मनीषा राठौड़
१
राजस्थान का रेगिस्तान दिन में तपती धूप और रात में सिहरन भरी ठंड से भरा रहता है। लेकिन इन सबके बीच, उस वीराने में बसा छोटा-सा गाँव धोराबावड़ी अपनी अजीबोगरीब दास्तान के लिए मशहूर है। यह गाँव चारों तरफ़ फैली रेतीली ढलानों और दूर-दूर तक बिछी झाड़ियों के बीच बसा है। दिन में ऊँटों की घंटियाँ और बच्चों की किलकारियाँ सुनाई देती हैं, लेकिन रात का नज़ारा एकदम अलग होता है—मानो पूरा गाँव साँस रोककर किसी अनदेखे मेहमान की प्रतीक्षा करता हो। गाँव के लोग मानते हैं कि हर साल सावन की अंधेरी रात, जब चाँद बादलों में छिपा रहता है, तब वीराने में अचानक घोड़ों की टाप सुनाई देने लगती है। धूल उड़ती है, मानो कहीं से बारात निकल रही हो। हवा में ढोल-नगाड़ों की थाप और शहनाई की उदास धुन तैरने लगती है। लेकिन जब लोग दरवाज़े से झाँककर देखने की कोशिश करते हैं, तो आँखों के सामने बस सुनसान रेत का विस्तार और दूर-दूर तक अंधेरा दिखाई देता है। यही वह क्षण होता है जब पूरे गाँव में खामोशी पसर जाती है। बच्चे माँओं की गोद में दुबक जाते हैं, और घरों के बुज़ुर्ग दीपक बुझा देते हैं, ताकि उनकी रोशनी उस बारात को आकर्षित न कर ले।
गाँव की चौपाल पर बैठे-बैठे लोग अक्सर उस रात के किस्से करते हैं। सबसे अधिक चर्चा में रहता है लक्ष्मण काका, गाँव का सबसे बूढ़ा और अनुभवी इंसान। सफेद दाढ़ी और काँपते हाथों वाले काका ने अपना ज़्यादातर जीवन इसी गाँव में बिताया है और कहते हैं कि उन्होंने खुद बचपन में उस बारात की झलक देखी थी। काका बताते हैं कि जब वे बारह-तेरह साल के थे, तो साहस करके अपने दोस्तों के साथ उस रात रेगिस्तान की तरफ़ निकल पड़े थे। अचानक हवा में शहनाई गूँजने लगी थी, और घोड़ों की टाप इतनी नज़दीक लग रही थी कि मानो उनके सामने से गुज़र रही हो। उन्होंने कसम खाकर कहा था कि उन्हें एक पल के लिए सचमुच दूल्हे की झलक दिखी थी—सफेद घोड़े पर सवार, सेहरा बाँधे, तलवार लटकाए। लेकिन अगले ही क्षण उनके दोस्तों में से एक बेहोश होकर गिर पड़ा और सब जान बचाकर गाँव की तरफ़ भागे। उसी दिन से लक्ष्मण काका मान गए कि यह कोई सामान्य घटना नहीं, बल्कि “अधूरी बारात” की पुकार है।
काका की आवाज़ में जब यह दास्तान गूँजती है, तो बच्चे सहम जाते हैं और औरतें अपने सिर पर आँचल खींच लेती हैं। वे बताते हैं कि यह कोई साधारण भूत-प्रेत की हरकत नहीं, बल्कि उन आत्माओं की याद है जिनकी शादी अधूरी रह गई। “सोचो,” काका अक्सर कहते, “कैसा दुख होगा उन आत्माओं को, जो सज-धजकर निकले थे, लेकिन मंडप तक पहुँच न पाए। उनकी खुशी अधूरी रह गई, उनकी दुनिया बीच रास्ते में बिखर गई। अब हर साल वही रात आती है, जब वे लौटते हैं, ताकि शायद उनकी अधूरी रस्म पूरी हो जाए।” गाँव वाले इस बात पर गहरी श्रद्धा रखते हैं। इसलिए उस रात कोई भी बाहर नहीं निकलता, न दीप जलाता, न ढोल बजाता। यहाँ तक कि घरों के दरवाज़े तक बंद कर दिए जाते हैं, ताकि बारात की परछाईं भी गाँव में न आए। मान्यता है कि अगर किसी ने उस रात बारात को देख लिया, तो उसकी उम्र अधूरी रह जाती है।
लेकिन जितना डर है, उतनी ही श्रद्धा भी। गाँव वाले मानते हैं कि उन आत्माओं के लिए सहानुभूति रखना ज़रूरी है, इसलिए उस रात महिलाएँ अपने घर के आँगन में चुपचाप हल्दी या चावल के दाने रख देती हैं, मानो बारातियों को भोजन अर्पण कर रही हों। बच्चे अपने बुज़ुर्गों से छिपकर खिड़की से झाँकने की कोशिश करते हैं, पर हर बार उन्हें सिर्फ़ अंधेरा और हवा की सनसनाहट ही सुनाई देती है। यही है धोराबावड़ी गाँव का रहस्य, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चला आ रहा है। और इस रहस्य को सबसे अधिक जीवित रखते हैं लक्ष्मण काका, जो चौपाल पर बैठकर ठंडी रातों में अपनी काँपती आवाज़ में कहते हैं—“बच्चो, याद रखना, यह सिर्फ़ कोई कहानी नहीं, यह उन आत्माओं की पुकार है। और जब भी तुम शहनाई सुनो, समझ लेना, अधूरी बारात फिर लौट आई है।”
