थी। लेकिन जब आरव ने कहा, “मैं आपकी बेटी से शादी करना चाहता हूँ, लेकिन उससे पहले मैं आपसे माफी चाहता हूँ कि उसे आपसे दूर किया,” तब कुछ बदल गया। पहली बार उस बूढ़े आदमी की आँखों में पानी आया। उन्होंने धीरे से कहा, “मुझे डर था कि मेरी बेटी टूट जाएगी… पर उसने मुझे गलत साबित कर दिया।”

दिल्ली से लौटते वक़्त ट्रेन में अनन्या आरव के कंधे पर सिर रखे सो गई। बाहर रात बीत रही थी, और भीतर वो अधूरी कहानी जैसे एक पूर्ण कविता बन चुकी थी।

शादी सादगी से हुई। ना कोई बैंड, ना बड़ी सजावट, सिर्फ कुछ करीबी दोस्त, कॉलेज के पुराने साथी, और अनन्या के पिता की आंखों में वो शांति, जो एक पिता तब पाता है जब उसे भरोसा हो कि उसकी बेटी अब अकेली नहीं। अनन्या ने लाल बनारसी की जगह एक साधारण सफेद साड़ी पहनी, और आरव ने खुद अपना कुर्ता डिज़ाइन किया—सादा, लेकिन दिल के सबसे गहरे रंगों से भरा। शादी भोपाल के उसी आर्ट गैलरी के पिछवाड़े हुई, जहाँ कभी अनन्या अचानक मिल गई थी। छत पर हल्के पीले फूलों से बने मंडप के नीचे उन्होंने वचन लिए, लेकिन लफ्ज़ों से ज़्यादा नज़रें बोल रही थीं—जैसे कह रही हों, “अब कोई विदाई नहीं होगी।”

शादी के बाद दोनों ने झील के किनारे एक छोटा सा किराए का घर लिया। वहाँ खिड़की से झील दिखती थी, और बाहर एक नीम का पेड़, जिस पर रोज़ सुबह कोयल गाती। आरव ने गैलरी में स्केचिंग का काम संभाल लिया और हफ्ते में तीन दिन बच्चों को आर्ट सिखाने लगा। अनन्या अब स्कूल में सिर्फ इंग्लिश नहीं, कला और कविता भी पढ़ाती। उनका घर एक संग्राहलय जैसा लगने लगा—दीवारों पर चित्र, रसोई में कविता की किताबें, और बेडरूम के कोने में एक पुराना रेडियो, जिससे हर रात गुलज़ार की आवाज़ आती।

शुरुआत के महीने सपनों जैसे थे। हँसी, बिखरे हुए बाल, बारिश में भीगते जाना, एक-दूसरे की प्लेट से खाना चुराना और कभी-कभी लड़ाई कर के एक ही कप चाय पीते हुए सुलह कर लेना। लेकिन जैसे हर कहानी में धीरे-धीरे यथार्थ कदम रखता है, उनके जीवन में भी धीरे-धीरे आदतें, थकावट और काम की परेशानियाँ घर करने लगीं।

एक दिन अनन्या देर तक स्कूल में रुकी, किसी प्रोजेक्ट की तैयारी में। जब घर लौटी, तो आरव ने दरवाज़ा नहीं खोला। अंदर से संगीत की आवाज़ आ रही थी, लेकिन कोई हलचल नहीं। उसने चुपचाप दरवाज़ा खोला, देखा कि आरव स्केचबुक पर कुछ बना रहा था—काफी गुस्से में। पास जाकर उसने पूछा, “सब ठीक है?” आरव ने बिना देखे कहा, “तुम्हें एक बार बता तो देती कि देर हो जाएगी। इंतज़ार करते-करते खाना भी ठंडा हो गया।” अनन्या को उसकी आवाज़ में शिकायत चुभी। “मैं कोई बच्चा नहीं हूँ जिसे हर बार इत्तला दी जाए,” उसने कहा और चुपचाप दूसरे कमरे में चली गई।

पहली बार घर में रात भर चुप्पी रही। ना कविता चली, ना रेडियो। नीम की डालियाँ खिड़की से झाँकती रहीं, जैसे देख रही हों कि जिस प्रेम को उन्होंने झील की हवा में पनपते देखा था, अब उस पर धूल जमने लगी है। अगले दिन अनन्या ने स्कूल से लौटकर आरव से बात करने की कोशिश की। “हमें ये नहीं बनने देना जो बाकी लोग बनते हैं—जो हर छोटी बात पर दूर हो जाते हैं।” आरव ने कहा, “मैं बस… कभी-कभी खुद को नाकाम समझने लगता हूँ। तुम अब भी उतनी ही तेज़ हो, उतनी ही प्रेरणा से भरी… और मैं?”

