Hindi - यात्रा-वृत्तांत

एक सफर… खुद से मिलने का

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रीनी शर्मा


दिल्ली का जनवरी महीने का मौसम था। हल्की ठंड, कोहरे की चादर और भीड़-भाड़ से भरी सड़कें। हर इंसान जैसे किसी अदृश्य घड़ी की सुई के पीछे दौड़ रहा था—बिना रुके, बिना पूछे कि ये दौड़ किसके लिए है?

इन्हीं लाखों चेहरों में एक चेहरा था अर्जुन मेहरा का—32 वर्षीय, सॉफ्टवेयर कंपनी में काम करने वाला एक सामान्य कर्मचारी। हाइट 5’10”, छरहरा शरीर, हल्की दाढ़ी, आँखों में थकान और मन में एक स्थायी बेचैनी। हर दिन उसकी ज़िंदगी का रूटीन घड़ी की सुई से बंधा था—सुबह 7 बजे उठना, 8 बजे मेट्रो पकड़ना, 9 बजे ऑफिस पहुँचना, 12 घंटे की नौकरी, फिर वही भीड़, वही ट्रैफिक, और थक कर घर वापसी।

अर्जुन का कमरा एक सिंगल बेडरूम फ्लैट था—जनकपुरी में। दीवारों पर मोटिवेशनल कोट्स टंगे थे, पर उनमें अब असर नहीं बचा था। एक कोने में किताबों का ढेर था, पर महीनों से कोई पन्ना नहीं पलटा गया। टीवी और लैपटॉप में Netflix चलते रहते थे, पर मन फिर भी खाली था।

अर्जुन एक मिडल क्लास पंजाबी परिवार से था। माता-पिता लुधियाना में रहते थे। माँ हर दूसरे दिन फोन कर शादी की बात छेड़ती—
“बेटा, अब तो उम्र हो रही है… शर्मा अंकल की बेटी तो दो बच्चों की माँ बन गई है!”
अर्जुन हर बार टाल देता—“माँ, अभी काम का बहुत प्रेशर है। बाद में देखते हैं।”

सच कहें तो, अर्जुन को खुद नहीं पता था कि वो क्या चाहता है। किसी से प्यार नहीं हुआ था, और रिश्तों की खींचतान से थक चुका था। घरवाले समझते थे कि अर्जुन की ज़िंदगी सेट है—अच्छी नौकरी, फ्लैट, कार, पैसा। पर अंदर से अर्जुन बिखरा हुआ था।

ऑफिस की दुनिया – एक रूटीन जो बोझ बन चुका था

“VibeTech Solutions Pvt. Ltd.”—जहाँ अर्जुन पिछले 6 साल से काम कर रहा था। कभी जुनून था वहाँ काम करना, पर अब बस तनख्वाह पाने की मशीन बन चुका था।

ऑफिस का माहौल भी बदल चुका था। पहले जो दोस्त थे, अब या तो विदेश जा चुके थे या दूसरी कंपनियों में। टीम मीटिंग्स में अब भावनाओं की जगह स्लाइड्स और टारगेट्स थे।

उस दिन, अर्जुन को एक बहुत बड़ी उम्मीद थी। सालाना प्रमोशन मीटिंग थी। उसने पिछले साल दो अहम प्रोजेक्ट्स संभाले थे, छुट्टियाँ नहीं ली थीं, और कंपनी को बड़ा क्लाइंट दिलाया था। उम्मीद थी कि अबकी बार ‘Team Lead’ बनेगा।

प्रमोशन मीटिंग – उम्मीद और ताजगी की हत्या

“Good Morning, Arjun,” HR हेड मुस्कुराते हुए बोले।
“Morning Sir,” अर्जुन थोड़ा घबराया था।

वो अंदर गया, वहाँ मैनेजर और सीनियर हेड बैठे थे।

“Arjun, we appreciate your dedication this year. Your performance has been satisfactory…”

‘Satisfactory?’ अर्जुन के कान खड़े हो गए।

“…but this year, the leadership opportunity is being given to Ankit. He showed more initiative in cross-functional exposure.”