२
बहुत साल पहले राजस्थान की रेत पर एक ऐसी दास्तान अंकित हुई थी, जिसे आज भी धोराबावड़ी गाँव श्रद्धा और भय से याद करता है। उस समय ठाकुर अर्जुनसिंह अपने साहस और शौर्य के लिए पूरे इलाके में प्रसिद्ध थे। वे जवान थे, बलिष्ठ शरीर के धनी, माथे पर तेज़ और आँखों में एक ऐसा आत्मविश्वास, जिसे देखकर दुश्मन भी काँप जाए। उनकी बारात निकली थी राजकुमारी रत्नकुँवर के लिए—एक सुंदर, शिक्षित और शालीन कन्या, जिसे देखने वाले कहते थे कि वह चाँदनी रात की तरह उजली और मोहक थी। इस विवाह को लेकर आसपास के कई गाँवों में उत्सव का माहौल था। हवेली सजाई गई थी, महावर और मेहंदी से दुल्हन का श्रृंगार हुआ था, और हर कोई इंतज़ार कर रहा था कि कब सेहरा बाँधे ठाकुर घोड़े पर चढ़कर आएँ और राजकुमारी की डोली सजाई जाए। अर्जुनसिंह भी अपने परिवार और रिश्तेदारों के साथ अत्यंत शान-शौकत से बारात लेकर निकले। सफेद घोड़े पर उनका आगमन मानो राजपूताना परंपरा का गर्व था। आगे-आगे ढोल-नगाड़े गूँज रहे थे, शहनाई की धुन हवा में तैर रही थी, और पीछे-पीछे रिश्तेदार, मित्र और गाँव के लोग नाचते-गाते चले आ रहे थे।
बारात के उस दृश्य को आज भी गाँव के बुज़ुर्ग अपनी आँखों में संजोए हुए हैं। कहते हैं कि धूल से ढकी रेत उस दिन सुनहरी लग रही थी, क्योंकि दूल्हे की सवारी के साथ राजसी परंपरा झलक रही थी। स्त्रियाँ मंगलगीत गा रही थीं, बच्चे पटाखे जलाकर दौड़ रहे थे, और आकाश में सितारे मानो बारात के गवाह बन गए थे। अर्जुनसिंह ने सफेद घोड़े चेतक पर सवार होकर शान से तलवार कंधे पर टाँगी हुई थी, मानो यह केवल विवाह नहीं बल्कि अपने कुल का मान-सम्मान लेकर यात्रा हो। बारात जैसे-जैसे हवेली की ओर बढ़ रही थी, हर कोई सोच रहा था कि यह विवाह दो घरानों को ही नहीं बल्कि पूरे क्षेत्र को एक बंधन में जोड़ देगा। राजकुमारी रत्नकुँवर ने भी अपनी सहेलियों संग झरोखे से झाँकते हुए उस बारात की झलक पाई थी और उनके चेहरे पर लज्जा और खुशी की लाली खिल आई थी। उस क्षण मानो सबकुछ परिपूर्ण लग रहा था—प्रेम, परंपरा और भविष्य की आभा।
लेकिन नियति को शायद यह मंज़ूर नहीं था। जैसे ही बारात रेगिस्तान के उस हिस्से में पहुँची, जिसे गाँव वाले आज भी “भूतिया चौकड़ी” कहते हैं, अचानक आकाश में एक अजीब-सी हलचल हुई। हवा का रुख बदल गया, और धूल का भयानक बवंडर उठ खड़ा हुआ। शहनाई की धुन टूट गई, ढोल की थाप बिखर गई और घोड़ों की टाप घबराहट में बदल गई। लोग समझ ही नहीं पाए कि हुआ क्या है। कुछ कहते हैं कि डाकुओं ने हमला किया था, जिन्होंने सोने-चाँदी के गहनों और बारात की शाही शान को देखकर लालच किया। तो कुछ का मानना है कि यह किसी पुराने श्राप की वजह से हुआ था—रेगिस्तान के उस हिस्से में एक शापित आत्मा बसी थी, जो किसी भी विवाह को पूरा होने नहीं देती। जो भी सच रहा हो, उस रात अचानक चीखें, घोड़ों की हिनहिनाहट और ढोल की टूटती आवाज़ों ने माहौल बदल दिया। हवा इतनी तेज़ थी कि किसी को किसी की सूरत तक पहचानना मुश्किल हो गया।
क्षण भर में सब खत्म हो गया। धूल बैठी तो बस वीराना बचा। घोड़े बेतहाशा भाग गए, नगाड़े बिखर गए, और बाराती रेगिस्तान की रेत में बेतरतीब बिखरे पड़े थे। ठाकुर अर्जुनसिंह और उनके साथियों का कोई सुराग नहीं मिला। हवेली में सजी हुई सेज, मंडप और राजकुमारी रत्नकुँवर की आँखों का इंतज़ार सब व्यर्थ हो गया। राजकुमारी की आँखों से उस रात जो आँसू बहे, वे पूरे किले की हवाओं में बस गए। विवाह अधूरा रह गया, और उसके साथ अधूरी रह गई वह खुशी, जो पूरे गाँव ने मिलकर सजाई थी। कहते हैं कि उसी अधूरेपन की कसक आत्माओं में घर कर गई। और तब से हर साल उसी रात, वही बारात लौटती है—उसी शहनाई, उसी ढोलक, उसी घोड़ों की टाप और उसी अधूरी चाह के साथ। लोग इसे “अधूरी शादी की दास्तान” कहते हैं, जो आज भी रेत में गूँजती है।
