विनीत अवस्थी
भाग 1: पंखे के नीचे कविता
चिलचिलाती गर्मी में जनपद रामपुर के टाउन हॉल में कवि सम्मेलन की तैयारी अपने चरम पर थी। आयोजक श्री मुन्ना लाल ‘मुक्त’ जिनकी मूंछें खुद कविताओं की तरह ऊपर-नीचे लहराती थीं, पूरे उत्साह से व्यवस्था में लगे थे। पंखे खड़खड़ा रहे थे, माइक टेस्ट हो चुका था—”हैलो…हैलो…प्याज़ 60 रुपये किलो…”—और कुर्सियाँ ठीक वैसे ही डगमगा रही थीं जैसे देश के बजट पर विश्वास।
शाम सात बजे पहला कवि मंच पर चढ़ा: श्री रमेश कुमार ‘रसिया’, जिनकी खासियत थी रोमांटिक कविताएं सुनाकर सामने बैठी आंटियों को ब्लश करवा देना। उन्होंने मंच पर आते ही आंखें मटकाईं और बोले, “आज की कविता उन आँखों के लिए…जो चश्मे के अंदर भी चमकती हैं!” पहली पंक्ति थी:
“तेरी मुस्कान जैसे सब्ज़ी में गरम तड़का,
देख के तुझको दिल बोले—अरे वाह भई क्या चटका!”
श्रोता हँस-हँस कर लोटपोट हो गए। बीच में पीछे की कुर्सी से एक बुजुर्ग बोले, “अरे भई, ये कविता है या चाट का ठेला?”
मंच के पास बैठे कवियों में हलचल हुई। अगला नंबर था कुख्यात व्यंग्यकार श्री चंद्रमोहन ‘चुटकुले’ का, जिनके हँसाने का तरीका था—खुद ना हँसना, बाकियों को मजबूर कर देना। उन्होंने आकर माइक में गला खंखारा और बोले, “मैं तो कहता हूँ, अगर नेतागिरी को कविता बना दो, तो हर संसद सत्र कवि सम्मेलन होगा!”
और उनकी कविता शुरू हुई:
“मंत्री बोले—देश आगे बढ़ा है,
पर मेरा बेटा तो अमेरिका चढ़ा है।
महंगाई को उन्होंने ‘अवसर’ बताया,
और गरीब को उसका ATM बनाया!”
इसपर पीछे से एक आदमी चिल्लाया, “सच कहा गुरू, ये कविता नहीं—करंट है!”
तभी एक अनजान कवि मंच की सीढ़ियाँ चढ़ा। उसने कोई आमंत्रण नहीं पाया था, लेकिन चेहरे पर आत्मविश्वास था और जेब में एक मुड़ी-तुड़ी कॉपी। नाम बताया—”दीपक ‘दीवाना’—ग़ाज़ीपुर से हूँ, इश्क़ में धोखा खाया हूँ, अब कविता सुनाता हूँ।” भीड़ थोड़ी गंभीर हुई।
उन्होंने अपना दिल खोल कर रख दिया:
“तूने छोड़ा, मैंने छोड़ा—
तेरे नाम का tattoo भी मोड़ा।
तू बोली—हम बस दोस्त हैं,
मैं बोला—तो क्या फेसबुक पोस्ट हैं?”
मंच पर बैठे वरिष्ठ कवि श्री श्रीवास्तव ‘श्रृंगारी’ हँसी रोक नहीं पाए और उनके रूमाल से आँखों में आँसू पोंछते बोले, “बेटा, तुमने तो इश्क़ की बर्फ में आग लगा दी!”
इतने में लाइट चली गई। पूरा हॉल अंधेरे में डूब गया। कहीं से आवाज़ आई—“कविता बंद करो, पहले इन्वर्टर चलाओ!” और किसी को माइक से झटका भी लग गया।
मुन्ना लाल ‘मुक्त’ जी ने मोमबत्तियाँ जलवाईं और कहा, “लाइट आए न आए, पर कविता नहीं रुकेगी! रामपुर का कवि सम्मेलन है ये, IPL का मैच नहीं!”
और ऐसे ही रोमांच, हँसी, झगड़े और प्रेम के साथ यह कवि सम्मेलन शुरू हुआ। लेकिन असली तमाशा अभी बाकी था…
भाग 2: मंच पर मिर्ची और माइक
रामपुर के टाउन हॉल में अब अंधेरा छँट चुका था। बिजली वापस आ गई थी, लेकिन कवियों के चेहरों पर एक अजीब रोशनी चमक रही थी—किसी के चेहरे पर आत्ममुग्धता, तो किसी पर जलन की लाली। दीपक ‘दीवाना’ की कविता ने भावनाओं में जो खलबली मचाई थी, उससे मंच पर बैठे कई वरिष्ठ कवि असहज हो उठे थे।
मुन्ना लाल ‘मुक्त’ अपने पसीने से भीगे गमछे से माइक पोंछते हुए बोले, “अब अगला नाम, श्रीमती प्रभा ‘प्रचंड’।”
पीछे से कोई फुसफुसाया, “लो आ गईं शेरनी।”
प्रभा जी मंच पर आते ही बोलीं, “कविता कोई गुलाब नहीं, ये चिमटा है, जिससे पितृसत्ता की चूड़ी तुड़ाई जाती है।”
श्रोताओं में कुछ पुरुष डर गए, और महिलाएँ ताली पीटने लगीं।
उनकी कविता कुछ यूँ थी—
“तू बोला घर संभालो,
मैं बोली—पहले ज़रा दिमाग टटोलो।
तू मर्द है, मैं ज्वालामुखी,
तेरे शब्द, मेरी चाय की चीनी!”
इस पर सामने बैठा एक कवि फुसफुसाया, “मुझे तो ये कविता नहीं, तलाक़ का ड्राफ्ट लग रही है।”
लेकिन तालियाँ ज़ोरदार बजीं।
प्रभा जी ने जाते-जाते दीपक ‘दीवाना’ को घूरा और कहा, “प्यार में रोने वाले लड़कों को अब लड़ना सीखना होगा।”
दीपक कुछ नहीं बोला, बस अपनी कॉपी का कोना चबाता रहा।
इसके बाद मंच पर आए श्री रघुबीर ‘रिटायर्ड’—आर्मी से रिटायर हुए, अब कविताओं में ‘देश’ बचाते थे। उन्होंने सीना फुलाकर कहा, “मैं आज कविता नहीं, सर्जिकल स्ट्राइक करूँगा।”
उनकी कविता का आरंभ ही था—
“मैं कवि नहीं, कमांडो हूँ,
शब्द नहीं, बम फेंकता हूँ।
सीमा पर नहीं गया तो क्या,
मंच पर ही टैंक खड़ा कर दूँ?”
अचानक पीछे से एक आवाज़ आई—“भइया, टैंक बाद में खड़ा करना, पहले कुर्सी सीधी कर लो, हिल रही है।”
इस पर रघुबीर जी माइक छोड़कर नीचे झाँकने लगे और कुर्सी सीधा करने में लग गए।
श्रोता हँसी में लोटपोट।
मुन्ना लाल ‘मुक्त’ सिर पकड़कर बोले, “इसीलिए कवियों को मंच से उतारना सबसे कठिन होता है।”
अब बारी थी रामपुर के सबसे विवादास्पद कवि—‘कविनाथ समोसा’ की। नाम समोसा इसलिए पड़ा क्योंकि एक बार इन्होंने अपनी कविता में 17 बार ‘समोसा’ लिखा था और जनता ने उन्हें तला नहीं, खा लिया था।
मंच पर आते ही बोले, “मित्रों, कविता कोई चाय नहीं कि सब पी जाएँ—ये समोसा है, गरम और मसालेदार।”
कविता थी—
“तूने कहा—मैं आलू हूँ,
मैं बोला—तू मेरी परत वाली भूख।
सच्चा प्रेम वही है,
जिसमें समोसा बाँट कर खाया जाए!”
पीछे से कोई चिल्लाया—“भूख लग गई गुरू!”
कविनाथ बोले, “ताली दो, मैं समोसे खिलाऊँगा!”
भीड़ में हँसी का ठहाका और मंच के पीछे खड़े चाय वाले ने कमर कस ली—“आज तो बम्पर सेल होगी।”
मंच पर अब एक नया मोड़ आया। पीछे से एक लंबे कोट वाला, चश्मा चढ़ाए कवि मंच पर आया, उसने कहा, “मुझे मंच ने नहीं, मन ने बुलाया है।”
नाम बताया—‘डॉ. जामुनदास ‘गंभीर’।
लोगों ने दबी आवाज़ में कहा, “लो आ गए भजन वाले।”
उन्होंने बिना मुस्कुराए कविता शुरू की—
“मन के भीतर जो पीड़ा है,
वो संसार की कीड़ा है।
जीवन मृत्यु का द्वार नहीं,
वो ATM कार्ड की रीड़ा है।”
श्रोताओं को कुछ समझ नहीं आया, लेकिन उन्होंने ताली बजा दी—सम्मान के नाम पर।
तभी अचानक मंच के कोने में बैठे एक बुज़ुर्ग उठे, नाम—हरिकिशोर ‘हँसमुख’। बोले, “अब बहुत हो गया, अब असली हास्य सुनिए।”
उन्होंने जेब से रुमाल निकाला, सर पर बाँधा और बोले—
“बीवी ने पूछा—प्याज़ काटूं?
