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एलाहाबाद की अड्डेबाज़ी

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आरव तिवारी


भाग 1 – संगम किनारे की शुरुआत

इलाहाबाद की शामें हमेशा से अनोखी रही हैं। जहाँ एक ओर संगम का किनारा अपने धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व से लोगों को आकर्षित करता है, वहीं दूसरी ओर सिविल लाइन्स और कटरा की गलियों में एक अलग ही ज़िंदगी धड़कती है। विश्वविद्यालय के सामने की चाय की दुकानों से लेकर लोकनाथ गली के ठेले तक, हर जगह अड्डे जमते हैं—जहाँ बातों का सिलसिला गंगा की धारा की तरह कभी रुकता नहीं।

आरव, कहानी का नायक, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का शोध छात्र था। वह इतिहास पढ़ता था, लेकिन उसके दिल में इलाहाबाद की गलियों का वर्तमान ज़्यादा गूंजता था। उसके दोस्त—सौरभ, एक कवि जो हमेशा अधूरी पंक्तियों में उलझा रहता; निखिल, जिसे राजनीति और बहस का शौक था; और अनन्या, जो शहर की पत्रकारिता में नया नाम बना रही थी—ये चारों अक्सर यूनिवर्सिटी रोड की ‘रामदयाल चाय की दुकान’ पर मिलते।

यहाँ की चाय का स्वाद खास था—मिट्टी के कुल्हड़ में उबलती अदरक-इलायची की खुशबू, और ऊपर से दुकानदार रामदयाल की मुस्कान। उसी दुकान पर बैठकर शहर के मसलों पर घंटों बहस होती। कभी साहित्य, कभी राजनीति, कभी क्रिकेट और कभी महंगाई पर। आरव हमेशा नोटबुक साथ रखता, ताकि इन अड्डों की कहानियाँ दर्ज कर सके। उसे लगता था कि असली इलाहाबाद तो इन बहसों और गपशप में ही बसता है।

उस दिन भी चाय के साथ अड्डा जम चुका था। सौरभ ने एक नई कविता सुनाई—“संगम के पानी में जितनी परतें हैं, उतनी परतें इस शहर की रूह में छुपी हैं।” निखिल तुरंत बहस में कूद पड़ा—“परतें तो हैं, लेकिन इन परतों में भ्रष्टाचार भी है, बेरोजगारी भी है। यह शहर सिर्फ साहित्य और इतिहास का नहीं, राजनीति का भी गढ़ है।”

अनन्या ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, “और इन्हीं परतों को उधेड़ने का काम पत्रकारिता करती है। मेरे अख़बार में कल एक रिपोर्ट छपने वाली है—यूनिवर्सिटी में फैलते नशे पर। देखना, कितना हंगामा मचेगा।”

आरव सब सुनते हुए अपने नोटबुक में लिख रहा था। उसके मन में एक सपना था—इन अड्डों की कहानियों को जोड़कर वह कभी इलाहाबाद की असली तसवीर लिखेगा, जहाँ गंगा-जमुनी तहज़ीब, साहित्य, राजनीति और युवा पीढ़ी की बेचैनी सब साथ नज़र आए।

लेकिन इलाहाबाद के अड्डे सिर्फ चाय की दुकानों तक सीमित नहीं थे। शाम होते ही सिविल लाइन्स के कैफ़े और लोकनाथ गली की मिठाई की दुकानों पर भी भीड़ लगती। वहाँ की बातें अलग रंग की होतीं—कुछ प्रेम कहानियाँ, कुछ दोस्ती की यादें, और कुछ सपनों की उड़ानें।

भाग 1 का अंत उस शाम पर होता है जब रामदयाल की दुकान पर अचानक एक अनजान शख़्स आकर बैठ गया। उसका चेहरा थका हुआ था, लेकिन आँखों में अजीब चमक थी। उसने पहली बार बोलते हुए कहा—“क्या तुम सब सच में इस शहर को जानते हो? इलाहाबाद सिर्फ अड्डों का नहीं, राज़ों का भी शहर है।”

चारों दोस्त एक-दूसरे को देखने लगे। आरव के नोटबुक में यह नई लाइन दर्ज हुई—“इलाहाबाद का हर अड्डा, एक नया राज़ खोलता है।”

भाग 2 – रहस्यमयी अजनबी

रामदयाल की चाय की दुकान पर उस अजनबी का आना सबको चौंका गया। चाय की भाप और गपशप की गर्मी के बीच उसकी आवाज़ किसी ठंडी हवा की तरह गूँज उठी—“क्या तुम सच में इस शहर को जानते हो?”

आरव ने नोटबुक बंद कर दी और ध्यान से उसे देखने लगा। आदमी लगभग चालीस-पैंतालीस का रहा होगा। चेहरे पर थकान की लकीरें थीं, जैसे कई रातों से सोया न हो, पर आँखों की चमक अजीब थी—जैसे उसमें कोई छुपा हुआ किस्सा जीवित हो। उसने सादी सफेद शर्ट और जीन्स पहन रखी थी, और हाथ में पुराना चमड़े का बैग था।

सौरभ ने हँसते हुए कहा, “अरे भाईसाहब, इलाहाबाद को कौन नहीं जानता? यह तो कवियों का, लेखकों का, राजनीतिज्ञों का और छात्रों का शहर है।”

निखिल तुरंत बहस में कूद पड़ा—“और भ्रष्ट नेताओं का भी। अड्डा लगाने के लिए दुनिया में इससे बढ़िया शहर कोई नहीं।”

अनन्या ने उसे रोकते हुए उस अजनबी से पूछा, “आप कौन हैं? और ऐसा क्यों कह रहे हैं, जैसे शहर के सारे राज़ आपको मालूम हों?”

अजनबी ने धीरे से कुल्हड़ उठाया, चाय की चुस्की ली और बोला, “नाम पूछोगे तो बहुत नाम बता सकता हूँ, लेकिन आज मुझे पहचानने से ज़्यादा ज़रूरी है यह जानना कि तुम लोग सच में इस शहर की धड़कन सुनते हो या नहीं।”

रामदयाल मुस्कराते हुए बोला, “बाबूजी, हमारी दुकान पर आने वाला हर आदमी शहर की धड़कन सुनता है। बताइए, कौन-सा राज़ है जो इतना भारी लगता है?”