अनन्या ने उसका हाथ थामा, “तुम वो हो जिसने मुझे मेरे सबसे कमजोर समय में संभाला था। अगर मैं कुछ बनी हूँ, तो तुम्हारे साथ रहकर ही। तुम्हारी खामोशी मेरी ताक़त है आरव, कमजोरी नहीं।” आरव ने आँखे बंद कर लीं—शायद अपने भीतर की उलझन को स्वीकारने के लिए।

उन दोनों ने एक नियम बनाया—हर रविवार को मोबाइल बंद, कोई काम नहीं, सिर्फ एक-दूसरे के साथ रहना। वो कभी पुराने शहर की गलियों में घूमते, कभी झील के किनारे नाव किराए पर लेते, तो कभी बस छत पर लेटकर बादलों में आकृतियाँ ढूँढते। धीरे-धीरे वो फिर वही बन गए, जो एक वक़्त में खिड़की और किताबों के बीच मिला करते थे।

एक साल बीत गया। एक सुबह अनन्या की तबीयत कुछ अजीब सी लगी। डॉक्टर से जाँच करवाई तो खबर आई—वो माँ बनने वाली है। आरव ने जब सुना तो चुप हो गया। फिर उसने अनन्या का चेहरा दोनों हथेलियों में लिया, और उसके माथे पर एक लंबी चुप्पी रख दी—उस चुप्पी में डर भी था, प्यार भी, और एक नई ज़िंदगी का स्वागत भी।

अगले कुछ महीने बेहद खास थे। घर में हर हफ्ते कोई नया कोना बच्चे के लिए बनता—कभी लकड़ी की अलमारी पर रंगीन हाथी पेंट होते, कभी पलंग के नीचे नए खिलौने छुपाए जाते। अनन्या अब और भी निखर गई थी—उसकी मुस्कान में एक माँ की चमक थी और उसकी आँखों में उस प्रेम की झलक, जो हर दर्द को अपनाकर भी मुस्कराना जानता है।

आरव अब हर शाम के खाने के बाद एक नई कहानी सुनाता—बच्चे के लिए। कभी परी, कभी पेड़, कभी एक छोटा बच्चा जो रंगों से बादल बनाता था। अनन्या कहती, “हमारा बच्चा तुम्हारे जैसा सपना देखेगा या मेरे जैसा सवाल पूछेगा?” आरव जवाब देता, “शायद हम दोनों जैसा—काँच जैसा पारदर्शी और अंदर से चट्टान जैसा मजबूत।”

एक दिन, जब पहली बारिश की बूँदें नीम के पत्तों पर गिरीं, अनन्या ने बालकनी से झील की ओर देखा और कहा, “हमारी कहानी आसान नहीं थी, लेकिन सच्ची थी… और यही काफी है।” आरव ने पीछे से आकर उसके कंधे पर सिर टिका दिया। “कभी-कभी सोचता हूँ,” उसने कहा, “अगर तुम वापस नहीं आती उस दिन…” अनन्या ने उसका हाथ थामा, “तो शायद मैं भी अधूरी ही रह जाती।”

बारिश की वो रात अलग थी। नीम की पत्तियाँ इतनी शांत थीं मानो किसी का इंतज़ार कर रही हों। घर के अंदर अनन्या का हाथ आरव की हथेलियों में था, और उसकी साँसें तेज़ चल रही थीं। नौवां महीना था, और प्रसव पीड़ा की शुरुआत हो चुकी थी। आरव ने बिना वक्त गंवाए अस्पताल का सामान तैयार किया और टॉर्च की रौशनी में अनन्या को कार तक पहुँचाया। रात भर बारिश रुकने का नाम नहीं ले रही थी और सड़कों पर पानी जमा हो चुका था। आरव की आँखों में डर नहीं था, लेकिन बेचैनी थी—जैसे कोई काँच का बर्तन उसकी गोद में हो, जिसे वो हर झटके से बचाने की कोशिश कर रहा हो।

अस्पताल पहुँचने पर डॉक्टर ने अनन्या को तुरंत अंदर ले लिया। आरव बाहर इंतज़ार करता रहा—उसी कुर्सी पर बैठकर जिसकी बाँहें लोहे की थीं और जिस पर हजारों उम्मीदें हर रोज़ बैठती होंगी। दीवार की घड़ी की सुइयाँ आगे बढ़ती रहीं, लेकिन आरव के लिए हर मिनट एक युग था। उसने झील की याद की, पुराने दिनों की, जब वो सिर्फ अनन्या की आँखों में खो जाने से डरता था—आज तो वो उसकी जान को बचाने की प्रार्थना कर रहा था।

आख़िरकार सुबह के करीब तीन बजे, एक नर्स बाहर आई और मुस्कुराकर बोली, “बधाई हो, बेटा हुआ है।” आरव का दिल जैसे अचानक धड़कना भूल गया और फिर ज़ोर से चल पड़ा। “अनन्या कैसी है?” उसने जल्दी से पूछा। “थोड़ी थकी हुई है, लेकिन बिल्कुल ठीक।”

वो अंदर गया। अनन्या आँखें बंद किए लेटी थी, और उसके बगल में एक छोटा सा चेहरा, जो अभी इस दुनिया से पूरी तरह परिचित नहीं था। उसकी उँगलियाँ मुड़ी हुई थीं, जैसे दुनिया को पकड़ना सीख रही हों। आरव पास जाकर बैठा, धीरे से बेटे की तरफ झुककर बोला, “स्वागत है, छोटे दोस्त।” अनन्या ने आँखें खोलीं, और बेहद हल्की मुस्कान के साथ कहा, “तुम्हारी नाक है इसकी।” आरव ने उसकी हथेली चूम ली, “और तुम्हारी ज़िद।”