३
धोराबावड़ी गाँव के बाहरी हिस्से में एक पुरानी हवेली खड़ी है, जिसकी दीवारें समय की धूल से ढकी हैं और जिनके झरोखों से अब भी अतीत की परछाइयाँ झाँकती हैं। यही वह हवेली थी जहाँ राजकुमारी रत्नकुँवर अपने सपनों की डोली के इंतज़ार में बैठी थी। विवाह के दिन हवेली का हर कोना रोशनी से नहाया हुआ था, आँगन में मंगलगीत गूँज रहे थे, और महावर से सजे पाँव मंडप में कदम रखने को बेताब थे। सहेलियाँ उसके चारों ओर लाल चुनरी सँभाल रही थीं, मेहंदी के गहरे रंग में दूल्हे का नाम छिपा हुआ था और आँखों में वही मासूम झिझक और उजला सपना तैर रहा था कि आज का दिन उसकी ज़िंदगी का सबसे पावन दिन बनेगा। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, शहनाई की आवाज़ धीमी पड़ी और बारात की कोई खबर हवेली तक न पहुँची। रत्नकुँवर झरोखे पर खड़ी होकर बार-बार दूर के रास्ते को देखती रही, मानो अभी सफेद घोड़े पर सजे दूल्हे की झलक मिलेगी। लाल चुनरी उसके चेहरे से सरककर आँसुओं से भीगती रही और मंडप में सजे फूल एक-एक कर मुरझाने लगे।
रत्नकुँवर की आँखों ने जो इंतज़ार देखा वह किसी साधारण स्त्री का नहीं, बल्कि एक दुल्हन के दिल की सबसे गहरी कसक थी। शुरू में उसने सोचा कि शायद रास्ते में देरी हो रही है, धूल और हवाओं ने बारात को रोक दिया होगा। लेकिन धीरे-धीरे जब रात गहराने लगी, तो हवेली का हर दीपक उसे ठंडी हकीकत दिखाने लगा। सहेलियाँ धीरे-धीरे मंडप से हट गईं, गीत रुक गए, और दुल्हन अकेली रह गई। उसने खिड़की से झाँकते हुए आसमान की ओर देखा—सितारे चमक रहे थे, लेकिन उनमें से कोई भी उसकी डोली को उजाला देने नहीं उतरा। वह रोती रही, पर उसकी सिसकियाँ हवेली की दीवारों में समा गईं। कहते हैं उस रात वह पूरे श्रृंगार में झरोखे पर खड़ी रही, जब तक कि उसकी आँखें बंद न हो गईं। कुछ कहते हैं कि उस इंतज़ार में ही उसने प्राण त्याग दिए, और कुछ कहते हैं कि उसका तन भले ही मिट्टी में समा गया, लेकिन उसकी आत्मा अब भी उसी खिड़की पर खड़ी है।
समय बीता, हवेली उजड़ गई, लोग बिखर गए, लेकिन झरोखे की परछाईं वही रही। गाँव वाले मानते हैं कि सावन की उस रात जब अधूरी बारात की गूँज रेगिस्तान में सुनाई देती है, तब हवेली की खिड़की पर लाल चुनरी लिपटी एक आकृति दिखाई देती है। उसका चेहरा धुंधला होता है, पर आँखों में वही इंतज़ार चमकता है। कई लोगों ने कसम खाई है कि उन्होंने उस परछाईं को हाथ हिलाते देखा है, मानो वह अब भी दूल्हे का रास्ता देख रही हो। कभी-कभी हवेली के आँगन में हल्की-सी पायल की झंकार सुनाई देती है, जैसे दुल्हन मंडप की ओर बढ़ रही हो। हवेली की दीवारें इस दर्द की गवाही देती हैं, जो केवल एक स्त्री की नहीं, बल्कि उस पूरे प्रेम की अधूरी कहानी है जो राजकुमारी रत्नकुँवर और ठाकुर अर्जुनसिंह के बीच था।
गाँव के बच्चे जब पहली बार उस हवेली के पास जाते हैं, तो उनके दिल में एक अजीब-सी दहशत होती है। बड़े-बुज़ुर्ग उन्हें चेतावनी देते हैं कि “झरोखे की ओर मत देखना, वरना उसका इंतज़ार तुम्हारी आँखों में उतर आएगा।” लेकिन फिर भी कुछ जिज्ञासु आत्माएँ वहाँ जाकर लाल चुनरी की परछाईं देखने की कोशिश करती हैं। कहते हैं जिसने भी उस परछाईं को देखा, उसकी ज़िंदगी में कोई न कोई अधूरापन रह गया। रत्नकुँवर की आत्मा जैसे अपना दुख दूसरों की ज़िंदगी में बाँट देती है। यही कारण है कि गाँव वाले हवेली से दूरी बनाए रखते हैं। लेकिन हवेली की खिड़की आज भी गवाह है उस प्रेम, उस इंतज़ार और उस अधूरे सपने की, जो कभी सच नहीं हो सका। रात की खामोशी में हवेली की दीवारें फुसफुसाती हैं, और उनकी सरगोशियों में वही सवाल गूँजता है—“क्या दूल्हा कभी लौटेगा? क्या यह इंतज़ार कभी खत्म होगा?” यही है हवेली का रहस्य, और यही है रत्नकुँवर की अधूरी दास्तान।