अजनबी ने अपनी जेब से एक मुड़ा-तुड़ा कागज़ निकाला। उसे मेज़ पर रखते हुए बोला, “यह देखो। यह इलाहाबाद के पुराने मोहल्लों का नक्शा है—सत्तर के दशक का। कुछ गलियाँ अब भी वैसी ही हैं, पर कुछ के नीचे वो दबी चीज़ें हैं जिन्हें कोई जानना नहीं चाहता।”

आरव के दिल की धड़कन तेज़ हो गई। नक्शे पर लाल स्याही से कुछ निशान बने हुए थे—एक लोकनाथ गली के पास, दूसरा दारागंज में और तीसरा विश्वविद्यालय के पुराने हॉस्टल के पास।

“ये निशान क्या हैं?” आरव ने पूछ ही लिया।

अजनबी ने गहरी साँस ली। “ये वो जगहें हैं जहाँ शहर की असली कहानियाँ दबी हैं। हर अड्डे की दीवारों के पीछे एक राज़ छुपा है। कोई ग़ायब हुआ, कोई दबा हुआ सच, कोई ऐसा रहस्य जिसे उजागर करने से कई चेहरे बेनकाब हो जाएँगे।”

सौरभ ने मज़ाक उड़ाते हुए कहा, “आप तो किसी जासूसी उपन्यास के पात्र लग रहे हैं।”

लेकिन निखिल गंभीर हो गया। “कौन से चेहरे? किसके राज़? ज़रा साफ़-साफ़ बताइए।”

अजनबी ने एकदम चुप्पी साध ली। उसकी आँखें अब दूर कहीं टकटकी लगाए देख रही थीं। तभी रामदयाल की दुकान के कोने में बैठा एक बुजुर्ग खाँसते हुए बोला, “भाई, ये शहर राज़ों का कब्रिस्तान है। बहुत कुछ दफ्न है यहाँ, और सबको उखाड़ना अच्छा नहीं होता।”

चाय की भाप के बीच वातावरण भारी हो गया। अनन्या ने चुप्पी तोड़ी—“अगर सच में कुछ राज़ है, तो हमें जानना चाहिए। आखिर पत्रकार होने का यही मतलब है।”

आरव ने भी हामी भरी। “और इतिहासकार होने का भी। शहर की कहानी सिर्फ इमारतों से नहीं बनती, उसके रहस्यों से भी बनती है।”

अजनबी मुस्कराया—पहली बार। “ठीक है। अगर हिम्मत है तो कल रात दारागंज आ जाना। संगम से थोड़ी दूर एक पुरानी हवेली है। वहीं से कहानी शुरू होगी।”

यह कहकर वह उठ खड़ा हुआ। बैग कंधे पर डाला और धीरे-धीरे अँधेरी गली में गुम हो गया।

चारों दोस्त चुप बैठे रहे। सौरभ ने हँसी में बात टालनी चाही, लेकिन अनन्या की आँखों में जिज्ञासा साफ़ दिख रही थी। निखिल तो मानो चुनौती स्वीकार कर चुका था। और आरव की नोटबुक में अगली लाइन दर्ज हो चुकी थी—“इलाहाबाद का हर नक्शा, अपने नीचे एक भूला हुआ सच दबाए बैठा है।”

अगली सुबह सब अपने-अपने काम में लग गए, लेकिन दिमाग़ में वही बात घूमती रही। अनन्या अख़बार दफ़्तर गई, लेकिन रिपोर्ट लिखते समय भी उसे हवेली का ख्याल आता रहा। निखिल ने क्लास छोड़कर राजनीति पर बहस की, लेकिन बीच-बीच में अजनबी की आँखें याद आतीं। सौरभ ने एक नई कविता लिखी—“हवेली के बंद दरवाज़ों में छुपी चीखें गूंजती हैं, और शहर का नक्शा हमें वहाँ बुलाता है।”

शाम को जब चारों फिर रामदयाल की दुकान पर मिले, तो तय हुआ—रात को हवेली जाना ही है।

रामदयाल ने उनकी बातें सुन लीं। वह बोला, “बच्चो, दारागंज की हवेली से दूर रहना। वहाँ रात को जाने वाले लौटकर नहीं आते।”

लेकिन चारों दोस्तों की जिज्ञासा डर से बड़ी थी।

रात के ग्यारह बजे, संगम किनारे की सड़क पर हल्की धुंध थी। गंगा का पानी चाँदनी में चाँदी-सा चमक रहा था। चारों धीरे-धीरे हवेली की ओर बढ़े। हवेली के दरवाज़े पर अजनबी पहले से खड़ा था, जैसे उनका इंतज़ार कर रहा हो।

उसने कहा, “अंदर जो देखोगे, उसे किसी से कहना आसान नहीं होगा। तैयार हो?”

सबने एक-दूसरे की ओर देखा और सिर हिलाया।

अजनबी ने दरवाज़ा खोला। दरवाज़ा चरमराहट के साथ खुला, जैसे सदियों से किसी ने उसे छुआ न हो। अंदर अंधेरा, धूल और दीवारों पर उखड़ी हुई चूने की परत। लेकिन सबसे अजीब थी वह गंध—नमी और किसी पुराने राज़ की मिली-जुली गंध।

अजनबी ने लालटेन जलाई और कहा, “यहीं से इलाहाबाद के अड्डों की असली कहानी शुरू होती है। हर गली, हर नक्शा, हर दीवार का अपना गवाह है। और इस हवेली के नीचे जो दफ़्न है, वही इस शहर का सबसे बड़ा राज़ है।”

चारों दोस्तों की रूह काँप गई।

आरव ने नोटबुक कसकर पकड़ ली। उसने धीरे से लिखा—“अड्डा अब सिर्फ बातें नहीं, एक रहस्य की दहलीज़ है।”

भाग 3 – हवेली का तहख़ाना

हवेली का दरवाज़ा खुलते ही जैसे सदियों की साँसें भीतर से बाहर निकल आई हों। दीवारों पर जाले लटक रहे थे, लकड़ी की सीढ़ियाँ चरमराती थीं, और हर कोने से अजीब-सी गंध उठ रही थी। लालटेन की पीली रोशनी में चारों दोस्त और वह रहस्यमयी अजनबी धीरे-धीरे अंदर बढ़े।

“इस हवेली में आख़िरी बार रोशनी कब जली थी?” सौरभ ने फुसफुसाते हुए पूछा।
अजनबी ने कहा, “लगभग चालीस साल पहले। तब यहाँ एक सेठ रहता था—सेठ रामवल्लभ। उसकी मौत के बाद से हवेली वीरान है। लोग कहते हैं कि वह यहाँ कोई ख़ज़ाना छुपा कर गया था, लेकिन सच्चाई इससे कहीं गहरी है।”