अगले कुछ हफ्ते उनकी ज़िंदगी के सबसे व्यस्त और सबसे सुंदर थे। बच्चे का नाम उन्होंने आरुष रखा—सूरज की पहली किरण, क्योंकि वो उनके अंधेरों के बाद पहली उजास था। अब घर में हर कोने में खिलौनों की आवाज़ गूंजती थी। वो खिड़की, जहाँ कभी सिर्फ चाय की भाप उठती थी, अब वहाँ बच्चे की हँसी गूंजने लगी थी। अनन्या की गोद में आरुष, और आरव की आँखों में गर्व—ये वो दृश्य था जिसे देखने के लिए प्रेम ने इतनी लंबी यात्रा तय की थी।

लेकिन हर नए जीवन के साथ कुछ नई चुनौतियाँ भी आती हैं। अब आरव की रातें बच्चों के रोने से जागती थीं और सुबहें थकी हुई आँखों से शुरू होतीं। अनन्या की तबीयत भी धीरे-धीरे कमजोर होने लगी थी—नहीं, कोई बीमारी नहीं थी, बस थकावट, नींद की कमी और माँ बनने की जिम्मेदारियों का असर। एक दिन जब आरव घर लौटा, तो देखा कि अनन्या बालकनी में अकेली बैठी है, आँखे नम। पास जाकर उसने पूछा, “सब ठीक है?” अनन्या ने कहा, “कभी-कभी लगता है मैं खो गई हूँ… अनन्या कहीं पीछे छूट गई है… अब बस आरुष की माँ हूँ।”

आरव कुछ देर चुप रहा। फिर अंदर जाकर अपनी स्केचबुक लाया और उसके एक पन्ने पर एक लड़की की तस्वीर बनाई—किताबों के ढेर के बीच बैठी, एक हाथ में चाय, और खिड़की से बाहर देखते हुए। उसने वो स्केच अनन्या को दिखाया। “ये कौन है?” अनन्या ने पूछा। आरव ने कहा, “वही लड़की जो मुझे किताबों के पन्नों में मिली थी। वही जो अब मेरी बीवी है, और अब एक माँ भी… लेकिन इन सबसे पहले वो एक इंसान है… जिसे मैं अब भी हर रोज़ नए सिरे से प्यार करता हूँ।”

उस रात अनन्या ने पहली बार लंबे वक़्त बाद फिर से कविता की किताब खोली। गुलज़ार की एक पंक्ति पर उसकी उँगली रुकी — “बाँहों की थकावट में भी जो मुस्कान बची हो, वही औरत माँ होती है।”

धीरे-धीरे चीज़ें संतुलन में आने लगीं। आरव और अनन्या ने बारी-बारी से ज़िम्मेदारियाँ बाँटीं। कभी आरव आरुष को नहलाता, कभी अनन्या उसे कहानियाँ सुनाती। हर रात सोने से पहले, वो दोनों बेटे को साथ में एक नन्ही-सी कविता सुनाते — कभी साहिर, कभी महादेवी वर्मा, कभी खुद की गढ़ी पंक्तियाँ।

एक दिन स्कूल में अनन्या से किसी छात्र ने पूछा, “मैम, आप हमेशा मुस्कुराती क्यों रहती हैं?” अनन्या ने जवाब दिया, “क्योंकि अब मेरे जीवन में एक छोटा सूरज है जो हर अँधेरे को रोशन कर देता है।”

वहीं गैलरी में एक महिला आई जिसने आरव की प्रदर्शनी देखी और कहा, “आपकी तस्वीरों में माँ की आँचल की महक है।” आरव ने मुस्कुराकर जवाब दिया, “क्योंकि अब मेरी दुनिया माँ के आसपास घूमती है—एक जो मेरी बीवी है, और एक जो मेरी ज़िंदगी की सबसे बड़ी प्रेरणा।”

एक शाम, जब आरुष एक साल का हुआ, उन्होंने घर की छत पर छोटा सा जश्न रखा। कोई बड़ी सजावट नहीं, बस तीन लोग और एक पुरानी मोमबत्ती। आरुष के छोटे से केक पर उन्होंने लिखा—हम तीन”। उसी शाम आरव ने अनन्या से कहा, “पता है, लोग कहते हैं कि काँच का दिल जल्दी टूट जाता है… पर मुझे लगता है, अगर उसमें प्रेम भरा हो, तो वही सबसे मज़बूत होता है।” अनन्या ने उसका हाथ थाम लिया और कहा, “हमारा दिल अब सिर्फ हमारा नहीं रहा… उसमें एक नई धड़कन भी बसती है।”

आरुष अब दो साल का हो गया था। उसके छोटे-छोटे कदम अब पूरे घर में दौड़ते थे, दीवारों पर रंगीन क्रेयॉनों की लकीरें खिंचती थीं और उसके खिलौनों की आवाज़ें हर कोने में गूंजती थीं। अनन्या और आरव अब “माँ-पापा” के नाम से ज़्यादा पहचाने जाते थे। लेकिन कहीं न कहीं, उसी पहचान के नीचे छुपा था एक और रिश्ता—जिसकी शुरुआत साहिर की किताब से हुई थी और जो अब दिन के शेड्यूल, डाइपर बदलने और स्कूल मीटिंग्स के नीचे दबता जा रहा था।