४
रेगिस्तान का वह हिस्सा, जहाँ दिन में सिर्फ़ रेत का सन्नाटा और हवाओं की सीटी सुनाई देती है, साल में एक रात किसी और ही दुनिया में बदल जाता है। जैसे ही सूरज ढलता है और चाँदनी धोरों पर फैलती है, वातावरण अचानक बदलने लगता है। रेत पर कदमों के निशान दिखने लगते हैं जहाँ कोई इंसान मौजूद नहीं होता, हवा में शहनाई की मीठी लेकिन रहस्यमयी धुन तैरने लगती है, और दूर से घोड़ों की टाप मानो धरती का दिल धड़काती हुई सुनाई देती है। यही वह घड़ी होती है जब “अधूरी बारात” लौटती है—ठीक उसी रूप में, जैसी बरसों पहले चली थी। दूल्हा अर्जुनसिंह अपने सफेद घोड़े पर सवार दिखाई देता है, बाराती झिलमिलाते वस्त्रों में नाचते-गाते नज़र आते हैं, और हवेली की ओर बढ़ती बारात की गूँज पूरे रेगिस्तान को भर देती है। लोग कहते हैं कि उस रात यदि कोई भी गलती से बाहर निकल जाए, तो उसे बारात की झलक मिलती है और उसकी रूह काँप उठती है। यह सब किसी नाटक जैसा नहीं, बल्कि आत्माओं का वास्तविक जुलूस होता है, जिसे समय की सीमाएँ भी बाँध नहीं पातीं।
इस रहस्यमयी बारात में सबसे आगे चलता है बावजी पुजारी की आत्मा। हाथ में ग्रंथ लिए, माथे पर तिलक और गूँजते हुए मंत्र—“स्वस्ति, मंगलं भवतु”—की ध्वनि के साथ वह आगे बढ़ते हैं। उनका स्वर हवा में गूंजता है और लगता है मानो रेगिस्तान के कण-कण में पूजा का कंपन फैल गया हो। लोग मानते हैं कि बावजी पुजारी का अधूरा धर्मकर्म ही उन्हें इस संसार में बाँधे हुए है। वे हर साल लौटते हैं, विवाह के अधूरे मंत्र पूरे करने के लिए, ताकि दूल्हा और दुल्हन का मिलन हो सके। जैसे ही वे “मंगलाष्टक” की पहली पंक्ति गाते हैं, बारात की आत्माएँ और उल्लास से भर जाती हैं—घोड़ों की टाप और ढोल-नगाड़े तेज़ हो जाते हैं, और शहनाई की धुन रात को मानो दिव्य उत्सव में बदल देती है। किंतु, यह उल्लास कभी पूरा नहीं हो पाता।
क्योंकि इस आत्मिक जुलूस का रास्ता हर बार रोकती है वही काली छाया। अचानक हवा का रुख बदलता है, रेत का बवंडर उठता है, और वातावरण में एक भयावह सर्दी छा जाती है। घोड़ों की टाप थम जाती है, ढोल की थाप मौन हो जाती है और शहनाई का स्वर टूटकर कराह बन जाता है। काली छाया कोई साधारण रूप नहीं—वह मानो श्राप का प्रतीक है, वह अदृश्य शक्ति जिसने बरसों पहले इस बारात को नष्ट किया था। कहते हैं उसकी आँखें अंगारों जैसी लाल होती हैं और उसके स्वर में इतनी शक्ति है कि आत्माएँ भी काँप उठती हैं। जब-जब बावजी पुजारी मंत्रों से बारात को आगे ले जाने का प्रयास करते हैं, यह छाया उनके स्वर को दबा देती है और पूरा जुलूस धुंध बनकर बिखर जाता है। गाँव के बुज़ुर्ग कहते हैं कि यह काली छाया किसी स्त्री का बदला है, जिसे उसी राजघराने ने अन्यायपूर्वक कुचल दिया था। उसकी आत्मा आज तक शांति नहीं पा सकी और हर बार बारात के मिलन को रोक देती है।
यही कारण है कि वह बारात हर साल लौटती है, लेकिन हर साल अधूरी रह जाती है। हवेली की खिड़की पर रत्नकुँवर की परछाईं अब भी उस बारात की प्रतीक्षा करती है, और रेगिस्तान में वही गीत गूँजते हैं जो कभी पूरे नहीं हुए। गाँव के लोग उस रात घरों के दरवाज़े और खिड़कियाँ कसकर बंद कर लेते हैं, दीयों की लौ बुझा देते हैं और बच्चों को समझाते हैं कि बाहर मत देखना—क्योंकि जो भी इस अधूरी बारात को देख लेता है, उसके जीवन में भी कोई न कोई अधूरापन रह जाता है। कुछ कहते हैं कि बारात की आत्माएँ केवल अपना विवाह पूर्ण करना चाहती हैं, और यदि कभी बावजी पुजारी का मंत्र काली छाया पर भारी पड़ जाए तो यह चक्र टूट जाएगा। लेकिन अब तक, सदियों से, वह छाया हर बार विजयी होती रही है। रेगिस्तान की रेत इस अधूरे मिलन की गवाही देती है, और धोराबावड़ी गाँव हर साल उस रात डर और श्रद्धा में कैद रहता है। यही है आत्माओं की वापसी—एक अधूरी बारात, जो न जाने कब तक अपनी मंज़िल खोजती रहेगी।