मैं बोला—पहले आँसू पोंछूं।
वो बोली—मर्द हो तो बाज़ार से लाओ,
मैं बोला—बजट का भी तो ख्याल आओ!”
मंच हँसी से गूँज उठा। कुछ लोग कुर्सी से गिर गए, कुछ ने पेट पकड़ लिया।
और जैसे ही हँसी अपने चरम पर पहुँची, दीपक ‘दीवाना’ अचानक उठे। बोले—“अब मेरी एक नई कविता है, इस सम्मेलन को समर्पित।”
प्रभा ‘प्रचंड’ ने आँखे तरेरीं, चुटकुले जी ने कान खड़े किए, कविनाथ समोसा ने समोसे वाली थैली कस के पकड़ी।
दीपक बोले—
“मंच पर आए मिर्ची और माइक,
हर कवि बना अपना ही स्टाइल।
कोई रोया, कोई हँसाया,
कोई प्याज़ से भी दिल भर आया।
रामपुर के मंच पर एक ही बात,
कविता हो या हंगामा—मन से बात!”
तालियाँ बजीं, हूटिंग भी हुई। लेकिन दीपक मुस्कराए।
उन्होंने मंच पर जाकर सभी कवियों के पैर छुए।
मुन्ना लाल ‘मुक्त’ ने माइक उठाया और बोले—“अब असली समर शुरू होगा—जब कवियों को खाना मिलेगा और समीक्षक राय देंगे।”
श्रोताओं को भोजन कूपन बाँटे जाने लगे, कवियों को बिसलेरी मिली, और मंच पर टेबल रख दिया गया—”मंच समीक्षा सभा शुरू!”
लेकिन किसे मिलेगा ‘रामपुर रत्न काव्य सम्मान’?
क्या दीपक दीवाना सच में सम्मेलन का तारा बन पाएगा?
या कहीं कुछ और साज़िश पक रही है?
भाग 3: आलोचक आए, कविता काँपी
कवि सम्मेलन की पहली लहर अब थम चुकी थी। मंच पर बिछ चुकी थी एक लंबी टेबल, उस पर सफेद कपड़ा, दो थाल मिठाई और एक बड़ी-सी घंटी—जिसे बजा कर मुख्य समीक्षक श्री कन्हैयालाल ‘कठोर’ अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने वाले थे। वे थे साहित्यिक आलोचक, जिनकी कलम से निकली समीक्षा पढ़कर अच्छे-अच्छे कवि कविता छोड़कर खेती करने चले गए थे।
मुन्ना लाल ‘मुक्त’ ने जैसे ही उनका नाम पुकारा, तो टाउन हॉल में सन्नाटा छा गया।
एक दुबला-पतला आदमी, सिर पर चिपका हुआ बाल, गले में मफलर और हाथ में मोटी डायरी लेकर मंच पर चढ़ा। उसके चेहरे पर ऐसा भाव था जैसे किसी अपराधी को पकड़ने निकला हो।
“नमस्कार,” उन्होंने कहा, आवाज़ में बर्फ़ की तरह ठंडक और ब्लेड जैसी धार। “मैं कोई कवि नहीं, मैं तो सिर्फ कविता के पाप देखता हूँ।”
इतना सुनते ही प्रभा ‘प्रचंड’ ने आँखें मटकाईं, चुटकुले जी ने अपनी डायरी छुपा ली और कविनाथ समोसा ने अस्थायी रूप से मंच छोड़ दिया।
कन्हैयालाल ने सबसे पहले दीपक ‘दीवाना’ की कविता पर टिप्पणी की।
“आपकी कविता में भावना थी, पर व्याकरण मरणासन्न अवस्था में था। ‘पोस्ट’ और ‘दोस्त’ की जोड़ी वैसे ही है जैसे आलू के पराठे में रसगुल्ला ठूंस दिया जाए।”
दीपक मुस्कराने लगे।
“सर, प्यार में व्याकरण नहीं, अनुभव काम आता है।”
कन्हैयालाल जी बोले, “अनुभव बाद में, पहले ‘छंदबद्धता’। जब कविता छंद छोड़ती है, तब साहित्यकार नींद छोड़ देता है।”
तालियाँ तो नहीं बजीं, पर सामने बैठे साहित्य विभाग के दो छात्र ज़रूर सिर हिलाने लगे।
फिर बारी आई चंद्रमोहन ‘चुटकुले’ की।
कन्हैयालाल ने एक लंबा सांस लिया और बोले,
“हास्य कविता का स्तरीकरण अगर नाली से होता, तो आपकी कविता उसी में बहती पाई जाती।”
चुटकुले जी ने जवाब में कहा, “सर, मैं तो कहता हूँ, जो हँसा वो पास, जो हँसते-हँसते गिरा—वो गोल्ड मेडल।”
श्रोताओं ने हँस कर समर्थन दिया। कन्हैयालाल ने डायरी में नोट किया: “कवि—संवेदनाहीन, पर लोकप्रिय।”
अब आई प्रभा ‘प्रचंड’ की बारी।
कन्हैयालाल थोड़े सावधान हुए। बोले,
“आपकी कविता में जोश है, लेकिन कविता गद्य बन चुकी थी। अगर ‘ज्वालामुखी’ और ‘चीनी’ के बीच पुल न बने, तो कविता पाठ्यपुस्तक नहीं, चेतावनी पत्र बन जाती है।”
प्रभा जी मुस्कराईं, “सच कहा, मेरी कविता चेतावनी ही है—पितृसत्ता के लिए।”
इसपर पीछे से कोई धीरे से फुसफुसाया, “और हमारे लिए डांट पत्र।”
फिर मंच पर आया एक नया चेहरा—बृजमोहन ‘भावुक’। उन्हें किसी ने अब तक नोटिस नहीं किया था क्योंकि वे आयोजन में टेबल सजाने वाले वॉलंटियर थे, लेकिन उनके पास भी कुछ पन्ने थे, और आत्मा में बहुत दर्द।
कन्हैयालाल ने पूछा, “आपने कविता कब से लिखनी शुरू की?”
बृजमोहन बोले, “जब मेरी मंगेतर भाग गई थी।”
इसपर कन्हैयालाल ने डायरी खोली और लिखा—“प्रेम-पीड़ित, काव्य-प्रेरित।”
बृजमोहन की कविता कुछ यूँ थी—
“तेरी शादी की मिठाई खा ली,
पर दिल ने नहीं माफ़ किया।
तेरा नाम अब नमक सा लगता है,
और हर बारिश धोखा लगती है।”
यह सुनकर दीपक ‘दीवाना’ की आँखें नम हो गईं। उन्होंने कहा, “भाई, हम एक ही नाव के मुसाफ़िर हैं।”
कवियों का समूह भावुक हो गया। लेकिन तभी किसी ने कहा, “भावुकता भी एक व्यापार है।”
भीड़ में बैठे एक और आलोचक ने खड़े होकर कहा, “मैं भी समीक्षा करूँगा! मैं हूँ—सत्यनारायण ‘सचिन’—जनता की ओर से।”
यह कहकर उन्होंने मंच से माइक छीन लिया।
“कविता वही जो बीवी को भी हँसा दे, सास को भी रुला दे, और पड़ोसी को शेयर करवा दे।”
उनकी बात पर पूरा हॉल तालियों से गूँज उठा।
“हम जनता को व्याकरण से नहीं, भावना से मतलब है।”
कन्हैयालाल ने घूरा—“साहित्य कोई सोशल मीडिया नहीं!”
सचिन बोले, “तो फिर आप कमेंट्स क्यों पढ़ते हैं?”
मंच गरम हो गया था। मुन्ना लाल ‘मुक्त’ जी ने घंटी बजाई—टननन!
“बस! मंच अब शांति चाहता है। कवि सम्मेलन है, संसद नहीं।”
एकाएक सामने से एक किशोरी खड़ी हो गई। हाथ में कॉपी थी, आँखों में चमक।
नाम बताया—“मैं हूँ शालिनी, इंटर की छात्रा। मैं भी कविता सुनाना चाहती हूँ।”
सब हतप्रभ।
मुन्ना लाल बोले, “बेटी, आज की आखिरी प्रस्तुति तुम्हारी होगी।”
शालिनी ने एक गहरी साँस ली, और कविता पढ़नी शुरू की—
“सपनों की डोरी पकड़ कर निकली,
शब्दों की नाव में बैठ चली।
कविता मेरे मन का आईना है,
और मंच मेरा आसमान।”
पूरा हॉल खामोश था।
कन्हैयालाल पहली बार मुस्कराए। बोले, “कविता अब भी जीवित है।”
दीपक दीवाना ने तालियाँ बजाईं। प्रभा प्रचंड ने सिर हिलाया। चुटकुले जी बोले, “लो अब तो हम सब पीछे छूट गए।”
शालिनी के जाते ही मंच पर सब कवियों ने खड़े होकर ताली बजाई।
मुन्ना लाल ने घोषणा की—“इस बार रामपुर रत्न काव्य सम्मान मिलेगा—शालिनी को!”
लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं हुई।
किसी ने फुसफुसाया, “असली क़ाबिलियत की जीत हुई या फिर कुछ और?”
अब मंच से उतरते हुए दीपक को कोई पुराना चेहरा दिखा—हॉल के कोने में बैठी एक लड़की। वो वही थी जिससे कभी इश्क़ हुआ था… जिसने उसे छोड़ा था…
क्या ये महज़ संयोग है?
या इस सम्मेलन में कविता से ज़्यादा कहानी छुपी है?
भाग 4: वो जो कविता से निकल आई
दीपक ‘दीवाना’ की आँखें जैसे जड़ हो गई थीं। टाउन हॉल की रौशनी, तालियों की गूंज, मंच से होती घोषणाएँ—सब धीमे पड़ गए थे। उसके सामने, सबसे आखिरी लाइन में, खिड़की के पास बैठी एक लड़की—नीला सूती दुपट्टा, वही पुरानी मुस्कान, और आँखों में वो ही सवाल।
“नेहा?” उसके होंठ बुदबुदाए।
वो वही थी—नेहा मल्होत्रा, दीपक की कॉलेज वाली ‘बेतुकी कविता’।
जिसके लिए उसने पहली बार कविता लिखी थी—“तेरे जूड़े में उलझे हैं मेरे शब्द…”
जिसने एक दिन कॉपी फाड़कर कह दिया था, “दीपक, दुनिया में कविता से पेट नहीं भरता। Grow up!”
और फिर चली गई थी। MBA की पढ़ाई करने, किसी और शहर, किसी और दिशा में।
लेकिन आज? वो यहाँ? रामपुर के इस हास्यास्पद कवि सम्मेलन में?
दीपक के ठीक पास बैठा बृजमोहन ‘भावुक’ धीरे से बोला, “क्या हुआ भाई, कोई परछाई देखी क्या?”
दीपक ने सिर हिलाया, “नहीं, शायद कोई पुरानी कविता फिर से छप गई है।”
मंच पर अब अंतिम धन्यवाद भाषण शुरू हो चुका था। मुन्ना लाल ‘मुक्त’ भावुक होकर बोले, “रामपुर की धरती फिर से काव्यरस से भीग गई है। और इस बार, हमारी सबसे छोटी कवियित्री, शालिनी, इसका सबसे मीठा फूल बनी हैं।”
कन्हैयालाल ‘कठोर’ भी मुस्कराते हुए खड़े हुए। उन्होंने घोषणा की, “मैं आमतौर पर किसी को सार्वजनिक रूप से प्रोत्साहित नहीं करता, पर इस बार मैं अपनी अगली समीक्षा शालिनी पर केंद्रित करूँगा।”
शालिनी पीछे बैठी अपने पिता के कंधे पर सिर टिकाए मुस्कुरा रही थी। वो अब भी समझ नहीं पा रही थी कि क्या हुआ।
मंच से उतरते हुए दीपक की आँखें बार-बार पीछे जातीं, लेकिन नेहा वहाँ नहीं थी।
‘क्या मैं भ्रम देख रहा था?’
‘या मेरी कविता सचमुच किसी पुराने पन्ने से निकल कर सामने आ गई थी?’
कवियों का दल अब बाहर लॉन में जलपान के लिए जमा था। समोसे खा रहे कवि, रसगुल्लों में शब्द खोज रहे समीक्षक, और चाय के साथ व्याकरण की बहस कर रही प्रभा ‘प्रचंड’—एक शुद्ध भारतीय साहित्यिक दृश्य।
दीपक चुपचाप बाहर निकला, मन में सवाल लिए।
वो हॉल के पीछे वाले गेट से बाहर आया और देखा—नेहा वहीं खड़ी थी, नीम के पेड़ के नीचे, फोन में कुछ देखती हुई।
“तुम?” दीपक बोल ही गया।
नेहा ने देखा, हल्के से मुस्कराई। “हाय दीपक। बहुत अच्छा पढ़ा तुमने।”
दीपक का गला सूख गया। “तुम यहाँ क्या कर रही हो? रामपुर में… और इस सम्मेलन में?”
नेहा ने शॉल ठीक करते हुए कहा, “पापा को लाने आई थी। वही पीछे बैठे थे… उन्हें कवि सम्मेलन बहुत पसंद है। मैंने सोचा देख ही लूं कि इस ‘कविता के दीवाने’ का क्या हाल है।”
दीपक हँसा नहीं, बस एक थकी मुस्कान आई।
“तुमने मेरी कविता फिर से पढ़ी?” उसने पूछा।
“नहीं,” नेहा बोली, “सुनी। और महसूस की।”
एक अजीब सन्नाटा। हवा में कुछ अनकहा ठहरा हुआ।
नेहा आगे बोली, “तुम अब भी वैसे ही लिखते हो। थोड़ा बेहतर, थोड़ा और सच।”
दीपक ने उसकी आँखों में देखा। “और तुम? अब भी Excel शीट्स में कविताएँ गिनती हो?”
नेहा ने आँखें नीची कीं। “नहीं। अब ज़िंदगी ने सिखाया है कि कविता से पेट तो नहीं भरता, पर आत्मा ज़रूर तृप्त होती है। और शायद… उसी की भूख ज्यादा है।”
उनके बीच एक लंबा मौन खिंचा।
पीछे से बृजमोहन की आवाज़ आई—“भाई दीपक! पुरस्कार का फोटो लो! तुम मंच पर बुलाए जा रहे हो!”
दीपक ने नेहा को देखा। “आओ न, मंच तक चलें?”
नेहा ने सिर हिलाया। “नहीं, मैं यहीं ठीक हूँ। लेकिन दीपक… तुम्हारी वो कविता—‘तू बोली हम दोस्त हैं, मैं बोला फेसबुक पोस्ट हैं’—उसमें दर्द से ज़्यादा सच्चाई थी। अब समझ में आई।”
दीपक मुस्कराया। “कभी-कभी कविता अपनी उम्र से पहले जन्म लेती है।”
दीपक मंच की ओर बढ़ा। उसे ‘सर्वप्रिय कवि’ का पुरस्कार मिल रहा था—श्रोताओं के वोट से। वो जानता था, नेहा के एक वोट ने भी शायद कुछ जोड़ा था उसमें।
वो मंच पर चढ़ा, ट्रॉफी ली, और बोला,
“आज मैं धन्यवाद देना चाहता हूँ उस लड़की को, जिसने एक बार मेरी कॉपी फाड़ी थी। उसने कविता नहीं, मुझे तोड़ा था। पर उसी टूटन से कविता निकली। और आज, वो कविता मंच तक पहुँची है। शुक्रिया नेहा।”
सन्नाटा।
नेहा भी अब खड़ी थी, खिड़की के पास। आँखें भीगी थीं।
भीड़ में शालिनी ताली बजा रही थी।
बृजमोहन बोल पड़ा—“आज कवि नहीं, प्रेम जीता है।”
प्रभा प्रचंड बोलीं—“मुझे तो अब इस प्रेम की कविता पर एक क्रांतिकारी व्यंग्य लिखना पड़ेगा!”
चुटकुले जी बोले—“और मैं इस पर ‘कविता लौट आई’ नाम से स्किट बनाऊँगा!”
कन्हैयालाल ‘कठोर’ डायरी में लिख रहे थे:
“कविता तब तक जीवित है जब तक उसमें कोई नेहा है, कोई दीपक है, और कोई मंच—जहाँ ये दोनों टकरा सकें।”
टाउन हॉल की बत्तियाँ एक-एक कर बुझ रही थीं।
दीपक और नेहा, अब एक बार फिर आमने-सामने, बाहर की सड़क पर खड़े थे।
“अब कहाँ?” नेहा ने पूछा।
“जहाँ कविता ले जाए,” दीपक बोला।
नेहा ने उसकी तरफ देखा, और धीमे से कहा, “क्या आज की कविता में… मैं भी रह सकती हूँ?”
दीपक ने जेब से अपनी कॉपी निकाली, पहली बार खाली पन्ना दिखाया।
“इस बार हम साथ में लिखेंगे।”
और वहीं, रामपुर के सबसे मज़ाकिया कवि सम्मेलन की सबसे सच्ची कविता ने जन्म लिया।
भाग 5: शालिनी की दूसरी कविता और एक नया रहस्य
कवि सम्मेलन समाप्त हो चुका था, पर उसकी गूंजें अब भी टाउन हॉल की दीवारों से टकरा रही थीं। कुछ कवि अपने थैले समेट रहे थे, कुछ समीक्षक अब भी बहस कर रहे थे कि “छंद मुक्त कविता” सच में कविता है या मात्र “फ़्री पास।” चायवाला अब आखिरी केतली से बचे हुए कपों में दार्जिलिंग की जगह थोड़ी बहुत ‘भावना’ उंडेल रहा था।
और उस सबके बीच शालिनी एक कोने में बैठी थी, अपने बैग से अपनी डायरी निकालते हुए। वो अब भी समझ नहीं पा रही थी कि क्या सचमुच उसने अपनी कविता से लोगों के दिलों को छू लिया था, या बस संयोगवश मंच पर आकर भावुक कर दिया था सबको।
तभी दीपक ‘दीवाना’ उसके पास आया। उसके चेहरे पर अब कोई ग्लैमर नहीं, कोई मंचीय आभा नहीं—बस एक सादा मुस्कान।
“क्या लिख रही हो?” उसने पूछा।
शालिनी थोड़ी सकुचाई। “बस यूँ ही… एक कविता, आज की रात के लिए।”
दीपक ने कहा, “सुनाओगी नहीं?”