एक शाम जब आरव ने गैलरी से लौटकर देखा, अनन्या रसोई में खाना बना रही थी और आरुष उसके पल्लू से लिपटा रो रहा था। आरव ने बेटे को गोद में उठाया और कहा, “तुम बैठो, मैं देखता हूँ।” अनन्या थकी सी मुस्कान के साथ बोली, “बैठने का वक़्त अब सपना लगता है।” आरव जानता था कि ये थकावट सिर्फ शरीर की नहीं थी, ये उस एकांत की थी जो एक माँ को अक्सर अपने भीतर अकेला छोड़ देती है।

उसी रात, जब आरुष सो गया और घर कुछ शांत हुआ, आरव ने अनन्या से कहा, “हम कुछ बदल सकते हैं… अगर तुम चाहो तो वापस यूनिवर्सिटी जा सकती हो, अपनी रिसर्च पूरी करने। मैं आरुष को सँभाल लूँगा।” अनन्या ने उसे देखा, थोड़ी देर कुछ नहीं बोली। फिर कहा, “तुम्हें लगता है मैं अब भी वैसी हूँ?” आरव मुस्कुराया, “तुम अब और भी ज़्यादा हो।”

कुछ ही हफ्तों में अनन्या ने एक रिसर्च फेलोशिप के लिए अप्लाई किया और चयन हो गया। एक अंग्रेज़ी साहित्य विषय पर, जिसमें उसे हिंदी कविता के आधुनिक अनुवादों पर काम करना था। ये काम उसे एक नए शहर, पुणे, ले जा रहा था—छह महीने के लिए। यह फैसला आसान नहीं था, खासकर एक छोटे बच्चे के साथ। लेकिन आरव ने उसकी आँखों में वो चमक देखी जो कई साल पहले दिल्ली की लाइब्रेरी में दिखी थी, और वही चमक देखकर उसने कहा, “जाओ। मैं और आरुष मिलकर इंतज़ार करेंगे।”

अनन्या के जाने के बाद घर का माहौल बदल गया। अब चाय दो कपों की जगह एक में बनती, और रेडियो भी कम बजता था। लेकिन आरव ने खुद को और आरुष को व्यस्त रखा। वह सुबह उसे स्कूल छोड़ता, दोपहर में खाना खिलाता, और रात को कहानियाँ सुनाकर सुलाता। वहीं दूसरी ओर, अनन्या अपने शोध में खो गई थी, लेकिन हर रात वीडियो कॉल पर वो आरुष की दिनभर की हर बात सुनती—उसने क्या खाया, किससे झगड़ा किया, कौन सा नया शब्द सीखा। और फिर कॉल के आखिर में बस इतना कहती, “मुझे दोनों की बहुत याद आती है।”

वक्त धीरे-धीरे बीतता गया। लेकिन इस बीच दोनों के बीच की बातचीत धीरे-धीरे सिर्फ आरुष के इर्द-गिर्द सिमटती जा रही थी। एक दिन कॉल पर अनन्या ने बताया कि उसे पुणे यूनिवर्सिटी में ही स्थायी नौकरी का प्रस्ताव मिला है। वो कन्फ्यूज़ थी—क्या उसे ये प्रस्ताव स्वीकार करना चाहिए? क्या परिवार की प्राथमिकताएँ बदल जाएँगी?

आरव ने उस रात देर तक सोचा। वो जानता था कि अनन्या अब उस मोड़ पर है जहाँ सपनों को फिर से दबाया गया तो वो कभी उभर नहीं पाएंगे। लेकिन वो खुद भी टूटा हुआ महसूस कर रहा था—ना शिकायत कर सकता था, ना रोक सकता था। अगले दिन उसने अनन्या को फोन पर कहा, “अगर तुम चाहो, हम सब पुणे चल सकते हैं। नई शुरुआत, नया शहर।”

अनन्या चुप रही। फिर बोली, “पर तुम्हारा आर्ट स्कूल, तुम्हारी गैलरी?”
“जहाँ तुम और आरुष होंगे, वहीं मेरी कला भी होगी,” आरव ने कहा।

कुछ ही हफ्तों में उन्होंने भोपाल का घर छोड़ दिया। नीम के पेड़ को आखिरी बार देखा, झील की पानी में अपनी परछाईं को अलविदा कहा, और एक नए शहर की ओर बढ़ चले। पुणे में एक छोटा सा फ्लैट किराए पर लिया गया। अनन्या यूनिवर्सिटी में पढ़ाने लगी और आरव ने वहीं के एक स्कूल में बच्चों को आर्ट सिखाना शुरू किया।

नई ज़िंदगी में सब कुछ फिर से शुरू हुआ—नई सड़कें, नए पड़ोसी, नए दोस्त। लेकिन इस बार प्रेम थोड़ा अलग था। अब वो प्रेम गुलाब नहीं रहा, जो खिलकर ध्यान माँगता था। अब वो तुलसी जैसा था—साँवला, शांत, और हर सुबह की पूजा का हिस्सा।

एक शाम अनन्या काम से लौटते हुए थकी थी। आरव ने पहले से खाना तैयार कर रखा था। आरुष अपने खिलौनों में मग्न था। जब अनन्या ने देखा कि आरव ने उसके लिए ग्रीन टी बना रखी है, और एक पुरानी कविता की किताब मेज़ पर रखी है, तो उसकी आँखें भर आईं। “इतना सब… कैसे संभाल लेते हो?”
आरव ने हँसते हुए कहा, “जब कोई काँच का दिल मुझे सौंप दे, तो उसकी दरारें मेरी ज़िम्मेदारी बन जाती हैं।”

