शशांक त्रिवेदी
१
कश्मीर की पहाड़ियों में दिसंबर की कड़ाके की ठंड बर्फ के परदे की तरह चारों ओर फैली थी। गुलमर्ग के निकट, बर्फ से ढके एक निर्जन घाटी में सेना की एक स्पेशल यूनिट गश्त पर थी—नेतृत्व कर रहे थे मेजर शौर्य व्यास, जो अपनी दृढ़ निगाहों और अचूक निर्णयों के लिए जाने जाते थे। सेना को एक हफ्ते पहले सूचना मिली थी कि LOC के करीब किसी दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र में आतंकी गतिविधियों के संकेत मिले हैं, लेकिन सैटेलाइट इमेज में कुछ अजीब सा दिखा—बर्फ के नीचे गोलाकार संरचना की आकृति, जो प्राकृतिक नहीं थी। संदेह और जिज्ञासा में घुली उस संरचना की खोज में ही यह यूनिट भेजी गई थी। जब वे बर्फ हटाकर नीचे पहुँचे, तो सामने जो दिखा उसने सभी को स्तब्ध कर दिया—एक काले पत्थर से बना शिवलिंग, आधा बर्फ में ढका, उसके चारों ओर प्राचीन शिलालेख, और ठीक उसके नीचे धातु की एक चमकती सतह, जो बर्फ को भीतर से गर्म कर रही थी। धातु कोई जाना-पहचाना मिश्रण नहीं लग रहा था, उसकी बनावट कुछ वैसी थी जैसे कोई बाह्य ग्रह से आया हो—ठोस, चिकना और चुंबकीय। एक सैनिक ने जैसे ही उसके ऊपर हाथ रखा, उसका कम्पास अचानक घूमने लगा और संचार उपकरणों ने काम करना बंद कर दिया। कुछ तो था उस पत्थर के नीचे—कोई रहस्य, जो शायद हजारों साल से यहीं सोया पड़ा था।
इस खोज की रिपोर्ट मेजर शौर्य ने सेना मुख्यालय को भेजी और अगले ही दिन एक विशेष वैज्ञानिक दल को रवाना किया गया। दल की अगुवाई कर रही थीं डॉ. कियारा सेनगुप्ता, मुंबई स्थित परमाणु अनुसंधान केंद्र (BARC) की उभरती वैज्ञानिक, जिन्होंने पहले भी प्राचीन धातु संरचनाओं में रेडियोधर्मिता की जांच की थी। साथ में भेजे गए थे सेना के कुछ और विशेषज्ञ और एक पुरातत्व अधिकारी। लेकिन सबसे रोचक बात यह थी कि सेना ने साथ लाया एक असामान्य सहयोगी—काश्मीर के एक प्रसिद्ध शैव विद्वान, पंडित हरीनारायण कौल। वह मानते थे कि यह कोई सामान्य धातु या शिल्प नहीं, बल्कि “त्रिकालदंड” नामक एक पौराणिक वस्तु हो सकती है, जिसका उल्लेख शिव-महापुराण में मिलता है। जब उन्होंने शिवलिंग के चारों ओर खुदाई करवाई, तो कई लिपियाँ उभरने लगीं—ब्राह्मी जैसी, परंतु थोड़ी विचलित, जैसे किसी अज्ञात भाषा की संकरित छाया। डॉ. कियारा के उपकरण धातु में उच्च मात्रा में रेडियोधर्मिता दिखा रहे थे, लेकिन यह विकिरण किसी भी ज्ञात नाभिकीय तत्त्व से मेल नहीं खा रहा था। मेजर शौर्य की जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी—क्या यह कोई प्राचीन ऊर्जा स्रोत था? या फिर कोई ऐसा हथियार जिसे समय ने भूलभुलैया में छिपा दिया था? शिवलिंग के नीचे की परत को जब और खोला गया, तो एक वृताकार धातु प्लेट मिली, जिसके केंद्र में तांबे की रेखाएँ बनी थीं, जो किसी सर्किट जैसी प्रतीत होती थीं। क्या कोई हजारों वर्ष पहले भी ‘सर्किट डिज़ाइन’ बना सकता था?