अर्जुन कुछ बोल नहीं पाया। वो शब्दों की तलवार से घायल हो चुका था। वही अंकित जो एक साल पहले ही कंपनी में आया था। जिसे अर्जुन ने ट्रेनिंग दी थी।

वो मीटिंग 15 मिनट की थी, पर अर्जुन के लिए वो 15 साल की थकान बन गई

ऑफिस से बाहर निकलते वक्त अर्जुन ने खुद से सवाल किया—
“क्या मैं सिर्फ एक कर्मचारी हूँ? क्या मेरी ज़िंदगी बस नौकरी करने, टैक्स भरने और फिर मर जाने तक की यात्रा है?”

वो दिन जैसे गर्दिश भरा था। घर पहुँचा, लैपटॉप खोला और सामने स्क्रीन पर “PROMOTION LIST” लिखा था—उसमें उसका नाम नहीं था। दोस्तों के WhatsApp ग्रुप पर ‘Congrats Ankit’ की बाढ़ आ गई थी।

अर्जुन ने फोन साइलेंट पर डाल दिया।

किचन में गया, मैगी बनाई, और चाय रख दी। खिड़की के पास बैठ गया। बाहर दिल्ली की सड़कें रोशनी से चमक रही थीं, पर अंदर उसका मन अंधेरा था।

रात के 1 बजे थे। अर्जुन ने खुद से पूछा—
“क्या मैंने कभी रुक कर सोचा कि मैं कौन हूँ? मैं क्या चाहता हूँ?”

उसने अलमारी से एक पुराना डायरी निकाला—कॉलेज के दिनों की। उसमें एक पन्ने पर लिखा था:

“मुझे पहाड़ों से प्यार है। एक दिन सबकुछ छोड़कर बस निकल पड़ूँगा। खुद से मिलने।”

ये पढ़ते ही उसके रोंगटे खड़े हो गए। आँखें नम हो गईं। क्या हुआ उस ख्वाब का? वो ख्वाब जो उसने तब देखा था जब दिल जिंदा था?

अर्जुन उठा, बैग निकाला, उसमें कुछ कपड़े, एक डायरी, एक किताब और कैमरा रखा।

फोन बंद किया, और पहली बार बिना टिकट लिए बस निकल पड़ा—जहाँ भी दिल ले जाए।

सुबह 5 बजे, वो नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुँचा। ठंड, कोहरा, और हज़ारों यात्री। ट्रेन कहाँ जाएगी—उसे पता नहीं था।

वो टिकट विंडो पर गया और कहा—
“कोई भी टिकट दो, जहाँ अगले 30 मिनट में ट्रेन जा रही हो।”

क्लर्क ने देखा और बोला—
“ऋषिकेश की एक ट्रेन है। प्लेटफॉर्म 4 पर।”

“दे दो।”

ट्रेन में बैठते वक्त अर्जुन के मन में डर भी था और उत्साह भी। पहली बार, ज़िंदगी को उसके हाल पर छोड़ दिया था।

पास बैठे एक बुज़ुर्ग ने पूछा—
“बेटा, कहाँ जा रहे हो?”
अर्जुन मुस्कुराया—
“खुद से मिलने।”

बुज़ुर्ग भी मुस्कुरा दिए—“तो सही रास्ते पर हो।”

ट्रेन की खिड़की से बाहर झाँकते हुए अर्जुन ने पहली बार ठंडी हवा को सीने में भरकर महसूस किया। पहली बार दिल से साँस ली। उसे नहीं पता था कि आगे क्या होगा, कहाँ पहुँचेगा।

पर एक बात तय थी—अब वो ज़िंदा महसूस कर रहा था।

***

दिल्ली से ऋषिकेश की ट्रेन जब चली, तो सुबह की ठंड हवा और हल्का सूरज मिलकर एक अजीब-सी राहत दे रहे थे। अर्जुन खिड़की के पास बैठा था, आँखें बाहर की ओर टिकी थीं, लेकिन दिल उसके भीतर गहराई तक उतर चुका था।

पहली बार, उसने कोई यात्रा “योजना” के साथ नहीं की थी। ना होटल बुक किया था, ना दोस्तों को बताया था, और ना ही ऑफिस को ईमेल छोड़ा था। मोबाइल अब भी बंद था। अर्जुन अब भी सोच रहा था — “क्या मैं सच में भाग रहा हूँ, या खुद के पास लौट रहा हूँ?”

