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कच्छ की चांदनी

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अनुपमा राजपूत


दिल्ली की ठंडी, धुंधभरी सुबह में जब हवाई जहाज़ ने उड़ान भरी, तो समीर राठौड़ के भीतर एक अजीब-सी बेचैनी थी—कुछ वैसी, जैसी किसी पुराने दोस्त से मिलने से पहले महसूस होती है, भले ही वो दोस्त कभी सच में मिला न हो। ट्रैवल ब्लॉगिंग उसके लिए सिर्फ पेशा नहीं, बल्कि एक जिज्ञासापूर्ण यात्रा थी—कहानियों की तलाश में भटकना, उन्हें कैमरे और शब्दों में कैद करना। इस बार उसका गंतव्य था गुजरात का कच्छ, जहाँ सालाना रण उत्सव चल रहा था। फ्लाइट से उतरते ही हल्की धूप, सूखी हवा और नमक-सी महक लिए एक खुला आसमान उसका स्वागत कर रहा था। रास्ते में जीप से सफर करते हुए, खिड़की के बाहर फैलते नमक के सफेद मैदान, दूर-दूर तक फैले कंटीले झाड़, और कहीं-कहीं रंग-बिरंगे कपड़ों में महिलाएँ जो पानी के मटके सर पर उठाए चल रही थीं—ये सब कुछ उसकी आँखों में उतरता जा रहा था। उसे महसूस हो रहा था कि ये सफर सिर्फ तस्वीरों या ब्लॉग के लिए नहीं है; इसमें कोई अनजाना खिंचाव है, जैसे ये जगह उससे कुछ कहना चाहती हो, कोई पुराना राज़ सुनाना चाहती हो।

संध्या तक जब वह रण के सफेद रेगिस्तान के किनारे बने टेंट सिटी में पहुँचा, तो आसमान धीरे-धीरे लालिमा से सुनहरे और फिर नीले-काले रंग में ढल रहा था। चांदनी ने जैसे पूरे रण पर एक चांदी-सी चादर बिछा दी थी। चारों तरफ लोकनृत्य की थाप, ढोल की गूंज, और कहीं दूर से आती ढोलक-राबाब की लयबद्ध आवाज़। हवा में ताज़े पके बाजरे की रोटियों और घी की खुशबू थी, जिसे खाने के स्टॉल से उठते धुएं के साथ चांदनी में घुलते देखा जा सकता था। समीर कैमरा उठाकर भीड़ में घूमने लगा—हर कोना, हर मुस्कान, हर रंग उसके लेंस में कैद हो रही थी। लेकिन उसी वक्त, उसकी नज़र दूर क्षितिज पर पड़ी—जहाँ रेगिस्तान और आसमान के बीच, एक ऊँट की परछाईं और उसके पास खड़ा एक आदमी लोकधुन गा रहा था। समीर के कानों में वो आवाज़ देर तक गूंजती रही, जैसे वो धुन सीधे दिल में उतर रही हो। उसने सोचा—कल सुबह इस आवाज़ का पीछा करना ही पड़ेगा।

इसी दौरान उसकी मुलाक़ात नसीर कच्छी से हुई, जो ऊँट सफारी का गाइड था। नसीर का रंग गहरा, चेहरा धूप और हवा से तप चुका, लेकिन आँखों में चमक और मुस्कान में अपनापन था। उसने अपनी टूटी-फूटी हिंदी और मीठी कच्छी बोली में समीर से कहा, “साहब, रण की असली कहानी इन टेंट में नहीं, गाँव की गलियों में मिलती है। ऊँट की पीठ पर बैठिए, आपको वहाँ ले चलूँगा जहाँ चांदनी के नीचे सिर्फ सफेद रेत नहीं, पुरानी मोहब्बतें भी सोई हैं।” समीर उसकी बात सुनकर ठठाकर हँसा, लेकिन नसीर के लहजे में कुछ ऐसा था कि उसने हामी भर दी। नसीर ने कहा, “कल सुबह, सूरज निकलने से पहले निकलेंगे। तब आपको रण का असली चेहरा दिखेगा।” समीर ने महसूस किया कि ये सफर पहले से ज्यादा रोमांचक होने वाला है—ये सिर्फ उत्सव की तस्वीरें खींचने का मौका नहीं, बल्कि एक कहानी खोजने का निमंत्रण था।

रात ढलने लगी, और समीर अपने टेंट के बाहर कुर्सी पर बैठा था, हाथ में गरम चाय, आँखों के सामने दूर तक फैला सफेद रेगिस्तान, और ऊपर चमकता पूरा चाँद। हर झोंके के साथ हवा नमक की नमी और दूर से आती लोकधुन की लय लेकर आती थी। उसे महसूस हुआ कि ये जगह किसी किताब के पहले पन्ने जैसी है, जिसमें अगले अध्याय में क्या होगा, ये सिर्फ वही जगह तय करेगी। उसकी नज़र बार-बार क्षितिज की तरफ चली जाती, जहाँ उसने पहले उस गायक को देखा था। कैमरे में दर्ज तस्वीरें भी उस धुन को कैद नहीं कर पा रही थीं, जो उसके भीतर बस गई थी। उस रात उसने नींद में भी रेगिस्तान देखा—जहाँ चांदनी के नीचे कोई कहानी उसका इंतज़ार कर रही थी, अधूरी, पर अमर। और सुबह होते ही, नसीर के ऊँट पर बैठकर, वो उस कहानी की तलाश में निकलने वाला था।

समीर के लिए रण की पहली रात किसी सपने के दृश्य जैसी थी—चारों तरफ़ चमकते दीये, रंग-बिरंगे घाघरे में घूमती महिलाएँ, झूलते हुए झुमके, हवा में उड़ते नमक के महीन कण, और पाँव के नीचे बिछी सफ़ेद रेत। आसमान में पूरा चाँद, जैसे उसने अपनी सारी चाँदी धरती पर उड़ेल दी हो। टेंट सिटी के बाहर खुले मैदान में एक छोटा-सा मंच सजा था, जहाँ लोक कलाकार अपनी प्रस्तुतियों से मेहमानों का दिल जीत रहे थे। समीर भी कैमरा हाथ में लिए भीड़ के बीच से गुजरते हुए उसी मंच के पास जा पहुँचा। तभी उसने एक अलग-सी आवाज़ सुनी—गहरी, खुरदरी लेकिन बेहद भावुक। आवाज़ में रेत के तूफ़ान का असर भी था और दूर से आती लोरी की मिठास भी। मंच पर एक दुबला-पतला, साँवला आदमी राबाब बजा रहा था, आँखें आधी बंद, जैसे वो सिर्फ गा नहीं रहा बल्कि किसी बीते वक्त को जी रहा हो। ये थे रवीन्द्र “रवि” वाघेला।