अनन्या की आँखें चमक उठीं। “ख़ज़ाना? मतलब ये सच में कोई जासूसी किस्सा है?”
अजनबी ने सिर हिलाया। “ख़ज़ाना सोने-चाँदी का नहीं। यह शहर की यादों और पापों का ख़ज़ाना है।”

आरव नोटबुक खोलने ही वाला था कि अचानक दीवार से आती चरमराहट ने सबको डरा दिया। हवा जैसे किसी अदृश्य हाथ से चल रही थी।

अजनबी उन्हें हवेली के बीचोबीच ले गया। वहाँ फ़र्श पर एक बड़ा-सा लोहे का ढक्कन था, जिस पर धूल और मिट्टी की मोटी परत जमी थी। उसने धीरे-धीरे उस ढक्कन को हटाया, और नीचे अँधेरे का गड्ढा दिखाई दिया।

“ये तहख़ाना है,” अजनबी बोला। “सेठ रामवल्लभ की मौत के बाद से कोई यहाँ नहीं उतरा। लेकिन इसके नीचे ही वो कहानियाँ दबी हैं, जिनसे इलाहाबाद की अड्डेबाज़ी का असली रूप समझ में आएगा।”

निखिल ने हिम्मत दिखाते हुए कहा, “अगर इतना ही ज़रूरी है तो चलो, देखते हैं।”

सबने मोबाइल की टॉर्च जलाई और लोहे की सीढ़ियों से नीचे उतरने लगे। हवा भारी होती जा रही थी, जैसे दीवारें अपने अंदर का राज़ छुपाने पर अड़ी हों। तहख़ाने में पहुँचते ही उन्होंने देखा—पुरानी लकड़ी की अलमारियाँ, बिखरे काग़ज़, और कोनों में पड़े लोहे के बक्से।

सौरभ ने एक बक्सा खोला। उसमें पीले पड़े अख़बार और अधूरी कविताओं की डायरी थीं। कविताओं में क्रांति, संघर्ष और आज़ादी की पुकार थी।
अनन्या ने धीरे से कहा, “ये कविताएँ तो उस दौर की हैं जब इलाहाबाद में आंदोलन ज़ोरों पर था। शायद यह शहर के गुमनाम क्रांतिकारियों की लिखी हुई हैं।”

आरव ने दूसरे बक्से को खोला। उसमें पुरानी फ़ोटो थीं—विश्वविद्यालय की सभाओं की, नेताओं की, और कुछ अनजाने चेहरों की। फ़ोटो के पीछे लिखा था—“सत्य कभी नहीं मरता।”

निखिल को एक अलमारी से फ़ाइल मिली। उसने धूल झाड़कर खोली। फ़ाइल में पुलिस की रिपोर्टें और गुप्त दस्तावेज़ थे। उनमें लिखा था—“कुछ छात्रों को सरकार के ख़िलाफ़ गतिविधियों में शामिल होने पर ग़ायब कर दिया गया है।”

चारों दोस्त एक-दूसरे को देखने लगे। अजनबी ने गहरी आवाज़ में कहा, “हाँ, यही है वो राज़। इस तहख़ाने में शहर के उन नौजवानों की कहानियाँ दबी हैं, जो न तो अख़बारों में छपे, न किताबों में। उन्हें उठा लिया गया, और कभी लौटाया नहीं गया। अड्डों पर लोग उनके नाम लेकर बहस करते रहे, पर सच यहाँ दफ़्न होता चला गया।”

सौरभ के हाथ काँपने लगे। “तो इसका मतलब… इलाहाबाद का हर अड्डा सिर्फ चाय और कविताओं की जगह नहीं, बल्कि चीख़ों और गुमशुदगियों की याद भी है?”

अजनबी ने सिर झुकाकर कहा, “सही समझे। इस शहर को जानने के लिए उसके तहख़ानों को देखना ज़रूरी है। तभी समझ में आएगा कि यहाँ की अड्डेबाज़ी क्यों इतनी गहरी है। हर बहस, हर कविता, हर जुमला… कहीं न कहीं इन्हीं गुमनाम लोगों की आवाज़ की गूँज है।”

इतने में अनन्या को एक और कागज़ मिला। उस पर लिखा था—“अगर कोई इन काग़ज़ों तक पहुँचे, तो जान ले कि हम हारे नहीं हैं। हमारी अड्डेबाज़ी आगे बढ़ेगी।”

अनन्या की आँखें नम हो गईं। उसने कहा, “मैं इस पर स्टोरी लिखूँगी। सबको बताऊँगी कि इलाहाबाद की गलियाँ सिर्फ राजनीति और साहित्य की नहीं, बल्कि गुमनाम वीरों की भी हैं।”

निखिल ने जोड़ा, “और मैं इस मुद्दे को यूनिवर्सिटी में उठाऊँगा। अड्डेबाज़ी अब सिर्फ बातों तक सीमित नहीं रहेगी। इसे आंदोलन बनाना होगा।”

आरव ने नोटबुक में लिख दिया—“तहख़ाने की धूल से झाँकते दस्तावेज़ बता रहे हैं कि इलाहाबाद की रूह उन लोगों की है, जिन्हें कोई याद नहीं करता।”

सौरभ धीरे-धीरे कविताएँ पढ़ने लगा। उसकी आवाज़ तहख़ाने में गूँज रही थी—
“हम ग़ायब नहीं हुए,
हम सिर्फ़ तुम्हारे अड्डों में
नई बातों का रूप ले चुके हैं।”

अजनबी उन्हें देखकर बोला, “तुम लोगों में हिम्मत है। पर याद रखना, इस शहर में सच बोलना आसान नहीं। बहुत लोग हैं जो इन कहानियों को दबाए रखना चाहते हैं। अगर तुमने इन्हें उजागर किया, तो तुम्हें भी वही भुगतना पड़ सकता है जो उन गुमनाम लोगों ने भुगता।”

चारों चुप हो गए। लेकिन उनके दिल में एक नया संकल्प जन्म ले चुका था।

तभी तहख़ाने की दीवार पर किसी ने जोर से खटखटाया। सबकी साँसें थम गईं। लालटेन हल्की-सी डगमगाई। ऐसा लगा मानो कोई बाहर से दरवाज़ा पीट रहा हो।

अजनबी ने तुरंत लालटेन बुझा दी। अंधेरे में उसकी आवाज़ आई—“अब समझ गए? ये हवेली सिर्फ़ तहख़ाना नहीं, एक गवाही है। यहाँ अब भी आवाज़ें गूँजती हैं।”