ट्रेन की सीट पर बैठा वो बुज़ुर्ग अब भी उसके पास थे। उन्होंने धीरे से पूछा—
“बेटा, क्या सब ठीक है?”

अर्जुन मुस्कुराया, “शायद अब होने जा रहा है।”

दोपहर के करीब पौने दो बजे ट्रेन ऋषिकेश रेलवे स्टेशन पहुँची। स्टेशन छोटा था, पर चहल-पहल थी। चारों तरफ बैकपैकर्स, विदेशी टूरिस्ट्स, साधु-संत, और स्थानीय दुकानदारों की आवाजाही।

स्टेशन के बाहर एक चायवाले से अर्जुन ने चाय ली। पहाड़ों की हवा में अदरक वाली चाय ने जैसे उसके भीतर कुछ खोल दिया। मन पहली बार थोड़ी राहत महसूस कर रहा था।

उसने पास ही एक ऑटो वाले से पूछा—
“त्रिवेणी घाट चलोगे?”
“हाँ साहब, बैठो।”

ऑटो में बैठते हुए अर्जुन ने सामने देखा—पहाड़ों की हरी चादर और गंगा की झलक। शहर से दूर, भीड़ में भी कुछ सुकून था।

त्रिवेणी घाट पहुँचकर अर्जुन को पहली बार गंगा का वास्तविक अनुभव हुआ। शांत जल, घाट की सीढ़ियाँ, और बजते शंखों की आवाज़।

वो एक किनारे बैठ गया। न कुछ सोचा, न कुछ किया। बस गंगा को देखता रहा।

वहीं एक साधु बाबा, केसरिया कपड़े पहने, जटाओं को पगड़ी में लपेटे, पास आकर बैठ गए।

“तुम्हारा मन बहुत बेचैन है।”

अर्जुन चौंका। उसने बाबा की ओर देखा।

“कैसे जाना आपने?”

“जो लोग खुद को नहीं जानते, उनकी आँखें बोलती हैं। तुम खुद से भाग रहे हो बेटा, और यहाँ तुम्हारा मन तुम्हें रोकने आया है।”

अर्जुन कुछ नहीं बोला। उसने आँखें मूँद लीं।

बाबा बोले—
“गंगा की तरह बहो। अपने आप को रोको मत। सब छोड़कर यहाँ तक आ गए, ये बहुत है। अब भीतर की यात्रा शुरू करो।”

अगले दिन अर्जुन ने राम झूला और लक्ष्मण झूला देखा। विदेशी लोग योग करते दिखे। कुछ ध्यान में थे, कुछ किताबें पढ़ रहे थे। हर चेहरा जैसे अपने भीतर कोई खोज कर रहा हो।

वो एक छोटे से कैफे में गया—“The Sitting Elephant” नाम था। वहाँ एक दीवार पर लिखा था—

> “If you don’t know where you’re going, any road will take you there.”

उसने एक नोटबुक निकाली, जो साथ लाया था, और उसमें पहली बार लिखा—

“मैं कुछ नहीं जानता कि मुझे कहाँ पहुँचना है, लेकिन अब रास्ता मुझे ले चलेगा।”

अर्जुन की मुलाकात वहाँ एक अन्य यात्री से हुई—वेदिका, जो पुणे से आई थी। वो एक फ्रीलांस फोटोग्राफर थी और पिछले 3 सालों से दुनिया घूम रही थी।

वेदिका ने अर्जुन से पूछा—
“तुम क्यों आए हो यहाँ?”