रवि की गायकी में जो कहानी छुपी थी, वो गीत की पंक्तियों से भी ज्यादा उसकी आँखों में पढ़ी जा सकती थी। गाते-गाते जब वो आसमान की तरफ देखता, तो लगता जैसे किसी का नाम हवा में पुकार रहा हो। गीत की एक पंक्ति—“चाँदनी में लौट आना, रेगिस्तान अब भी तेरा इंतज़ार करता है…”—समीर के दिल में गूंजकर रह गई। उसे महसूस हुआ कि ये पंक्ति सिर्फ एक कल्पना नहीं, बल्कि किसी सच का हिस्सा है, जिसे रवि अब भी अपने भीतर सँभाले हुए है। भीड़ तालियाँ बजा रही थी, बच्चे नाच रहे थे, लेकिन समीर के लिए वो मंच जैसे एक दरवाज़ा बन गया था, जो किसी अधूरी मोहब्बत और गहरी उदासी की दुनिया की ओर खुल रहा था।

गाना ख़त्म होने के बाद, समीर ने भीड़ से हटकर रवि को ढूँढा। मंच के पीछे, एक पुराने कंबल पर बैठा रवि अपने राबाब के तार ठीक कर रहा था। पास जाकर समीर ने धीमे से कहा, “आपका गाना… ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरे दिल के अंदर की कहानी सुना दी।” रवि ने उसकी तरफ़ देखा, हल्की मुस्कान दी, और फिर चुपचाप अपनी उंगलियाँ तारों पर फिराने लगा, जैसे कोई सवाल अनसुना कर दिया हो। कुछ देर बाद उसने धीमे से कहा, “हर गाने के पीछे कोई न कोई होता है, लेकिन हर कोई उस ‘किसी’ को नहीं देख पाता।” समीर ने महसूस किया कि रवि उसे टाल रहा है, लेकिन उसकी आँखों में छुपा दर्द और जिज्ञासा के बीच एक अदृश्य पुल बन चुका था।

उस रात, समीर ने टेंट में लौटने से पहले काफी देर तक रवि को सुनते और देखते हुए समय बिताया। कभी वो अपनी गायकी में खो जाता, कभी अचानक चुप होकर तारों को घूरता रहता। समीर के भीतर एक अजीब खिंचाव था—ना वो सिर्फ एक दर्शक था, ना ही सिर्फ एक ब्लॉगर। उसे लग रहा था कि जैसे किस्मत ने उसे यहाँ सिर्फ उत्सव को कवर करने के लिए नहीं, बल्कि इस गायक की जिंदगी के पन्ने पलटने के लिए भेजा है। जब रात ढली और समीर टेंट में लौटा, तो गीत की वो पंक्ति अब भी उसके कानों में गूंज रही थी—“चाँदनी में लौट आना…”—और उसे यकीन था कि ये कहानी अभी शुरू ही हुई है।

अगले कुछ दिनों में समीर और रवि के बीच धीरे-धीरे एक अनकहा भरोसा पनपने लगा। समीर रोज़ शाम को उस छोटे से मंच के पास पहुँच जाता, जहाँ रवि अपनी राबाब और ढोलक के साथ गाता था। भीड़ में खड़े होकर समीर अब सिर्फ तस्वीरें नहीं लेता, बल्कि हर सुर, हर ताल को महसूस करने की कोशिश करता। रवि भी अब उसे देखकर हल्की-सी मुस्कान दे देता था, जैसे उसकी मौजूदगी से कोई बोझ थोड़ा हल्का हो जाता हो। एक शाम, नसीर ने समीर को इशारा किया, “आज रात रवि तुम्हें कुछ खास सुनाएगा। ये सबको नहीं सुनाता।” समीर का दिल धड़कने लगा—क्या वो कहानी अब खुलने वाली थी, जो उसकी जिज्ञासा के केंद्र में थी? चाँद आसमान में पूरा था, और सफेद रेगिस्तान की सतह पर उसकी रोशनी ऐसे बिखरी थी, जैसे किसी ने लाखों चाँदी के सिक्के बिखेर दिए हों।

उस रात मंच नहीं, बल्कि रेगिस्तान के बीच एक अलाव के पास बैठा रवि गा रहा था। पास में ढोलक की धीमी थाप, और राबाब के सुर, जो हवा के साथ बहते हुए दूर तक फैल रहे थे। समीर पास ही बैठा था, हाथ में गरम चाय का प्याला, लेकिन उसका ध्यान सिर्फ रवि के चेहरे और उसकी आँखों में झलकते साए पर था। गीत के बीच अचानक रवि ने गाना रोक दिया और धीमी आवाज़ में कहा, “तुम पूछते थे न, इस धुन के पीछे कौन है? सुनो…” उसकी आवाज़ में एक कंपन था, जैसे वो शब्द सालों से उसके भीतर कैद थे और अब बाहर आने को बेचैन थे। उसने कहना शुरू किया—“सालों पहले, एक ऐसी ही चाँदनी रात थी, रण का यही आलम, और मैं पहली बार अपने गाँव के बाहर गा रहा था। तभी भीड़ में मैंने उसे देखा—मीरा।”

मीरा—रवि का उच्चारण ही उसके नाम को गीत बना देता था। उसने बताया कि मीरा गाँव की लोकनृत्यांगना थी, जिसकी पायल की आवाज़ भी ताल में होती थी और जिसकी हँसी से पूरा मंडप जगमगा उठता था। “उस रात वो लाल और पीले रंग का घाघरा पहने थी, बालों में मोरपंख लगाया हुआ… और उसकी आँखें… जैसे चाँद को भी मात दे दे,” रवि की आँखें उसी रात में खो गईं। वह कहने लगा कि कैसे हर रात वो उसे नृत्य करते देखता, और धीरे-धीरे उनके बीच नज़रों से बातें होने लगीं। पर ये कहानी आसान नहीं थी—क्योंकि मीरा एक ऐसे परिवार से थी, जो कलाकारों और संगीतकारों को सिर्फ तमाशबीन समझता था, अपना नहीं। फिर भी, चाँदनी रातों में, रण के किनारे, दोनों मिलते—मीरा नाचती और रवि गाता। वो पल ऐसे थे, जैसे वक्त ने उन्हें खास तौर पर चुरा कर दिए हों।