उस रात, पहली बार इतने महीनों बाद, दोनों ने साथ बैठकर साहिर की वही किताब खोली, जहाँ से सब शुरू हुआ था। अनन्या ने एक पन्ना खोला और पढ़ा,
“कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी,
यूँ ही कोई बेवफ़ा नहीं होता।”

फिर आरव ने उसकी उँगलियों को थामा और कहा, “और कुछ तो प्रेम भी गहरा होगा,
जो हर मजबूरी के बावजूद बचा रह गया।”

पुणे में अब तीन साल बीत चुके थे। आरुष पाँच साल का हो गया था—बिल्कुल अपने पापा की तरह सोचने वाला और अपनी माँ की तरह बोलने वाला। वो अब स्कूल जाता था, और जब लौटकर आता, तो पूरे घर में उसकी आवाज़, खिलखिलाहट और सवालों की बौछार होती। “पापा, धरती गोल क्यों है?”, “मम्मा, अगर मैं बड़ा होकर पेड़ बन गया तो क्या आप मुझे पानी दोगे?” अनन्या और आरव अब हर दिन इस नए जीवन के सवालों में डूबते, हँसते और कई बार चुपचाप जवाब ढूँढते रहते।

शामें अब भी खास होती थीं। अनन्या की थकान अब भी रहती थी, लेकिन अब उसके चेहरे पर एक सुकून था। आरव अब भी अपनी स्केचबुक के कोनों में अनन्या की तस्वीरें बनाता, अब भी चाय वही कुल्हड़ वाली बनाता, और अब भी हर रात बिस्तर के पास वही पुरानी साहिर की किताब रखी होती—जिसके पहले पन्ने पर अब आरुष की मासूम सी हस्ताक्षर थी: “माँ-पापा के लिए ।”

लेकिन कुछ चीज़ें धीरे-धीरे बदल रही थीं। अब उनके पास एक-दूसरे के लिए वैसा समय नहीं था जैसा पहले हुआ करता था। कभी-कभी दिन बीत जाते, सिर्फ ज़िम्मेदारियों में। सुबह अनन्या यूनिवर्सिटी जाती, आरव स्कूल और आर्ट गैलरी, और आरुष प्ले स्कूल। रात को थक कर आते, खाना खाते, बेटे को सुलाते और फिर वही — नींद।

एक रात जब आरुष सो चुका था, अनन्या बालकनी में बैठी थी। हवा थोड़ी ठंडी थी, और नीचे से कुछ लोग धीमी आवाज़ में गिटार बजा रहे थे। आरव उसके पास आकर बैठ गया। उसने देखा कि अनन्या की आँखें बंद थीं, और चेहरे पर हल्की सी चिंता की रेखा थी। “सब ठीक?” उसने धीरे से पूछा। अनन्या ने आँखें खोलीं, और बोली, “पता है आरव, कभी-कभी ऐसा लगता है जैसे हम साथ हैं, लेकिन फिर भी बीच में एक दूरी है। ऐसा क्यों हो गया है?”

आरव चुप रहा। वो जानता था कि ये शिकायत नहीं थी, ये एक तलाश थी—उस पुराने प्रेम की, जो अब भी जिंदा था लेकिन कहीं व्यस्त जीवन की तहों में दब गया था। उसने अनन्या का हाथ थामा, “शायद इसलिए कि हम अब एक-दूसरे के इतने हिस्से बन चुके हैं, कि अब अलग से दिखना बंद हो गया है।” अनन्या ने उसकी ओर देखा, “क्या इसका मतलब ये है कि वो शुरुआती पागलपन चला गया है?” आरव मुस्कुराया, “नहीं, उसका रूप बदल गया है। अब वो हमारे बेटे की आँखों में है, तुम्हारे माथे की सलवटों में है, और मेरी थकान में जो तुम्हारी एक मुस्कान से मिट जाती है।”

उस रात दोनों ने एक वादा किया—हर महीने एक दिन सिर्फ एक-दूसरे के लिए निकालेंगे, जब ना बच्चा, ना काम, ना घर—बस वे दोनों। अगले हफ्ते उन्होंने आरुष को एक दिन के लिए पड़ोस की आंटी के पास छोड़ा, और शहर से बाहर निकल गए। एक छोटी सी पहाड़ी पर, जहाँ एक पुराना मंदिर था और उसके नीचे एक शांत झील। दोनों वहीं बैठे, घंटों। बोलते नहीं थे, बस एक-दूसरे को देखते, जैसे इतने सालों की थकावट से बाहर आ रहे हों।

वहीं बैठकर आरव ने कहा, “अगर आज फिर वो दिन होता, जब मैंने लाइब्रेरी में तुम्हें पहली बार देखा था… तो भी मैं वही करता—तुमसे वही किताब माँगता, वही झूठ बोलता, बस तुम्हारे पास बैठने के लिए।” अनन्या हँसी, “और मैं फिर वही किताब थमा देती—क्योंकि कोई अगर साहिर को समझता हो, तो उससे दोस्ती ज़रूरी होती है।”

