Hindi - प्रेतकथा

कंचनपुर की पिशाचनी

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शैलेश पटनायक


बिहार के सुपौल जिले के पूर्वी छोर पर बसा था कंचनपुर गांव — खेतों और तालाबों के बीच झूमता हुआ एक शांत पर रहस्यमय संसार। दोपहर की गर्मी ढल रही थी जब नीलोत्पल मिश्रा और उसकी नवविवाहिता पत्नी संध्या, गांव की कच्ची सड़कों से गुजरते हुए अपने पुश्तैनी मकान के सामने पहुंचे। पुराने समय की लाली पुती दीवारें, टीन की छत और आंगन में खड़े आम और नीम के पेड़ गांव के परिवेश की आत्मा को जीवंत बनाए हुए थे। संध्या ने पहली बार इस मिट्टी की गंध को महसूस किया — नम, सोंधी, और किसी अनजाने डर से भीगी हुई। नील इसे ‘मिट्टी की महक’ कहता था, लेकिन संध्या को यह महक एक पुराने रहस्य की गंध जैसी लग रही थी। जैसे ही उन्होंने आंगन में कदम रखा, चारों ओर से गांव की महिलाएं धीरे-धीरे इकट्ठा होने लगीं — कुछ उत्सुक, कुछ मौन, कुछ अजीब सी मुस्कान के साथ।

शाम ढलते-ढलते संध्या को एहसास हुआ कि यहां की हवा साधारण नहीं है। गांव की औरतें उसे देखती थीं जैसे कोई बलि की बकरी देखी जा रही हो। बूढ़ी दादी अम्मा, जिनका नाम पार्वती देवी बताया गया, झुकी कमर और कांपते हाथों से संध्या के माथे को देखकर बुदबुदाईं — “एक और दुल्हन… अमावस आ रही है…” नील ने इसे ग्रामीण अंधविश्वास कहकर टाल दिया, लेकिन संध्या की रूह कांप उठी। रात का भोजन सन्नाटे में बीता। दूर किसी मंदिर की घंटी बजी, और फिर दूर जंगल की ओर से एक उल्लू की आवाज आई — लगातार, बेचैन करने वाली। आंगन के बीच स्थित कुएं से उठती ठंडी हवा ने संध्या की रात की नींद छीन ली। जब वह खिड़की के पास गई, तो उसे लगा किसी ने आंगन से उसकी ओर देखा… साड़ी का झोंका? पर कौन?

नील ने सोचा कि शादी की थकान और नए माहौल में यह सब सामान्य है। लेकिन संध्या की आंखों में वह डर साफ था जो सिर्फ सुनी गई कहानियों से नहीं आता, वह डर भीतर तक उतर चुका था। अगली सुबह जब वह गांव की पनघट पर पहुंची, तो एक लड़की फुसफुसाई — “हर अमावस को एक जाती है… इस बार शायद तुम…” और फिर हंसते हुए भाग गई। उसकी बात अधूरी थी, लेकिन उसका डर संध्या में पूरा बस चुका था। जब उसने नील से बात की, तो नील ने गंभीर होकर कहा — “हम ये सब बकवास नहीं मानते। मैं इतिहास पढ़ा हूं, ये सब सामाजिक उत्पीड़न की कहानियां हैं, न कि कोई सच्चाई। लेकिन फिर भी… अगर तुम्हें अजीब लगे, तो हम गांववालों से मिलकर पूछते हैं।” संध्या चुप रही, लेकिन उस रात फिर एक सपना आया — एक कुआं, एक महिला, सफेद साड़ी, और आंखें… जैसे अंगारे।

अगली सुबह गांव में खबर थी कि एक लड़की, मीनू, जो अभी शादी तय हुई थी, रात को घर से गायब हो गई। घरवालों ने कहा कि वह शौच के लिए बाहर गई थी, फिर लौटी ही नहीं। गांव के पुरुष इसे भागने का मामला कहकर टाल रहे थे, लेकिन औरतें बार-बार आंखें चुराकर कुएं की दिशा में देख रही थीं। पार्वती देवी ने अपनी टूटी आवाज में कहा — “फिर वही आया… कुएं से बुलावा… पर कोई नहीं मानेगा…” अब नील भी चुप हो गया, और संध्या की सांसें तेज चलने लगीं। उसे पहली बार महसूस हुआ कि जो कुछ वह महसूस कर रही है, वह भ्रम नहीं, कोई अदृश्य सच्चाई है। उस रात संध्या ने खिड़की बंद कर दी, लेकिन दिल में कुएं की परछाईं खुली रह गई — एक ऐसी परछाईं, जो अब केवल उसके सपनों में नहीं, बल्कि जागती आंखों में भी घुलने लगी थी।

संध्या ने रात भर आंखों में नींद नहीं आने दी। हर बार जब वह झपकी लेने लगती, तो अचानक किसी की सिसकियों से जैसे उसका मन कांप उठता। उसे लग रहा था जैसे कोई औरत रो रही है—धीरे-धीरे, लगातार, और वो आवाज कुएं की दिशा से आती थी। सुबह की पहली किरण के साथ उसने साहस बटोरकर खिड़की खोली, तो आंगन के कुएं से उठती हल्की भाप उसे दिखाई दी, जैसे पानी गरम हो और सर्दी में धुआं उठे। मगर जुलाई के महीने में यह दृश्य अनैतिक-सा लगा। उसने यह बात नील से कही, तो उसने खिसियाकर हंसते हुए कहा — “वो धुंआ नहीं, तुम्हारा भ्रम है। गांव की हवा में डर घुला है, तुम उसमें रंग खोज रही हो।” लेकिन नील की आंखों में भी हल्का संदेह कौंध गया था, जिसे वह अपने तर्कों से ढंकना चाह रहा था।