दरवाज़े पर खटखटाहट तेज़ होती गई। चारों दोस्तों के दिल की धड़कनें संगम की लहरों की तरह तेज़ हो गईं।

आरव ने अंधेरे में लिख डाला—“इलाहाबाद की अड्डेबाज़ी अब हमें बुला रही है, और हम पीछे नहीं हट सकते।”

भाग 4 – आवाज़ों का पीछा

तहख़ाने की दीवार पर होती खटखटाहट जैसे किसी अदृश्य हाथ से आ रही हो। चारों दोस्त और अजनबी अंधेरे में सांस रोके खड़े रहे। लालटेन बुझ चुकी थी और अब सिर्फ़ मोबाइल की हल्की टॉर्च की रोशनी काँप रही थी। खटखटाहट धीरे-धीरे थम गई, पर उसके बाद का सन्नाटा और भी डरावना था।

अनन्या ने फुसफुसाकर कहा, “ये… ये आवाज़ किसकी थी?”
अजनबी ने धीमे स्वर में जवाब दिया, “ये उन्हीं की है जिनकी कहानियाँ यहाँ दबी हैं। कई बार सच चीख़ बनकर लौटता है।”

निखिल ने डर पर काबू पाते हुए कहा, “यहाँ से निकलते हैं। अगर हमें सच को बाहर लाना है तो जिंदा रहना भी ज़रूरी है।”
सौरभ ने हामी भरी, लेकिन उसकी आँखों में डर से ज़्यादा उत्सुकता थी। जैसे कवि मन उस खटखटाहट को भी किसी कविता में ढालना चाहता हो।

वे सीढ़ियाँ चढ़कर हवेली के ऊपर आए। बाहर रात और गहरी हो चुकी थी। संगम की ओर से आती ठंडी हवा भी अजीब लग रही थी। अजनबी ने दरवाज़ा बंद करते हुए कहा, “अब तुम सब जानते हो कि इलाहाबाद की अड्डेबाज़ी सिर्फ़ चाय और बातों तक नहीं। यह शहर उन आवाज़ों से बना है जो दबा दी गईं।”

आरव ने नोटबुक खोली और लिखा—“आवाज़ें मिटती नहीं, वे तहख़ाने से उठकर गलियों में गूंजती हैं।”

वे पाँचों साइकिल और पैदल चलते हुए वापस यूनिवर्सिटी रोड पहुँचे। शहर आधी रात को भी जाग रहा था। कहीं पुलिस की जीपें गश्त कर रही थीं, कहीं रिक्शे वाले अब भी मुसाफिर ढूँढ रहे थे। लेकिन सबसे अजीब था—हर जगह उन्हें लगता कि कोई उनका पीछा कर रहा है।

अनन्या ने धीरे से कहा, “क्या तुम्हें भी लग रहा है कि कोई हमें देख रहा है?”
निखिल ने तुरंत कहा, “हाँ। मुझे तो यकीन है कि हम पर निगाह रखी जा रही है। अगर ये फ़ाइलें सच में सरकार और नेताओं की पोल खोलती हैं तो हमें चुप कराने की कोशिश ज़रूर होगी।”

सौरभ ने मज़ाक में कहा, “वाह, अब तो हमारी ज़िंदगी भी उपन्यास बन गई है।”
पर उसकी हँसी में भी घबराहट थी।

रामदयाल की चाय की दुकान अब बंद हो चुकी थी। लेकिन उसके बरामदे में बैठकर उन्होंने आगे की योजना बनाई। अजनबी ने कहा, “तुम्हें कल से सावधान रहना होगा। तुम्हारे फोन, तुम्हारे दोस्त, यहाँ तक कि तुम्हारी कक्षाएँ भी निगरानी में होंगी। लेकिन अगर तुम सच बाहर लाना चाहते हो तो डरना मत।”

अनन्या ने दृढ़ स्वर में कहा, “मैं रिपोर्ट लिखूँगी। सबूत भी दिखाऊँगी। यह मेरा फ़र्ज़ है।”
निखिल ने भी जोड़ा, “और मैं यूनिवर्सिटी के छात्र संघ में इस मुद्दे को उठाऊँगा। देखता हूँ कौन रोकता है।”

आरव ने सबको शांत करते हुए कहा, “पहले हमें सबूत सुरक्षित करना होगा। तहख़ाने से जो दस्तावेज़ और कविताएँ मिले, उन्हें छुपा कर रखना होगा। तभी हम अगला कदम सोच सकते हैं।”

सौरभ ने कहा, “और मैं उन कविताओं को गाऊँगा। उन्हें इतना ज़िंदा कर दूँगा कि लोग उन्हें भूल न पाएँ।”

अचानक पीछे से खट से कोई आवाज़ आई। सब पलटकर देखने लगे। सामने गली के मोड़ पर एक परछाईं थी—लंबा आदमी, पूरी तरह काले कपड़ों में, और हाथ में सिगरेट। उसकी आँखें लाल अंगारे की तरह अँधेरे में चमक रही थीं।

“कौन है?” निखिल ने ऊँची आवाज़ लगाई।
पर वह शख़्स बिना जवाब दिए धीरे-धीरे गली में ग़ायब हो गया।

अजनबी ने गहरी साँस ली। “ये लोग हैं… जो सच को दबाए रखना चाहते हैं। अब ये तुम्हारा पीछा छोड़ेंगे नहीं।”

अगली सुबह इलाहाबाद जैसे बदला हुआ लगा। अख़बारों में खबरें थीं—“दारागंज की हवेली में चोरी की आशंका, पुलिस जाँच में जुटी।” तस्वीर में वही हवेली दिखाई गई थी। अनन्या चौंक गई। “मतलब हमें पहले से देख रहे थे। कोई हमें तहख़ाने तक फॉलो कर चुका है।”

निखिल ने अख़बार मेज़ पर पटका। “तो अब हमें और तेज़ी से काम करना होगा।”
आरव चुपचाप नोटबुक में लिखता रहा। उसके मन में सवाल गूंज रहा था—क्या इलाहाबाद की अड्डेबाज़ी को उजागर करने की कीमत उनकी ज़िंदगी होगी?