लेकिन वक्त हमेशा मेहरबान नहीं रहता। एक दिन गाँव में अफवाह फैल गई कि रवि और मीरा का रिश्ता ‘हदें पार’ कर रहा है। मीरा के घरवालों ने उसे घर से बाहर निकलना बंद कर दिया, और रवि से मिलने पर सख्त मनाही लगा दी। “आखिरी बार जब हम मिले, वो भी ऐसी ही रात थी,” रवि की आवाज़ धीमी हो गई। “हवा में नमक का स्वाद था, और दूर से ऊँटों की घंटियों की आवाज़… मीरा ने कहा, ‘अगर अगली चाँदनी तक मैं न लौटूँ, तो समझना मुझे कहीं और भेज दिया गया है।’ और वो चली गई… उसके बाद से न वो लौटी, न उसका कोई संदेश।” रवि चुप हो गया, सिर्फ राबाब के तारों से निकलती एक उदास धुन हवा में तैरती रही। समीर उस कहानी में इतना डूब गया था कि उसने महसूस ही नहीं किया कि उसकी चाय ठंडी हो चुकी थी। चाँद की रोशनी में दोनों के बीच बस खामोशी और अतीत की गूँज रह गई थी—एक अधूरी मोहब्बत, जो सुरों में कैद होकर अब भी जीवित थी।

अगली सुबह समीर ने नसीर के साथ गाँव की गलियों का रुख किया। रण के किनारे बसा वो छोटा-सा कच्छी गाँव मानो रंगों की बुनाई से बना हो—दीवारों पर पारंपरिक चित्र, दरवाज़ों पर लकड़ी की नक्काशी, और गलियों में सूखते रंगीन कपड़े, जो हवा में लहराकर मानो आकाश को रंग दे रहे हों। हर कोना किसी कहानी की तरह था, जिसमें पीढ़ियों से सहेजी गई कला और लोक-संस्कृति सांस ले रही थी। समीर का कैमरा लगातार क्लिक कर रहा था, लेकिन उसकी नज़र तभी ठहर गई, जब उसने एक आँगन में बैठी एक महिला को देखा। उसकी उंगलियाँ तेज़ी से सूई में रंग-बिरंगे धागे पिरो रही थीं, और सामने एक अधूरा कच्छी कढ़ाई का टुकड़ा था, जिसमें मोर और सूरज का अद्भुत मेल उभर रहा था। उसके माथे पर हल्की-सी सिलवट थी, आँखें काम पर लगी थीं, लेकिन उनमें कहीं गहरे कोई स्थायी उदासी तैर रही थी। नसीर ने फुसफुसाकर कहा, “ये जया ठाकर हैं—गाँव की सबसे हुनरमंद कढ़ाईकार।”

समीर पास गया और धीमे स्वर में बोला, “आपका काम कमाल का है, लगता है जैसे कपड़े पर कहानी बुन रही हों।” जया ने हल्की मुस्कान दी, लेकिन नज़रें वापस अपने काम में गड़ा लीं। उसने कोई औपचारिकता नहीं की, बस धीरे से कहा, “हर धागा किसी की याद से बंधा होता है। कभी खुशियों से, कभी जख्मों से।” समीर को उसकी बात में अजीब-सी गहराई महसूस हुई। उसके हाथों की हर हरकत में एक लय थी, जैसे वो सिर्फ कपड़ा नहीं, किसी अधूरे अतीत को सिल रही हो। आँगन के एक कोने में रंगों से भरी टोकरी रखी थी—गहरे नीले, सुर्ख लाल, चटख पीले, और चाँदी-से सफेद। समीर ने देखा कि एक तरफ रखा अधूरा कढ़ाई का टुकड़ा, कहीं न कहीं, उसे रवि के गीतों की धुन से मेल खाता लग रहा था—जैसे वही पैटर्न उसकी आवाज़ में भी बुना हो।

कुछ देर की चुप्पी के बाद, समीर ने जया से पूछा, “क्या आप कभी रण उत्सव में जाती हैं?” जया के हाथ क्षणभर को थम गए। उसने बिना ऊपर देखे कहा, “नहीं… वहाँ बहुत भीड़ होती है। और कुछ जगहें ऐसी होती हैं, जहाँ वापस जाने का मन नहीं करता।” उसकी आवाज़ में एक अनजाना कंपकंपाहट था, जैसे कोई दबी हुई याद अचानक जाग गई हो। समीर ने महसूस किया कि जया के शब्दों के पीछे एक नज़दीकी रिश्ता छुपा है, शायद उस कहानी से, जो रवि ने सुनाई थी। उसने यह भी नोटिस किया कि जया के पास रखे राबाब के पुराने तार, उसके कढ़ाई के धागों के साथ सलीके से एक छोटी डिब्बी में रखे थे। यह संयोग नहीं हो सकता था। नसीर ने इस बार बात बदलने की कोशिश की, लेकिन समीर का मन अब और गहराई में जाने को तैयार हो चुका था।

गाँव से लौटते समय समीर के दिमाग में जया का चेहरा और रवि की धुन एक-दूसरे में घुलते जा रहे थे। उसकी सहज प्रवृत्ति कह रही थी कि यह महिला सिर्फ एक कढ़ाईकार नहीं, बल्कि रवि के अतीत का वह पन्ना है, जो अब तक पलटा नहीं गया। शायद यही मीरा है, जिसका जिक्र रवि करता है—बस अब उसका नाम बदल चुका है, और उसके जीवन की धुनें रंग-बिरंगे धागों में बदल गई हैं। लेकिन यह रहस्य अभी सिर्फ उसके मन में था, जिसे साबित करने के लिए उसे और टुकड़े जोड़ने थे। रण की चाँदनी अब सिर्फ खूबसूरत नज़ारा नहीं रह गई थी, बल्कि दो अधूरी कहानियों के बीच बिछी एक चुपचाप पुल बन चुकी थी।