गांव की गलियों में मीनू की गुमशुदगी की बात फैल चुकी थी, लेकिन कोई खुलकर कुछ नहीं कह रहा था। गांव की महिलाएं संध्या से कटने लगीं, और जो मिलती भी, वह चुपचाप सिर झुका लेती। बस एक नाम बार-बार कानों में पड़ता — “राजकली… वही आई थी शायद…” यह नाम संध्या के लिए नया था। उसने गुड्डी काकी से मिलने की ठानी, जो गांव की परित्यक्त विधवा थी और झाड़ियों से घिरे अपने टूटी-फूटी घर में अकेली रहती थी। काकी उसे देखकर चुपचाप मुस्कुराईं, और बिना कुछ कहे एक मिट्टी के कटोरे में सिंदूर और काजल घोलकर संध्या की हथेली पर रख दिया। फिर बोली — “अगर ये गर्म हो जाए, तो समझो वह तुम्हारे पास है।” संध्या कांप उठी। उसने देखा वह लेप बिल्कुल ठंडा था, लेकिन जैसे ही वह काकी की झोंपड़ी से बाहर निकली, हथेली में जलन सी महसूस होने लगी, और उंगलियों में काजल फैल गया जैसे कोई हाथ पकड़ रहा हो।

उस रात फिर एक सपना आया। वह कुएं के पास खड़ी थी, और सफेद साड़ी में लिपटी एक औरत उसे देख रही थी। उसका चेहरा धुंधला था, लेकिन आंखें साफ — पीली, ठंडी, पर करुणा से भरी। औरत ने बस एक वाक्य कहा — “अब मेरी बारी पूरी नहीं हुई है…” संध्या चिल्लाकर उठ बैठी, उसका माथा पसीने से भीगा हुआ था। नील उठकर पास आया, और पहली बार उसके चेहरे पर भी भय का हल्का सा अक्स दिखा। उसने बिना कुछ कहे संध्या का माथा थपथपाया, पर उसकी आंखें आंगन की ओर टिक गईं। वह खुद भी अब एक अनजानी उलझन महसूस कर रहा था — इतिहास की किताबी समझ अब उस कुएं की मौन फुसफुसाहटों के सामने बौनी लग रही थी।

अगली सुबह संध्या ने तय किया कि वह उस कुएं के पास जाएगी, जहां से हर रहस्य की डोर निकलती प्रतीत होती थी। नील ने विरोध किया लेकिन वह नहीं मानी। जब वह कुएं के पास पहुंची, तो एक अजीब सी ठंडक उसके पांवों में समा गई, जैसे धरती के नीचे से बर्फीली हवा फूंक रही हो। उसने देखा कि कुएं के किनारे की एक ईंट पर पुराने समय की कोई आकृति उकेरी गई थी — एक स्त्री की आकृति, जिसके चेहरे पर सिंदूर के धब्बे थे। तभी अचानक किसी ने पीछे से उसके कंधे पर हाथ रखा — वह गुड्डी काकी थी। उन्होंने धीरे से कहा — “कुएं में जो गया, वह लौटा नहीं… पर जो लौटना चाहता है, वह हर अमावस को दरवाज़ा खटखटाता है।” संध्या सिहर गई। अब उसे यकीन हो गया था कि यह सिर्फ कहानी नहीं, कोई इंतज़ार है — उसकी ही ओर…

संध्या की बेचैनी अब डर से कहीं आगे निकल चुकी थी — वह एक ऐसे धागे को खींच चुकी थी, जिसका सिरा कहां जाकर खत्म होता है, यह किसी को पता नहीं था। नील, जो अब तक हर बात को तार्किक दृष्टि से देखता था, खुद संध्या के साथ चल पड़ा गांव की सबसे बुज़ुर्ग महिला पार्वती देवी के घर। उनका मकान गांव के आखिरी छोर पर था — घास से ढकी दीवारें, झुकी हुई छत और आंगन में तुलसी का बासी गमला। जब वे पहुंचे, तो वह मिट्टी के चूल्हे के पास बैठी राख में लकड़ी की आग ढूंढ़ रही थीं। उन्होंने संध्या को देख चुपचाप इशारा किया पास बैठने को और नील से बोलीं, “बेटा, औरत की पुकार को कहानी मत समझो, उसमें इतिहास भी होता है और बदला भी… सुनना चाहोगे?”

नील और संध्या दोनों उनके पास बैठे तो वह धीरे-धीरे बोलने लगीं। “पचास साल पहले इस गांव में एक विधवा रहती थी, नाम था राजकली। जवान थी, सुंदर थी, पढ़ी-लिखी भी थी, और शायद यही उसकी सबसे बड़ी गलती थी। गांव के पंडित से लेकर सरपंच तक, सब उसकी स्वतंत्रता से जलते थे। उसने एक दिन खुलकर पंचायत में सवाल किया — कि क्यों औरतें गूंगी हों, और मर्द जो चाहे वो कहें? उस दिन से उसका पतन शुरू हुआ। एक दिन गांव की एक लड़की के साथ बलात्कार हुआ, और राजकली ने पंचायत में खड़े होकर गांव के एक सम्मानित आदमी पर आरोप लगाया — वही भोला पहलवान जो आज सरपंच है। उसे भरी सभा में चुप कराने के लिए गांववालों ने उसे डायन कह दिया। उसके शरीर पर स्याही फेंकी गई, उसे अपवित्र घोषित किया गया, और अंत में… कुएं में फेंक दिया गया।”