५
धोराबावड़ी गाँव की तंग गलियों में जन्मी और पली-बढ़ी रूपा बचपन से ही दूसरों से अलग थी। गाँव की लड़कियाँ जहाँ गुड़ियों से खेलकर संतुष्ट हो जातीं, वहीं रूपा की आँखें हमेशा रहस्यमयी कहानियों की तलाश में भटकतीं। बचपन में जब उसकी दादी उसे “अधूरी बारात” की कथा सुनातीं, तो बाकी बच्चे डरकर उनकी गोद में छिप जाते, पर रूपा की आँखों में वही चमक आ जाती जो किसी खोजी को अनजानी दुनिया की झलक देखकर मिलती है। धीरे-धीरे समय बीता, वह जवान हुई, पर उसके भीतर का साहस और जिज्ञासा कभी कम नहीं हुई। वह अक्सर हवेली के पास जाकर चुपचाप खड़ी रहती, झरोखे की ओर देखती, और सोचती कि आखिर वह लाल चुनरी वाली परछाईं सच में रत्नकुँवर है या गाँववालों की कल्पना। रूपा जानती थी कि इन कहानियों को सिर्फ़ डर मानकर नज़रअंदाज़ करना आसान है, लेकिन उसके दिल में कहीं यह विश्वास गहरा बैठा था कि आत्माओं की पीड़ा सच है। और अगर सच है, तो उन्हें कोई न कोई मुक्त कर सकता है।
रूपा की सोच उसे गाँव की परंपराओं से अलग खड़ा करती थी। गाँव के लोग मानते थे कि उस रात घर से बाहर निकलना अपशकुन है, पर रूपा को लगता कि डर केवल वह दीवार है जिसे तोड़ना जरूरी है। जब भी बुज़ुर्ग कहते कि “अधूरी बारात को देखने वाला अपूर्ण रह जाता है,” रूपा हँसकर जवाब देती—“शायद इसलिए कि किसी ने अब तक पूरा देखने की कोशिश ही नहीं की।” उसकी आँखों में यह दृढ़ता थी कि अगर विवाह की रस्म पूरी हो जाए, अगर हवेली का मंडप फिर से जीवित हो और बावजी पुजारी की आत्मा अपने मंत्र पूरे कर सके, तो वह श्राप टूट सकता है। उसने बार-बार सोचा कि शायद यही कारण है कि आत्माएँ हर साल लौटती हैं—क्योंकि वे मुक्त होना चाहती हैं, लेकिन कोई भी उनकी मदद करने का साहस नहीं करता। और रूपा ने ठान लिया कि इस बार वह उस रात बाहर जाएगी, चाहे गाँव कितना भी विरोध करे।
जब यह विचार उसने अपनी सहेली चंदा से साझा किया, तो चंदा ने डर से उसका हाथ पकड़ लिया और कहा, “रूपा, पगली मत बन! तू जानती है कि जिसने भी बारात देखी, उसकी ज़िंदगी बर्बाद हो गई। कोई पागल हो गया, कोई बीमार पड़ा और कोई तो वापस लौटा ही नहीं।” रूपा ने मुस्कराकर कहा, “शायद वे लोग डर गए होंगे, शायद उन्होंने आधी सच्चाई देखी होगी। मैं पूरी सच्चाई देखना चाहती हूँ।” उसकी यह जिद चंदा को बेचैन करती, लेकिन रूपा के चेहरे पर ऐसा आत्मविश्वास था कि कोई भी उसे रोक न सका। गाँव के बुज़ुर्ग जब उसकी बातें सुनते, तो सिर हिलाकर कहते, “आजकल की लड़कियों के मन में बहुत हवा भर गई है। परंपरा को चुनौती देने का परिणाम अच्छा नहीं होता।” मगर रूपा को किसी की परवाह नहीं थी। उसके भीतर एक अजीब-सी पुकार थी, मानो हवेली की दीवारें उसे बुला रही हों, मानो रत्नकुँवर की परछाईं उसे ही अपना उत्तराधिकारी चुन चुकी हो।
रूपा ने उस रात की तैयारी पहले से कर रखी थी। उसने चुपके-चुपके पुराने ग्रंथ पढ़े, दादी से सुनी हुई रस्मों को याद किया और हवेली के पास पड़े टूटे-फूटे मंडप को देख-समझ लिया। उसकी योजना साफ थी—जब बारात लौटेगी और बावजी पुजारी का मंत्र अधूरा रह जाएगा, तब वह आगे बढ़ेगी और रत्नकुँवर के झरोखे पर खड़ी होकर विवाह की वह रस्म पूरी कराएगी, जो सदियों से अधूरी है। उसे डर नहीं था कि आत्माएँ उसे नुकसान पहुँचाएँगी, क्योंकि वह जानती थी कि वे आत्माएँ दुष्ट नहीं हैं, बल्कि बेबस और पीड़ित हैं। असली शत्रु है वह काली छाया, जो हर बार उनके मिलन को रोक देती है। रूपा के मन में दृढ़ विश्वास था कि यदि किसी जीवित इंसान की हिम्मत और सच्चे मन से किया गया प्रयास उनके साथ जुड़ जाए, तो शायद वह श्राप टूट सकता है। उसी विश्वास के साथ उसने मन ही मन प्रण लिया—“इस बार का सावन सिर्फ़ हवेली के आँसुओं से नहीं, बल्कि उसके मिलन की हँसी से गूँजेगा।” और इस तरह एक गाँव की साधारण-सी लड़की, रत्नकुँवर की अधूरी दास्तान पूरी करने के लिए खुद को नियति की राह पर चलने को तैयार कर चुकी थी।