नसीर ने उस शाम अपनी चाय का आखिरी घूंट खत्म किया और कप को मेज़ पर रखते हुए गहरी सांस ली। उसकी आँखों में वही थकान और सावधानी थी जो अक्सर उन लोगों की होती है जिन्होंने बहुत कुछ देखा हो, लेकिन कहना नहीं चाहा हो। समीर उसकी इस खामोशी को पढ़ने की कोशिश कर रहा था, लेकिन नसीर ने सीधे और सपाट लहजे में कहा, “पुरानी कहानियों में खोदोगे तो धूल ही नहीं, जख्म भी उठेंगे।” शब्दों के साथ उसकी आवाज़ में एक अजीब कंपन था—मानो चेतावनी के साथ-साथ कोई निजी डर भी बाहर निकल आया हो। लेकिन समीर के चेहरे पर सिर्फ जिज्ञासा और जिद थी। उसने नसीर से सवाल किया, “जख्म किसके, और किसकी कहानी?” नसीर ने बिना उत्तर दिए एक लंबा ठहराव लिया, खिड़की के बाहर अंधेरे में डूबते आसमान को देखा, और फिर उठ खड़ा हुआ। “इतना ही काफी है तुम्हारे लिए। जो तलाश रहे हो, उससे मिलने पर पछताओगे,” यह कहते हुए वह दरवाज़े की ओर बढ़ा, लेकिन जाने से पहले उसकी निगाह एक बार फिर समीर पर पड़ी—वह निगाह साफ कह रही थी कि यह सिर्फ एक सामान्य सावधानी नहीं, बल्कि एक सच्चा खतरा है।

समीर ने नसीर की बातों को यूँ ही नहीं लिया, लेकिन रुकने का भी सवाल नहीं था। वह जानता था कि रवि और जया के अतीत में कुछ ऐसा है जो किसी ने जानबूझकर छुपाया है। अगले दिन से उसने पुराने अखबारों के रिकॉर्ड, पुलिस फाइलें और मोहल्ले के बुज़ुर्गों की यादों में तलाश शुरू कर दी। हर टुकड़ा उसे कहीं-न-कहीं एक धुंधले चित्र की ओर ले जा रहा था—रवि का अचानक गायब हो जाना, जया का कई महीनों तक घर से बाहर न निकलना, और फिर अचानक एक नए शहर में जाकर बस जाना। एक बुज़ुर्ग ने उसे बताया कि रवि और जया का रिश्ता कभी वैसा नहीं था जैसा दिखता था; उनके बीच कुछ ऐसा घटा था जिसने पूरे मुहल्ले को चुप रहने पर मजबूर कर दिया। लेकिन उस बुज़ुर्ग की आँखों में भी वही डर चमका जो नसीर की आवाज़ में था—जैसे इन नामों का ज़िक्र करते ही अतीत का कोई साया पास आ जाता हो।

जैसे-जैसे टुकड़े जुड़ते गए, समीर ने महसूस किया कि कहानी सिर्फ एक खोए हुए आदमी या एक उदास औरत की नहीं है। यह उस समय की है जब मुहल्ला, उसके लोग, और उनकी ज़िंदगियाँ किसी अदृश्य दबाव में जी रही थीं। पुलिस रिकॉर्ड में रवि के नाम से जुड़ी आखिरी एंट्री बस एक लापता रिपोर्ट थी, जिसमें कोई सुराग नहीं दिया गया था। लेकिन फाइल के पन्नों के बीच में दबा हुआ एक पुराना फोटो समीर को मिल गया—फोटो में रवि और जया के साथ एक तीसरा आदमी खड़ा था, जिसकी आँखें कैमरे की ओर नहीं, बल्कि जमीन पर थीं, और चेहरा आधा परछाई में। समीर को एहसास हुआ कि यह तीसरा आदमी ही शायद कहानी की सबसे अहम कड़ी है। उसने तुरंत फोटो की कॉपी बनवाई और नसीर को दिखाने का मन बनाया, लेकिन भीतर कहीं यह भी जानता था कि नसीर शायद इससे और भी बेचैन हो जाएगा।

शाम को जब वह नसीर से मिला, उसने फोटो को टेबल पर रख दिया। नसीर ने पहले तो चश्मा उतारकर आँखें मलीं, फिर जैसे ही फोटो पर नज़र गई, उसका चेहरा एकदम कठोर हो गया। उसने धीरे से कहा, “मैंने कहा था न, मत खोद।” समीर ने पूछा, “ये तीसरा आदमी कौन है?” नसीर ने फोटो को उठाकर उल्टा कर दिया, मानो उसके चेहरे को और न देखना चाहता हो। “अगर नाम जान गए, तो पीछे हटने का रास्ता नहीं बचेगा,” नसीर ने कहा, और उसकी आवाज़ में अब सिर्फ चेतावनी नहीं, बल्कि एक अजीब-सा दुःख भी था। वह उठा, समीर के कंधे पर हाथ रखा और लगभग फुसफुसाते हुए बोला, “कुछ बातें सिर्फ बीते वक्त में अच्छी लगती हैं। उन्हें बाहर निकालोगे, तो वो ज़िंदा हो जाएँगी… और ज़िंदा होकर वो सिर्फ बदला जानती हैं।” नसीर की ये बात समीर के दिल में गूंजती रही, लेकिन उसने तय कर लिया—अब वह पीछे नहीं हटेगा। अतीत की ये धूल और जख्म, दोनों देखने ही होंगे।

रण के ऊपर उस रात बादल किसी युद्धभूमि के धुएँ की तरह छाए हुए थे, और हवा में रेत के बवंडर बार-बार उठकर घरों की छतों से टकरा रहे थे। गाँव की गलियों में अंधेरा और सन्नाटा था, बस बीच-बीच में टूटी खपरैल की खटखटाहट और दूर से आती बकरियों की मिमियाहट सुनाई देती थी। रवि की सांसें तेज़ थीं, जैसे वह दौड़ते हुए यहाँ पहुँचा हो। उसने अपने कुर्ते की आस्तीन से माथे पर चिपके बाल हटाए और मीरा के आँगन की तरफ बढ़ा। दीवार के पार से मिट्टी की खुशबू में भीगती उसकी यादें उसे खींच रही थीं—वो पहली मुलाक़ात, वो कच्चे नीम के पेड़ तले बैठकर देर रात तक गुफ़्तगू, और गाँववालों के तानों के बावजूद एक-दूसरे की आँखों में सुकून ढूँढ लेना। पर उस रात ये सुकून किसी अनहोनी के साए में लिपटा था। मीरा दरवाज़े पर खड़ी थी, उसकी आँखों में आँधी से भी गहरी बेचैनी थी। बिना कुछ कहे उसने रवि का हाथ थाम लिया और धीरे से बोली, “हमें यहाँ से निकलना होगा… अभी।” रवि ने उसका चेहरा पढ़ने की कोशिश की, लेकिन रेत का एक झोंका आया और बीच की खामोशी को और भारी कर गया।