उस दिन शाम को फिर सब रामदयाल की दुकान पर मिले। लेकिन आज वहाँ भीड़ कुछ ज़्यादा थी। हर कोई हवेली की अफ़वाहें कर रहा था—किसी ने कहा वहाँ भूत है, किसी ने कहा पुराना ख़ज़ाना, तो किसी ने कहा कि वहाँ नेताओं के गुप्त काग़ज़ छुपे हैं।

रामदयाल ने चारों को अलग ले जाकर कहा, “देखो बेटा, शहर में आग फैल रही है। तुम लोग जिस खेल में पड़े हो, उससे दूर रहो। वरना चाय पिलाने वाला मैं ही तुम्हारे लिए गवाही नहीं दे पाऊँगा।”

अनन्या ने जवाब दिया, “रामदयाल अंकल, अब पीछे हटना मुमकिन नहीं। जो देखा है, उसे नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते।”

रात को चारों दोस्त फिर यूनिवर्सिटी हॉस्टल के कमरे में मिले। अजनबी भी उनके साथ था। उन्होंने दस्तावेज़ों और कविताओं को छिपाकर रखने के लिए योजना बनाई।
लेकिन तभी खिड़की से पत्थर आकर गिरा। काग़ज़ों के बीच एक नोट था—

“सच जानने वाले ज्यादा दिन नहीं जीते।”

कंपकंपी सबकी रगों में दौड़ गई। निखिल ने गुस्से में नोट फाड़ डाला। “अब चाहे जान चली जाए, पीछे नहीं हटेंगे।”

आरव ने कलम उठाई और लिख डाला—“इलाहाबाद की अड्डेबाज़ी अब आंदोलन है। और हर आंदोलन अपने साथ खतरा लेकर आता है।”

 

भाग 6 – हादसे की गूँज

इलाहाबाद की गलियों में अब हर कोई सच की चर्चा कर रहा था। सिविल लाइन्स के कैफ़े हों या लोकनाथ गली की मिठाई की दुकानें, रामदयाल की चाय की टपरी हो या विश्वविद्यालय के बरामदे—हर जगह लोग उसी अड्डेबाज़ी में जुटे थे, जिसने अब आंदोलन का रूप ले लिया था। लेकिन जैसे-जैसे हलचल बढ़ रही थी, खतरा भी और करीब आ रहा था।

आरव, अनन्या, निखिल और सौरभ को यह एहसास तो था कि उनका पीछा किया जा रहा है, मगर वे इस अंदाज़े में नहीं थे कि अगला वार कितना भयावह होगा।

उस रात विश्वविद्यालय में कवि सम्मेलन रखा गया था। सौरभ अपनी आवाज़ में उन गुमनाम कविताओं को सुनाने वाला था। हॉल खचाखच भरा हुआ था—छात्र, अध्यापक, पत्रकार, यहां तक कि कुछ बुज़ुर्ग भी जिन्होंने आंदोलन के पुराने दिनों को देखा था।

सौरभ मंच पर पहुँचा और उसने गहरी आवाज़ में पढ़ना शुरू किया—

“हमारे नाम मिटा दिए गए,
पर हमारी सांसें अब भी गलियों में हैं,
हमारे कदम रोक दिए गए,
पर हमारी आवाज़ अब भी गूँजती है।”

तालियाँ गूँज उठीं। हॉल जोश से भर गया। लेकिन तभी अचानक हॉल की बत्तियाँ बुझ गईं। अंधेरा छा गया। चीख़-पुकार मच गई।

आरव ने मोबाइल की टॉर्च जलाई। और उसी पल गूंजती आवाज़ सुनाई दी—धमाका!

मंच के पीछे जोरदार विस्फोट हुआ। दीवार का एक हिस्सा टूटकर गिर पड़ा। धुएँ और धूल से हॉल भर गया। लोग भागने लगे।

अराजकता के बीच चारों दोस्त एक-दूसरे को ढूँढने लगे। अनन्या ने खाँसते हुए चिल्लाया, “सौरभ कहाँ है?”
आरव और निखिल ने मंच की ओर दौड़ लगाई। धुएँ के बीच सौरभ मलबे के नीचे दबा पड़ा था। उसका चेहरा खून से लथपथ था, लेकिन आँखें अब भी खुली थीं।

“सौरभ! कुछ बोलो!” निखिल ने उसे खींचकर बाहर निकाला।
सौरभ की टूटी हुई आवाज़ निकली—“ये… ये हादसा नहीं… चेतावनी है।”

अनन्या ने आँसू रोकते हुए कहा, “हम तुम्हें अस्पताल ले जा रहे हैं।”
लेकिन सौरभ ने उसका हाथ पकड़कर कहा, “अगर मैं बचा… तो कविताएँ मत रोकना… अगर नहीं बचा… तो इन्हें मेरी आवाज़ समझकर गाना।”

आरव की आँखों से आँसू बह निकले। उसने नोटबुक में काँपते हाथों से लिखा—
“इलाहाबाद का सच अब खून से लिखा जा रहा है।”

एंबुलेंस आई और सौरभ को लेकर चली गई। हॉल पूरी तरह बर्बाद था। पुलिस पहुँची, पर उनकी भाषा वही पुरानी थी—“ये तो गैस सिलिंडर फटने से हुआ हादसा है।”

निखिल गुस्से से चीखा, “हादसा? ये हादसा नहीं, हमला है! किसी ने जान-बूझकर धमाका किया है!”
लेकिन पुलिस अधिकारी ने ठंडी नज़र से कहा, “ज्यादा ज़ुबान मत चलाओ, वरना तुम्हें भी अंदर कर देंगे।”

अनन्या ने तुरंत सब रिकॉर्ड किया और कहा, “हमारे पास सबूत है। पुलिस भी इसमें मिली हुई है।”

अस्पताल में सौरभ की हालत नाज़ुक थी। डॉक्टरों ने कहा—“अगले चौबीस घंटे बहुत अहम हैं।”
बाहर बरामदे में चारों बैठे थे। लेकिन अब वे पाँच नहीं, चार रह गए थे।

अजनबी धीरे से बोला, “मैंने कहा था न, सच बोलना आसान नहीं। यह सिर्फ़ शुरुआत है।”

निखिल की आँखें लाल हो गईं। “तो क्या करें? चुप हो जाएँ? पीछे हट जाएँ?”
अजनबी ने ठंडी साँस ली। “नहीं। अब तुम्हारे पास दो रास्ते हैं—या तो डरकर पीछे हटो, या और गहराई में जाओ। सच का पीछा करते-करते तुम मौत से भी भिड़ सकते हो।”

आरव ने अनन्या की ओर देखा। उसने दृढ़ स्वर में कहा, “हम पीछे नहीं हटेंगे।”