नील स्तब्ध था, लेकिन संध्या की आंखों में आंसू थे। “क्या उसकी मौत हुई?” उसने कांपती आवाज़ में पूछा। पार्वती देवी ने जवाब नहीं दिया। उन्होंने राख से एक जली हुई लकड़ी निकाली और उसे झोपड़ी की दीवार पर रगड़ते हुए बोलीं, “मौत तो उन्हें मिलती है जो न्याय पा जाते हैं। पर जिन्हें बेइज्जती और पीड़ा से मारा जाए, उनका अंत नहीं होता। राजकली की लाश कभी नहीं मिली। उस दिन अमावस की रात थी, और तब से हर अमावस को कोई औरत कुएं की ओर खिंचती है — जैसे वो उसे बुला रही हो, अपने अधूरे दर्द को साझा करने।” नील अब पूरी तरह चुप था। उसका ऐतिहासिक शोध, उसकी समझ, उसकी तर्कशीलता — सब कुछ अब उसे खोखला लगने लगा।

बाहर शाम ढल चुकी थी, और गांव की गलियों में फिर वही सन्नाटा उतर रहा था। संध्या ने पार्वती देवी से पूछा, “अगर ये सब सच है… तो मुझे क्या करना चाहिए?” दादी अम्मा ने मुस्कुराकर कहा, “तुम्हारा आना कोई संयोग नहीं है। जिनके भीतर संवेदना होती है, वही पुल बनती हैं अतीत और वर्तमान के बीच। मगर याद रखना — जो कुएं से लौटे, वो वैसी नहीं रहतीं जैसी पहले थीं। अगर तुम उसकी आवाज़ सुन चुकी हो, तो अब रास्ता सिर्फ दो हैं — या तो अनसुना करो, या फिर उसे मुक्त करो।” यह सुनते ही हवा जैसे भारी हो गई, और दूर कहीं एक कुत्ता लंबी हांडी में रोने लगा। उस रात नील और संध्या बिना एक शब्द बोले लौटे — उनके भीतर अब डर नहीं, बल्कि जिम्मेदारी भर चुकी थी।

कंचनपुर गांव के ऊपर जैसे कोई अदृश्य परछाईं लटक रही थी — एक ऐसा मौन जो केवल तूफान के पहले आता है। अमावस्या एक दिन दूर थी, लेकिन गांव की हवाओं में बेचैनी दौड़ चुकी थी। गांव की गलियों में महिलाएं बात करते-करते चुप हो जाती थीं, बच्चे बिना वजह रोते थे, और हर घर की खिड़कियां सूरज ढलते ही बंद हो जाती थीं। नील ने महसूस किया कि अब लोग उससे कतराने लगे हैं, और संध्या से तो कोई आंख मिलाने को भी तैयार नहीं। संध्या खुद बदल रही थी — वह अब शांत थी, पर वह शांति सुलझने की नहीं, किसी बहुत बड़े तूफान से पहले की तरह थी। उसकी आंखों में गहराई थी, और कई बार वह अंधेरे में खुद से बातें करती दिखती। नील ने उसे टोका, तो वह बस मुस्कुरा दी, “उसकी आवाज़ अब धीरे-धीरे साफ़ होने लगी है…”

उस रात कुछ ऐसा हुआ जिसने नील को झकझोर दिया। आधी रात को उसकी नींद खुली तो पाया कि संध्या बिस्तर पर नहीं थी। उसने घर के हर कोने में देखा, लेकिन वह कहीं नहीं थी। जब वह भागकर आंगन में आया, तो देखा कि संध्या कुएं के पास खड़ी है — आंखें बंद, होंठ हिलते हुए, जैसे कोई मंत्र जप रही हो। उसकी साड़ी का पल्लू जमीन पर गिरा हुआ था, बाल बिखरे हुए थे, और चेहरे पर ऐसा भाव जैसे वह किसी और दुनिया में हो। नील ने दौड़कर उसे पकड़ा और झिंझोड़ते हुए पुकारा — “संध्या! क्या कर रही हो?” उसकी आंखें धीरे-धीरे खुलीं, लेकिन उनमें वह संध्या नहीं थी जिसे नील जानता था। उनमें किसी और की उपस्थिति थी — कोई पीड़ा, कोई स्मृति, कोई पुकार। वह कांपती हुई नील की बाहों में गिरी और फूट-फूटकर रो पड़ी। “मैं नहीं गई थी… वो खुद बुला रही थी… उसने कहा — ‘अब तेरी बारी है…’” नील भयभीत था, लेकिन उसने खुद को संयत रखते हुए संध्या को भीतर लाया और घंटों तक उसके माथे पर पानी की पट्टियां रखता रहा।

सुबह होते ही उसने गुड्डी काकी को बुलवाया। काकी आईं, हाथ में तुलसी, नींबू और एक काले धागे का गुच्छा लिए। उन्होंने संध्या के चारों ओर एक घेरे में राख छिड़की, और आंखें बंद करके कोई तांत्रिक श्लोक पढ़ा। फिर बोलीं, “ये अब सिर्फ डर नहीं रहा। ये एक आत्मा है जो इस शरीर में प्रवेश करने की कोशिश कर रही है। अमावस्या की रात इसकी परीक्षा होगी। अगर तुम इसे रोकना चाहते हो, तो उसके अतीत तक जाना पड़ेगा। राजकली क्यों मरी, किसने मारा, क्या अधूरा था उसका — सब जानना होगा। वरना अगली सुबह ये लड़की नहीं बचेगी।” नील स्तब्ध रह गया। उसके भीतर सब कुछ टूट रहा था — उसके तर्क, उसकी शिक्षा, उसकी समझदारी — सब। लेकिन एक बात अब साफ़ थी — वह इस रहस्य से भाग नहीं सकता।