“शायद खुद से मिलने।”

“मुझे लगा तुम कहोगे, ‘घूमने’। पर यह जवाब अच्छा है। बहुत कम लोग ये मानते हैं कि वो खुद को नहीं जानते।”

अर्जुन को पहली बार किसी अजनबी से बात करके हल्कापन महसूस हुआ।

तीसरे दिन रात में, घाट पर गंगा आरती के बाद, अर्जुन अकेले बैठा था। चारों तरफ सन्नाटा था। गंगा का प्रवाह धीमा था। चाँद हल्का झाँक रहा था बादलों से।

अर्जुन ने वहीं लेटकर आसमान की ओर देखा और धीरे से पूछा—

“तूने मुझे यहाँ क्यों बुलाया, गंगा?”

जवाब हवा ने दिया—एक ठंडी लहर उसके चेहरे को छू गई।

“कभी-कभी जवाब शब्दों में नहीं होते, वो सिर्फ महसूस होते हैं।”

उस रात अर्जुन की आँखों से दो बूँद आँसू गिरे। कई सालों से जमी हुई भावनाएँ पहली बार पिघली थीं।

अर्जुन अब ऋषिकेश की सड़कों पर अकेला नहीं चलता था। अब वो महसूस करता था, देखता था, सूंघता था, सुनता था—हर चीज़ को। पहले जो जीवन धुंधला था, अब वो साफ़ दिखने लगा था।

एक साधारण सा दृश्य—एक बच्चा जो नदी में पत्थर फेंक कर लहरें बना रहा था, उसे अब गहराई से छू जाता।

वेदिका ने एक दिन अर्जुन से कहा—
“तुम्हारी आँखें बदल गई हैं। अब उसमें डर नहीं है।”

“अब शायद थोड़ा मैं अपने आप को समझने लगा हूँ,” अर्जुन मुस्कुराया।

अर्जुन ने घाट पर फिर से उस साधु बाबा को ढूँढा। वो वहीँ बैठे थे।

“बाबा, अब कहाँ जाऊँ?”

“जहाँ तुम्हारा मन अब चैन चाहता हो। वहाँ जाओ, जहाँ लोग कम हों, लेकिन दिल सच्चे हों। ऋषिकेश ने तुम्हारा मन शांत किया है, अब आत्मा को भोजन दो। पहाड़ों में कोई गाँव ढूँढो।”

“कोई जगह सुझाइए?”

“ऋणी गाँव – वहाँ जाओ। वहाँ तुम्हें सच्चे लोग मिलेंगे, और शायद अपने सवालों के जवाब भी।”

अर्जुन ने ऋषिकेश में पाँच दिन बिताए थे। वो अब हल्का महसूस कर रहा था, पर जानता था कि यात्रा अभी पूरी नहीं हुई।

उसने अपने बैग में नोटबुक रखी, कैमरा संभाला, और वेदिका से विदा ली।

“शायद फिर मिलेंगे,” वेदिका मुस्कुराई।

“अगर रास्ते ने चाहा, तो जरूर,” अर्जुन ने कहा।

अब उसकी यात्रा थी—ऋणी गाँव की ओर… एक और पड़ाव, एक और स्वरूप, और शायद खुद से एक और मुलाक़ात।

***

अर्जुन की आँख खुली और देखा, एक छोटा बच्चा खिड़की के पास खड़ा उसे देख रहा था। बस की खड़खड़ाहट, पहाड़ों की घुमावदार सड़कें और ठंडी हवा का झोंका — सब मिलकर जैसे किसी नई दुनिया में लाया हो।

अर्जुन ऋषिकेश से बस पकड़कर हिमालय की गोद में बसे ‘ऋणी गाँव’ की ओर चला आया था। साधु बाबा की बात अब तक कानों में गूंज रही थी –
“वहाँ लोग कम होंगे, पर दिल सच्चे मिलेंगे।”

ऋणी गाँव उत्तराखंड के चमोली जिले के एक पहाड़ी मोड़ पर बसा था — ना कोई होटल, ना रेस्टोरेंट, ना मोबाइल नेटवर्क। लगभग 70–80 घरों का ये गाँव, देवदार के पेड़ों और टेढ़ी-मेढ़ी गलियों में सिमटा हुआ था। लोगों के चेहरों पर थकान नहीं, बल्कि एक ठहराव था।