६
गर्मियों की तपती दोपहर में जब धोराबावड़ी गाँव की मिट्टी झुलस रही थी, उसी समय एक जीप की घरघराहट ने गाँव का सन्नाटा तोड़ दिया। धूल उड़ाती हुई जीप के साथ आया एक परदेसी—लंबा, गोरा, आधुनिक कपड़ों में और गले में कैमरा लटकाए। उसका नाम था रवि मेहरा, शहर से आया हुआ डॉक्यूमेंट्री फ़िल्ममेकर। गाँव के लोगों ने उसे कौतुक और संदेह से देखा, मानो कोई दूसरा ही जीव आ गया हो। रवि को बचपन से ही लोककथाएँ और अंधविश्वासों पर आधारित कहानियाँ आकर्षित करती थीं, लेकिन वह उन्हें हमेशा विज्ञान और कैमरे की नज़र से परखना चाहता था। जब उसने “अधूरी बारात” की कथा सुनी, तो उसके भीतर एक अजीब-सी उत्तेजना जाग उठी। वह सोचने लगा—“क्या कमाल की डॉक्यूमेंट्री बनेगी! लोग समझेंगे कि कैसे अंधविश्वास पीढ़ियों से इंसानों को डराते आए हैं।” उसके लिए यह केवल एक रोमांचक प्रोजेक्ट था, एक कहानी जिसे कैमरे में कैद करके शहर और दुनिया के सामने रखना था।
गाँव के चौपाल पर जब रवि बैठा और लोगों से प्रश्न पूछने लगा, तो कोई सीधे जवाब नहीं देता। बूढ़े लोग उसकी तरफ़ देखते और गहरी साँस भरकर चुप हो जाते, और औरतें अपने पल्लू से मुँह ढककर सर झुका लेतीं। तभी उसकी नज़र पड़ी रूपा पर, जो आत्मविश्वास से उसकी आँखों में देख रही थी। जब रवि ने मुस्कुराकर कहा, “तो यह है तुम्हारी भूतिया बारात! सब अंधविश्वास है, बस डराने के लिए गढ़ी गई कहानी,” तो रूपा का चेहरा तमतमा उठा। उसने दृढ़ स्वर में कहा, “नहीं, यह सिर्फ़ कहानी नहीं है। यह सच्चाई है, जो हर साल हमारे सामने घटती है। फर्क सिर्फ़ इतना है कि आप लोग उसे देखना नहीं चाहते।” रवि ने हँसते हुए कैमरे का लेंस उठाया और बोला, “ठीक है, इस बार मैं अपने कैमरे से सब दिखा दूँगा। फिर पता चलेगा कि इस अधूरी बारात में सच्चाई है या सिर्फ़ अफवाह।” रूपा ने उसकी आँखों में देखते हुए कहा, “कैमरा बहुत कुछ दिखा सकता है, पर सब नहीं। अगर तुम्हें सच्चाई देखनी है, तो मेरे साथ उस रात चलना होगा।”
पहले तो रवि ने यह सुनकर उपहास किया। उसे लगा यह गाँव की लड़की सिर्फ़ अपने अंधविश्वास को बचाने के लिए उसे बहला रही है। लेकिन जैसे-जैसे उसने रूपा की गंभीरता देखी, उसके भीतर कहीं एक हल्की-सी जिज्ञासा जगने लगी। “क्या वाकई ये लोग हर साल कुछ ऐसा अनुभव करते हैं जो हमारी आँखों से परे है?” उसने सोचा। गाँववालों के चेहरे पर भय, हवेली के टूटे झरोखों से आती रहस्यमयी सिहरन और रेत में बिखरे अनजाने निशान—इन सबने उसकी तर्कशील सोच को चुनौती दी। वह खुद को समझा रहा था कि यह सब उसके डॉक्यूमेंट्री के लिए “ड्रामा” है, लेकिन मन कहीं न कहीं मान रहा था कि इस रात में कुछ तो है। जब रूपा ने दृढ़ आवाज़ में कहा, “अगर तुम सचमुच दुनिया को सच्चाई दिखाना चाहते हो, तो सिर्फ़ कैमरे से काम नहीं चलेगा। तुम्हें मेरे साथ रहकर उसे महसूस करना होगा,” तो रवि कुछ देर चुप रहा। फिर हल्की मुस्कान के साथ बोला, “ठीक है, मैं तुम्हारे साथ चलूँगा। लेकिन याद रखना, जब सुबह होगी और मैं सब कैमरे में कैद कर लूँगा, तो यह अंधविश्वास हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा।”