“आप जैसे कवियों के सामने?” शालिनी बोली, “अभी मेरी कलम में बहुत अभ्यास बाकी है।”
दीपक मुस्कराया, “कविता अभ्यास से नहीं, साहस से लिखी जाती है।”
शालिनी ने डायरी खोली और धीरे से पढ़ना शुरू किया—
“एक लड़की मंच पर आई,
न उसकी आवाज़ में गूंज थी,
न शब्दों में आदर्श,
पर उसमें हिम्मत थी,
क्योंकि उसकी कविता डर से बड़ी थी।
और उसी डर को हराने,
वो उठी थी… पहली बार, मंच के सामने।”
दीपक ने ताली नहीं बजाई, सिर झुकाया और बोला, “शालिनी, तुम सिर्फ एक कवियित्री नहीं, एक अलार्म हो—जो सोई हुई दुनिया को जगा सकती है।”
शालिनी थोड़ी चौंकी। “अलार्म?”
“हाँ,” दीपक बोला, “कविता वही है जो किसी को नींद से उठा दे, और कुछ नया सोचने पर मजबूर कर दे। ये कविता वैसी थी।”
तभी वहाँ पहुँचती हैं प्रभा ‘प्रचंड’। अब भी उनकी आँखों में क्रांति की चिंगारी थी। उन्होंने आते ही पूछा, “शालिनी, क्या तुम अगले सप्ताह महिला केंद्र द्वारा आयोजित कवि सम्मेलन में हिस्सा लोगी?”
शालिनी हकबका गई। “मैं… मैं?”
“हाँ,” प्रभा बोलीं, “हम एक नई पीढ़ी को सामने लाना चाहते हैं। और तुममें वो आग है। बस थोड़ी दिशा चाहिए।”
शालिनी की आँखें चमक उठीं। “मैं ज़रूर आऊँगी।”
दीपक ने देखा—शालिनी की कलम अब थरथरा नहीं रही थी, वो चल रही थी। धीरे-धीरे सही, पर साहस के साथ।
अगले दिन रामपुर के स्थानीय अख़बार “रामपुर बुलेटिन” के पहले पन्ने पर हेडलाइन थी:
“शालिनी की कविता बनी रामपुर की धड़कन, दीपक ‘दीवाना’ और नेहा की मुलाकात पर कवि जगत में चर्चा गरम”
लेख के नीचे एक कोना था—“राय दें”—जहाँ किसी अज्ञात पाठक ने टिप्पणी की थी:
“कविता मंच से नहीं, मंच के बाहर की सच्चाइयों से जन्म लेती है। ये सम्मेलन नहीं, एक नया आंदोलन है। लेकिन सावधान रहिए—हर मंच पर सिर्फ कविता नहीं होती, कभी-कभी षड्यंत्र भी छुपा होता है।”
ये टिप्पणी दीपक ने पढ़ी, और चौंका।
उसी शाम प्रभा प्रचंड ने अपने साहित्यिक मित्र मंडली के साथ बैठक बुलाई।
“कुछ तो है,” उन्होंने कहा, “ये सम्मेलन जितना साधारण दिखा, उतना था नहीं। तुम्हें पता है, दीपक को वोट सबसे ज़्यादा कहाँ से मिले?”
“कहाँ?” चुटकुले जी ने पूछा, बिस्कुट चबाते हुए।
“सभी वोट एक ही IP एड्रेस से आए,” प्रभा बोलीं।
सन्नाटा।
“मतलब?” कविनाथ ‘समोसा’ ने पूछा, “क्या दीपक ने फर्जी वोट करवाए?”
प्रभा बोलीं, “नहीं। पर कोई है जो उसे जिताना चाहता था—जान-बूझकर।”
“कौन हो सकता है?” बृजमोहन बोला, “नेहा?”
प्रभा ने सिर झुकाया। “या फिर… कोई और, जो चाहता है कि दीपक मंच पर टिका रहे। शायद आने वाले किसी बड़े आयोजन के लिए।”
दीपक को इस साज़िश की हवा नहीं थी। वो नेहा के साथ पुराने कालेज की चाय की दुकानों को घूम रहा था, वहीं जहाँ पहली बार कविता हुई थी, और पहली बार दिल टूटा था।
पर टाउन हॉल के तहखाने में कुछ और ही चल रहा था।
मुन्ना लाल ‘मुक्त’ अपने पुराने रजिस्टर उलट-पलट रहे थे। उसके अंदर एक फ़ाइल थी—जिसमें बीते पाँच वर्षों के कवि सम्मेलनों की रिपोर्टें थीं। और हर रिपोर्ट में एक नाम बार-बार आ रहा था—‘दीपक दीवाना’—कभी सबसे कम अंक लेकर भी चुना गया, कभी सबसे आखिरी में पंक्ति में बैठे हुए अचानक मंच पर बुलाया गया।
मुन्ना लाल ने फाइल बंद की और फोन उठाया।
“जी हाँ, बात बढ़ रही है। दीपक को लोगों के दिल में बिठाना है। उसके बाद असली खेल शुरू होगा।”
फोन के दूसरे सिरे से आवाज़ आई, “समझ गया। उसे पता नहीं चलना चाहिए… अभी नहीं।”
शाम ढल चुकी थी।
शालिनी अपने कमरे में बैठी अगली कविता लिख रही थी। पर अचानक उसकी खिड़की से एक लिफ़ाफा उड़ता हुआ आया।
उसमें सिर्फ एक कागज़ था।
“अगली कविता सोच-समझकर लिखना।
शब्द कभी-कभी किसी और की तलवार बन जाते हैं।
—एक चेतावनी”
शालिनी काँप गई।
उसे नहीं पता था कि अब वो सिर्फ एक कवियित्री नहीं रही, बल्कि एक ऐसे मंच का हिस्सा बन चुकी थी—जहाँ शब्दों से ज़्यादा भारी होते हैं उनके पीछे के इरादे।
भाग 6: मंच के नीचे क्या छुपा है?
रामपुर का टाउन हॉल इस समय सूना था। पिछली रात का कवि सम्मेलन अब सिर्फ झाड़ू लगाने वाले के लिए एक कागज़ों और समोसे के टुकड़ों से भरा युद्धभूमि था। लेकिन टाउन हॉल के नीचे—हां, ठीक मंच के नीचे—एक तहखाना था, जिसकी चाबी केवल मुन्ना लाल ‘मुक्त’ के पास थी।
वो सुबह-सुबह बिना किसी को बताए टाउन हॉल पहुँचे। दरवाजा खोला, धीरे से सीढ़ियाँ उतरीं, और तहखाने में पहुँच गए। वहाँ दीवार पर टंगे थे पिछले बीस वर्षों के कवि सम्मेलनों के पोस्टर—कहीं रुमझुम बारिश में कविता, कहीं जोश में नारेबाज़ी। एक कोने में एक पुराना लोहे का ट्रंक था, जिस पर लिखा था—“योजना 2005: परियोजना दीवाना”
मुन्ना लाल ने ट्रंक खोला, अंदर से एक फाइल निकाली। फाइल पर एक नाम उभरा—दीपक शर्मा उर्फ़ दीपक ‘दीवाना’
फाइल में उसकी एक ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर थी—कॉलेज यूनिफॉर्म में, हाथ में कविता की डायरी और चेहरे पर एक मासूम सा गुस्सा।
नीचे लिखा था—
“गुप्त चयन: अगला जन-कवि। प्रयोग में लाने योग्य—साहसी, सरल, समाज-संवेदी। भावुकता उच्च। मंचीय प्रभाव मध्यम। संभावनाएँ अपार।”
मुन्ना लाल फाइल पर हाथ फेरते हुए बुदबुदाए, “अब वक्त आ गया है योजना का दूसरा चरण शुरू करने का।”
उधर दूसरी ओर शालिनी को मिला वह अज्ञात चेतावनी पत्र उसके मन में बवंडर मचा चुका था। उसकी डायरी खुली थी, लेकिन कलम ठिठकी हुई थी। कौन भेज सकता है ऐसा पत्र? क्यों?
वह उठी, अपने पिताजी के कमरे में गई। “पापा, आप को मंच के आयोजकों में से कोई जान-पहचान है क्या?”
पिता जी चौंके, “क्यों बेटा?”