बस से उतरकर जब अर्जुन गाँव की ओर चला, तो वो जैसे एक और ही समय में प्रवेश कर चुका था। वहाँ घड़ी की टिक-टिक नहीं, मुर्गे की बाँग, गायों की घंटियाँ और नदियों की कल-कल थी। सब कुछ धीमा, पर जीवंत।

अर्जुन गाँव के मंदिर के पास बैठा था, जब एक बुज़ुर्ग महिला ने उसके पास आकर पूछा—

“बेटा, कहाँ से आए हो? भूखे दिखते हो।”

“दिल्ली से… नाम अर्जुन है। कुछ दिन रहना चाहता हूँ।”

दादी मुस्कुराईं—
“नाम भी अर्जुन और हाथ में धनुष नहीं, कैमरा है!”

“रह जाओ, मेरा घर तुम्हारा है।”

दादी का नाम था जगवंती देवी, पर सब उन्हें “दादी अम्मा” ही कहते थे। उनका घर मिट्टी और पत्थरों से बना हुआ था, जिसमें लकड़ी की खिड़कियाँ थीं। अंदर एक पुराना तंदूर, लकड़ी की अलमारी, और तस्वीरों से भरी दीवार।

अर्जुन वहीं रुक गया। मोबाइल नेटवर्क नहीं था, लेकिन उसे अब इसकी जरूरत भी महसूस नहीं हो रही थी।

अगली सुबह, दादी अम्मा ने उसे खेत ले चलने को कहा।
सर्दियों की ओस में भीगी घास पर चलकर वो खेत पहुँचे।

“यहाँ सब मिलकर काम करते हैं। अपने खाने के लिए उगाते हैं। कोई स्पेशल नहीं, सब बराबर।”

अर्जुन ने हल चलाने की कोशिश की, फिर लकड़ी से पत्तियाँ काटीं। गाँव के बच्चे हँसी मज़ाक कर रहे थे। उनमें से एक बच्चा—पिंकू, हमेशा अर्जुन के साथ रहने लगा।

“भैया, आप मोबाइल से फोटो लेते हो?”
“हाँ, पर असली फोटो कैमरे से लेते हैं।”
“फिर मेरी भी लेना!”

अर्जुन ने पहली बार हँसते हुए किसी की फोटो खींची—ना पैसे के लिए, ना शो-ऑफ के लिए। बस यूँ ही, खुशी के लिए।

एक दिन अचानक बारिश आ गई। अर्जुन और गाँव वाले खेत से भागते हुए झोपड़ी की तरफ दौड़े।

“अब तो आज काम नहीं होगा,” अर्जुन ने कहा।

“कौन कहता है?” दादी अम्मा हँसते हुए बोलीं, “आज तो घर में पकौड़े बनेंगे, और पुरानी बातें होंगी।”

उस शाम को पहली बार अर्जुन ने महसूस किया कि ज़िंदगी को जीने के लिए बड़ी चीज़ें नहीं, छोटी बातें चाहिए। वहाँ ना इंटरनेट था, ना ब्रेकिंग न्यूज़, लेकिन हर चेहरा मुस्कुरा रहा था।

एक दिन गाँव में “फूलदेई” नामक स्थानीय त्योहार था। बच्चे घर-घर जाकर फूल डालते और गाना गाते—
“फूल देई, छम्मा देई…”

अर्जुन ने कैमरा उठाना चाहा, लेकिन दादी ने कहा—

“बेटा, कभी-कभी फोटो नहीं, पल याद रखने होते हैं। कुछ आँखों में कैद करने दो।”

अर्जुन ने पहली बार कैमरा नीचे रखा और बस देखा।
हर चेहरा, हर मुस्कान, हर फूल—उसकी आत्मा में उतरते गए।

एक रात, जब बिजली नहीं थी, सब लोग अलाव के पास बैठे थे। अर्जुन, दादी अम्मा और कुछ गाँव वाले—तारे देख रहे थे।

दादी ने पूछा—
“बेटा, तू वहाँ शहर में क्या करता था?”