दोनों ने गाँव के पीछे की पगडंडी पकड़ी, जहाँ से रेत के टीले और कंटीले झाड़ शुरू हो जाते थे। दूर कहीं बादलों के बीच बिजली चमकी, उसकी सफ़ेद रौशनी में मीरा का चेहरा पल भर के लिए साफ़ दिखा—थकान, डर और एक अजीब-सी दृढ़ता का मिश्रण। रवि ने चलते-चलते पूछा, “आख़िर हो क्या रहा है?” मीरा ने धीमी आवाज़ में कहा, “गाँव के लोग हमें कभी नहीं मानेंगे, और आज… आज उन्होंने कसम खाई है कि मुझे तुमसे दूर कर देंगे। अगर हम यहाँ रहे, तो शायद हम सुबह तक…” उसकी बात अधूरी रह गई, क्योंकि उसी वक्त दूर से कई मशालों की हल्की रोशनी और शोर सुनाई देने लगा। ये आवाज़ें बढ़ती जा रही थीं, जैसे कोई पीछा कर रहा हो। रवि का दिल जोर से धड़कने लगा, उसने मीरा का हाथ और कसकर थाम लिया। हवा में उड़ती रेत आँखों में चुभ रही थी, मगर उससे ज़्यादा दर्दनाक था यह अहसास कि शायद उनके पास बहुत कम वक्त बचा है। मीरा ने एक बार उसकी ओर देखा, उसकी आँखें कह रही थीं—“अगर हम बिछड़ गए, तो यह आख़िरी नज़र होगी।”

तूफ़ान और तेज़ हो चुका था। आसमान से बूँदें गिरने लगी थीं, जो रेत के साथ मिलकर मिट्टी की परत में बदल रही थीं। दोनों ने एक पुराने, आधे ढहे कच्चे मकान में पनाह लेने की सोची, लेकिन अंदर घुसते ही उन्हें महसूस हुआ कि यहाँ भी सुरक्षित रहना मुश्किल है। टूटी खिड़कियों से हवा ऐसे अंदर घुस रही थी, जैसे किसी अदृश्य हाथ ने दरवाज़ा ठेल दिया हो। बाहर का शोर अब और नज़दीक था—कदमों की धमक, लोगों की ऊँची-ऊँची आवाज़ें, और मशालों की लौ दीवारों पर पड़कर डरावने साये बना रही थी। मीरा ने रवि से कहा, “अगर कुछ हो जाए तो… तुम भाग जाना।” रवि ने गुस्से और दर्द से उसकी बात काट दी, “अगर तुम नहीं, तो मैं भी नहीं।” मीरा की पलकों पर पानी और बारिश की बूँदें एक साथ चमक रही थीं। अचानक, एक बड़ा बिजली का कड़कना हुआ और पूरे कमरे में एक पल के लिए तेज़ सफ़ेद रौशनी फैल गई। जब वह रौशनी गई, तो रवि ने देखा—मीरा अब वहाँ नहीं थी। बस उसके हाथ का हल्का-सा स्पर्श हवा में रह गया था, जैसे किसी ने उसकी हथेली से रेत छीन ली हो।

रवि ने बाहर निकलकर चारों ओर देखा, मगर तूफ़ान में सब धुँधला था। मशालें अब और करीब थीं, पर उनमें से कोई भी मीरा को नहीं ले जा रहा था—कम से कम उसकी आँखों को ऐसा नहीं दिखा। वह पागलों की तरह रेत में दौड़ता रहा, उसकी आवाज़ तूफ़ान में गुम हो रही थी। “मीरा… मीरा…” उसकी पुकार पर कोई जवाब नहीं आया। वह रात जैसे अपने भीतर उसे निगल गई। सुबह होते ही तूफ़ान थम गया, रेत के टीले नए आकार में ढल गए, और पगडंडियों के निशान मिट गए। गाँववालों ने कह दिया—मीरा चली गई, शायद दूर कहीं रिश्तेदारों के पास, या फिर… शायद वह उस रात की रेत में हमेशा के लिए खो गई। पर रवि जानता था, उसने मीरा को आख़िरी बार अपनी आँखों के सामने गायब होते देखा था, और यह ग़ायब होना इंसानी नहीं था। उस खोई हुई रात का रहस्य उसके दिल पर ऐसा ज़ख्म छोड़ गया, जो वक्त के साथ गहरा ही होता गया। और अब, सालों बाद, वह कहानी सुनाते हुए भी उसकी आवाज़ में वही तूफ़ान गूँज रहा था, जिसने एक मोहब्बत को रेत के हवाले कर दिया था।

जया के घर का दरवाज़ा खोलते ही समीर को एक अजीब-सी ठंडक महसूस हुई, जैसे कमरे में बीते सालों की कोई परत अभी भी हवा में बसी हो। दीवार पर पुराने फोटो फ्रेम धूल से ढके थे, कुछ में चेहरे साफ़ दिखाई देते थे तो कुछ समय की धुंध में धुंधले हो चुके थे। लकड़ी की अलमारी का एक दरवाज़ा थोड़ा खुला हुआ था, और उसके भीतर से पीली पड़ चुकी चादरें और पुराने संगीत वाद्य यंत्र झाँक रहे थे। समीर की नज़र एक कोने में रखे पुराने राबाब पर पड़ी—वह बेजान-सा पड़ा था, लेकिन जैसे उसमें किसी भूले-बिसरे गीत की सांसें अभी भी अटकी हों। उसने राबाब को धीरे से उठाया और जैसे ही उसका वजन महसूस किया, उसे नीचे एक टूटा हुआ तार लटकता दिखा। वह तार अलग-सा था—रंग में हल्का सुनहरा, मानो समय ने उसे जितना मुरझाया हो, उतना ही किसी अनजानी गरमी से चमका दिया हो। समीर ने तार को उंगलियों में घुमाया और उसे तुरंत पहचान लिया—यह वही पैटर्न वाला तार था जिसे रवि ने अपने एक पुराने गीत में ‘भाग्य का सुनहरा धागा’ कहा था। समीर के दिल में एक तेज़ धड़कन उठी; यह महज़ एक संगीत का हिस्सा नहीं था, बल्कि उस धुन का प्रमाण था जो मीरा के गीतों में बार-बार सुनाई देती थी।