जैसे-जैसे खुदाई आगे बढ़ी, वातावरण में अजीब सा कंपन महसूस होने लगा। बर्फ पिघल रही थी, लेकिन मौसम की वजह से नहीं—जैसे ज़मीन के भीतर से कोई उष्मा उठ रही हो। एक रात, शिवलिंग के पास गश्त पर तैनात एक जवान ने बताया कि उसने धातु से आती एक मंद नील रोशनी देखी। सभी को एक असहज बेचैनी घेरने लगी। पंडित कौल ने पुराणों का हवाला देते हुए कहा कि “त्रिकालदंड एक ऐसा उपकरण है जो समय की तीनों धारणाओं—भूत, वर्तमान और भविष्य—को एक साथ बाँधता है। इसे बिना मन्त्र और संकल्प के छूना, स्वयं काल को जगा देना है।” मेजर शौर्य इन बातों में सहजता नहीं दिखाते थे, पर इस बार उन्हें पंडित के शब्दों में कुछ सच की गंध लगी। डॉ. कियारा का भी कहना था कि अगर ये विकिरण इसी तरह बढ़ता गया, तो इसके आसपास का पूरा जैविक क्षेत्र प्रभावित हो सकता है। ऑपरेशन के दायरे को बढ़ाते हुए सेना ने इस क्षेत्र को “ब्लैक जोन” घोषित कर दिया—कोई नागरिक, मीडिया या बाहरी एजेंसी वहाँ नहीं जा सकती थी। लेकिन उन्हें यह अंदाज़ा नहीं था कि जिस रहस्य को वे जागृत कर चुके हैं, वह केवल भौतिक नहीं, कालिक था। और एक बार जो काल चक्र शुरू होता है, उसे कोई नहीं रोक सकता—न विज्ञान, न सैन्य बल, और न ही शास्त्र।
२
डॉ. कियारा सेनगुप्ता की निगाहें कंप्यूटर स्क्रीन पर टिकी थीं, जहाँ डेटा की पंक्तियाँ लगातार बदल रही थीं। उनकी पीठ के पीछे शिवलिंग के नीचे से निकलती वह धातु-निर्मিত सतह अब धीरे-धीरे एक वृत्ताकार आकृति ले रही थी—मानो कोई यंत्र ज़मीन से बाहर आने की कोशिश कर रहा हो। विकिरण मीटर तीव्रता से कंपन कर रहा था। रेडियोधर्मिता के स्तर आम यूरेनियम या थोरियम जैसी ज्ञात तत्वों से मेल नहीं खा रहे थे—यह कुछ और था, कहीं अधिक शक्तिशाली और स्थिर। कियारा ने यह निष्कर्ष निकाला कि यह धातु समय के साथ विघटित नहीं हो रही, बल्कि एक स्थायी ऊर्जा उत्पन्न कर रही है—मानो यह ‘खुद को’ संचालित कर रही हो। उन्होंने तुरंत मेजर शौर्य को रिपोर्ट सौंप दी, जिसमें उन्होंने स्पष्ट किया: “सर, यह कोई पारंपरिक धातु नहीं, बल्कि एक अज्ञात टेक्नोलॉजी है—शायद मानव सभ्यता से भी पहले की।” शौर्य ने गंभीर स्वर में पूछा, “और यदि यह कोई हथियार हुआ, जिसे किसी ने जानबूझकर छिपाया?” कियारा का उत्तर था—“तो यह हमारी सबसे बड़ी गलती हो सकती है।”
उसी शाम, पंडित हरीनारायण कौल ने शिवलिंग के चारों ओर उकेरी गई लिपियों को ध्यानपूर्वक देखा। उनमें से कुछ वाक्यांश उन्हें ‘शिव-त्रिकाल संहिता’ नामक एक पुरातन ग्रंथ की याद दिला गए, जिसमें उल्लेख था: “काल को जो बांध सके, वही शिव का अंश है। जो त्रिकालदंड को जागृत करे, उसका भाग्य काल रचेगा।” पंडित ने बताया कि इस ‘त्रिकालदंड’ की कथा सिर्फ धार्मिक कल्पना नहीं, बल्कि प्राचीन ऋषियों द्वारा संचित ज्ञान पर आधारित थी। उनका दावा था कि इस यंत्र का अस्तित्व सत्य है और इसे एक दिव्य आदेश पर पृथ्वी के गर्भ में छिपा दिया गया था—क्योंकि यह समय में हस्तक्षेप करने की क्षमता रखता है। मेजर शौर्य अभी भी इन बातों को मिथक मानते थे, लेकिन वैज्ञानिक डेटा और पंडित के शब्दों के बीच बढ़ती समानता अब उसे भी विचलित कर रही थी। उसी रात, एक रहस्यमयी घटना घटी—कैम्प के सभी डिजिटल उपकरणों में एक ही समय पर टाइम स्टैम्प गड़बड़ाने लगे। घड़ियाँ उल्टा चलने लगीं, और तापमान सेंसर ने 0°C के स्थान पर -273°C, यानी पूर्ण शून्य दर्शाया। यह कोई तकनीकी त्रुटि नहीं थी, बल्कि किसी शक्तिशाली समयीय विक्षोभ का संकेत।
अगली सुबह, जब टीम एक नए सर्वे के लिए शिवलिंग के चारों ओर खुदाई कर रही थी, तब कियारा को एक ताम्रपत्र मिला—प्राचीन, किन्तु संरक्षित। उस पर उकेरी गई थी एक ज्यामितीय आकृति—तीन वृत्त एक-दूसरे में लिपटे हुए, और बीच में एक बिंदु, जिसे शैव प्रतीक में ‘बिंदु काल’ कहा जाता है। यह वही संरचना थी जिसे कियारा ने पिछली रात अपने कंप्यूटर स्क्रीन पर देखी थी—रेडिएशन मैप के भीतर। इससे यह स्पष्ट हो गया कि यह कोई संयोग नहीं, बल्कि योजनाबद्ध रूप से छिपाया गया एक संदेश था। जैसे ही ताम्रपत्र को यंत्र के ऊपर रखा गया, एक सूक्ष्म कंपन होने लगा और वह