“नौकरी… कंप्यूटर पे दिन-रात।”

“फिर क्या मिला?”

अर्जुन चुप हो गया।
फिर धीरे से कहा—
“थकान। और अकेलापन।”

दादी बोलीं—

“हमने कभी स्कूल नहीं देखा, ना डॉक्टर को, पर ज़िंदगी जी है। तू पढ़ा-लिखा है, पर थका हुआ है। इसलिए कहती हूँ—ज़रूरत से ज़्यादा सब कुछ ज़हर है। चाहे पैसा हो या अकेलापन।”

अर्जुन अब गाँव का हिस्सा बन चुका था। खेतों में काम करता, बच्चों को पढ़ाना शुरू किया, गाँव की युवाओं को मोबाइल कैमरे से फोटोग्राफी सिखाने लगा।

उसे पहली बार लगा कि “देना” कहीं ज़्यादा संतोष देता है, बनिस्बत “कमाने” के।

एक दिन पिंकू ने एक कागज़ पर लिखा—
“भैया, आप अच्छे हो। आप जब जाओगे तो हमको याद आएगा।”

अर्जुन की आँखें नम हो गईं। उसने उस कागज़ को अपनी डायरी में चिपका दिया।

एक महीने बीत चुका था। अर्जुन ने अब निर्णय लिया कि वह वापस शहर जाएगा—पर इस बार कोई और ही अर्जुन बनकर।

“दादी अम्मा, मैं जा रहा हूँ।”

“जा बेटा, लेकिन वहाँ भी ये सादगी मत छोड़ना। तू अब असली अर्जुन है।”

अर्जुन जब दिल्ली लौटा, वो पहले वाला अर्जुन नहीं था। उसने कंपनी को रिज़ाइन मेल भेजा। फिर अपनी नोटबुक उठाई और लिखा— “मैं अब उस रास्ते पर चलूँगा, जहाँ रफ्तार नहीं, पर रहस्य है। जहाँ दौड़ नहीं, पर दिशा है। अब सफर मेरा धर्म है, और खुद को जानना मेरा लक्ष्य।”

***

दिल्ली की सड़कों पर वही पुराना शोर था। वही भीड़, वही ट्रैफिक, वही भागमभाग। लेकिन अर्जुन अब पहले वाला अर्जुन नहीं था।

ट्रेन से उतरते ही उसने सबसे पहले जो किया, वो था — मोबाइल चालू किया। दर्जनों मैसेज, ईमेल, कॉल — कई हफ्तों की खबरें एक साथ आँखों के सामने तैर गईं।

पर उसने सबको नजरअंदाज कर दिया।

उसने बस एक ही संदेश लिखा:

“मैं कुछ दिन खुद को ढूँढ़ने निकला था। शायद अब थोड़ा मिल गया हूँ। वापस आ गया हूँ – पर इस बार सच्चे रूप में।”

अर्जुन जब अपने घर पहुँचा, दरवाज़ा खोलते ही हर चीज़ वैसी की वैसी थी — पर उसे खुद में फर्क महसूस हो रहा था। सोफा वही था, लेकिन अब उसे बैठने का मन नहीं था। अलमारी में कपड़े थे, पर वो अब ज़रूरी नहीं लगे।

डायरी खोलकर उसने लिखा: “घर तो वही रहा, पर अब जो लौटा हूँ वो कोई और है। अर्जुन 2.0, कम ज़्यादा, पर सच्चा।”

अर्जुन ने माँ को फोन किया। कई हफ्तों बाद।

“माँ, कैसी हो?”

“अब ठीक हूँ। तू ठीक है ना?”