“बस ऐसे ही, मुझे एक अजीब सा संदेश मिला है।”
पिता ने गंभीर होते हुए कहा, “देखो बेटा, साहित्य की दुनिया जितनी मीठी लगती है, उतनी सरल नहीं। यहाँ भी राजनीति होती है—कभी सम्मान की, कभी मंच की।”
शालिनी समझ गई—कुछ है जो वह नहीं देख रही थी। और वो जानना चाहती थी।
उसी दिन, कन्हैयालाल ‘कठोर’ को एक अज्ञात फोन आया।
“सर, आपने पिछले सम्मेलन की समीक्षा में शालिनी को प्रशंसा दी थी। अब आपको यह समीक्षा हटानी होगी।”
“क्यों?” कन्हैयालाल गुस्से में बोले, “मेरी कलम को कोई डिक्टेशन नहीं दे सकता।”
आवाज़ आई, “तो आप अगली बार मंच पर नहीं होंगे। और आपके साहित्य अकादमी पुरस्कार की फाइल भी… लंबित हो सकती है।”
कन्हैयालाल की आवाज़ डगमगाई। “आप कौन हैं?”
“वो जो मंच के नीचे बैठकर कवि तय करता है,” और कॉल कट गया।
शाम को दीपक और नेहा एक पुराने बस स्टैंड के चाय स्टॉल पर बैठे थे।
दीपक कह रहा था, “सब कुछ बहुत जल्दी बदल रहा है नेहा। पहले कविता सिर्फ मेरे कमरे की दीवारों में थी, अब मंचों पर ताली बज रही है।”
नेहा ने चाय की चुस्की ली और बोली, “कभी-कभी सफलता तुम्हें नहीं, कोई और तय करता है।”
दीपक चौंका। “मतलब?”
नेहा ने उसका हाथ पकड़ा, “दीपक, मैं तुमसे एक बात छुपा रही थी। मैंने इस सम्मेलन में आने से पहले तुम्हारे नाम को इंटरनेट पर सर्च किया था। तुम्हारा नाम कई पुराने आयोजनों की सूचियों में बार-बार आया… पर किसी कविता संग्रह में नहीं।”
“शायद मेरी किस्मत…” दीपक बोलना चाह रहा था, लेकिन नेहा ने उसकी बात काट दी।
“या शायद कोई तुम्हें तैयार कर रहा है। कोई ऐसा जो चाहता है कि तुम एक प्रतीक बनो।”
दीपक की आँखें सिकुड़ गईं। “लेकिन क्यों?”
“शायद कोई संस्था, या कोई समूह, जो चाहता है कि एक नया कवि जनता में फैले—बिना यह बताए कि वो असल में किसका चयन है।”
दीपक ने जैसे हवा से बात करते हुए कहा, “अगर मैं सिर्फ एक मोहरा हूँ, तो मेरी कविता मेरी नहीं रही।”
रात होते-होते टाउन हॉल की बिजली अचानक गुल हो गई। लेकिन तहखाने में रोशनी जल रही थी।
मुन्ना लाल ‘मुक्त’ एक लाल फोल्डर में नया दस्तावेज़ डाल रहे थे—“योजना 2025: नई पीढ़ी का अगला चेहरा—शालिनी। प्रयोग प्रारंभ।”
और तभी दरवाज़े के बाहर धीमे कदमों की आहट आई। किसी ने छुपकर वो दस्तावेज़ पढ़ा।
अगले दिन प्रभा ‘प्रचंड’ के घर पर एक बंद लिफ़ाफा पहुँचा—जिसमें लिखा था:
“तहखाने में वो छिपा है, जो मंच पर दिखता नहीं।
कविता के नीचे राजनीति की चुप्पी है।
सावधान रहो।
—एक पूर्व कवि, जो अब सिर्फ पाठक है।”
प्रभा के हाथ काँप गए।
इसी बीच, शालिनी को एक और लिफ़ाफा मिला—इस बार उसमें सिर्फ एक नाम लिखा था—“प्रोजेक्ट दीवाना”
और नीचे—“Google it.”
उसने गूगल में टाइप किया—“Project Deewana Literary Initiative”
सामने एक पुरानी वेबसाइट खुली। उसमें लिखा था:
“जन-मन में साहित्य लाने के लिए एक प्रायोगिक योजना, जिसमें कुछ चुने गए युवाओं को मंचीय कवि के रूप में प्रशिक्षित कर समाज में विचार-प्रवर्तन का माध्यम बनाया जाए।”
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Initiated in 2005. Status: Ongoing. Next Phase: 2025.
शालिनी अब समझ चुकी थी कि वो सिर्फ एक सामान्य प्रतिभागी नहीं रही। उसे मंच तक पहुँचाने के पीछे कोई बहुत गहरी साज़िश थी। लेकिन सवाल ये था—क्यों?
और कौन है इस ‘प्रोजेक्ट’ के पीछे?
दीपक?
मुन्ना लाल?
या कोई और… जो अब तक छुपा बैठा है?
भाग 7: नेहा की डायरी और वह नाम जो मिटा दिया गया था
शाम के पाँच बजे थे। रामपुर में बारिश की हल्की फुहार पड़ रही थी। दीपक और नेहा पुराने कॉलेज के लॉन में बैठे थे, जहाँ कभी उन्होंने पहली बार बहस की थी कि कविता ज़्यादा ज़रूरी है या कैरियर। उस बहस में नेहा जीत गई थी। लेकिन वक्त ने करवट ली थी—अब वो बहस दोनों के बीच से हट गई थी, और उसकी जगह आ गया था एक अनकहा डर।
नेहा ने बैग से एक छोटी सी डायरी निकाली—नीली जिल्द, किनारे से हल्का फटा हुआ।
“ये मेरी है,” उसने कहा, “जिसे मैंने सालों तक छुपा कर रखा था। तुमसे भी।”
दीपक ने डायरी को उलट-पलट कर देखा। “क्या है इसमें?”
“Project Deewana की पूरी कहानी,” नेहा बोली।
दीपक के माथे पर बल पड़ गए। “तुम्हें ये कब से पता था?”
“जब तुम मंच पर पहुँचे और लोगों ने ताली बजाई, तभी मुझे लगा कि कुछ अलग है,” नेहा बोली। “मैंने खोज शुरू की, और कॉलेज की पुरानी लाइब्रेरी में ये डायरी मिली—किसी पुराने छात्र की, जिसका नाम फाड़ दिया गया था। पर अंदर जो लिखा है, वो सब कुछ बताता है।”
दीपक ने पन्ना खोला—
“2006 — मुन्ना लाल मुक्त ने हमें इकट्ठा किया। कहा—देश में कविता मर रही है, लोगों को अब कविता सुनना नहीं, देखना है। हमें ऐसा चेहरा चाहिए, जिसे गढ़ा जा सके। जो जनकवि लगे—लेकिन मंच उसका सिर्फ माध्यम हो, इरादा कोई और।”
दीपक का गला सूख गया।
नेहा ने आगे बताया, “इसमें कई छात्रों के नाम हैं जो ‘Project Deewana’ के तहत चुने गए थे। सबको प्रशिक्षित किया गया—शब्दों को सरल बनाना, मंच पर कैसे रोना है, कब ठहरना है, किस लहजे में बोलना है।”
“और मैं?” दीपक ने धीरे से पूछा।
नेहा ने सिर हिलाया, “तुम शायद आखिरी बैच के हो। लेकिन फर्क ये है कि तुम्हें कभी बताया नहीं गया कि तुम इस प्रोजेक्ट का हिस्सा हो।”
“मतलब मैं सिर्फ एक मोहरा था?” दीपक की आवाज़ काँपी।
“नहीं,” नेहा ने उसका हाथ पकड़ा। “तुम्हारे अंदर सचमुच की कविता है। लेकिन किसी ने उसे इस्तेमाल किया।”
दीपक चुप हो गया। सामने लॉन में बारिश की बूँदें गिर रही थीं, जैसे शब्द पन्नों पर टपक रहे हों।
उसी रात शालिनी ने अपने कमरे में बैठे-बैठे एक योजना बनाई। वो अब और चुप नहीं रह सकती थी। उसे खुद जाना होगा तहखाने में, जहाँ सारी योजना छुपी थी।
उसने प्रभा प्रचंड को कॉल किया, “आप मेरे साथ चलेंगी?”
प्रभा ने बिना सोचे हाँ कहा।
“मगर किसके बहाने?” प्रभा बोलीं।
“कविता पाठ,” शालिनी ने कहा, “तहखाने में छुपकर नहीं, कविता से लड़ेंगे।”
रात के नौ बजे टाउन हॉल में एक आकस्मिक “रात्री काव्य सत्र” का आयोजन किया गया। मुन्ना लाल ने पहले तो विरोध किया, “इतनी रात को? किसलिए?”
शालिनी ने हँसते हुए कहा, “कविता रात को ही जन्म लेती है न?”