संध्या दिनभर सोई रही। जब दोपहर को उसकी आंख खुली, तो उसने नील को देखा और धीमे स्वर में कहा — “मुझे अब डर नहीं लगता। वो जो भी है, उसका दर्द मुझसे साझा हो चुका है। अगर मैं पीछे हटूंगी, तो शायद वह किसी और को ले जाएगी। लेकिन अगर मैं आगे बढ़ी, तो शायद उसे मुक्ति मिल सके।” उसकी बातों में एक अजीब सच्चाई थी — जैसे वह अब संध्या नहीं, राजकली का ही कोई रूप बनती जा रही हो। नील ने उसका हाथ थामा, और वादा किया — “हम तुम्हें नहीं जाने देंगे… पर हम उसे भी नहीं अनसुना करेंगे।” उस शाम उन्होंने पार्वती देवी से फिर मिलने का निश्चय किया — अब सिर्फ कहानी जानने के लिए नहीं, बल्कि एक आत्मा को इतिहास में से निकालकर न्याय देने के लिए। अमावस्या की रात पास थी… और कंचनपुर के कुएं की दीवारें फिर किसी दुल्हन की पदचाप सुनने को तैयार थीं।

अमावस्या से एक दिन पहले गांव की हवाओं में जैसे हलचल तेज़ हो गई थी। पेड़ों की शाखाएं बेवजह कांप रही थीं, खेतों के बीच बगुले स्थिर खड़े थे, और कुत्तों की भौंकने की आवाज़ दूर तक फैल रही थी। नील, संध्या की हालत देखकर अब खुद भी बेचैन हो उठा था। पार्वती देवी की बातों और गुड्डी काकी की चेतावनी के बाद उसने ठान लिया था कि वह गांव के उस हिस्से को उजागर करेगा जिसे अब तक अंधेरे में दबाकर रखा गया था। इस सिलसिले में उसकी निगाह सीधी गांव के वर्तमान सरपंच भोला पहलवान पर जा टिकी — वही व्यक्ति जिसका नाम राजकली की कथा में सबसे भयावह रूप में सामने आया था। नील ने उसके दरवाज़े पर दस्तक दी, और उसके चौखट पर खड़े होते ही घर के भीतर का शोर एकदम थम गया।

भोला ने जब नील को देखा, तो उसकी आंखों में एक घबराहट कौंधी — भले ही उसके चेहरे पर मुस्कान रही। “अरे नील बाबू, कैसे आना हुआ?” उसने अपने मोटे स्वर में कहा, लेकिन उसका गला सूखा हुआ था। नील ने सीधे सवाल दागा, “राजकली कौन थी?” भोला की भौंहें तन गईं, पर उसने हंसकर कहा, “अरे सब पुरानी बातें हैं… गांव की कहानियां… अब तुम्हारे जैसे पढ़े-लिखे लोग भी उसमें विश्वास करेंगे?” नील ने धीमे पर सख्त लहज़े में कहा, “कहानी है या सच्चाई, वो तो तब तय होगा जब सब सामने आएगा। मैं जानता हूं कि पंचायत की रजिस्टर बही में साल 1973 में एक बंद मामला दर्ज है — जिसका नाम मिटा दिया गया है। और मुझे संदेह है कि वो नाम राजकली का था।” यह सुनकर भोला का चेहरा पथरा गया। उसने कोई जवाब नहीं दिया, बस अंदर चला गया। उसी रात, गांव में फुसफुसाहट फैल गई — कि नील ने सरपंच को चुप करा दिया है।

उस रात कुछ और भी हुआ — जिसे कोई नहीं समझ पाया। आधी रात के करीब गांव के कुछ युवक शराब के नशे में आंगन की तरफ आते हुए शोर मचा रहे थे, जब अचानक कुएं की दिशा से जोर की चीख सुनाई दी। सब सन्न रह गए। जब लोग दौड़कर कुएं की ओर पहुंचे, तो देखा — भोला पहलवान का शरीर कुएं में उल्टा लटका हुआ था, सिर पानी में और पांव ऊपर। उसकी आंखें खुली थीं — स्थिर, पीली, और उनमें एक भय था जो शब्दों में नहीं बंध सकता। गांव में दहशत दौड़ गई। कोई कुछ कहने को तैयार नहीं था। सिर्फ पार्वती देवी की धीमी आवाज़ एक बार फिर सुनाई दी — “जिसने उसका शरीर छीना, अब उसकी आत्मा भी खा गई…”

संध्या की हालत फिर से बिगड़ने लगी। उसने नील से कहा, “मैंने सपना देखा… कुएं में पानी नहीं है… सिर्फ धुआं है… और उस धुएं में हाथ हैं, जो मुझे पकड़ना चाहते हैं। उन्होंने कहा — अब एक और चाहिए… एक और जो बोले मेरे लिए…” नील अब टूटने के कगार पर था। भोला की मौत उसके लिए संकेत बन चुकी थी कि राजकली की आत्मा अब इन्तजार नहीं कर रही — वह अपना हिसाब खुद चुकता कर रही है। नील ने पंचायत की बही निकलवाई, जिसमें दर्ज पुराने मामलों के बीच पन्नों को काटकर गायब कर दिया गया था। एक अधूरी इबारत में बस एक वाक्य लिखा था — “निर्णय: अपवित्रता के आरोप में दंडित।” और उसके नीचे नाम की जगह स्याही फैली हुई थी — लेकिन एक कोने में “रा…क…ली” जैसा कुछ धुंधला लिखा दिखा।

नील समझ गया था कि अब यह सिर्फ आत्मा की शांति की बात नहीं है, यह न्याय का मामला है। राजकली सिर्फ बदला नहीं ले रही थी, वह उस सच्चाई को उजागर करना चाह रही थी जिसे लोगों ने मिटा देने की कोशिश की। और यह काम अब संध्या के माध्यम से हो रहा था। अमावस्या की रात जैसे-जैसे पास आ रही थी, वह शरीर और आत्मा के मिलन की वह रात बनने जा रही थी — जहां एक स्त्री की कहानी पूरी होनी थी। लेकिन सवाल यह था — संध्या उसकी वाहक बनेगी, या उसकी शिकार?