“हाँ माँ, अब मैं बहुत बेहतर हूँ। मैंने अपने आप से बात की है, और अब दुनिया से भी करना चाहता हूँ।”

फिर उसने एक–एक करके पुराने दोस्तों को मैसेज किया। कुछ ने गिला किया, कुछ ने माफ किया। लेकिन एक बात थी—हर किसी से बात करते हुए अर्जुन ईमानदार था।

एक हफ्ते बाद, अर्जुन अपनी कंपनी के ऑफिस गया। मीटिंग रूम में अपने मैनेजर से मिला।

“अर्जुन, तुम कहां गायब हो गए थे?”

“खुद में, सर। और अब लौटा हूँ, लेकिन किसी और रास्ते पर जाने के लिए।”

उसने अपना रेजिग्नेशन लेटर दिया। सब चौंके, लेकिन कोई रोक नहीं पाया। क्योंकि उसकी आँखों में एक निर्णय था, और एक शांति।

कुछ दिनों बाद, अर्जुन ने एक वेबसाइट बनाई—
“पगडंडी – अपने भीतर की यात्रा”

उसने लिखा: “यह प्लेटफॉर्म उन लोगों के लिए है जो भीड़ में खो गए हैं, पर अकेले होने से डरते हैं। ये उन लोगों के लिए है जो ‘अच्छी नौकरी’ के बीच ‘खुशी’ भूल चुके हैं।”
“यहाँ हम बात करेंगे – मानसिक स्वास्थ्य, जीवन की सादगी, और उस यात्रा की, जो हम सब भीतर करते हैं लेकिन पहचान नहीं पाते।”

धीरे-धीरे लोग जुड़ने लगे। कभी–कभी वो ऑनलाइन वर्कशॉप्स लेने लगा, जहाँ वो अपने अनुभव साझा करता – ऋषिकेश की वो पहली साँस, ऋणी गाँव की वो सादगी, और खुद से मिली वो मुलाकात।

एक शाम, दिल्ली के एक बुक कैफे में अर्जुन अपनी डायरी पर कुछ लिख रहा था, जब किसी ने पीछे से आवाज़ दी—

“तुम्हारी आँखों में अब सवाल नहीं, जवाब हैं।”

वो पलटा – वेदिका खड़ी थी।

“तुम यहाँ?”

“हां, तुम्हारी वेबसाइट पर एक पोस्ट पढ़ी। सोचा देखूं वो अर्जुन अब कैसा दिखता है जिसने खुद को खोज लिया।”

दोनों मुस्कुराए। उस शाम उन्होंने फिर से वो गंगा की रातों की बातें दोहराईं। पर अब कोई बेचैनी नहीं थी। अब बातों में हल्कापन था।

एक दिन अर्जुन को एक पोस्टकार्ड मिला – चिट्ठी दादी अम्मा की थी।
हाथ से लिखा था:

“बेटा अर्जुन, गाँव में सब तुझे याद करते हैं। पिंकू अब फोटोग्राफर बनना चाहता है। तू जो किताबें छोड़ गया, वो अब गाँव का खजाना हैं। तूने यहाँ से जो लिया, उससे कहीं ज्यादा हमें दे गया।”
“तू जहाँ भी रहे, सादा और सच्चा रहना। वही तेरा असली अर्जुन है।”

अर्जुन की आँखों में आँसू थे, पर मन हल्का था।

अब अर्जुन शहर में रहता है, लेकिन उसके जीवन का स्वरूप बदल चुका है। वो सुबह जल्दी उठता है, ध्यान करता है, लोगों की बातें सुनता है, और सिखाता नहीं — सीखता है।

कभी–कभी वो गाँवों में जाता है, युवाओं से बात करता है, बच्चों को सिखाता है कि कैसे “खुश रहने के लिए सिर्फ दिल चाहिए, डेटा नहीं।”

उसकी वेबसाइट अब एक छोटा–सा आंदोलन बन गई है – आत्म-खोज का आंदोलन।

डायरी के आखिरी पन्ने पर लिखा एक वाक्य:

“मैं चला था भागने, पर पहुँचा खुद में। अब हर सफर बाहर नहीं, भीतर होता है। और जब आत्मा मुस्कुराए, वही असली मंज़िल होती है।”

समाप्त

 

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