धातु-पट अचानक एक नीली चमक छोड़ने लगी। वातावरण में एक अजीब सी सरसराहट फैल गई, जैसे हवा भारी हो गई हो। शौर्य ने तुरंत सभी सैनिकों को पीछे हटने का आदेश दिया। कियारा की आंखों में भय नहीं, बल्कि विस्मय था—“सर, यह कोई यंत्र नहीं, यह कोई गेटवे है… समय का द्वार।” पंडित ने सिर झुकाकर कहा, “त्रिकाल जाग चुका है… अब यह हमें नहीं, हम इसके अधीन हैं।” कमरे में मौन छा गया—एक ऐसा मौन, जो किसी तूफान के आने से पहले की शांति जैसा था। ऑपरेशन: शिवलिंग अब एक पुरातात्विक मिशन नहीं रह गया था—यह एक ऐसा सफर बनने जा रहा था, जहाँ अतीत, वर्तमान और भविष्य एक साथ सांस ले रहे थे।
३
शिवलिंग के पास शिविर के अंदर सन्नाटा था, लेकिन उस सन्नाटे में एक विचित्र कंपन धीरे-धीरे सभी के रोंगटे खड़े कर रहा था। यंत्र की नीली रोशनी अब गाढ़ी होकर उसकी सतह पर घूमने लगी थी, जैसे किसी रहस्यमयी गणितीय क्रम में गति कर रही हो। मेजर शौर्य, जो अब तक हर स्थिति को ठंडे दिमाग से देखते आए थे, पहली बार असहज लगे। उन्होंने महसूस किया कि यह मामला सिर्फ आर्कियोलॉजी या रेडिएशन तक सीमित नहीं है—यह किसी ऐसे विज्ञान की सीमा को छू रहा है, जिसे आधुनिक युग छू भी नहीं पाया है। पंडित हरीनारायण कौल शिवलिंग के सामने पद्मासन में बैठकर ध्यानमग्न हो गए। उनके होंठों पर एक पुरातन संस्कृत मंत्र चल रहा था, जिसकी ध्वनि शिविर में गूंज रही थी। मंत्र का लय, यंत्र की गूंज और वातावरण की सनसनाहट—सब कुछ मिलकर एक रहस्यमयी समां बाँध रहे थे। डॉ. कियारा ने कंप्यूटर से जोड़कर फिर से ताम्रपत्र का स्कैन किया और पाया कि उसकी आकृति और यंत्र के भीतर चल रही प्रकाश-लहरें पूरी तरह सिंक्रनाइज़ हो रही थीं, जैसे यह कोई प्राचीन प्रोग्रामिंग हो।
पंडित कौल ने ध्यान खोला और गहरी सांस लेते हुए कहा, “यह त्रिकालदंड है। इसके जागरण का अर्थ है—काल-चक्र की गति में हस्तक्षेप।” मेजर ने पूछा, “आपका मतलब है, इससे समय में यात्रा की जा सकती है?” पंडित ने कहा, “यात्रा नहीं, संवाद। त्रिकालदंड किसी ‘टाइम मशीन’ से अधिक है। यह समय की चेतना से जुड़ने का साधन है। इसकी गति मनुष्य की इच्छा, संकल्प और मंत्र की शक्ति से नियंत्रित होती है।” डॉ. कियारा ने तुरंत पूछा, “लेकिन यह कोई पौराणिक कल्पना तो नहीं?” पंडित मुस्कुराए, “कल्पनाएँ वहीं तक सीमित होती हैं जहाँ विज्ञान नहीं पहुँचता। आज हम जिसे ‘क्वांटम फील्ड’ कहते हैं, उसे हमारे ऋषि ‘कालतत्व’ कहते थे। आप नाम बदल लीजिए, सार वही रहेगा।” फिर उन्होंने यंत्र के चारों ओर बिखरी लिपियों की ओर इशारा किया और बोले, “यह काल-संहिता है। हर हजार साल में जब पृथ्वी के आकाश में नक्षत्र विशेष स्थिति में होते हैं, तब यह यंत्र जागृत होता है। यह वही समय है।” कियारा की आँखें फैल गईं—उन्होंने कंप्यूटर में अभी कुछ देर पहले ही देखा था कि ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति इस सप्ताह के अंत में ‘सिंह-योग’ दर्शा रही थी, एक ऐसा संयोग जो 5122 वर्षों में एक बार आता है।
मेजर शौर्य अब दुविधा में थे। एक ओर राष्ट्रीय सुरक्षा—क्या यह यंत्र शत्रु के हाथ लग सकता है? दूसरी ओर यह तथ्य कि अगर यह वास्तव में समय को प्रभावित करता है, तो इसका गलत प्रयोग भविष्य के लिए घातक हो सकता है। कर्नल हेमंत राव, जो RAW के सलाहकार के रूप में उस दिन शिविर में पहुंचे, उनका रुख बिलकुल अलग था। उन्होंने स्पष्ट कहा, “अगर ये डिवाइस देश के लिए रणनीतिक लाभ दे सकता है, तो इसे सेना के नियंत्रण में लेना होगा। इसे धार्मिक या दार्शनिक बहस का हिस्सा बनाना मूर्खता होगी।” कियारा ने विरोध किया, “सर, ये सिर्फ कोई हथियार नहीं, यह चेतना से जुड़ी चीज़ है। अगर हमने इसे बलपूर्वक छेड़ने की कोशिश की, तो यह नष्ट भी कर सकता है… हमें।” पंडित कौल ने गहन स्वर में जोड़ा, “यह एक शिव-तत्व है—जिसे छूने के लिए तप, विनय और शुद्ध संकल्प चाहिए। नहीं तो त्रिकालदंड स्वयं अपना विनाश करेगा और साथ में समय की धारा को भी विकृत कर देगा।”