मुन्ना लाल की आँखों में संदेह था, लेकिन उन्होंने अनुमति दे दी।
कवि, श्रोता और समीक्षक—सब आ गए। दीपक और नेहा भी। लेकिन उनके चेहरे पर कोई मंचीय चमक नहीं, बस चुप्पी थी।
कविता सत्र शुरू हुआ। पहला पाठ बृजमोहन ने किया—अबकी बार गंभीर कविता लेकर आए थे।
“मंच की सीढ़ियों पर चढ़ते हैं चेहरे,
जिनकी परछाइयाँ किसी और की उँगलियों से बनती हैं।
हम सोचते हैं—हमने लिखा,
लेकिन शब्द कभी हमारे थे ही नहीं।”
श्रोता चौंके।
प्रभा ने मुस्कराकर कहा, “अब कविता हथियार बन चुकी है।”
शालिनी मंच पर आई। बोली, “मेरी कविता नहीं, एक घोषणा है।”
उसने डायरी से नेहा की नोट की हुई लाइनें पढ़ना शुरू किया।
हर पंक्ति पर टाउन हॉल में सन्नाटा फैलता गया।
“Project Deewana: जनकवि निर्माण योजना
कविता की आत्मा को मंच पर अभिनय में ढालने की प्रयोगशाला
चयनित युवक-युवतियों को पहचान दिए बिना तैयार किया जाता है
फिर जनता के बीच उन्हें छोड़ा जाता है—ताली और आह भरवाने के लिए।”
पीछे बैठे मुन्ना लाल उठे। “ये क्या बकवास है? किसकी इजाज़त से ये पढ़ा जा रहा है?”
दीपक खड़ा हुआ। “मेरी इजाज़त से।”
सब उसकी ओर मुड़े।
“क्योंकि मैं वो नाम हूँ जो मिटा दिया गया था। मैं था वो ‘प्रोजेक्ट’। लेकिन अब मैं सिर्फ कविता हूँ—अपनी शर्तों पर, अपने शब्दों में।”
प्रभा प्रचंड ने कहा, “कविता अब किसी संगठन की योजना नहीं होगी। अब वो जनता की होगी।”
नेहा खड़ी हुई, “और हम सब इस योजना के खिलाफ बोलेंगे।”
कन्हैयालाल भी पीछे से उठे, “मैं अपनी कलम अब उनकी ओर मोड़ूंगा, जो कविता को विज्ञापन समझते हैं।”
मुन्ना लाल हकबका गए। “तुम लोग कुछ नहीं कर सकते। मेरे पास चिठ्ठियाँ हैं, दस्तावेज़ हैं, मंच है!”
शालिनी बोली, “तो हम कविता से तुम्हारा मंच छीन लेंगे।”
अगले दिन सुबह अख़बारों में हेडलाइन थी:
“Project Deewana हुआ उजागर: कविता के मंच पर सालों से चल रहा था भावनात्मक प्रोग्रामिंग का खेल”
“दीपक दीवाना ने मंच पर बताया—कैसे उसे ‘जनकवि’ बनाने की तैयारी पहले से चल रही थी”
“नेहा मल्होत्रा की डायरी ने खोल दी साहित्य जगत की सबसे बड़ी साज़िश”
शहर में हलचल मच गई थी। मुन्ना लाल को साहित्यिक संस्थाओं ने निष्कासित कर दिया।
लेकिन शालिनी, दीपक और नेहा ने कुछ और सोचा था। एक नया मंच, एक नया नाम, और एक नई शुरुआत।
उसका नाम रखा गया:
“स्वर-कवि: जहाँ कविता सिर्फ शब्द नहीं, सत्य हो”
और उसके पहले कार्यक्रम में दीपक ने पहली बार मंच पर बिना भूमिका के एक नई कविता सुनाई:
“मुझे मत गढ़ो, मैं मिट्टी नहीं,
मुझे मत चलाओ, मैं तलवार नहीं।
मैं कविता हूँ—जिस दिन जाग गई,
योजना नहीं, क्रांति बन जाऊँगी।”
भाग 8: स्वर-कवि की पहली सभा और मुन्ना लाल की वापसी की योजना
रामपुर के पुराने टाउन हॉल की जगह अब शहर के बाहर, एक छोटे से पुस्तकालय में हो रही थी स्वर-कवि की पहली सभा। अंदर न कोई चमचमाती लाइट थी, न माइक की गड़गड़ाहट, न कुर्सियों पर बड़े-बड़े नाम। वहां थे तो बस कुछ लोग—जिनके पास शब्द थे, सवाल थे, और आत्मा से निकली कविताएं।
दीपक दीवाना, जो अब सिर्फ ‘दीपक’ कहलाने लगा था, मंच पर नहीं, ज़मीन पर बैठा था। सामने प्रभा प्रचंड, बृजमोहन भावुक, शालिनी और नेहा के साथ कुछ नए चेहरे—कभी कविता के पाठक रहे, आज पहली बार लेखक बनने की कोशिश कर रहे थे।
सभा का आरंभ शालिनी ने किया, अपनी उसी धीमी लेकिन आत्मविश्वासी आवाज़ में:
“आज से कविता किसी परियोजना का हिस्सा नहीं, बल्कि प्रतिरोध की एक आवाज़ है। न कोई चयन समिति, न कोई गुप्त योजना। बस हम, और हमारे शब्द।”
तालियाँ नहीं बजीं। बस सहमति में सिर हिले।
पहला पाठ बृजमोहन का था, जिसने आज मज़ाक नहीं, एक नये स्वर में लिखा था:
> “मैं वो कवि नहीं,
जिसे मंच पर ट्रेनिंग मिली।
मैं वो पाठक हूँ,
जिसने अंत में किताब लिखी।”
इसके बाद दीपक उठा। हाथ में कोई कॉपी नहीं थी, कोई फोन भी नहीं। बस याद की हुई पंक्तियाँ, जो वह रास्ते चलते दोहराता आया था।
“जिसने लिखा, उसे मत पूजो,
जिसने महसूस किया, उसका आदर करो।
कविता अगर पब्लिक रिलेशन बन जाए,
तो फिर हर मंच जेलखाना हो।”
भी चुप। नेहा ने पहली बार धीरे से ताली बजाई। उसके पीछे बैठे दो नए युवा भी मुस्कराए। एक ने फुसफुसाया, “दीपक अब सच में ‘दीवाना’ नहीं, ‘जागा हुआ’ है।”
सभा समाप्त होते-होते तय हुआ कि स्वर-कवि एक मासिक बैठक रखेगा—जिसमें कोई भी आ सकता है, कोई भी कविता सुना सकता है, और सबकी सुननी अनिवार्य होगी।
लेकिन दूर, उसी रामपुर टाउन हॉल के पुराने तहखाने में—अब तक बंद पड़ा मुन्ना लाल ‘मुक्त’ की चालें फिर से शुरू हो रही थीं।
मुन्ना लाल, जो अब तक साहित्य संस्थाओं से बाहर कर दिए गए थे, एक पुराने मित्र के यहाँ अड्डा जमा चुके थे—श्री भोंपू लाल ‘भावक’। भोंपू लाल कभी मंचीय हास्य कवि थे, लेकिन अब कविता के नाम पर जलेबी जैसे वक्र भाषण देते थे।
मुन्ना लाल ने उनके सामने एक नयी योजना रखी।
“भावक जी, स्वर-कवि चल रहा है, लेकिन इसकी नींव भावनाओं पर टिकी है। हमें इसे हिलाना है—शब्दों से नहीं, शक से।”
भोंपू लाल ने पूछा, “क्या मतलब?”
“मतलब ये कि हम स्वर-कवि के खिलाफ एक झूठी साजिश फैला देंगे। जैसे—इनके फंडिंग विदेशी संस्था से आ रही है। या ये लोग युवा कवियों को भड़काते हैं। कुछ नकली पोस्टर, सोशल मीडिया पोस्ट्स… और फिर जनता तय करेगी कि सच क्या है।”
भोंपू लाल बोले, “लेकिन दीपक और शालिनी अब जनता के प्यारे हैं। ये लोग सवाल पूछेंगे।”
मुन्ना लाल की आँखें चमकीं, “तो हम इन पर व्यक्तिगत हमला करेंगे। पुरानी बातों को घसीटेंगे, नेहा और दीपक की तस्वीरें लीक करेंगे, और सबसे पहले हम शालिनी को बदनाम करेंगे—कि वो कवियित्री नहीं, किसी संगठन की गुड़िया है।”
भोंपू लाल डर गए, “इतना नीचे गिरना?”
मुन्ना लाल हँसे, “जब मंच गिरता है, तो नीचे जाना ही पड़ता है।”
उधर नेहा ने अपने दोस्त की मदद से एक छोटी सी वेबसाइट बनवाई—www.swarkavi.in
उसमें सभी कवियों की प्रोफाइल, उनकी मूल कविताएँ, और एक सार्वजनिक टिप्पणी अनुभाग था।
“हमारा मंच डिजिटल भी होगा, ताकि हर गाँव, हर गली तक पहुँचे। जहाँ कविता सिर्फ व्हाट्सएप फॉरवर्ड न रहे, एक जीवंत परंपरा बने,” नेहा ने कहा।
दीपक ने साइट पर अपने बारे में सिर्फ इतना लिखा—“एक समय था जब मुझे बनाया गया था। अब मैं खुद को लिख रहा हूँ।”
लेकिन जैसे ही वेबसाइट लाइव हुई, अगले ही दिन एक फेक न्यूज़ वेबसाइट पर छपा:
“स्वर-कवि की फंडिंग संदिग्ध, नेहा मल्होत्रा के विदेशी कनेक्शन उजागर”
उसके नीचे एक तस्वीर—जिसमें दीपक और नेहा एक पार्क में बैठे थे।
नीचे कैप्शन:
“क्या ये साहित्य है, या प्रेम की आड़ में एजेंडा?”