उस दिन उन्होंने साथ मिलकर एक पुराना गाना गाया, वही जो कॉलेज में उनके बीच पहली बार बजा था। झील के किनारे उनकी आवाज़ें कुछ फूटी, कुछ हँसी से भरी, लेकिन उसमें वो सच्चाई थी जो आजकल की परफेक्ट दुनिया में शायद दुर्लभ होती जा रही है।

घर लौटकर उन्होंने देखा कि आरुष अपने खिलौनों के बीच सो गया था। उसकी उँगलियों में अब भी वो छोटी सी किताब थी जो आरव ने उसे दी थी—“तारे ज़मीन पर।” अनन्या ने बच्चे के सिर पर हाथ फेरा और कहा, “तुमने हमें माँ-पापा से ज़्यादा बना दिया है… एक पूरी दुनिया।” आरव ने जवाब दिया, “और तुम्हारे साथ मैं अब भी वही लड़का हूँ जो साहिर की लाइनें समझने की कोशिश कर रहा था।”

एक हफ्ते बाद गैलरी में आरव की नई प्रदर्शनी थी—थीम थी एक घर की दीवारें”। हर पेंटिंग में एक साधारण घर का दृश्य था, लेकिन उसमें कोई छोटी-छोटी बात छुपी थी—बेटे के जूते दरवाज़े के पास, रसोई में उबलती चाय, बालकनी में एक खाली कुर्सी, और ड्राइंग रूम में एक टेबल पर रखी साहिर की किताब। लोग आकर उन तस्वीरों को देखते और पूछते, “इनमें प्रेम कहाँ है?” आरव बस मुस्कुरा देता और कहता, “यहाँ हर फ्रेम में प्रेम है, बस अब वो दिखता नहीं, बस महसूस होता है।”

एक पत्रकार ने उससे पूछा, “क्या आज का प्रेम वही है जो आप पेंट करते हैं?”
आरव ने थोड़ी देर सोचा, फिर बोला, “प्रेम अब वो गुलाब नहीं है जो हर सुबह ताज़ा होता है। प्रेम अब वो घास है जो हर बारिश में फिर उग आती है, चाहे जितनी बार काट दी जाए।”

सर्दियाँ जल्दी उतर आई थीं उस साल पुणे में। दिसंबर की हवा में अजीब सी नमी थी, और सुबहें धुंध से ढँकी रहती थीं। यूनिवर्सिटी में अनन्या के सेमेस्टर एंड लेक्चर चल रहे थे, और आरव की गैलरी में भी साल की सबसे बड़ी प्रदर्शनी की तैयारी जोरों पर थी। आरुष अब पहली कक्षा में था और उसका स्कूल थोड़ी दूरी पर था। दिन भर सब अपनी-अपनी दुनिया में व्यस्त रहते, लेकिन शाम को जब तीनों एक टेबल पर साथ बैठते—आरुष बीच में, माँ के हाथ का पराठा और पापा की बतकही—तब लगता था कि दुनिया कितनी सुंदर हो सकती है जब उसके केंद्र में प्रेम बैठा हो।

लेकिन फिर एक सुबह, सब कुछ बदल गया।

अनन्या सुबह-सुबह उठी, तो उसके सिर में बहुत तेज़ दर्द था। उसने सोचा शायद थकावट या मौसम का असर है। उसने चाय बनाकर पी, लेकिन थोड़ी देर बाद उसे चक्कर आने लगे। आरव तुरंत डॉक्टर के पास ले गया। शुरू में मामूली साइनस या माइग्रेन समझा गया, लेकिन जब दर्द बढ़ने लगा और आँखों के सामने धुंध छाने लगी, तब डॉक्टर ने एमआरआई की सलाह दी।

दो दिन बाद रिपोर्ट आई। डॉक्टर की आवाज़ में वो सर्दी थी जिसे कोई कोट भी नहीं रोक सकता था।
“हमें ब्रेन में एक ट्यूमर मिला है। अभी यह प्राथमिक अवस्था में है, लेकिन सर्जरी और इलाज आवश्यक है।”

आरव और अनन्या एक-दूसरे की ओर देख रहे थे—जैसे समझने की कोशिश कर रहे हों कि ये वाक्य किसे कहा गया। फिर डॉक्टर ने दोहराया, “हमें जल्द निर्णय लेना होगा।”

आरव की दुनिया थम गई। ये वही अनन्या थी, जो बारिशों में कविता बनती थी, जो अपने बेटे को चांद और सूरज के बीच का फर्क समझाती थी, जो हर शाम उसके थके कंधों पर हाथ रखकर कहती थी—“आज तुम सबसे बेहतर पति हो।” और अब यही अनन्या, अस्पताल की सफेद चादरों में लेटी थी, चेहरे पर पीली पड़ती रंगत, और आँखों में सिर्फ एक सवाल—क्या मैं रह पाऊँगी?