शिविर के भीतर अब दो गुट बनते जा रहे थे—एक जो त्रिकालदंड को वैज्ञानिक प्रयोगशाला में ले जाकर नियंत्रित करना चाहता था, और दूसरा जो इसे प्रकृति के अनुसार चलने देने की वकालत करता था। मेजर शौर्य, उस दोनों के बीच खड़े, अपनी अंतरात्मा से लड़ रहे थे। उन्होंने रात में अकेले शिवलिंग के पास जाकर उसका स्पर्श किया—उन्हें लगा जैसे कोई ऊर्जा उनकी हथेलियों से होती हुई हृदय तक पहुंच रही है। उस क्षण उन्हें एक क्षणिक दृष्टि मिली—जैसे वे किसी और समय में खड़े हों, जहां युद्ध हो रहा हो, और समय खुद एक योद्धा के रूप में उनके सामने। उन्हें समझ आ गया, यह यंत्र केवल एक खोज नहीं… यह एक परीक्षा है। और यह परीक्षा अभी शुरू हुई थी।
४
शिवलिंग के नीचे धातु की वह सतह अब पूरी तरह उभर चुकी थी, और उसके चारों ओर एक गोलाकार, नक्षत्रों जैसी संरचना उकेरी जा चुकी थी। डॉ. कियारा सेनगुप्ता ने जैसे ही नए यंत्र-स्कैनर से उसका परीक्षण किया, उनके कंप्यूटर स्क्रीन पर एक त्रिकोणीय मैप उभरा, जिसमें तीन तिथियाँ चमक रही थीं—एक अतीत की (3139 ईसा पूर्व), एक वर्तमान की (2025 ईस्वी) और एक भविष्य की (2047 ईस्वी)। यह कोई साधारण नक्शा नहीं था—यह काल-मानचित्र था, जो दर्शा रहा था कि यह यंत्र किसी निश्चित समय-चक्र में ही सक्रिय हो सकता है। कियारा की उंगलियाँ कंप्यूटर कीबोर्ड पर थम गईं। उन्होंने धीरे से कहा, “ये कोई मशीन नहीं, ये समय का खुद का नक्शा है… जैसे किसी ने भविष्य पहले ही देख लिया हो।” उसी समय पंडित कौल ने पास आकर कहा, “त्रिकालदंड केवल समय नहीं दिखाता, यह समय को अपने भीतर समेटे हुए है। और जब ये चक्र पूरे होते हैं, तब यह जागृत होता है… ठीक उसी तरह जैसे जाग्रत शिव स्वयं सृष्टि का तांडव करते हैं।”
मेजर शौर्य की आंखों के सामने अब तीन मोर्चे खड़े थे—RAW के अधिकारी जो इसे हथियार के रूप में नियंत्रित करना चाहते थे, वैज्ञानिक जो इसके रहस्य को सुलझाने के लिए प्रयोगशाला में भेजना चाहते थे, और पंडित, जो इसे दिव्य चेतना के रूप में देख रहे थे। उसी बीच, सेना के एक जवान ने एक भयानक खबर दी—“सर, धातु की उस सतह के पास से विकिरण के कारण पास की चट्टानें दरकने लगी हैं… और नीचे कुछ बड़ा ढांचा है।” खुदाई फिर शुरू हुई और ज़मीन के नीचे एक विशाल वृताकार धातु-पट का सिरा दिखा, जिसमें कुछ हिस्से नक्षत्रों के अनुसार घूमते थे—मानो कोई अंतरिक्षीय यंत्र हो। तभी अचानक एक कंपन हुआ और उस धातु-पट के चारों ओर नीली ज्वालाएं सी उठीं। सभी उपकरण बंद हो गए। तापमान में अचानक गिरावट हुई और समय का बोध गड़बड़ा गया—घड़ियां रुक गईं, GPS बंद हो गया और कम्पास की सुई पागलों की तरह घूमने लगी। उस क्षण, सबने महसूस किया जैसे समय की एक दरार खुल गई हो—कोई अदृश्य खिड़की जिससे अतीत झाँक रहा हो।
उसी रात, कियारा को एक और झटका लगा। जब उन्होंने उस धातु यंत्र को लैपटॉप से फिर से जोड़ा, एक holographic छवि उभरी—एक प्राचीन शहर, मंदिरों, रथों और अग्निकुंडों से भरा हुआ, और उसमें कुछ छायाएँ—जैसे कोई युद्ध चल रहा हो, अग्नि जल रही हो, और आकाश में उल्कापात हो रहा हो। छवि क्षण भर की थी, परंतु उसका प्रभाव गहरा था। कियारा ने तुरंत मेजर शौर्य और पंडित कौल को बुलाया। पंडित ने देखा और गंभीर स्वर में कहा, “यह कोई सपना नहीं… यह स्मृति है। त्रिकालदंड समय की घटनाओं को संचित करता है—ये किसी प्राचीन काल का दृश्य है… शायद महाभारत के ठीक बाद का युग।” शौर्य ने धीरे से पूछा, “क्या यह यंत्र हमें वहाँ ले जा सकता है?” पंडित की आंखें बंद थीं, और होंठों से निकला, “हाँ… लेकिन वापस आना तुम्हारे संकल्प और कर्म पर निर्भर करेगा। समय केवल यात्रा नहीं देता—वह मूल्य भी मांगता है।”
अब स्पष्ट था—त्रिकालदंड को अगर समय पर नियंत्रित नहीं किया गया, तो यह खुद अपने चक्र में कुछ भी समेट सकता है—भूत, भविष्य, या फिर वर्तमान को ही मिटा सकता है। लेकिन उससे भी बड़ा खतरा था: अब ये बात RAW की बाहरी इकाइयों को भी पता चल चुकी थी। रिपोर्ट्स के अनुसार, किसी ने इस यंत्र की जानकारी पाकिस्तान या चीन को बेचने की कोशिश की थी। कर्नल हेमंत राव का चेहरा कठोर था, “हमारे बीच ही कोई गद्दार है… और अगर ये यंत्र दुश्मन के हाथ लगा, तो वे ना सिर्फ भारत, बल्कि पूरी दुनिया का कालक्रम बिगाड़ सकते हैं।” मेजर शौर्य ने निर्णय लिया—“हमें यंत्र को जाग्रत करना ही होगा… पर नियंत्रण के साथ, ज्ञान के साथ। और अगर ज़रूरत पड़े तो इसे समाप्त करने के लिए भी तैयार रहना होगा।” वह रात एक निर्णायक मोड़ थी—जहाँ एक तरफ विज्ञान और पुराण साथ खड़े थे, और दूसरी ओर समय अपने भीतर तूफ़ान समेटे सब पर नज़र रख रहा था।