राबाब को वापस रखते हुए समीर की नज़र पास पड़ी एक लकड़ी की पेटी पर पड़ी। वह पेटी जैसे किसी ने सालों से खोली ही न हो, ऊपर जंग लगे ताले का रंग बदल चुका था। उसने धीरे से ताला खींचा तो वह बिना ज़्यादा विरोध के खुल गया, मानो अपनी कहानी सुनाने को तैयार हो। भीतर पुराने कपड़ों के बीच एक अधूरा कढ़ाई का टुकड़ा रखा था—रेशमी कपड़े पर गहरे लाल और सुनहरे धागों से उकेरा गया पैटर्न। समीर ने कपड़े को उठाया और ध्यान से देखा—यह कोई साधारण डिज़ाइन नहीं था, बल्कि वही सर्पिल और लहरदार पैटर्न था जिसे उसने रवि के गीतों की नोटबुक में देखा था। कपड़े के एक कोने पर कुछ टांके अधूरे थे, सुई अब भी कपड़े में अटकी हुई थी, जैसे किसी ने अचानक सिलाई रोक दी हो और लौटकर कभी खत्म न किया हो। समीर के दिमाग में टुकड़े जुड़ने लगे—राबाब का तार, अधूरी कढ़ाई, और वह गीत जो रवि गाता था। यह सब महज़ संयोग नहीं हो सकता था। उसकी सांसें गहरी हो गईं; जैसे-जैसे वह इन चीज़ों को देख रहा था, उसे जया के शांत चेहरे के पीछे छिपा अतीत और साफ़ दिखाई देने लगा।

कमरे की खिड़की से आती धूप कढ़ाई पर पड़कर सुनहरी लहरें बिखेर रही थी, और समीर को ऐसा महसूस हुआ जैसे वह कपड़ा बोल रहा हो—हर टांका, हर धागा, किसी पुराने दर्द और अधूरी कहानी का हिस्सा है। उसे याद आया, मीरा के बारे में जो किस्से उसने सुने थे—वह सिर्फ़ गाती नहीं थी, बल्कि अपने गीतों में कहानियाँ बुनती थी, और हर कहानी के पीछे एक दृश्य, एक पैटर्न छिपा होता था, जैसे उसकी आत्मा का नक्शा। समीर अब पूरी तरह आश्वस्त था कि जया ही वह मीरा है, जिसने सालों पहले अपनी पहचान छिपाकर इस शहर में एक साधारण ज़िंदगी जीने का फैसला किया था। उसके मन में एक अजीब उलझन थी—क्या वह इस सच्चाई को जय से कह दे? या फिर यह रहस्य वैसे ही रहने दे, जैसा जया ने चाहा था? पर सच को दबाना उसके लिए आसान नहीं था, क्योंकि अब उसके सामने सबूत थे, और सबूत सिर्फ़ सामान नहीं थे—वे भावनाओं से लदे हुए, समय के धागों में पिरोए हुए थे।

जया की रसोई से आती हल्की अदरक-चाय की महक ने समीर को वर्तमान में खींच लिया। वह धीरे से राबाब का तार और कढ़ाई का टुकड़ा उठाकर मेज़ पर रखता है, जैसे किसी अनमोल विरासत को सम्मानपूर्वक स्थान दे रहा हो। कुछ ही देर में जया कमरे में आई, उसके चेहरे पर हल्की मुस्कान थी, लेकिन आँखों में वह गहराई, वह थकान थी जिसे कोई आसानी से नहीं पढ़ सकता। समीर ने उसकी ओर देखते हुए कहा, “ये सब तुम्हारे हैं, न?” जया की नज़र मेज़ पर पड़ी चीज़ों पर ठिठक गई, और एक पल को उसकी सांस थम-सी गई। उसने कुछ नहीं कहा, बस हल्के से राबाब के तार को छुआ, जैसे किसी पुराने दोस्त को पुकार रही हो। उस स्पर्श में इतने सालों का दर्द, प्यार और छुपी हुई पहचान थी कि समीर को किसी जवाब की ज़रूरत ही नहीं रही। उसके लिए अब यह साफ़ था—धागों का यह मेल सिर्फ़ कढ़ाई या तार का नहीं था, बल्कि दो ज़िंदगियों, दो कहानियों और एक अधूरी धुन का था, जो अब उसके सामने पूरी हो चुकी थी।

रेगिस्तान पर उस रात चांद जैसे किसी पुराने वादे की तरह चमक रहा था—शांत, ठहरा हुआ, और अपने भीतर सदियों की कहानियाँ छुपाए हुए। हवा में ठंडक थी, लेकिन रेत की सतह से हल्की गरमी उठ रही थी, जैसे दिन का ताप अब भी उसमें कहीं जीवित हो। समीर ने दोनों को अलग-अलग बुलाया था, बिना यह बताए कि वहाँ कौन आने वाला है। वह जानता था कि यह मुलाक़ात किसी तूफ़ान को भी जन्म दे सकती है, लेकिन अगर यह नहीं हुआ तो शायद यह कहानी हमेशा अधूरी रह जाएगी। पहले रवि आया—अपने हाथ में वही पुराना राबाब थामे, जिसके तार अब भी उसके दिल की धड़कनों से जुड़े थे। उसकी नज़र बार-बार रेत के विस्तार में कुछ खोज रही थी, मानो किसी छाया की तलाश हो। कुछ ही देर में दूसरी ओर से जया आई—सफेद दुपट्टा हल्की हवा में लहराता हुआ, और आँखों में वह हिचकिचाहट जो कई सालों के फासलों से जन्मी थी। समीर चुपचाप एक ओर हट गया, ताकि यह पल सिर्फ़ उनका रहे।