अगले दिन अख़बारों में फिर से सुर्ख़ियाँ थीं—
“इलाहाबाद विश्वविद्यालय में विस्फोट, कई घायल। पुलिस ने हादसा बताया।”
लेकिन अनन्या ने अपने अख़बार में सच्चाई छापी—
“आवाज़ों को दबाने की कोशिश, कवि सम्मेलन में विस्फोट।”

लेख में उसने लिखा—“यह हमला सिर्फ़ छात्रों पर नहीं, बल्कि इलाहाबाद की आत्मा पर है।”

लेख पढ़ते ही पूरा शहर और उबल पड़ा। लोकनाथ गली में जुलूस निकला। सिविल लाइन्स में नारे लगे। संगम किनारे लोग मोमबत्तियाँ जलाकर सौरभ की सलामती की दुआ करने लगे।

मगर उसी शाम आरव को एक फ़ोन आया। अनजान नंबर से।
“बहुत खेल लिए। अब अगर अगला कदम उठाया तो तुम्हारी नोटबुक तुम्हारी लाश के पास मिलेगी।”

आरव सन्न रह गया। उसने तुरंत बाकी तीनों को बताया।
निखिल ने गुस्से में कहा, “तो ये धमकियाँ हमें और मज़बूत करेंगी। अब मैं छात्र संघ को सड़क पर ले आऊँगा।”
अनन्या ने कहा, “मैं लखनऊ प्रेस क्लब में प्रेस कॉन्फ्रेंस करूँगी। ये लड़ाई सिर्फ इलाहाबाद की नहीं, पूरे देश की होगी।”
आरव ने नोटबुक में लिखा—“धमकी सच का दूसरा नाम है। जो डराता है, वही हारता है।”

रात को फिर से रामदयाल की दुकान पर अड्डा जमा। लेकिन आज वहाँ सन्नाटा था। चाय की भाप में भी डर घुला हुआ था। रामदयाल बोला, “बच्चो, अब ये खेल जानलेवा हो चुका है। मैं तुमसे विनती करता हूँ—छोड़ दो।”

निखिल ने मुस्कराकर कहा, “अंकल, अब तो खेल छोड़ने का मतलब होगा कि सौरभ का खून व्यर्थ हो गया। हम पीछे नहीं हट सकते।”
रामदयाल की आँखें भर आईं। “तुम्हारी जिद इस शहर का चेहरा बदल देगी, लेकिन तुम्हें संभालकर रहना होगा।”

अचानक दुकान के बाहर अफरा-तफरी मच गई। लोग चिल्लाने लगे—“अस्पताल से खबर आई है!”
सब भागकर अस्पताल पहुँचे। डॉक्टर ने कहा, “सौरभ की हालत और बिगड़ गई है। हमें खून की ज़रूरत है।”

अनन्या ने तुरंत कहा, “मेरा ब्लड ग्रुप मिल सकता है।”
निखिल ने भी हाथ उठाया। “मेरा भी।”

दोनों ने खून दिया। ऑपरेशन थिएटर का लाल बल्ब कई घंटों तक जला रहा। बाहर आरव बेचैन बैठा नोटबुक में लिखता रहा।
“हर आंदोलन की एक कीमत होती है। शायद हमारी अड्डेबाज़ी की कीमत सौरभ की जान हो।”

सुबह होते ही डॉक्टर बाहर आए। उनके चेहरे पर गंभीरता थी।
“हमने पूरी कोशिश की है। अब सब भगवान के हाथ में है।”

अनन्या और निखिल रो पड़े। अजनबी खामोश खड़ा रहा।
आरव ने आसमान की ओर देखा। संगम की लहरें मानो दूर से फुसफुसा रही थीं—“सच का रास्ता कभी आसान नहीं होता।”

भाग 7 – लपटों में बदलती अड्डेबाज़ी

अस्पताल के गलियारे में सुबह की धुंध और मौत के साए एक साथ तैर रहे थे। डॉक्टर ने कहा था कि अब सब भगवान के हाथ में है। सौरभ जीवन और मृत्यु के बीच जूझ रहा था। पर बाहर, बरामदे में बैठे आरव, निखिल और अनन्या को लगा कि उनकी लड़ाई अब निजी नहीं रही। यह पूरे शहर की लड़ाई बन चुकी थी।

निखिल गुस्से से फुफकारते हुए बोला, “अगर आज सौरभ की जान गई तो यह शहर सड़कों पर उतर आएगा। और मैं कसम खाता हूँ—अब अड्डेबाज़ी सिर्फ चाय की दुकानों तक सीमित नहीं रहेगी। यह आंदोलन हर गली तक जाएगा।”

अनन्या ने आँसू पोंछते हुए कहा, “मैंने प्रेस कॉन्फ्रेंस की तैयारी शुरू कर दी है। लखनऊ, दिल्ली तक मीडिया को बुलाऊँगी। अब यह राज़ सिर्फ़ इलाहाबाद तक नहीं रहेगा।”

आरव ने अपनी नोटबुक खोली और धीरे-धीरे लिखा—
“जब एक आवाज़ टूटती है, तो सौ आवाज़ें जन्म लेती हैं।”

शहर में खबर आग की तरह फैल चुकी थी। अख़बारों और सोशल मीडिया पर हेडलाइन छपी—
“इलाहाबाद विश्वविद्यालय में विस्फोट: कवि सौरभ की हालत नाज़ुक”
“छात्रों की आवाज़ दबाने की कोशिश, आंदोलन भड़का”

लोकनाथ गली से लेकर दारागंज तक जुलूस निकलने लगे। लोग मोमबत्तियाँ लेकर अस्पताल के बाहर जमा हो गए। “सौरभ को इंसाफ़ दो!”, “इलाहाबाद को उसका सच दो!”—नारे गूँजने लगे।

पुलिस और प्रशासन घबराए हुए थे। डीएम ने बयान दिया—“यह महज़ हादसा है। कृपया अफवाहें न फैलाएँ।”
लेकिन उसी शाम अनन्या ने टीवी चैनल पर लाइव डिबेट में कहा—
“अगर यह हादसा था तो धमाके के तुरंत बाद पुलिस ने सबूत क्यों मिटा दिए? क्यों गवाहों को डराया जा रहा है? यह हमला उन आवाज़ों को दबाने के लिए है जो शहर का सच उजागर करना चाहती हैं।”