उन्होंने मिलकर तय किया कि सर्जरी की जाएगी। आरव ने गैलरी का सारा काम स्थगित कर दिया। उसने हर कागज़, हर डॉक्यूमेंट खुद संभाला। अनन्या का चेहरा अब पहले जैसा नहीं था—वो कम बोलती, ज्यादा मुस्कुराती, और आरुष को बस गले लगाकर देर तक थामे रहती।

एक रात उसने आरव से कहा, “अगर कुछ हो गया तो?”
आरव ने उसका चेहरा अपने हाथों में लेकर कहा, “तब भी मैं तुम्हें रोज़ चाय दूँगा, रोज़ साहिर की एक लाइन पढ़ूंगा, रोज़ तुम्हारी वो खिड़की देखूंगा, और रोज़ तुम्हारे पास जाऊँगा—even if it’s just in memory.”

अस्पताल की सर्जरी सुबह थी। रात को अनन्या ने आरुष को गले लगाया और कहा, “कल मैं थोड़ी देर के लिए दूर चली जाऊँगी, लेकिन तुम पापा के पास रहना… और जब मेरी आँख खुले, तो पहला चेहरा तुम्हारा हो।”

ऑपरेशन छह घंटे चला। आरव बाहर बैठा रहा, हाथ में साहिर की वही किताब, बीच में बार-बार उसकी उंगलियाँ उस पन्ने तक पहुँच जातीं जहाँ अनन्या ने एक बार पंखुड़ी रखी थी। वक्त जैसे मोम बनकर पिघल रहा था।

जब डॉक्टर बाहर आया, उसके चेहरे पर थकावट थी—but a faint smile too.
“ऑपरेशन सफल रहा। उसे होश आने में थोड़ा वक्त लगेगा, लेकिन अब वो ठीक है।”

आरव की आँखों में आँसू आ गए। उसने सबसे पहले फोन आरुष को किया—“मम्मा ठीक हैं… उन्होंने वादा निभाया।”

अगले तीन हफ्ते रिकवरी में बीते। अनन्या धीरे-धीरे सामान्य होने लगी। बाल कम हो गए थे, लेकिन उसकी मुस्कान लौट आई थी। जब उसने पहली बार खुद चलकर बालकनी तक पहुँचा, तो आरव ने मज़ाक में कहा, “अब तो तुम सुपरवुमन हो गई हो।” अनन्या ने कहा, “मैं हमेशा थी, तुमने कभी देखा नहीं।”

वो पल प्रेम का सबसे खूबसूरत रूप था—जिसमें सुंदरता चेहरों में नहीं, ज़िंदा रहने की ज़िद में होती है।

कुछ महीने बाद, जब अनन्या पूरी तरह ठीक हो गई, उन्होंने दोबारा झील के किनारे जाना तय किया—जहाँ उन्होंने पुणे आने के बाद पहली बार एक दिन खुद के लिए निकाला था। अबकी बार साथ में आरुष भी था। उसी पत्थर पर तीनों बैठे, और आरव ने कहा, “मैंने तुम्हें पहली बार जिस लाइब्रेरी में देखा था, वहाँ सोच भी नहीं सकता था कि एक दिन तुम मेरी पत्नी, मेरे बेटे की माँ… और मेरी ज़िंदगी की सबसे बहादुर कहानी बनोगी।”

अनन्या ने उसकी आँखों में देखा, और जवाब दिया, “और तुम वो इंसान बने जिसने मुझे हर डर से लड़ने की हिम्मत दी… जिसने मेरे काँच से दिल को कभी टूटने नहीं दिया।”

आरुष उनके बीच में बैठकर पत्थरों से पानी में गोलियाँ मार रहा था। उसके हर उछाल के साथ पानी में गोल घेरे बनते, जैसे प्रेम की परतें हों—धीरे-धीरे फैलती हुई, और कभी न खत्म होने वाली।

वक़्त बीतता रहा, और उनकी ज़िंदगी फिर से अपने पुराने, स्थिर रास्ते पर लौट आई। अनन्या अब पूरी तरह ठीक थी, और उसकी आँखों में एक नई चमक थी—जैसे मौत को छूकर लौटी हो और अब हर पल को उसकी असल अहमियत के साथ जी रही हो। आरव को अब उसकी हँसी पहले से ज़्यादा तीखी और उसकी खामोशी पहले से ज़्यादा सुकून देती थी। आरुष अब सात साल का हो गया था और उसने हाल ही में अपनी पहली कविता लिखी थी—“माँ की मुस्कान”। कविता में उसने लिखा था: जब माँ सोती है, तो आसमान नीला हो जाता है, जैसे चाँद भी उसे देख मुस्कुराता है।”

अनन्या ने कविता को पढ़कर बेटे को गले लगा लिया, और फिर आरव से कहा, “हमारा बेटा तुम्हारी स्याही और मेरी रौशनी से बना है।” आरव ने जवाब दिया, “और हमारे प्रेम की नींव से।”

अब जीवन कुछ-कुछ वैसा हो गया था जैसा उन्होंने कभी सोचा नहीं था—थोड़ा कम समय वाला, थोड़ा अधिक गहराई वाला, थोड़ा अस्थिर लेकिन पूरी तरह सच्चा। अब दोनों के बीच ज़्यादा शब्दों की ज़रूरत नहीं थी। एक हाथ का इशारा, एक आँख की मुस्कान, और एक चाय का कप—इतना ही काफ़ी था। कभी-कभी आरव सुबह उठकर बालकनी में बैठता, अनन्या किताब लेकर उसके पास आती, और दोनों अपनी-अपनी दुनिया में एक साथ डूब जाते। नज़रों से शब्दों का आदान-प्रदान होता और बिना कहे एक कविता बन जाती।