रवि की इस बात पर रूपा ने सिर्फ़ इतना कहा, “शायद सुबह तुम्हें लगेगा कि सच्चाई खत्म नहीं होती, बल्कि नई आँखों से दिखने लगती है।” दोनों की इस बातचीत ने गाँव में नई हलचल पैदा कर दी। लोग आपस में फुसफुसाने लगे—“यह परदेसी पागल है, मौत को न्योता दे रहा है।” कोई बोला, “यह लड़की उसे भी ले डूबेगी।” लेकिन रूपा को इन बातों की परवाह नहीं थी। उसने मन ही मन निश्चय किया था कि चाहे रवि विश्वास करे या न करे, उसे उस रात हवेली और रेगिस्तान में ले जाना ही होगा। वह जानती थी कि अकेले उसका प्रयास शायद अधूरा रह जाए, पर अगर कोई और उसकी सच्चाई का साक्षी बनेगा, तो आत्माओं को मुक्त करने की उसकी कोशिश और मज़बूत होगी। उधर, रवि कैमरा सँभालते हुए सोच रहा था कि यह रात उसकी डॉक्यूमेंट्री को जीवन की सबसे बड़ी सफलता बनाएगी। दोनों की सोच अलग-अलग थी, लेकिन नियति ने उन्हें एक ही राह पर खड़ा कर दिया था—उस सावन की रात, जब अधूरी बारात फिर लौटने वाली थी।
७
गाँव पर उस दिन से ही एक गहरी खामोशी छा गई थी। सूरज ढलते ही लोग अपने दरवाज़े भीतर से बंद करने लगे, दीयों की लौ ढक दी गई और गलियाँ सूनी हो गईं। हवा में एक अनजाना डर तैर रहा था, मानो गाँव की मिट्टी भी उस रात से काँप रही हो। हर कोई जानता था कि सावन की यह तिथि श्रापित है, जब “अधूरी बारात” लौटती है। बच्चे अपनी माँओं की गोद में सिमटे हुए थे और बूढ़े लगातार मंत्र बुदबुदा रहे थे। लेकिन इसी वीराने में एक घर की खिड़की से रोशनी बाहर झाँक रही थी—रूपा का घर। वहाँ न तो भय था और न ही घबराहट, बल्कि एक अजीब-सी बेचैनी और उत्साह। रूपा ने लाल ओढ़नी सँभाली, दीपक बुझाया और अपने भीतर एक अनकहा संकल्प मजबूत किया। उधर रवि, अपने कैमरे और उपकरणों को सँभालते हुए, अब भी खुद को समझा रहा था कि यह सब अंधविश्वास है। लेकिन भीतर कहीं उसकी धड़कनें तेज थीं, जैसे कोई अनदेखा साया उसे चेतावनी दे रहा हो। जब दोनों मिले, तो गाँव का सन्नाटा और गहरा हो गया—जैसे पूरी बस्ती ने उन्हें चुपचाप अपनी निगाहों से विदा किया हो।
रेगिस्तान की ओर बढ़ते हुए चारों तरफ़ सिर्फ़ रेत का सागर था। हवा ठंडी थी लेकिन उसमें घुटन की नमी थी, जैसे साँस लेना भी मुश्किल हो। आसमान पर बादल छाए थे और कभी-कभी बिजली की हल्की लकीर अंधेरे को चीर जाती। रेत पर चलते हुए उनके पैरों के निशान मानो तुरंत ही मिटते जा रहे थे, जैसे रेगिस्तान उन्हें अपने भीतर समेट लेना चाहता हो। रूपा के चेहरे पर दृढ़ता थी, उसकी आँखें हवेली की दिशा में टिकी थीं। वह जानती थी कि आधी रात होते ही बारात लौटेगी और वही क्षण होगा जब श्राप की असली शक्ति महसूस होगी। रवि बार-बार कैमरे का फोकस देखता और अपने उपकरणों की जाँच करता, पर उसकी आँखों में भी अब हल्का-सा भय उतरने लगा था। उसने धीमे स्वर में पूछा, “रूपा, अगर सच में कुछ हुआ तो? अगर ये सब सिर्फ़ कहानी नहीं हुई तो?” रूपा ने बिना उसकी ओर देखे कहा, “तो आज रात सच्चाई तुम्हारे सामने होगी। लेकिन डरना मत, क्योंकि डर ही वो दीवार है जो हमें देखने से रोकती है।”
आधी रात का समय होते ही अचानक वातावरण बदल गया। पहले हवा भारी हुई, फिर जैसे जमीन हिलने लगी। रेगिस्तान की रेत मानो किसी अनदेखी ताक़त से थरथराने लगी। दूर से घोड़ों की टाप सुनाई दी—धीरे-धीरे पास आती हुई, मानो पूरा कारवाँ चल पड़ा हो। ढोल-नगाड़ों की धुन हवा में घुल गई, और शहनाई की एक उदास, लहराती हुई धुन ने वातावरण को कंपा दिया। वह धुन किसी इंसान के दिल को सीधा छू लेती थी, मानो उसमें किसी अधूरी शादी की पीड़ा समाई हो। रवि ने काँपते हाथों से कैमरा उठाया, लेकिन चौंक गया जब उसने देखा कि कैमरे का बटन दबाए बिना ही वह अपने आप रिकॉर्ड करने लगा है। स्क्रीन पर धुंधली परछाइयाँ उभर रही थीं—सफेद घोड़े, सिर पर पगड़ी बाँधे बाराती, और उनके बीच लाल दुल्हन का मंडप। पर असली आँखों से देखने पर वहाँ सिर्फ़ वीरान रेत थी। रवि के चेहरे से हँसी गायब हो चुकी थी। उसके माथे पर पसीना था, और उसकी साँसें भारी हो रही थीं। रूपा ने उसकी ओर देखा और फुसफुसाई, “यह है हमारी अधूरी बारात, रवि। अब भी इसे अंधविश्वास कहोगे?”