कंचनपुर गांव में फैली डर और सन्नाटे की चादर के बीच, दीपक और राधिका अब पूरी तरह इस रहस्य में डूब चुके थे। उन्हें अब यह यकीन हो चला था कि यह कोई अंधविश्वास नहीं, बल्कि उस पुराने कुएँ से जुड़ी कोई सच्चाई है, जो हर अमावस्या को एक औरत को निगल जाती है। अगले दिन सुबह होते ही वे फिर उसी कुएँ के पास गए, इस बार एक छोटी रस्सी, एक टॉर्च और मोबाइल कैमरा साथ लेकर। कुएँ की ईंटें जगह-जगह से उखड़ चुकी थीं और नीचे से अजीब सी सड़न और नमी की गंध आ रही थी। दीपक ने टॉर्च से अंदर रोशनी डाली, लेकिन पानी काला और ठहरा हुआ दिखा, जैसे किसी ने सालों से उसे छुआ तक न हो। राधिका ने कुएँ के चारों ओर बारीकी से निरीक्षण किया और उन्हें एक कोना दिखा जहाँ की ईंटें बाकी हिस्से से अलग थीं — वे न केवल पुरानी थीं बल्कि उनमें गहरे दरारें भी पड़ी थीं, जैसे कोई अंदर से बाहर आने की कोशिश कर चुका हो।

राधिका ने ध्यान से उस दरारों को देखा और उसे एक सुनहरी चूड़ी का टुकड़ा दिखा जो दरारों में फंसा था। वह चौंकी — ठीक वैसी ही चूड़ी जैसी उसने भानु की पत्नी के हाथों में देखी थी उनकी शादी वाले दिन। इसका मतलब यह हुआ कि वह यहीं मारी गई या उसे यहीं छिपाया गया। लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है जबकि कुएँ के अंदर कोई सीढ़ी या गहराई में जाने का रास्ता नहीं दिख रहा था? दीपक ने मोबाइल कैमरे को रस्सी से बाँधकर कुएँ में धीरे-धीरे नीचे उतारना शुरू किया ताकि अंदर का वीडियो रिकॉर्ड हो सके। टॉर्च की रोशनी मंद होती जा रही थी, और तभी कैमरे में एक हलचल सी दिखाई दी — पानी में एक आकृति, सफेद सी, उलझे बालों वाली, जो सीधे कैमरे की ओर देख रही थी। दीपक ने झट से कैमरा खींच लिया लेकिन मोबाइल का स्क्रीन काला हो गया था। राधिका डर से कांप उठी, लेकिन दीपक ने उसका हाथ थामते हुए कहा, “अब हम पीछे नहीं हट सकते।”

उसी शाम उन्होंने गांव के कुछ बुजुर्गों से मिलने का निश्चय किया, खासकर हरिश्चंद्र काका से जो गांव के सबसे पुराने जीवित सदस्य थे। काका पहले टाल गए लेकिन जब दीपक ने चूड़ी और वीडियो का जिक्र किया तो उनका चेहरा सफेद पड़ गया। कांपती आवाज़ में उन्होंने बताया, “बहुत साल पहले, शायद 40 साल, एक लड़की को गांव वालों ने डायन समझकर इसी कुएँ में जिंदा फेंक दिया था। उसका नाम कनकलता था — वह जवान, सुंदर और पढ़ी-लिखी थी, लेकिन अकेली रहती थी, और गांव की औरतें उसे पसंद नहीं करती थीं। जब किसी अमावस्या को एक बच्चा अचानक मर गया, लोगों ने उस पर शक कर लिया। उस रात उसे बाल पकड़कर इसी कुएँ में डाल दिया गया… और तब से… हर अमावस्या को एक औरत गायब होती है। किसी को कुछ नहीं दिखता, बस सुबह उसकी निशानी — कोई कपड़ा या चूड़ी — कुएँ के पास मिलती है।” यह सुनकर राधिका और दीपक की रूह कांप उठी। उन्होंने ठान लिया कि अगली अमावस्या को वे वहीँ रहेंगे — इसी कुएँ के पास।

अमावस्या नजदीक आ रही थी और गांव में फिर भय का माहौल था। लोग पहले ही अपने घरों के दरवाजे बंद कर रहे थे और गांव की महिलाओं को पहले से ही घर में रहने की चेतावनी दी जा रही थी। लेकिन इस बार दीपक और राधिका ने तय किया कि वे इस डर को तोड़ेंगे। उन्होंने कुएँ के पास एक छोटी सी झोपड़ी में डेरा डाला, जिसमें छुपकर वे रात भर निगरानी करेंगे। दीपक के पास कैमरा, टॉर्च और रस्सी थी, और राधिका ने पूजा की थाली, गंगाजल और एक लाल चुनरी रखी थी, जिसे वह कनकलता की आत्मा को शांति देने के लिए उपयोग करना चाहती थी। सूरज डूबते ही आकाश में अंधकार घना हो गया और गांव जैसे साँस लेना भूल गया हो। कुएँ की दिशा से अचानक ठंडी हवा चलने लगी और दीयों की लौ कांपने लगी। राधिका ने दीपक का हाथ कसकर पकड़ा — रात की सबसे खतरनाक घड़ी शुरू हो चुकी थी।

उस रात गांव पर एक अजीब सा सन्नाटा था, जैसे पूरी प्रकृति किसी बड़े खतरे के आने की चेतावनी दे रही हो। हवाएं पहले से तेज थीं और पुराने पीपल के पेड़ों की शाखाएं एक-दूसरे से टकराकर डरावनी आवाज़ें कर रही थीं। मंदिर की घंटियों की ध्वनि भी जैसे डरी हुई प्रतीत हो रही थी। विनय और अंजलि अब अपने कमरे में नहीं थे; वे गांव के कुछ युवकों के साथ उस पुराने कुएं के पास पहुँचे थे जहाँ पिछले वर्षों में कई औरतें गायब हुई थीं। लाठी, टॉर्च और एक छोटा कैमरा लेकर वे तैयार थे—उनकी योजना थी उस रात कुएं के आसपास छिपकर इंतज़ार करने की, और अगर कोई अजीब गतिविधि होती है, तो उसे रिकॉर्ड करना। सभी को डर लग रहा था लेकिन उनमें सबसे ज्यादा डर विनय और अंजलि के मन में था, क्योंकि वे अब केवल सत्य को जानना नहीं चाहते थे—वे इस भयावहता को रोकना चाहते थे।