जब उनकी नज़रें मिलीं, तो समय जैसे रुक गया। दोनों के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान आई, लेकिन वह मुस्कान आँसुओं में डूबने से पहले ज़्यादा देर टिक नहीं पाई। रवि के होंठ काँपे, जैसे वह कुछ कहना चाहता हो, लेकिन शब्द गले में अटक गए। जया ने आँखें झुका लीं, फिर धीरे से कहा, “मैंने तुम्हें छोड़ा… क्योंकि मुझे लगा यही सही है।” उसकी आवाज़ में कोई कठोरता नहीं थी, बस एक स्वीकारोक्ति थी—थकी हुई, मगर ईमानदार। उसने आगे कहा, “गाँव की इज़्ज़त, परिवार का नाम… ये सब मेरे ऊपर बोझ की तरह थे। मैं अगर तुम्हारे साथ जाती, तो शायद सिर्फ़ हमारा ही नहीं, मेरे अपनों का भी सब कुछ टूट जाता।” रवि ने बिना कुछ कहे उसकी ओर देखा—वह जानता था कि यह सच है, लेकिन जानने और उसे महसूस करने के बीच हमेशा एक खाई होती है, और वह खाई अब भी उसके भीतर गहरी थी।

चांदनी उनके बीच की इस खामोशी को सुन रही थी। हवा में हल्की-सी राबाब की धुन तैर गई, जो रवि ने अनजाने में बजाना शुरू कर दी थी। वह वही धुन थी जो उसने सालों पहले मीरा—अब जया—के लिए बनाई थी। जया ने ऊपर देखा, और उसकी आँखों में चांदनी की चमक घुल गई। उसने धीमे स्वर में कहा, “उस रात की चांदनी… मैं आज तक सँभालकर रखी हूँ, जैसे किसी ने दिल के एक कोने में काँच का दीपक जलाकर छोड़ दिया हो।” उसके शब्दों ने हवा में एक अजीब-सी गरमी भर दी—जैसे रेगिस्तान की रात में अचानक कोई पुरानी खुशबू लौट आई हो। रवि ने उसकी ओर बढ़कर कदम रखा, लेकिन फिर रुक गया। दूरी अब भी थी—रेत की नहीं, समय और ज़िन्दगी की दूरी। दोनों जानते थे कि जो खो गया, वह लौट नहीं सकता, लेकिन यह भी सच था कि जो महसूस हुआ, वह कभी गया ही नहीं।

समीर कुछ दूर खड़ा यह सब देख रहा था। उसे लगा, वह किसी फिल्म के चरम दृश्य का गवाह है, लेकिन यहाँ कोई संवाद नहीं थे, कोई नाटकीय आलिंगन नहीं—सिर्फ़ सच्चाई थी, चुप्पी थी, और दो दिलों का मिलना था, चाहे वह क्षणभर के लिए ही क्यों न हो। रात और गहरी हो रही थी, लेकिन चांद अब भी उतना ही उज्ज्वल था, जैसे वह उनकी अधूरी कहानी का पहरेदार हो। रवि ने धीरे से राबाब का तार छेड़ा, और जया ने आख़िरी बार उसकी ओर देखा—उस नज़र में न ग़ुस्सा था, न शिकवा, बस एक कोमल विदाई थी। बिना कुछ कहे, वह मुड़कर चली गई। रवि वहीं खड़ा रहा, उसकी उंगलियाँ अब भी राबाब पर टिकी थीं, और समीर को लगा, यह धुन शायद कभी ख़त्म नहीं होगी। उस रात चांदनी ने न सिर्फ़ उनकी यादों को रोशन किया, बल्कि उनके दिलों के उस हिस्से को भी, जिसे सालों से कोई छू नहीं पाया था।

रेगिस्तान की रात अब धीरे-धीरे अपने अंत की ओर बढ़ रही थी, लेकिन हवा में एक अजीब-सी ठहराव था—जैसे समय खुद यह देखना चाहता हो कि आगे क्या होने वाला है। चांदनी रेत पर बिखरी थी, और उसकी हर लहर किसी अधूरे शब्द की तरह चुप थी। रवि ने अपना राबाब उठाया, जैसे वह कोई हथियार नहीं, बल्कि दिल का आखिरी पत्र खोलने जा रहा हो। उसकी उंगलियाँ तारों पर फिसलने लगीं, और एक धीमी, गहरी धुन हवा में फैल गई। यह गाना किसी भी उत्सव का हिस्सा नहीं था; यह सिर्फ़ और सिर्फ़ जया के लिए था। धुन के पहले ही स्वर में समीर को महसूस हुआ कि इसमें सालों का दर्द, इंतज़ार और वह मोहब्बत बसी है, जिसे वक्त ने सुखा दिया था, मगर मिटा नहीं पाया। रवि की आवाज़ भारी थी, लेकिन हर शब्द किसी तपते रेगिस्तान में पानी की बूंद की तरह ठंडी और सुकून देने वाली थी।

गीत में रवि ने खुद को भी खोला और जया को भी—उसने उन शिकायतों का ज़िक्र किया जो दिल में सालों से दबे थे, उन सवालों का जो कभी पूछे नहीं गए, और उस माफी का जो कभी दी या ली नहीं गई। “तू गई थी, पर मैं ठहरा रहा,” उसने गाया, “रेत में कदम तेरे, पर साया मेरा।” यह कोई कटाक्ष नहीं था, बल्कि उस समझ का इज़हार था जो बिछड़ने के बाद आती है—जब हम जान लेते हैं कि मोहब्बत में हार-जीत जैसी कोई चीज़ नहीं होती, बस अधूरापन होता है। जया चुपचाप सुन रही थी, उसकी आँखें चांदनी में चमक रही थीं, लेकिन वह चमक आँसुओं की थी या यादों की, यह शायद खुद वह भी नहीं जानती थी। कभी-कभी वह हल्की मुस्कान देती, जैसे किसी पुरानी स्मृति ने उसे छुआ हो, और फिर अचानक गहरी साँस लेकर नज़र झुका लेती।

समीर कैमरे के पीछे खड़ा था, लेकिन उसके हाथ काँप रहे थे। वह हर फ्रेम को कैद कर रहा था—राबाब की हल्की कंपन, रवि के चेहरे की लकीरें, और जया की आँखों में अटकी वह नमी, जो कभी गिरकर रेत में खो जाती और कभी वापस पलकों के पीछे लौट जाती। लेकिन जितना वह रिकॉर्ड कर रहा था, उतना ही उसके भीतर एक आवाज़ कह रही थी कि यह सिर्फ़ एक दृश्य नहीं, बल्कि दो आत्माओं का वह मिलन है, जिसे दुनिया की नज़रों से बचाकर रखना चाहिए। यह फुटेज अगर सार्वजनिक हुआ, तो लोग इसमें कला देखेंगे, भावुकता देखेंगे, लेकिन वह सच्चाई नहीं महसूस कर पाएंगे जो इस पल में साँस ले रही थी। समीर ने उसी समय तय कर लिया—यह रिकॉर्डिंग उसके पास रहेगी, लेकिन यह कभी किसी स्क्रीन पर नहीं जाएगी। यह सिर्फ़ उनकी कहानी का हिस्सा होगी, दुनिया की नहीं।