शालिनी ने जैसे ही ये खबर देखी, उसके फोन पर अजीब-अजीब नंबरों से कॉल्स आने लगे।
कुछ उसे धमकी दे रहे थे, कुछ पूछ रहे थे—“आप इस संस्था में काम करती हैं, जो धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचा रही है?”
शालिनी काँप गई। उसने तुरंत दीपक को कॉल किया।
“हमें कुछ करना होगा,” उसने कहा।
दीपक ने शांत स्वर में जवाब दिया, “हमें कविता से जवाब देना होगा। प्रेस कॉन्फ्रेंस से नहीं, पोस्टर से नहीं—सीधा जनता से, कविता में।”
अगली बैठक स्वर-कवि की तय हुई—खुले मैदान में, शहर के बीचोबीच। इस बार थीम थी: “कविता बनाम साज़िश”
सभा की शुरुआत शालिनी ने की:
“जिस कविता से डरा जाए,
समझ लो वो सच्ची है।
और जो साज़िश से डराए,
समझ लो वो टूटी है।”
फिर नेहा बोली—
“मेरे पास न धन है, न पद,
बस एक सच है, जो मेरी आँखों में रहता है।”
और अंत में दीपक ने मंच पर नहीं, भीड़ के बीच खड़े होकर ये कहा—
“मेरे शब्द बिके नहीं,
पर अब उन्हें खरीदने वाले बहुत हैं।
मैं गिरा नहीं,
पर अब मुझे गिराने वाले बहुत हैं।
पर मेरी कविता न डरती है, न छुपती है—
वो आज फिर जी उठी है।”
भीड़ में कोई चुपचाप सुन रहा था। मुन्ना लाल, भेष बदलकर, भीड़ में मौजूद थे।
उन्होंने देखा—इस कविता में मंच नहीं था, फिर भी लोग सुन रहे थे।
उन्होंने खुद से कहा, “मुझे नई योजना बनानी होगी।”
भाग 9: कविता की हत्या या पुनर्जन्म?
स्वर-कवि की सभा अब एक आंदोलन में बदल चुकी थी। न कोई बैनर, न स्पॉन्सर, न संस्थागत ढोल-ताशा—फिर भी रामपुर से लेकर बरेली, इलाहाबाद, कानपुर तक लोग अब इसे जानने लगे थे। लोगों को लगने लगा था कि कविता अब फिर ज़िंदा हो रही है—स्कूलों के निबंधों से बाहर, फेसबुक स्टेटस से दूर, जीते-जागते चेहरों में।
लेकिन जैसे हर आंदोलन की परछाई होती है, वैसे ही स्वर-कवि की बढ़ती लोकप्रियता की छाँव में अब खतरे गहराने लगे थे।
मुन्ना लाल ‘मुक्त’ अब खुलकर सामने नहीं थे, लेकिन उनके इशारों पर नई साज़िशों की बिसात बिछाई जा रही थी। उनका नया संगठन—”भारतीय मंचसंस्कृति परिषद”—एक वैकल्पिक संस्था बनकर सामने आया, जिसका उद्देश्य था: “कविता को भारतीय मूल्यों की रक्षा के लिए नियंत्रित करना।”
दीपक को जब यह खबर मिली, तो उसने हँसते हुए कहा, “ये संस्था कविता नहीं, बंदिशें बेच रही है।”
नेहा ने गंभीर होकर जोड़ा, “लेकिन बंदिशों को भी लोग संस्कृति मान लेते हैं। हमें सावधान रहना होगा।”
शालिनी इन सबके बीच खुद को थोड़ा डगमगाता महसूस कर रही थी।
वो अब अचानक इस आंदोलन की ‘चेहरा’ बन चुकी थी—टीवी चैनलों पर चर्चा हो रही थी, उसकी कविताएं स्कूल के पाठ्यक्रम में डाली जा रही थीं। लेकिन जब रात को वो अपनी डायरी खोलती, तो कलम रुक जाती।
“क्या मैं अब भी वही लिख पा रही हूँ जो पहले?”
“या अब मैं भी सिर्फ एक प्रतीक बन गई हूँ?”
उसने एक नई कविता शुरू की:
“जब लोग ताली बजाते हैं,
तब शब्द काँपते हैं।
जब तुम चेहरा बन जाते हो,
तब आईना डरने लगता है।”
इधर दीपक को एक बड़ा निमंत्रण मिला—दिल्ली के एक प्रतिष्ठित कवि सम्मेलन में उद्घाटन काव्यपाठ के लिए। लेकिन शर्त थी—“राजनीतिक या संस्थागत आलोचना न हो”
दीपक ने कहा, “तो फिर कविता क्यों?”
नेहा ने सलाह दी, “जाओ, लेकिन वही बोलो जो तुम्हारा है। चाहे मंच रहे या न रहे।”
दिल्ली का मंच भव्य था—बैकलाइट्स, चमकते कैमरे, और एक मंचीय उद्घोषक जो हर कवि को 10 बार धन्यवाद देता था। दीपक जब मंच पर आया, तो पूरे सभागार में सन्नाटा था।
उसने बिना किसी भूमिका के पढ़ा—
“कविता को जब मंच मिला,
तो उसने चुप्पी ओढ़ ली।
फिर एक दिन उसने खुद को देखा,
तो पाया—
वो अब पोस्टर बन चुकी है।
वो पूछती है—
क्या मैं अब भी कविता हूँ?
या मेरी हत्या हो चुकी है—
तालियों की गूंज में,
लाइक्स की दौड़ में?”
पीछे बैठे आयोजक फुसफुसाने लगे।
“ये तो वही स्वर-कवि वाला लड़का है।”
“हमें बताया नहीं गया कि वो आएगा।”
“नैशनल टीवी पर ये बोल देगा?”
पर दीपक रुका नहीं। उसने आगे कहा—
“अगर कविता मर चुकी है,
तो हमें उसका अंतिम संस्कार नहीं,
पुनर्जन्म करना होगा।
और इस बार वो पैदा होगी
आम आदमी की आवाज़ में।”
सभा में कुछ लोग उठकर जाने लगे। लेकिन कुछ नए चेहरे, जो अब तक केवल श्रोता थे, ताली बजा रहे थे—धीरे, मगर साहस के साथ।
बाहर निकलते ही दीपक के पास एक बुज़ुर्ग आए। बोले, “बेटा, तुमने वो कह दिया जो हम 40 साल से छुपा रहे थे। अब तुम अकेले नहीं हो।”
उसी दिन रात को, रामपुर में एक शॉर्ट-नोटिस मीटिंग बुलाई गई थी भारतीय मंचसंस्कृति परिषद की।
मुन्ना लाल ने एक लाल फ़ाइल निकाली।
“अब बहुत हो गया। हमें ‘स्वर-कवि’ को कानूनी रूप से बंद करना होगा।”
भोंपू लाल बोले, “लेकिन कैसे?”
“देशद्रोह की धारा लगाएँगे,” मुन्ना लाल बोले। “कहेंगे ये लोग युवा मन को भड़काते हैं। कविता के नाम पर संविधान के विरुद्ध बातें फैलाते हैं। और सबसे पहले निशाना बनेगा—शालिनी।”
सभा में सन्नाटा।
मुन्ना लाल ने आगे कहा, “एक झूठा स्टिंग ऑपरेशन भी करवाया जाएगा—जिसमें दिखाया जाएगा कि ये फंडिंग पाकिस्तान या किसी विदेशी NGO से हो रही है।”
भोंपू लाल डरते हुए बोले, “इतना बड़ा आरोप? कोई सबूत?”