रात के लगभग ग्यारह बज रहे थे जब उन्होंने कुएं से कुछ हलचल की आवाज़ें सुनीं। वे सब चुप हो गए, सांसें थाम लीं। अचानक, जैसे ही चांद बादलों से ढका, अंधेरा और गहराया और एक झिलमिलाती परछाई कुएं के किनारे पर उभरने लगी। वह कोई सामान्य औरत नहीं थी—उसकी आंखें पीली चमक रही थीं, बाल बिखरे थे और उसका चेहरा ऐसा लग रहा था जैसे कई सालों से किसी पीड़ा में जला हो। उसके होंठ फटे हुए थे और कपड़े खून से सने। सभी की रूह कांप गई। अंजलि ने विनय का हाथ कसकर पकड़ा और उसकी आंखों में आंसू भर आए। लेकिन उसी क्षण विनय ने कैमरा चालू किया और उस परछाई की ओर बढ़ा, जैसे वह भय को चुनौती देना चाहता हो। बाकी लोग कांपते हुए पीछे खड़े रहे, किसी में आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं थी।

परछाई अब बोलने लगी थी। उसकी आवाज़ गूंजती हुई, बहुत गहरी और दर्द से भरी थी। “हर साल… एक… एक चाहिए… रक्त से न्याय होगा…” उसकी बातों का अर्थ विनय को समझ में नहीं आया लेकिन अंजलि की आंखें फैल गईं—उसे याद आया कि गांव की सबसे बुजुर्ग दादी ने कहा था कि एक बार एक स्त्री को गांववालों ने डायन कहकर जला दिया था, और तभी से यह अभिशाप शुरू हुआ था। पिशाचनी उसी औरत की आत्मा थी—जिसे निर्दोष होते हुए भी मारा गया था, और अब वह हर अमावस्या को एक औरत को ‘बलि’ के रूप में मांगती थी। अंजलि घुटनों पर गिर गई और बोली, “तुम्हारा न्याय हम दिलाएंगे… बस और औरतें मत लो…” लेकिन परछाई अचानक चिल्लाई और हवा तेज़ होकर एक चक्रवात की तरह चारों ओर घूमने लगी।

आधी रात का समय था, और गांव के मंदिर में अचानक घंटी अपने आप बजने लगी, जैसे किसी अदृश्य शक्ति ने उसे छू लिया हो। गांव के कुत्ते भौंकने लगे और कई घरों की खिड़कियां खुद-ब-खुद बंद हो गईं। विनय की टॉर्च अचानक बुझ गई और उस पल वह परछाई गायब हो गई। सिर्फ एक ठंडी हवाओं की लहर पीछे रह गई। सबके शरीर बर्फ की तरह ठंडे हो गए थे। उस अनुभव ने सभी को झकझोर कर रख दिया। विनय ने कैमरा संभाला, देखा कि कुछ फुटेज रिकॉर्ड हुआ है। उन्होंने तय किया कि अब गांव को इस रहस्य से मुक्ति दिलाने के लिए उन्हें उस पुरानी घटना की सच्चाई तक जाना ही होगा। अगले दिन वे उस बुजुर्ग दादी के पास जाने का निर्णय लेते हैं, जिससे यह भयावह कहानी वर्षों पहले शुरू हुई थी।

गांव के बाहर फैली सरसों के खेतों के बीच अंधकार ने अपनी चादर फैला दी थी। हवा में कुछ अजीब सा भारीपन था, जैसे रात कुछ छुपा रही हो। रवि और नेहा उस रात गांव के पुराने पटेल घर की ओर बढ़े, जहां कभी वर्षों पहले उसी पिशाचनी की पहली हत्या हुई थी। जगह-जगह उग आई बेकाबू झाड़ियों के बीच से रास्ता बनाते हुए दोनों एक पुराने खपरैल वाले मकान के सामने पहुँचे, जिसकी दीवारें अब जर्जर थीं और खिड़कियों से केवल अंधेरा झांकता था। पटेल का यह घर सालों से वीरान पड़ा था, लेकिन गांव के बूढ़े आज भी कहते थे कि यहां से कभी-कभी रात में रोने और चीखने की आवाज़ें आती हैं। रवि ने दरवाज़ा धीरे से धकेला, वह चरमराते हुए खुल गया। अंदर की हवा बासी और बदबूदार थी, जैसे किसी जानवर की सड़ी लाश हो। कमरे के बीचोंबीच एक टूटा-फूटा झूला पड़ा था, और उसके ऊपर दीवार पर कोयले से कुछ लिखा गया था – “वो अब भी जिंदा है…”

नेहा ने दीवार की ओर हाथ बढ़ाया और लिखा छूने ही वाली थी कि तभी झूले से एक डरावनी कराह सुनाई दी। दोनों सन्न रह गए। रवि ने तुरंत अपनी जेब से टॉर्च निकाली और झूले की ओर रोशनी डाली, लेकिन वहां कुछ नहीं था। जैसे ही उन्होंने मुड़कर निकलने की कोशिश की, झूले के पीछे से किसी के नाखून खरोंचने की आवाज़ आने लगी। अचानक दीवार पर लटकती एक पुरानी तस्वीर ज़ोर से ज़मीन पर गिर गई और कांच चटक गया। रवि ने देखा कि तस्वीर में जो चेहरा था, वो हूबहू उसी बूढ़ी औरत जैसा दिखता था, जिसे उन्होंने कुएं के पास देखा था। लेकिन इस तस्वीर में वो औरत किसी नवविवाहित की तरह सजी थी, मांग में सिंदूर, माथे पर बिंदी और आंखों में चमक। नेहा सहम गई – “ये वही है… लेकिन ये तस्वीर तो बहुत पुरानी है, तो क्या…?”