५
बर्फीली घाटी की शांत सुबह एक विस्फोट की आवाज़ से दहल गई। सेना की बाहरी चौकी पर अचानक हमला हुआ—तीन नकाबपोश लोग हाई-फ्रीक्वेंसी जैमर और थर्मल बम लेकर घुसे थे, और उन्होंने शिवलिंग के आसपास की सुरक्षा को भेदने की कोशिश की। हालाँकि सैनिकों ने उन्हें मार गिराया, लेकिन उनके पास से जो डिवाइस बरामद हुआ वह चौंकाने वाला था—एक ‘क्रायो-लिंक हैकर’ जो सीधे सेना के मुख्य कंप्यूटर सिस्टम से डेटा निकाल सकता था। डॉ. कियारा के लैपटॉप की हार्डडिस्क का बैकअप पहले ही चोरी हो चुका था। मेजर शौर्य को यह समझने में देर नहीं लगी कि अब ऑपरेशन शिवलिंग पूरी तरह गोपनीय नहीं रहा। पंडित हरीनारायण, जो अब तक शांत थे, इस घटना के बाद बुरी तरह विचलित दिखे। उन्होंने कहा, “काल जब जागता है, तो सबसे पहले विश्वासघात को उजागर करता है।” उस वाक्य ने शौर्य को झकझोर दिया। अब संदेह की सुई अपने ही लोगों की ओर घूमने लगी।
शिविर के भीतर मौजूद वैज्ञानिकों, सैनिकों और खुफिया अधिकारियों की पृष्ठभूमि दोबारा खंगाली गई। अचानक, सेना के टेक्निकल अफसर संदीप मलिक पर शक गहराया—वह पिछले 48 घंटे से लापता था, और CCTV में पाया गया कि उसने रात के वक्त शिवलिंग के मुख्य संरचना के निकट दो बार प्रवेश किया। जब उसे पकड़ा गया, तो उसके पास से RAW की एक ब्लैक-लिस्टेड विदेशी एजेंसी का संपर्क लॉग मिला। interrogation में उसने जो कबूल किया, वह चौंकाने वाला था: “मैंने सिर्फ इतना किया कि उस यंत्र का फोटो और डेटा उन लोगों तक पहुँचाया जिन्होंने कहा था कि वे इसे ‘मानवता के हित’ में इस्तेमाल करेंगे। लेकिन उन्होंने मुझसे इसका एक हिस्सा भी माँगा था…” वह हिस्सा था त्रिकालदंड का नाभिकीय केंद्रक—वह धातु का टुकड़ा जो पंडित कौल के अनुसार, यंत्र को जीवंत बनाता था। और वह अब गायब था। जैसे ही ये सूचना सामने आई, पूरे ऑपरेशन में खतरे की घंटी बज उठी—अगर नाभिकीय केंद्रक किसी गलत हाथ में पहुँच गया, तो यंत्र न सिर्फ अस्थिर हो सकता है, बल्कि उसे जबरन सक्रिय किया जा सकता है, जिसके परिणाम अनियंत्रित हो सकते हैं।
मेजर शौर्य और डॉ. कियारा ने मिलकर तुरंत शिवलिंग क्षेत्र को लॉकडाउन में डाल दिया और केवल तीन लोगों को अब उस केंद्र में प्रवेश की अनुमति दी गई—पंडित कौल, कियारा स्वयं, और मेजर शौर्य। पंडित जी ने तपस्वी मुद्रा में शिवलिंग के सामने बैठकर प्राचीन ग्रंथों से मन्त्रों का उच्चारण शुरू किया, जिससे यंत्र की कंपन धीरे-धीरे बदलने लगी। एक अजीब सी ध्वनि वातावरण में गूँजने लगी—मानो वक़्त खुद अपनी नींद से जाग रहा हो। ठीक उसी समय, कंप्यूटर स्क्रीन पर एक चेतावनी उभरी: “Unstable Chrono-Signal detected”—समय-तरंगों में विकृति! इसका अर्थ था कि कोई और स्थान पर, शायद सीमा पार या किसी भूमिगत केंद्र में, उस नाभिकीय केंद्रक को कृत्रिम रूप से सक्रिय करने की कोशिश की जा रही थी। और यदि दोनों हिस्से—जो यहाँ और जो वहाँ—एक ही काल-संकेत पर जागृत हो जाएँ, तो समय का द्वार अनियंत्रित रूप से खुल सकता था। शौर्य ने गहरी साँस ली, और धीरे से कहा, “अब यह विज्ञान और सुरक्षा का युद्ध नहीं… यह नियति के विरुद्ध संघर्ष है।”
इस पूरे उथल-पुथल के बीच, डॉ. कियारा ने एक अंतिम प्रयोग किया। उन्होंने ताम्रपत्र की ज्यामितीय आकृति को स्कैन कर उसे उस धातु प्लेट से सिंक्रनाइज़ किया जो अब भी सुरक्षित थी। अचानक प्लेट पर नक्षत्र घूमने लगे, और बीच में एक गोल वृत्त खुला—उसके भीतर गहराई में एक भँवर जैसा प्रकाश दिखाई दिया। यह शायद समय का द्वार था… लेकिन अधूरा। त्रिकालदंड की शक्ति को पूर्ण सक्रिय करने के लिए अब दोनों हिस्सों का मिलन आवश्यक था। लेकिन चूक करने की कोई गुंजाइश नहीं थी—गलत तालमेल, और समय रेखा हमेशा के लिए बिगड़ सकती थी। पंडित कौल ने कहा, “एक पक्ष ने इसे बलपूर्वक जगाने की कोशिश की है। अब इसे संकल्प और मन्त्र से शांत करना होगा, नहीं तो समय स्वयं विद्रोह करेगा।” अब सिर्फ एक रास्ता बचा था—त्रिकालदंड को पूर्ण रूप से सक्रिय करना… और फिर, यदि आवश्यक हो, तो विनष्ट करना। क्योंकि कभी-कभी कुछ रहस्य बचाने के लिए नहीं, दफनाने के लिए होते हैं।