उसकी बहस ने पूरे देश में हलचल मचा दी।

इस बीच निखिल ने यूनिवर्सिटी में विशाल सभा बुलाई। हज़ारों छात्र जमा हुए। उसने मंच से ऐलान किया—
“हम डरकर पीछे नहीं हटेंगे। अगर सौरभ का खून गिरा है, तो यह आंदोलन उसकी आखिरी कविता बनेगा। हम हर गली, हर मोहल्ले को अड्डा बनाएँगे। और तब तक लड़ेंगे जब तक सच बाहर न आ जाए।”

तालियों और नारों की गड़गड़ाहट से आसमान गूँज उठा।

अजनबी, जो अब तक परछाई की तरह उनके साथ था, पहली बार बोला—
“तुम्हें अब समझना होगा कि यह लड़ाई सिर्फ़ छात्रों और पत्रकारों की नहीं। इसमें राजनीति के बड़े चेहरे फँसे हैं। जिन गुमनाम छात्रों की कहानियाँ तहख़ाने से मिलीं, वे उन्हीं नेताओं के खिलाफ़ आवाज़ उठाते थे जो आज सत्ता में हैं। वे कभी नहीं चाहेंगे कि उनका सच बाहर आए।”

आरव ने नोटबुक में लिखा—
“अड्डेबाज़ी अब राजनीति के गढ़ को चुनौती देने लगी है।”

हफ्ते के भीतर शहर की तस्वीर बदल गई। रामदयाल की चाय की दुकान अब आंदोलन का मुख्यालय बन चुकी थी। वहाँ से पोस्टर छपते, पर्चे बंटते और कविताएँ गाई जातीं।
संगम किनारे शाम को लोग एकत्र होते और गुमनाम शहीदों के नाम पुकारते।
सिविल लाइन्स की सड़कों पर पैदल मार्च निकलने लगा।

रामदयाल बोला, “मैंने जीवन में कई आंदोलन देखे हैं। लेकिन ऐसा जोश कभी नहीं देखा। तुम लोगों ने इस शहर को उसकी आत्मा लौटा दी है।”

मगर डर भी साया बनकर पीछा कर रहा था। एक रात निखिल के हॉस्टल कमरे में तोड़फोड़ हुई। किताबें जलाकर राख कर दी गईं। दीवार पर लिखा मिला—“सौरभ अगला नहीं था तो अगला तुम होगे।”

निखिल ने गुस्से में फटी दीवार पर हाथ मारा। “अब इन्हें खुली चुनौती। चाहे मेरी जान जाए, लेकिन मैं सच सामने लाकर रहूँगा।”

अनन्या के अख़बार दफ़्तर पर भी दबाव बढ़ने लगा। संपादक को फोन आने लगे—“रिपोर्टिंग बंद करो, वरना अख़बार बंद कर दिया जाएगा।”
लेकिन अनन्या झुकी नहीं। उसने और तेज़ी से लिखना शुरू कर दिया।
उसके लेख में लिखा था—
“इलाहाबाद की अड्डेबाज़ी अब शहर की नसों में दौड़ रही है। इसे दबाना अब किसी सरकार के बस में नहीं।”

आरव ने नोटबुक के पन्ने एक किताब की शक्ल में सजाना शुरू किया। उसने नाम सोचा—
“आवाज़ों का इलाहाबाद”
उसने लिखा—
“यह किताब उन गुमनाम चेहरों की गवाही होगी, जिन्हें इतिहास ने मिटाने की कोशिश की। लेकिन अड्डेबाज़ी ने उन्हें अमर कर दिया।”

इसी बीच, अस्पताल से खबर आई—सौरभ की हालत कुछ सुधरी है। डॉक्टर ने कहा, “वह होश में आ गया है, लेकिन बहुत कमजोर है।”

सब दौड़कर उसके कमरे में पहुँचे। सौरभ ने धीमी मुस्कान के साथ कहा, “क्या मैंने कहा था न? कविताएँ मत रोकना। लगता है इलाहाबाद अब खुद कविता बन चुका है।”

निखिल ने उसका हाथ पकड़कर कहा, “तेरी कविता अब आंदोलन बन चुकी है, भाई।”
अनन्या की आँखों से आँसू बह निकले।
आरव ने लिखा—
“सौरभ की साँसें लौटीं, और शहर की धड़कनें तेज़ हो गईं।

लेकिन जैसे ही बाहर जश्न मना, वही लंबी परछाई फिर दिखाई दी। काले कपड़ों में आदमी, लाल सिगरेट की चमक और उसकी ठंडी आवाज़—
“तुमने सोचा जीत गए? यह खेल अभी शुरू हुआ है। अब देखना, इलाहाबाद तुम्हारे लिए कब्रिस्तान बन जाएगा।”

सब सन्न रह गए

उस रात आरव ने नींद में भी नोटबुक पकड़े रखा। उसने लिखा—
“अब इलाहाबाद की अड्डेबाज़ी सिर्फ़ आंदोलन नहीं, रणभूमि बन चुकी है। और इस रणभूमि में हर गली, हर हवेली, हर तहख़ाना हथियार है।”

भाग 8 – अंतिम गवाही

इलाहाबाद की सड़कों पर अब सिर्फ़ शोर नहीं था, बल्कि एक नई धड़कन गूंज रही थी। सौरभ के होश में आने की खबर ने आंदोलन को और तेज़ कर दिया। हर चाय की दुकान, हर कैफ़े, हर गली में अब वही बातें थीं—गुमनाम छात्रों की कविताएँ, तहख़ाने से मिले दस्तावेज़, और वह धमाका जिसने पूरे शहर को जगा दिया।

रामदयाल की दुकान अब आंदोलन का तिराहा बन चुकी थी। वहाँ से पोस्टर छपते, पर्चे बंटते और कविताएँ गाई जातीं। सौरभ की आवाज़ अस्पताल से ही रिकॉर्ड होकर सोशल मीडिया पर डाली गई—
“मैं अभी ज़िंदा हूँ, और जब तक ज़िंदा हूँ, यह कविता जारी रहेगी।”

उस रिकॉर्डिंग ने पूरे देश में आग लगा दी।

लेकिन खतरे की परछाइयाँ अब और गहरी हो गई थीं। वही काले कपड़ों वाला आदमी बार-बार नज़र आता। कभी हॉस्टल के बाहर, कभी अख़बार दफ़्तर के पास, कभी संगम किनारे। उसकी आँखें मानो संदेश देतीं—“समझ लो, यह आख़िरी खेल है।”