उनके मन में उठते सवालों ने उन्हें वापस उस कुएं की ओर खींचा जहां से सारा रहस्य शुरू हुआ था। गांव के सबसे बुजुर्ग आदमी, लोहा काका, को उन्होंने आधी रात को जगाया और सच्चाई जानने की जिद की। थरथराती आवाज़ में काका ने कहा – “तुमने जिसकी तस्वीर देखी, वो ‘रत्ना’ थी – इस गांव की बहू। बहुत साल पहले उसकी शादी पटेल खानदान में हुई थी, लेकिन एक अमावस्या की रात उसका खून उसी कुएं में बहाया गया। कहते हैं उसका पति उसे बांझ मानता था और गांव के पुजारी के साथ मिलकर उसे बलि चढ़ा दी गई। लेकिन उसकी आत्मा कभी मुक्ति नहीं पाई। वो हर अमावस्या को किसी नवविवाहिता को उसी दर्द से गुजारती है जो उसने झेला था – एक जीवन की शुरुआत में मृत्यु का अहसास।” नेहा की आंखों में आंसू थे, “इसका मतलब है, वो हमें मारना नहीं चाहती… वो अपने दर्द की गवाही बनाना चाहती है…”

लेकिन रत्ना की आत्मा बस दर्द नहीं चाहती थी – वो बदला चाहती थी, और उसका अगला निशाना उस पुजारी की वंशज थी – गांव की वर्तमान पुजारिन, जो रात के अंधेरे में रत्ना के नाम पर बलि की रस्में करती थी। नेहा ने यह सब सुनकर तय किया कि अब वक्त आ गया है इस चक्रव्यूह को तोड़ने का। उसने रत्ना की तस्वीर को अपने पास रखा और काका से उस पुराने मंदिर का रास्ता पूछा जहां बलि दी जाती थी। वे अब रात के सन्नाटे में, तंत्र और आत्माओं की मिली-जुली गंध को चीरते हुए उस मंदिर की ओर बढ़ चले, जहां सचमुच, पिशाचनी नहीं – एक औरत की सिसकती आत्मा बंद थी, जिसे इंसानों की क्रूरता ने राक्षस बना दिया था।

रात गहराती जा रही थी और कंचनपुर के उस पुराने मंदिर के आसपास हवाओं का स्वर कुछ और डरावना हो चला था। वैदेही, अर्जुन और बूढ़ा तांत्रिक शिवनाथ अब अंतिम रेखा पर खड़े थे, जहाँ या तो पिशाचनी का अंत होगा या उनकी अपनी सांसों का। मंदिर के गर्भगृह में एक त्रिकोण यंत्र बनाया गया था जिसमें पवित्र राख, सिंदूर, नींबू और लौंग की माला रखी गई थी। हर कोने पर दीपक जल रहे थे और बीचोंबीच एक काले कपड़े में लिपटा इंसानी आकार लेटा था—वो वही लड़की थी जो पिछली अमावस्या को लापता हुई थी, पर अब किसी दूसरे ही रूप में। उसके होंठों पर खून के धब्बे और आंखों में एक खालीपन था जो सांसों से ज़्यादा भयावह था। शिवनाथ ने वैदेही को त्रिकोण के बाहर खड़ा किया और अर्जुन को उस यंत्र के उत्तर दिशा में रखा, जहाँ से पिशाचनी सबसे पहले आती थी। “जब वो प्रकट होगी, उसके कानों में ये मंत्र पढ़ना… और जो भी हो, इस त्रिकोण से बाहर मत जाना,” शिवनाथ ने कहा और एक थाली में आग जलाकर आरती शुरू की।

अमावस्या की पूर्ण रात्रि में जब तीनों के होंठ हनुमान चालीसा की पंक्तियों को थरथराती आवाज़ में दोहरा रहे थे, तभी हवा एकाएक ठंडी हो गई। मंदिर के बाहर सियारों के रोने की आवाज़ और भीतर एक चिरपरिचित सन्नाटा। और तभी दरवाज़े के पास खड़ी दीपक की लौ बिना हवा के डगमगाई। वैदेही ने देखा—मंदिर के द्वार से एक छाया भीतर आई, काले लहराते बाल, गीली साड़ी जो मिट्टी में लिपटी थी, और वह चेहरा—एक जली हुई, पर अब भी पहचान में आने वाली औरत का चेहरा। “यह वही है…” वैदेही की आंखों से आंसू बह निकले, “यह वही है जो वर्षों से इस गाँव को निगल रही थी।” पिशाचनी धीरे-धीरे त्रिकोण की ओर बढ़ी, पर जैसे ही वह उसके पास पहुंची, उसके शरीर में एक झटका हुआ। शिवनाथ ने अपनी माला ज़ोर से घुमाई और मन्त्रों का उच्चारण तेज़ किया। मंदिर की दीवारें जैसे कांपने लगीं और समय जैसे कुछ पल के लिए थम गया।