६
घड़ी की सुइयाँ स्थिर थीं। कंपास दिशाहीन था। आसमान में एक विचित्र बैंगनी आभा फैल चुकी थी, और शिवलिंग के चारों ओर मंडराता वह नीला प्रकाश अब एक घूमते हुए वर्तुल में बदल गया था—मानो एक प्रवेशद्वार, जो किसी और ही समय की ओर खुल रहा हो। डॉ. कियारा सेनगुप्ता के पास विकल्प नहीं बचे थे। मेजर शौर्य व्यास ने एक पल के लिए अपने दल की ओर देखा, फिर पंडित हरीनारायण कौल की ओर, जो अब भी मंत्रों की गूंज के साथ त्रिकालदंड को स्थिर बनाए रखने की कोशिश कर रहे थे। यंत्र अधूरा था, पर एक क्षण के लिए दोनों केंद्र—जो चोरी हो चुका नाभिकीय भाग और शिवलिंग के नीचे स्थित सतह—संपर्क में आए, और एक झटके में वक़्त की रेखा झिलमिला उठी। कियारा ने केवल इतना कहा, “अगर हम इसे अब नहीं समझे, तो कोई और इसे बदल देगा।” शौर्य ने सिर हिलाया, और दोनों बिना कोई और वक्त गंवाए उस घूमते प्रकाश-पथ में कूद पड़े। उस क्षण, पंडित कौल ने अंतिम मंत्र उच्चारित किया—“कालमंत्र प्रवर्तते।”
कुछ ही पलों में, उनके चारों ओर की दुनिया धुँधली होने लगी। तापमान गिरा नहीं, बल्कि स्थिर हो गया—शून्य की तरह। न कोई ध्वनि, न गति—केवल वह नील-स्वर्णिम सुरंग, जो उन्हें समय के भीतर किसी अस्थिर गंतव्य की ओर खींच रही थी। जब दृश्य साफ हुआ, वे किसी विशाल मैदान में खड़े थे, जहाँ सूर्य की रोशनी हल्की सुनहरी थी, और आकाश में पक्षियों की आकृति वैसी नहीं थी जैसी वे जानते थे। दूर एक नदी बह रही थी—शायद सरस्वती। उनके चारों ओर मिट्टी की विशाल वेदियाँ थीं, और मध्य में एक अर्धनिर्मित शिव मंदिर, जो अपनी बनावट में आधुनिक नहीं, बल्कि किसी वैदिक सभ्यता का प्रतीक था। तभी उनके पास से एक घुड़सवार निकला, जिसने न तो उन्हें देखा, न ही उनकी उपस्थिति महसूस की—जैसे वे किसी पारदर्शी रूप में समय के उस क्षण का हिस्सा बन चुके हों। पंडित कौल की चेतना—जो अब उनके मन से संवाद कर रही थी—ने कहा, “तुम दोनों अब साक्षी हो। त्रिकालदंड ने तुम्हें समय की स्मृति में भेजा है, यथार्थ में नहीं। इसे देखो, समझो, पर हस्तक्षेप मत करो।”
शौर्य और कियारा ने देखा कि उस काल में एक सभा चल रही थी, जहाँ ऋषि और योद्धा किसी महा युद्ध के बाद की पुनर्संरचना पर चर्चा कर रहे थे। वे आपस में कहते हैं, “त्रिकालदंड को अब पृथ्वी के भीतर समाहित किया जाना चाहिए, ताकि मनुष्य उसकी शक्ति को फिर से युद्ध में न प्रयोग करे।” कियारा की आंखों में आंसू थे—यह वह क्षण था जब पहली बार त्रिकालदंड को पृथ्वी में छिपाया गया था। पर इसी समय, उन्हें एक और दृश्य दिखा—एक छाया, जो सभा से अलग थी, एक ‘अन्य’ विचारधारा से प्रेरित, जो यंत्र की शक्ति को भविष्य में पुनः जागृत करने के लिए उसके निर्देशों की नकल कर रही थी। यह वही छाया थी जिसे वर्तमान में चोरी हुआ हिस्सा मिल चुका था। त्रिकालदंड केवल चेतना की स्मृति नहीं दिखा रहा था—वह चेतावनी दे रहा था कि वह ‘अतीत की गलती’ फिर से दोहराई जा रही है।
कुछ क्षणों बाद, समय की सुरंग एक बार फिर सक्रिय हुई। शौर्य और कियारा की चेतना वापस खिंचने लगी, और जब वे शिविर में लौटे, तो उनके शरीर कंपन कर रहे थे। पंडित कौल अब बहुत दुर्बल दिख रहे थे, उन्होंने काँपती आवाज़ में कहा, “आपने देखा ना? यह कोई यंत्र नहीं… यह काल का जीवित जीव है, जो समय से खिलवाड़ सह नहीं सकता।” तभी डॉ. कियारा की नजर स्क्रीन पर गई—वहाँ एक अलार्म बज रहा था: “Unauthorized Synchronization Detected – Sector X-19”। चोरी हुआ केंद्रक अब सक्रिय हो चुका था—और दुश्मन उसे ‘पूरा यंत्र’ मानकर चला रहा था। लेकिन वह नहीं जानते थे कि उन्होंने केवल एक प्रतिध्वनि चुराई थी… आत्मा नहीं। त्रिकालदंड की आत्मा अब केवल एक उपाय जानती थी—स्व-विनाश।