अनन्या को फोन पर धमकी मिली—“प्रेस कॉन्फ्रेंस मत करो, वरना अस्पताल की खिड़की से तुम्हारे दोस्त का शव बाहर आएगा।”
निखिल को चिट्ठी मिली—“आंदोलन रोक दो, वरना यूनिवर्सिटी में खून बह जाएगा।”

लेकिन अब डर की जगह गुस्सा था।

प्रेस कॉन्फ्रेंस का दिन आया। लखनऊ प्रेस क्लब में अनन्या मंच पर पहुँची। देशभर के पत्रकार मौजूद थे। कैमरों की रोशनी आँखों को चुभ रही थी, लेकिन उसकी आवाज़ स्थिर थी—
“इलाहाबाद की हवेली से जो दस्तावेज़ मिले, वे यह साबित करते हैं कि हमारे शहर के गुमनाम छात्रों को ज़बरन ग़ायब किया गया। उनके नाम मिटा दिए गए, लेकिन उनकी कविताएँ ज़िंदा हैं। आज मैं यह सबूत देश के सामने रख रही हूँ।”

उसने फ़ाइलें और दस्तावेज़ कैमरों के सामने लहराए। हॉल में सन्नाटा छा गया। और उसी पल उसका फोन बजा। स्क्रीन पर मैसेज था—“अब तुम्हारा वक्त ख़त्म हुआ।”

अनन्या ने मुस्कराकर फोन जेब में रखा और कहा—“धमकियाँ बताती हैं कि हम सही रास्ते पर हैं।”

उधर इलाहाबाद में निखिल ने हज़ारों छात्रों को लेकर जुलूस निकाला। नारों की गूँज पूरे शहर में फैल गई—
“गुमनामों को इंसाफ़ दो!”
“इलाहाबाद को सच लौटाओ!”

सिविल लाइन्स की सड़कों पर यह भीड़ बढ़ती गई। पुलिस ने लाठीचार्ज किया, आंसू गैस छोड़ी, लेकिन छात्र पीछे नहीं हटे। वे कविताएँ पढ़ते हुए आगे बढ़ते रहे।

आरव बीच में खड़ा सब लिख रहा था। उसकी नोटबुक में शब्द थे—
“जब कविता लाठी से भिड़ती है, तो शहर की आत्मा जाग जाती है।”

शाम को संगम किनारे मोमबत्तियाँ जलाई गईं। हज़ारों लोग जमा हुए। सौरभ को व्हीलचेयर पर लाकर बीच में बैठाया गया। उसने काँपती आवाज़ में कविता पढ़ी—

“हम ग़ायब नहीं हुए,
हम हर सांस में लौटे हैं,
हम दफ्न नहीं हुए,
हम हर गली की धड़कन में गूँजते हैं।”

भीड़ तालियों और नारों से गूँज उठी। संगम की लहरें मानो उस आवाज़ को दूर-दूर तक ले जा रही थीं।

लेकिन ठीक उसी वक्त भीड़ में गोली चली। अफरा-तफरी मच गई। लोग भागने लगे। सौरभ की व्हीलचेयर पलट गई। आरव, निखिल और अनन्या उसे उठाने दौड़े।

गोलियाँ चल रही थीं, पुलिस और नकाबपोश लोग भिड़ गए। धुएँ और चीख़ों के बीच वही काले कपड़ों वाला आदमी सामने आया। उसने लाल सिगरेट जलाकर कहा—
“मैंने कहा था न, इलाहाबाद का सच बाहर नहीं आ सकता।”

निखिल आगे बढ़ा और चीखा, “तुम कौन हो?”

आदमी हँस पड़ा। “मैं वही हूँ जो इन गुमनाम छात्रों को ग़ायब कराने का हिस्सा था। आज फिर वही करूँगा।”

उसने बंदूक तानी। लेकिन तभी अनन्या बीच में खड़ी हो गई। “गोली चलाओ, पर सच नहीं मरेगा।”

आदमी ने ट्रिगर दबाया, पर उसी पल भीड़ ने उसे घेर लिया। छात्रों ने पत्थर और डंडों से उसे काबू कर लिया। उसकी बंदूक गिर गई।

पुलिस ने नकाबपोश गिरोह को पकड़ लिया। खबर फैली कि ये लोग सत्ता से जुड़े कुछ बड़े नेताओं के इशारे पर काम कर रहे थे। नाम सामने आने लगे। पूरे देश में हलचल मच गई।

अस्पताल लौटकर सौरभ ने दोस्तों से कहा, “आज इलाहाबाद ने अपनी गवाही दे दी। अब कोई इसे मिटा नहीं सकता।”
निखिल ने उसका हाथ पकड़ा, “तू कविता लिख, हम उसे आंदोलन बनाएँगे।”
अनन्या बोली, “मैं हर लाइन को अख़बार में छापूँगी।”
आरव ने नोटबुक में आखिरी लाइन लिखी—
“इलाहाबाद की अड्डेबाज़ी अब गवाही बन चुकी है। यह गवाही आने वाली पीढ़ियाँ पढ़ेंगी।”

कुछ महीनों बाद आरव की किताब छपी—“आवाज़ों का इलाहाबाद”।
अनन्या की रिपोर्ट्स ने राष्ट्रीय पुरस्कार जीता।
निखिल छात्र संघ का अध्यक्ष चुना गया और उसने विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में गुमनाम छात्रों के नाम दर्ज कराए।
और सौरभ… वह अब भी कविताएँ लिख रहा था, लेकिन अब उसकी कविताएँ गुपचुप तहख़ाने से नहीं, खुले मैदानों से गूँजती थीं।

रामदयाल की दुकान पर फिर अड्डा जमने लगा। चाय की भाप में शहर की कहानियाँ घुली रहतीं। रामदयाल हँसते हुए बोला, “देखा बेटा, तुम लोगों ने साबित कर दिया कि अड्डेबाज़ी सिर्फ़ गपशप नहीं, इतिहास लिख सकती है।”

आरव मुस्कराया। उसकी नोटबुक अब बंद हो चुकी थी, क्योंकि कहानी किताब बन चुकी थी।

संगम के किनारे बैठकर चारों ने चुपचाप शहर को देखा। गंगा-जमुनी हवा बह रही थी।
सौरभ ने कहा, “इलाहाबाद ने हमें बदला, और हमने इलाहाबाद को।”

आरव ने धीरे से फुसफुसाया—
“यह शहर अब सिर्फ़ तहख़ानों में दफ्न नहीं, बल्कि हर दिल में ज़िंदा है।”

समाप्त

 

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