पिशाचनी चीख पड़ी, एक ऐसी चीख जिसमें ना केवल आत्मा की पीड़ा थी, बल्कि सदियों की भूख, अपमान और क्रोध भी था। त्रिकोण के भीतर उसकी देह कांपने लगी, और जैसे-जैसे शिवनाथ की आरती तेज़ होती गई, उसका शरीर पिघलता गया, जैसे कोई मोमबत्ती खुद को नष्ट कर रही हो। अर्जुन ने आंखें बंद कर लीं, वैदेही की हथेलियों में कांपती प्रार्थना थी, और मंदिर के कोनों में पुरानी कहानियों की गूंज। अचानक एक तेज़ रोशनी हुई, और फिर एक सन्नाटा। जब आंखें खुलीं, तब वहाँ कोई नहीं था। न वह लड़की, न पिशाचनी, न वह स्याह छाया। केवल राख, एक टूटी माला, और दीपक की लौ जो अब स्थिर थी। शिवनाथ ज़मीन पर गिर पड़े, उनकी सांसें टूट रही थीं। “मैंने उसे बाँध लिया… सदियों के लिए… पर इसकी कीमत मुझे देनी थी…” उनके आखिरी शब्दों ने हवा में एक मौन इतिहास छोड़ दिया।

अगली सुबह कंचनपुर के लोग जब मंदिर पहुँचे, तो उन्होंने देखा—वहाँ शिवनाथ का मृत शरीर था, मुस्कुराते चेहरे के साथ, जैसे किसी योद्धा ने अंततः युद्ध जीत लिया हो। वैदेही और अर्जुन ने गाँव को पूरी कहानी बताई और कुएं को बंद करवाया गया। उस रात के बाद किसी भी अमावस्या को कोई औरत लापता नहीं हुई। गांव में लोग फिर से रात को खेतों में जाने लगे, बच्चे पुराने आम के पेड़ के नीचे खेलने लगे। पर मंदिर के बाहर आज भी एक दीया जलता है, वैदेही हर अमावस्या उसे जलाती है, ताकि यदि कभी फिर कोई अंधेरा लौटे—तो कंचनपुर की पिशाचनी को याद रहे, कि अब वह अकेली नहीं है, अब लोग सवाल करते हैं, सामना करते हैं, और तंत्र की आरती से डर को भी भस्म कर देते हैं।

१०

रात गहराती जा रही थी और पूरे कंचनपुर पर एक सन्नाटा पसरा हुआ था, जैसे खुद वक़्त भी रुककर कुछ अनकहा सुनने की प्रतीक्षा कर रहा हो। गांव के मंदिर में घण्टियों की आवाज़ भी जैसे थक चुकी थी, और वो कुआँ—जहाँ बरसों से पिशाचनी का वास माना जाता था—अब एक बुझती हुई आहट में तब्दील हो गया था। दीपाली मंदिर के पास बैठी थी, उसके चेहरे पर शांति थी, पर आँखों में वह शून्यता थी जो केवल बहुत कुछ खोने के बाद आती है। आदित्य अब उसके साथ नहीं था—पिछली अमावस्या को, जब वो दोनों उस कुएँ के रहस्य को उजागर करने निकले थे, कुछ ऐसा हुआ जो न दीपाली समझ पाई, न दुनिया। वो रात चुपचाप आई थी और आदित्य को अपने साथ ले गई, पिशाचनी की तरह, बिना किसी स्पष्टीकरण के।

उस रात दीपाली ने पहली बार पिशाचनी को साफ़ देखा था—एक औरत, पीली आंखें, उलझे बाल, और शरीर पर नमी से चिपके हुए पुराने कपड़े, जैसे किसी जमाने में वो भी एक दुल्हन रही हो। लेकिन उसके चेहरे पर न क्रोध था, न भूख—बल्कि एक स्थायी दुःख, एक अधूरी कहानी की पुकार। पिशाचनी ने आदित्य की ओर हाथ बढ़ाया और बिना प्रतिरोध के वो उसके साथ कुएँ के अंदर समा गया। दीपाली चीखी, रोई, पत्थर फेंके, पर कुछ नहीं रुका। केवल वो चेहरा, वो नज़रे, जैसे कह रही हों—”तुम समझ सको तो समझो, मैं सिर्फ़ लेती नहीं, खोजती हूँ… उसे जो खो गया था।”

अब गाँव ने दीपाली को भी छोड़ दिया था। लोगों ने कहा, “वो भी अब अभिशप्त है, वो औरत भी अब पिशाचनी का हिस्सा बन चुकी है।” मगर दीपाली रोज़ उस कुएँ के पास जाती, वहां बैठती, और गुनगुनाती रहती वही लोकगीत, जो उसने आदित्य के साथ पहली रात गाया था—”चाँदनी रात में तू लौटेगा, मेरा पिया…”। गांव के बच्चे डरते हुए उसे दूर से देखते, और बूढ़े लोग चुपचाप सिर हिलाकर कहते, “उसका मन वहीं अटक गया है, जहां से लौटना मुमकिन नहीं।” लेकिन दीपाली जानती थी, उसका इंतज़ार ख़ाली नहीं जाएगा।

एक साल बीत गया, और एक नई अमावस्या आई। कंचनपुर के लोग अपने घरों में दुबक कर बैठे, पर इस बार किसी औरत की चीख़ नहीं आई, न कोई लापता हुआ। सब कुछ शांत था, असामान्य रूप से शांत। सुबह जब लोग बाहर निकले, उन्होंने कुएँ के पास दीपाली को नहीं पाया। उसकी जगह वहां रखा था एक पीतल का कंगन, जिस पर आदित्य का नाम खुदा था। कोई नहीं जान पाया कि दीपाली कहां गई। मगर उस रात एक बूढ़ी औरत ने देखा—कुएँ की गहराई से दो धुंधली आकृतियाँ ऊपर आती दिखीं, हाथ में हाथ डाले हुए, और फिर हवा में घुलती हुईं, जैसे दो आत्माएँ अंततः एक हो गई हों। कंचनपुर की पिशाचनी की कहानी वहीं समाप्त हो गई, लेकिन उसके पीछे छोड़ गई एक अमर कथा—इंतज़ार की, प्रेम की, और उन रहस्यों की जो सिर्फ़ दिल से समझे जा सकते हैं।

समाप्त

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