मेजर शौर्य ने एक गहरी साँस ली और कहा, “तो अब समय है अंतिम यात्रा का… ताकि जो छीन लिया गया है, उसे वापस समर्पित किया जा सके।” कियारा ने धीरे से उत्तर दिया, “हाँ… क्योंकि अगर हमने ये न किया, तो इतिहास फिर खुद को दोहराएगा—इस बार अंतहीन विनाश के साथ।” शिवलिंग की रोशनी फिर तेज़ हो रही थी—यह त्रिकालदंड की अंतिम पुकार थी।
७
शिवलिंग की चारों ओर अब कोई मानव गंध नहीं थी, केवल प्रकाश और ध्वनि का ऐसा चक्र जिसमें लगता था कि समय खुद काँप रहा है। मेजर शौर्य व्यास और डॉ. कियारा सेनगुप्ता के शरीर अब शिथिल हो रहे थे—न सिर्फ थकावट से, बल्कि उस दिव्य ऊर्जा के प्रभाव से जो उन्होंने समय-गह्वर में झेली थी। त्रिकालदंड की चेतना अब उन्हें पहचान चुकी थी। लेकिन समय नहीं रुका था—उस चोरी हुए नाभिकीय केंद्रक को लेकर अब ‘सेक्टर X-19’ में एक छद्म प्रयोग शुरू हो चुका था। वह स्थान भारतीय सीमा से बहुत दूर, हिमालय की तलहटी में एक भूमिगत गुफा-आधारित गुप्त अनुसंधान केंद्र था, जिसे पहले केवल एक अस्थिर वैज्ञानिक प्रयोग के रूप में जाना जाता था। अब वहाँ मौजूद था वही गद्दार—संदीप मलिक—जिसने उस केंद्रक को एक विदेशी निजी मिलिट्री एजेंसी को सौंप दिया था। वहाँ के वैज्ञानिक यह समझ ही नहीं पाए कि उन्होंने केवल ‘आधा सत्य’ चुराया है, पर उसे जागृत कर रहे हैं एक पूर्ण विनाश की ओर।
उधर गुलमर्ग के बेस शिविर में त्रिकालदंड ने एक नया व्यवहार दिखाना शुरू किया। उसकी परिधि पर बनी ज्यामितीय रेखाएं अब तीव्र गति से घूम रही थीं, और हर सातवें चक्र पर यंत्र स्वयं हल्का सा कंपकंपाता था—जैसे वह अपने किसी बिछड़े भाग को महसूस कर रहा हो। डॉ. कियारा ने कंप्यूटर से जब उसकी तरंग आवृत्तियों को पढ़ा, तो उन्होंने देखा कि यंत्र बार-बार केवल एक दिशा में संकेत भेज रहा है—पूर्वोत्तर की ओर, 83° अक्षांश और 29° देशांतर पर। उन्होंने तुरंत उस स्थान को मैप पर ट्रेस किया: “सेक्टर X-19!” पंडित कौल, जो अब धीरे-धीरे शारीरिक रूप से कमजोर होते जा रहे थे, लेकिन मानसिक रूप से और भी स्पष्ट, बोले—“वह तुम्हारी छाया है। समय की आत्मा अब अपनी प्रतिछाया को पुकार रही है। लेकिन यह मिलन नहीं, युद्ध होगा। आत्मा केवल सत्य को स्वीकार करती है, भ्रम को नहीं।”
अब एकमात्र रास्ता था—सेक्टर X-19 में घुसपैठ कर उस नकली प्रयोग को नष्ट करना और त्रिकालदंड के खोए हुए टुकड़े को वापस लाना। मेजर शौर्य ने दिल्ली मुख्यालय से विशेष अनुमति माँगी, और दो हेलिकॉप्टरों की एक गुप्त टीम को लेकर उसी रात रवाना हुए। लेकिन इस मिशन में वे केवल सैनिक नहीं थे—उनके साथ थे पंडित कौल, जो अब अंतिम बार यंत्र को संपूर्ण करने के लिए स्वयं को अर्पण करने को तैयार थे। यात्रा लंबी, ऊँचाई भरी और मौत से भरी थी। लेकिन जब वे X-19 पहुंचे, तो वहाँ का दृश्य अकल्पनीय था—पूरे केंद्र को ऊर्जा से लथपथ एक कृत्रिम यंत्र से जोड़ा गया था, जो त्रिकालदंड के उस चुराए हुए हिस्से को अत्यधिक बलपूर्वक सक्रिय करने की कोशिश कर रहा था। वहाँ मौजूद वैज्ञानिकों को अब समझ आ चुका था कि यंत्र अनियंत्रित हो रहा है—समय की रेखाएं झुलस रही थीं, और वातावरण में अजीब सी गूंज थी… जैसे भविष्य फट रहा हो।
मेजर शौर्य और उनकी टीम ने घुसपैठ की और पूरे केंद्र पर नियंत्रण कर लिया। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी—त्रिकालदंड का वह हिस्सा अपनी मूल आत्मा से अलग होकर एक स्वतंत्र चेतना में बदल चुका था। पंडित कौल ने उसे देखते ही आँखें बंद कर लीं और धीरे से बोले—“अब इसे मिटाना ही समाधान है। क्योंकि यह भाग, आत्मा नहीं… अहंकार बन चुका है।” तभी यंत्र से एक प्रकाश पुंज निकला और सीधे पंडित के हृदय पर जा लगा। वह गिरे नहीं, खड़े रहे… उनकी आँखों से अश्रु की धारा बह निकली, और होठों से अंतिम मंत्र निकला—“नमः कालाय, त्रिकालाय, महाकालाय नमः।” एक पल के लिए पूरा केंद्र निस्तब्ध हो गया। और फिर, जैसे ही वह मंत्र पूरा हुआ, चोरी हुआ केंद्रक एक तेज़ प्रकाश के साथ जल उठा… और स्वयं विस्फोटित हो गया।