मुन्ना लाल बोले, “अब शब्द नहीं, हथियार चलेंगे।”
शालिनी उस वक्त स्वर-कवि की अगली बैठक के लिए प्रेस रिलीज़ लिख रही थी। तभी उसे एक अनजान नंबर से कॉल आया।
“शालिनी जी, आपको समन भेजा गया है—आपके विरुद्ध देशविरोधी गतिविधियों की शिकायत दर्ज हुई है।”
शालिनी सन्न रह गई।
दीपक को जब खबर लगी, वो उसी रात रामपुर लौट आया।
नेहा ने फोन पर कहा, “दीपक, अब वक्त आ गया है कि हम सिर्फ कविता न करें, बल्कि कवियों को भी बचाएँ।”
प्रभा प्रचंड ने अपने पुराने संपर्कों को सक्रिय किया—वरिष्ठ पत्रकारों, वकीलों, और साहित्यकारों को जो अब तक चुप थे।
दो दिन बाद, रामपुर में स्वर-कवि का एक ‘ओपन माइक’ रखा गया।
लेकिन इस बार कोई मंच नहीं था—बस एक बगीचा, कुछ चटाई, और माइक के बजाय खुला आसमान।
दीपक ने सभा की शुरुआत करते हुए कहा:
“अगर कविता को जेल भेजा जाएगा,
तो हम सब उस जेल की दीवार बनेंगे।”
फिर शालिनी खड़ी हुई। आँखों में आँसू थे, लेकिन हाथ में उसकी सबसे नई कविता:
“जिस दिन मेरी कविता पर मुकदमा चलेगा,
उस दिन कलम अदालत में गवाही देगी।
और तब पता चलेगा—
दोष कविता का नहीं,
उस व्यवस्था का है
जो सच से डरती है।”
ताली नहीं, सिसकियाँ सुनाई दीं।
सभा समाप्त होने के बाद, सैकड़ों लोगों ने एक हस्ताक्षर अभियान शुरू किया—“मैं भी स्वर-कवि हूँ।”
और अगली सुबह एक और हेडलाइन छपी:
“स्वर-कवि पर देशद्रोह की धारा? सैकड़ों बुद्धिजीवियों ने किया विरोध, कहा—‘अब कविता नहीं झुकेगी’”
मुन्ना लाल का चेहरा थक चुका था। उनके पास शब्द नहीं, सिर्फ धमकियाँ बची थीं।
और ठीक उसी दिन उनके पुराने रिकॉर्ड में एक FIR दर्ज हो गई—“संस्थागत दुरुपयोग, युवाओं के मानसिक शोषण, और धोखाधड़ी के लिए।”
अब सवाल था—
क्या ये कविता की हत्या थी?
या एक नए युग का पुनर्जन्म?
दीपक ने अपनी डायरी में लिखा—
“अगर शब्दों की वजह से तुमको डराया जाए,
तो समझो—तुम कविता हो।
और अगर तुम फिर भी लिखो,
तो समझो—तुम क्रांति हो।”
भाग 10: अंतिम कविता और अगली सुबह
रामपुर की सुबह कुछ अलग थी। बारिश नहीं थी, लेकिन हवा में नमी थी। टाउन हॉल की दीवारें अब पुरानी नहीं लग रही थीं—जैसे शब्दों ने उन पर नई परत चढ़ा दी हो। और स्वर-कवि का छोटा सा पुस्तकालय अब पत्रकारों, छात्रों, शिक्षकों और साधारण पाठकों का केंद्र बन चुका था।
पिछली रात जो हुआ, उसने पूरे शहर को जगा दिया था। शालिनी पर लगे देशद्रोह के झूठे आरोप वापस ले लिए गए। न्यायपालिका ने सख्त रुख अपनाया और कहा—“कविता अपराध नहीं हो सकती, जब तक वो सच को छूती है।”
लेकिन उस जीत की रात, शालिनी ने एक नई कविता नहीं लिखी।
उसने अपनी डायरी बंद कर दी और खिड़की से बाहर देखा।
नेहा उसके पास आई और धीरे से बोली, “तुम ठीक हो?”
शालिनी ने जवाब दिया, “कभी-कभी कविता जीतने के बाद भी थक जाती है। उसे भी नींद चाहिए।”
नेहा मुस्कराई। “तुम्हारी नींद ही अगली सुबह होगी।”
उधर, दीपक दीवाना—अब फिर से दीपक शर्मा—एक पुरानी लाल बस में बैठकर गाँव जा रहा था। उसके पास कोई मोबाइल नहीं, कोई प्रेस कटिंग नहीं, बस वो डायरी जिसमें उसकी पहली कविता थी। और एक खत—जो उसने अपने दिवंगत पिता के लिए लिखा था, जिसे वो कभी दिखा नहीं पाया।
खत में सिर्फ एक पंक्ति थी:
“पापा, आपने कहा था कविता से पेट नहीं भरता। लेकिन आज कविता ने आत्मा को तृप्त कर दिया है।”
बस की खिड़की से बाहर खेत दिख रहे थे, जिनमें न कविता थी, न विवाद—बस हरियाली और गंध। दीपक ने खुद से कहा, “अब कुछ दिन सिर्फ पाठक बनूंगा।”
स्वर-कवि की अगली सभा की घोषणा नहीं हुई थी। फिर भी उस दिन दोपहर को पुस्तकालय के बाहर सैकड़ों लोग जमा हो गए। हाथों में अपनी-अपनी डायरी, छोटे-छोटे पर्चे, मोबाइल में टाइप की गई नोट्स—कविता अब हर किसी की जेब में थी।
शालिनी मंच पर नहीं आई। प्रभा प्रचंड ने लोगों से कहा, “आज कोई कार्यक्रम नहीं है। लेकिन आप सब कविता लेकर आए हैं, तो ये सभा आपकी है।”
एक बच्चा आगे बढ़ा, शायद दसवीं कक्षा का। उसने अपनी डायरी खोली और पढ़ा—
“मैं कवि नहीं हूँ,
लेकिन मेरे स्कूल में अब कविता डर के साथ पढ़ाई जाती है।
मैं चाहता हूँ कि मेरी टीचर मुस्कराते हुए कविता पढ़ाएँ,
इसलिए मैंने ये दो पंक्तियाँ लिखीं।”
तालियाँ नहीं बजीं—लोग सुनते रहे। अब मंचीय तालियाँ नहीं, आत्मीय शांति थी।
एक महिला, जो अब तक पीछे खड़ी थी, आगे आई। हाथ में एक फोटो।
“ये मेरे पति थे,” उसने कहा। “प्रोफेसर थे। कभी एक कविता लिखी थी, जो छपने से पहले ही छीन ली गई। मैंने वो आज फिर से लिखी है।”
उसने पढ़ा—
“मैं हूँ शब्द,
मुझे मत गिराओ दीवारों से।
मैं लौटूंगा
चुपचाप,
किसी और की आवाज़ में।”
शालिनी ने पीछे से सुना और धीरे से मंच पर चली आई। माइक नहीं था। उसने बस कहा—
“कविता तब तक नहीं मरती जब तक कोई उसे दोहराता है।
और अगर मर भी जाए,
तो उसका पुनर्जन्म आप सब कर देते हैं।”
प्रेस के एक पत्रकार ने बाद में पूछा, “शालिनी जी, अब आप क्या करेंगी? राजनीति में जाएँगी? कोई बड़ा पुरस्कार?”
शालिनी ने मुस्कराकर जवाब दिया, “अब मैं फिर से छात्रा बनूँगी। कविता की।”
वहीं दूसरी ओर, मुन्ना लाल ‘मुक्त’ एक बस स्टॉप पर खड़े थे। उनके पास कोई फ़ाइल नहीं, कोई संगठन नहीं, सिर्फ एक फटा हुआ कागज़ था—जिसमें लिखा था—
“परियोजना रद्द। प्रयोग असफल।”
भोंपू लाल पास आए और बोले, “अब क्या करेंगे, मुन्ना भाई?”
मुन्ना लाल हँसे नहीं, रोए नहीं—बस बोले, “अब कविता को अकेला छोड़ देते हैं। वो खुद तय करेगी किसके पास जाए।”
तीन महीने बाद…
दिल्ली के एक छोटे से स्कूल में, एक नई टीचर ने कक्षा में प्रवेश किया। उसने बच्चों से कहा, “आज पाठ्यक्रम नहीं, एक कविता सुनाते हैं।”
बच्चे चहक उठे।
उसने पढ़ना शुरू किया—
“वो जो मंच से नहीं डरा,
वो कवि नहीं, सच था।
और वो जो पीछे बैठा रहा,
वो पाठक नहीं, परछाई थी।
पर अंत में जब सब थके,
तो कविता अकेली नहीं थी।
वो लौट आई—हम सब में।”
बच्चों में से एक ने हाथ उठाया, “मैम, ये किसकी कविता है?”
टीचर मुस्कराई। “हम सबकी।”
शाम को एक नई वेबसाइट खुली—www.kavitazindahai.org
जिसका पहला संदेश था—
“अगर आप कविता लिखते हैं, तो ये मंच आपका है।
अगर आप कविता पढ़ते हैं, तो आप कवि हैं।
और अगर आप कविता से डरते हैं, तो सावधान—
वो लौट चुकी है।”
और नीचे एक सादा-सा नाम:
प्रस्तुति: स्वर-कवि समूह
दीपक, शालिनी, नेहा, प्रभा, बृजमोहन—सब अपने-अपने जीवन में लौट चुके थे। अब उनके पास बड़ा मंच नहीं था। पर अब ज़रूरत भी नहीं थी।
क्योंकि कविता अब हर मोड़, हर स्टेशन, हर मोबाइल स्क्रीन में जिंदा थी।
अंत में दीपक की एक अंतिम कविता—
“अब मैं मंच पर नहीं हूँ,
और न ही किसी योजना में।
मैं उस लड़के की कॉपी में हूँ,
जो आज पहली बार लिखने बैठा है।
मैं उस माँ की कहानी में हूँ,
जो रात को लोरी नहीं, कविता सुनाती है।
मैं हर उस जगह हूँ
जहाँ डर के बावजूद कोई बोलता है—
मैं कविता हूँ, और मैं ज़िंदा हूँ।”
समाप्त