एक दिन आरव ने कहा, “क्या तुम्हें कभी वो लाइब्रेरी याद आती है?”
अनन्या ने कहा, “हर दिन। वहाँ मैंने सिर्फ साहिर नहीं, ज़िंदगी पढ़ी थी। एक पन्ना तुम थे, एक पन्ना मैं… और बीच के सफ़े उन मुलाकातों के थे जो किसी किताब में नहीं मिलतीं।”

वो चाहती थी कि अब फिर से कुछ नया शुरू किया जाए। अनन्या ने एक लिटरेचर क्लब खोला—“शब्दतल”। वहाँ वो कॉलेज के छात्रों को आधुनिक साहित्य, अनुवाद और कविता की दुनिया से जोड़ती। हर शुक्रवार क्लब में मीटिंग होती, और आरव कभी-कभी बच्चों को स्केचिंग सिखाता, कविता को रंगों में कैसे ढाला जा सकता है, ये बताता।

उनकी दुनिया अब इतनी भरी हुई थी कि किसी खालीपन की जगह ही नहीं रही थी। एक शाम, जब शब्दतल में मीटिंग के बाद दोनों लौट रहे थे, अनन्या ने आरव से पूछा, “क्या तुम्हें लगता है कि हमारा प्रेम अब भी वही है?”
आरव कुछ पल चुप रहा। फिर मुस्कुराया, “नहीं। वो अब नहीं रहा… क्योंकि अब वो कहीं नहीं, बल्कि हर जगह है। तुम्हारी बातों में, आरुष की मुस्कान में, मेरी स्केचबुक की हर रेखा में और उस खिड़की में जो अब भी पूर्व की तरफ खुलती है।”

वो खिड़की अब उनके नए घर में थी—एक छोटा सा बंगला, जिसमें एक बगीचा था, एक नीला दरवाज़ा और एक दीवार जिस पर आरव ने उनकी प्रेम कहानी को पेंट किया था—एक लड़की किताब लेकर बैठी थी, एक लड़का स्केच बना रहा था, और बीच में एक बच्चा पतंग उड़ा रहा था। उसके ऊपर एक पंक्ति लिखी थी—काँच सा दिल, लेकिन पहाड़ सी हिम्मत।”

एक रविवार की सुबह, आरव ने कहा, “मुझे आज एक स्केच पूरा करना है—एक आखिरी स्केच।”
अनन्या ने हँसते हुए पूछा, “अब कौन सी याद बसी है तुम्हारे दिल में?”
आरव ने सिर झुकाया और कहा, “हमारी आख़िरी मुलाक़ात… अगर कभी हो तो कैसी होगी।”
अनन्या चुप हो गई। वो जानती थी, वो समय अभी दूर था, लेकिन फिर भी उस बारे में सोचकर ही एक टीस सी उठी। लेकिन उसने धीरे से कहा, “अगर तुम पहले जाओ, तो मेरी चाय बना देना वहाँ भी। और अगर मैं गई… तो साहिर की किताब वहीं रख देना।”
आरव ने कहा, “हम दोनों एक ही ट्रेन से चलेंगे—तुम खिड़की के पास बैठना, मैं पास वाली सीट पर… और बारिश की पहली बूँद आने पर साथ उतरेंगे।”

उस दिन, आरव ने जो स्केच बनाया, वह बाद में उसकी अंतिम प्रदर्शनी में लगा—एक वृद्ध दंपती, एक बेंच पर बैठे, उनके हाथ आपस में गुँथे हुए, सामने झील और ऊपर आसमान पर पतंग उड़ती हुई। नीचे लिखा था—एक प्रेम जो समय को पार कर गया।”

वर्षों बीत गए। आरुष अब कॉलेज में था, लेखन में रुचि रखने लगा था, और उसकी पहली किताब छप चुकी थी—मेरे माँ-पापा के प्रेम की कहानी”। किताब के पहले पन्ने पर उसने लिखा था—उन्होंने कभी मुझे प्रेम करना नहीं सिखाया। उन्होंने सिर्फ खुद को प्रेम करते हुए जिया… और मैं देखता रहा।”

अब अनन्या और आरव बूढ़े हो चुके थे, लेकिन उनके बीच का प्रेम अब भी वैसा ही था—बस बाल सफेद हो गए थे, आवाज़ धीमी, पर आत्मा उतनी ही ज्वलंत। एक दिन दोनों झील के पास गए, उसी जगह जहाँ वो पहली बार पुणे आए थे। वहीं बैठकर अनन्या ने आरव से पूछा, “क्या अब भी लगता है कि काँच का दिल जल्दी टूट जाता है?”
आरव ने उसका हाथ थामा, और कहा, “नहीं, अब लगता है कि काँच का दिल ही सबसे मजबूत होता है… क्योंकि वो सबसे पहले टूटता है, और सबसे पहले जोड़ता भी है… जब उसमें प्रेम हो।”

वो दोनों झील की ओर देखते रहे, और एक पल ऐसा आया जब हवा की हल्की सरसराहट में जैसे उनके बीच कोई शब्द बिना कहे गूंज गया—धड़कनों से परे एक सन्नाटा, जो सिर्फ प्रेम का होता है।

समाप्त।

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