उस विस्फोट से न कोई ध्वनि निकली, न कोई लपट—केवल समय का एक टुकड़ा जैसे खुद फट गया हो। जब सब कुछ शांत हुआ, त्रिकालदंड के चुराए हुए हिस्से की राख मात्र बची थी। पंडित कौल अब भूमि पर निश्चल थे—उनका शरीर निर्वात में विलीन हो चुका था, मानो समय ने अपनी आत्मा को वापस ले लिया हो। डॉ. कियारा ने मेजर शौर्य के कंधे पर हाथ रखा—आँखों में शोक नहीं, बल्कि श्रद्धा थी। उन्होंने धीरे से कहा, “त्रिकालदंड अब पूर्ण नहीं रहा… लेकिन अब वह स्वतंत्र भी नहीं।” शौर्य बोले, “और अब ये भी स्पष्ट है… समय की सबसे बड़ी परीक्षा मनुष्य की चेतना पर होती है—हम इसे हथियार की तरह देखें या मार्गदर्शक की तरह… चुनाव हमारा है।”
अब, त्रिकालदंड का मूल हिस्सा ही बचा था। लेकिन क्या उसे नष्ट किया जाना चाहिए? या सहेज कर रखा जाए भविष्य की चेतावनी के रूप में? उस निर्णय की घड़ी अब नजदीक थी… क्योंकि अगला अध्याय, अंतिम था।
८
त्रिकालदंड का विस्फोटित हिस्सा अब राख बनकर शांत पड़ा था, और पंडित हरीनारायण कौल का पार्थिव शरीर एक मोक्षप्राप्त योगी की मुद्रा में स्थिर था—नेत्र बंद, मुख अर्धमुस्करित। सेक्टर X-19 की वह भूमिगत सुरंग अब एक समाधि-क्षेत्र में बदल चुकी थी, जहाँ समय का हर कण शून्य में ठहरा हुआ जान पड़ता था। मेजर शौर्य व्यास ने पंडित जी की देह को अपने कंधों पर उठाया और एक मौन संकल्प लिया—”अब इस अध्याय को वहीं समाप्त किया जाएगा जहाँ से यह शुरू हुआ था—शिवलिंग के नीचे, उस प्राचीन ऊर्जा केंद्र में, जहाँ आत्मा और काल एक साथ निवास करते हैं।” डॉ. कियारा सेनगुप्ता उनके साथ थीं, और अब वह वैज्ञानिक नहीं—एक साधिका की भाँति मौन, लेकिन भीतर से ज्वालामुखी सी जागृत थीं। उन्होंने अनुभव कर लिया था कि समय कोई रेखा नहीं, वह चेतना है—और चेतना को बलपूर्वक मोड़ा नहीं जा सकता।
तीन दिन बाद, गुलमर्ग की बर्फीली घाटी में त्रिकालदंड का मूल भाग शिवलिंग की परिधि में लौटाया गया। पंडित कौल की अंत्येष्टि वैदिक विधि से ठीक उसी चक्र के मध्य में हुई, जिसे उन्होंने पहले दिन “काल मंडल” कहा था। जैसे ही उनका शरीर अग्नि को समर्पित हुआ, त्रिकालदंड के यंत्र में एक अंतिम बार कंपन हुआ—मानो अपने मार्गदर्शक को विदाई दे रहा हो। उसके बाद जो हुआ, वह अवर्णनीय था—पूरे यंत्र ने धीरे-धीरे अपनी चमक खो दी, उसके रेखाचित्र विलीन होने लगे, और अंततः वह धात्विक सतह ठंडी और निष्क्रिय हो गई। डॉ. कियारा ने धीरे से कहा, “वह अब सो गया है… जब तक अगली बार चेतना उसे पुकारे, वह अब निष्क्रिय रहेगा।” मेजर शौर्य ने पूछा, “क्या इसका अर्थ यह है कि यह अध्याय अब समाप्त?” कियारा की दृष्टि उत्तर दिशा में टिक गई—”नहीं, इसका अर्थ है कि हमने समय के चक्र में हस्तक्षेप नहीं किया… हमने बस उसे समझा, और विनम्रता से प्रणाम किया।”
भारतीय सेना ने उस पूरे क्षेत्र को ‘संरक्षित चेतना क्षेत्र’ घोषित कर दिया। न कोई खुदाई होगी, न कोई परीक्षण। केवल मौन, पहरा और प्रार्थना। RAW के कुछ अधिकारियों ने प्रश्न उठाए, कि क्या यह यंत्र दुबारा प्रयोग किया जा सकता है? क्या इसका एक वैज्ञानिक उपयोग विकसित किया जा सकता है? लेकिन मेजर शौर्य ने अब वह स्वर नहीं अपनाया। उन्होंने एक फ़ाइल टेबल पर रखी: “त्रिकालदंड परियोजना समाप्त — classified as metaphysical anomaly.” और साथ में लिखा, “इस यंत्र का अस्तित्व ही पर्याप्त चेतावनी है कि मानव मन की लालसा और विज्ञान का घमंड यदि संयमित न हो, तो समय स्वयं हमें मिटा देगा।” केंद्र सरकार ने उस फाइल को चुपचाप सीलबंद कर दिया।
कई महीने बाद, डॉ. कियारा सेनगुप्ता हिमालय की एक गुफा में ध्यानमग्न थीं। उनके सामने वही ताम्रपत्र रखा था, जिसकी ज्यामिति अब भी वैसी ही थी—लेकिन अब कोई रोशनी नहीं निकलती थी, न कोई संकेत। उन्होंने धीरे से उस पर हाथ रखकर कहा—“तुम चेतना हो… मैं भी। अगली बार जब मनुष्य का विवेक तुम्हें फिर से जगाएगा, मैं नहीं रहूँगी… लेकिन उम्मीद करती हूँ कि कोई तुम्हें फिर से अस्त्र नहीं, साधना समझेगा।”
दूर कहीं, एक अलक्षित लोक में, शायद त्रिकालदंड की चेतना अब भी जाग रही हो। पर उसने आज यह सीख लिया था—मनुष्य वही योग्य है जो शक्ति पाकर भी नम्र बना रहे। और यही अंतिम अनुष्ठान था—काल को समर्पण का।
—समाप्त—
				
	

	