जब आखिरी सुर हवा में ठहरकर रेत पर बिखरा, तो रवि ने धीरे से राबाब नीचे रख दी। चुप्पी फिर लौट आई, लेकिन अब यह चुप्पी बोझिल नहीं थी—यह एक तरह की रिहाई थी, जैसे किसी ने सालों से कसकर पकड़ा हुआ गांठ आखिर खोल दी हो। जया ने बस इतना कहा, “धन्यवाद,” और उसकी आवाज़ में कोई औपचारिकता नहीं थी, बल्कि वह गर्माहट थी जो किसी लंबे इंतज़ार के बाद मिलती है। रवि ने सिर झुका लिया, और दोनों की नज़रें आखिरी बार मिलीं—उस नज़र में कोई वादा नहीं था, बस यह यकीन था कि जो भी हुआ, वह सच्चा था। समीर ने कैमरा बंद किया और आसमान की ओर देखा—चांद अब ढलने लगा था, लेकिन उसकी रोशनी अब भी रेत पर बिखरी थी, जैसे वह कह रहा हो कि अधूरी धुनें भी अपनी पूरी कहानी कह सकती हैं, अगर उन्हें सही कान और सही दिल सुन ले।

१०

रण उत्सव के आखिरी दिन सुबह की हवा में एक अजीब-सी खामोशी थी—वो खामोशी जो मेले के खत्म होने से पहले हमेशा रेत और आसमान के बीच बस जाती है। जहाँ कल तक रंग-बिरंगे तंबू, रोशनी और ढोल-नगाड़ों की गूंज थी, वहाँ अब सामान समेटते कलाकार, थके हुए ऊँट, और धीरे-धीरे खाली होते स्टॉल थे। समीर अपने टेंट के बाहर खड़ा रेत के विस्तार को देख रहा था, जो अब पहले से भी ज्यादा सफेद लग रहा था, जैसे रात की सारी चांदनी उसमें घुलकर सुबह तक ठहर गई हो। उसकी बैग में कैमरा रखा था, जिसमें उसने उत्सव की सैकड़ों तस्वीरें और वीडियो कैद की थीं, लेकिन उसके मन में बार-बार वही रात लौट रही थी—जब रवि और जया चांदनी के नीचे आमने-सामने खड़े थे, और हवा में सिर्फ राबाब की धुन और उनकी खामोशियों की आवाज़ थी। वह जानता था, यह कहानी अब उसकी स्मृति का हिस्सा है, और रेत की तरह, जिसे चाहे कितना भी उठाओ, कुछ कण हमेशा हाथ में रह ही जाते हैं।

रवि सुबह-सुबह अपने सामान के साथ गाँव लौटने की तैयारी कर रहा था। उसके कंधे पर राबाब लटका था, और चेहरे पर वही शांत भाव था जो किसी ने अपना सबसे भारी बोझ हल्के से स्वीकार कर लिया हो। जया भी अपने कढ़ाई के टुकड़े समेट रही थी, लेकिन उसकी हर हरकत में एक धीमी सी संजीदगी थी, जैसे वह हर धागे को ठीक उसी तरह मोड़ना चाहती हो, जिस तरह उसने अपने दिल की बातों को मोड़ा था। नसीर ने समीर को गले लगाकर विदा किया और कहा, “देखा? मैंने कहा था न, पुरानी कहानियों में सिर्फ़ धूल नहीं, जख्म भी होते हैं।” समीर ने मुस्कुराकर जवाब दिया, “हाँ, लेकिन कभी-कभी वो जख्म ही सबसे खूबसूरत कहानी बन जाते हैं।” उसकी नज़र रवि और जया की ओर गई, जो एक-दूसरे को देखे बिना अपने-अपने रास्ते की तरफ बढ़ रहे थे, लेकिन उनके कदमों की रफ्तार में एक अनजाना तालमेल अब भी था।

समीर ने अपनी बैग उठाई और सफेद रेत पर चलना शुरू किया। हर कदम के साथ रेत में उसके जूतों की हल्की छाप बनती, लेकिन वह जानता था कि यह निशान ज्यादा देर नहीं टिकेंगे—हवा उन्हें मिटा देगी, जैसे वक्त यादों को हल्का कर देता है। फिर भी, कुछ कहानियाँ ऐसी होती हैं जो मिटने के बाद भी रह जाती हैं, अदृश्य रूप में। उसने अपने कैमरे को एक बार फिर हाथ में लिया, लेकिन इस बार फोटो नहीं खींची। उसे लगा, कुछ पल ऐसे होते हैं जिन्हें कैद करने के बजाय जी लेना ही बेहतर है। सफेद रेत, नीला आसमान, और दूर जाती ऊँटों की कतार—ये सब उसकी आँखों में ऐसे दर्ज हो गए जैसे दिल के किसी कोने में स्थायी चित्र बना लिया गया हो। वह सोच रहा था कि यह जगह सिर्फ एक उत्सव का स्थल नहीं, बल्कि कहानियों का विशाल संग्रहालय है, जहाँ हर कण एक बीते लम्हे का हिस्सा है।

शहर लौटकर, जब वह अपने लैपटॉप के सामने बैठा, तो उसके पास सैकड़ों तस्वीरें और दर्जनों वीडियो थे, लेकिन ब्लॉग के खाली पन्ने पर उसकी उंगलियाँ बहुत देर तक ठहरी रहीं। वह लंबा लेख लिख सकता था, हर घटना, हर रंग, हर आवाज़ का विवरण दे सकता था, लेकिन उसने सिर्फ एक पंक्ति टाइप की—
“कभी-कभी चांदनी अधूरी कहानियों को भी अमर कर देती है।”
उसने पोस्ट को सेव किया और स्क्रीन बंद कर दी। बाहर शहर की रोशनी थी, लेकिन उसकी आँखों में अब भी वही रेगिस्तान, वही चांदनी, और सफेद रेत की वह छाप थी, जिसे न हवा मिटा सकती थी, न वक्त। उसकी यात्रा खत्म हो गई थी, लेकिन कहानी… कहानी अब हमेशा के लिए उसकी थी।

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