चारों तरफ़ रेत उठ रही थी, जैसे अदृश्य पाँव उस पर चल रहे हों। कभी दूर किसी के गाने की आवाज़ सुनाई देती, कभी घोड़ों की झंकार। हवा में गूँजती शहनाई इतनी उदास थी कि सुनकर दिल काँप जाए। और तभी अचानक ठंडी लहर उनके पास से गुज़री, जैसे कई आत्माएँ उनके आसपास से गुजर गई हों। रवि ने काँपते हुए कैमरे की स्क्रीन देखी—वहाँ अब बावजी पुजारी की आकृति दिखाई दे रही थी, जो मंत्र पढ़ रहे थे। पर हर कुछ क्षण में एक गहरी, काली छाया उभरकर सामने आ जाती, और बारात रुक जाती। रेत का बवंडर उठता और सब कुछ धुंधला हो जाता। रूपा ने अपनी ओढ़नी कसकर पकड़ ली, उसकी आँखों में डर नहीं बल्कि संकल्प था। उसने मन ही मन कहा, “आज रात मैं इस काली छाया को नहीं जीतने दूँगी।” लेकिन रवि के लिए यह सब असंभव था—उसकी सारी वैज्ञानिक सोच और आधुनिकता उस क्षण में चकनाचूर हो गई थी। वह अब केवल एक साक्षी था, उस निषिद्ध रात का, जहाँ आत्माएँ लौट रही थीं और उनकी पीड़ा हवा में गूँज रही थी।
८
आधी रात की घड़ी ढल चुकी थी और रेगिस्तान का सन्नाटा अब किसी अनकहे रहस्य से भारी हो गया था। रेत की परतें अचानक किसी अदृश्य हवा से लहराने लगीं और दूर-दूर तक फैले अंधेरे में झिलमिलाती हुई रोशनी उभरने लगी। रूपा और रवि ने जब उस दिशा में देखा, तो उनके दिल की धड़कनें तेज़ हो गईं। जैसे ही रेत का बवंडर थमा, वहाँ एक दिव्य दृश्य आकार लेने लगा। वह बारात थी—शाही, भव्य और अद्भुत। सबसे आगे एक सफेद घोड़े पर बैठे थे ठाकुर अर्जुनसिंह, सेहरा बाँधे, तलवार कमर में और आँखों में वही अधूरा गर्व और इंतज़ार। उनके पीछे-पीछे ढेर सारे बाराती, झिलमिलाते परिधानों में, सिर पर पगड़ियाँ बाँधे, ढोलक और नगाड़ों की थाप पर थिरकते हुए। हर चेहरे पर अनकही खुशी और अजीब-सी उदासी का मिश्रण था। हवा में फिर से वही शहनाई की धुन गूँज उठी—इस बार और भी गहरी, और भी दिल दहला देने वाली। रूपा की आँखें नम हो गईं; उसके लिए यह कोई तमाशा नहीं था, बल्कि जीवंत इतिहास का पुनर्जन्म था।
रवि अब तक कैमरा थामे हुए था, लेकिन उसकी उंगलियाँ काँप रही थीं। स्क्रीन पर जो कुछ दिख रहा था, वह उसकी आँखों के सामने भी था—लेकिन कहीं और गहराई में। कैमरे ने वह सब कैद करना शुरू किया जो अब तक गाँववाले सिर्फ सुनते आए थे। बाराती ऐसे चल रहे थे मानो समय ठहर गया हो और वे उसी रात के अधूरे क्षण में जी रहे हों। उनके कदमों से रेत दब रही थी, घोड़ों की टाप से धरती काँप रही थी, और नगाड़ों की आवाज़ दूर-दूर तक गूँज रही थी। लेकिन सबसे अद्भुत था अर्जुनसिंह का व्यक्तित्व—उनकी आँखें उस दिशा में टिकी थीं जहाँ हवेली खड़ी थी। रूपा ने जैसे ही उस हवेली की ओर देखा, उसकी साँसें थम गईं। हवेली की टूटी खिड़की पर एक परछाईं झाँक रही थी—लाल चुनरी में सजी राजकुमारी रत्नकुँवर। उसका चेहरा धुंधला था, लेकिन आँखों में इंतज़ार की वो गहराई साफ़ झलक रही थी जो सदियों से अधूरी रह गई थी।
पूरा दृश्य किसी नाटक की तरह नहीं, बल्कि जैसे समय की परत खुलकर सामने आ गई हो। हर एक क्षण दोहराया जा रहा था—ढोलकिए वही ताल बजा रहे थे, बाराती वही गाने गा रहे थे, पुजारी मंत्रोच्चारण कर रहा था, और अर्जुनसिंह घोड़े पर सवार होकर दुल्हन की ओर बढ़ रहे थे। लेकिन हर बार की तरह, इस बार भी एक अनकहा भय हवा में तैर रहा था। बारात की आत्माएँ अपने-अपने स्थान पर थी, लेकिन उनकी आँखों में शांति नहीं, बल्कि बेचैनी थी। वे मानो हर साल इस क्षण को दोहराते-जीते, और हर बार उसी मोड़ पर रुक जाते जहाँ उनकी कहानी अधूरी रह गई थी। रूपा ने धीरे से फुसफुसाया, “देखो रवि, यह कोई भ्रम नहीं है। यह है वो सच्चाई जिसे सब नकारते आए हैं।” उसकी आवाज़ में श्रद्धा थी, और आँखों में दृढ़ संकल्प।
रवि उस क्षण पूरी तरह बदल चुका था। उसका तर्क, उसका विज्ञान, उसकी हँसी—सब इस दृश्य के सामने बिखर चुके थे। उसने देखा कि हवेली की खिड़की पर खड़ी रत्नकुँवर की परछाईं धीरे-धीरे हाथ उठाकर इशारा कर रही है, मानो वह अर्जुनसिंह को बुला रही हो। उसकी आँखों में इतनी पीड़ा थी कि देखना मुश्किल हो रहा था। और अर्जुनसिंह की आत्मा, अपने सफेद घोड़े पर सवार, उसी दिशा में देख रही थी, लेकिन हर बार कोई अदृश्य दीवार उसे रोक देती थी। उसी क्षण पुजारी की आत्मा ने मंत्र पढ़ना शुरू किया, जैसे विवाह की रस्म पूरी करने का प्रयास कर रहा हो। ढोलक और नगाड़े और तेज़ हो गए, बाराती झूमने लगे, और शहनाई की धुन दर्दनाक ऊँचाई पर पहुँच गई। रूपा ने अपनी हथेलियाँ जोड़ लीं, मानो इस अधूरे मिलन को पूरा करने के लिए प्रार्थना कर रही हो। पर भीतर कहीं उसे पता था कि अभी भी “वो काली छाया” सामने आए बिना यह कहानी पूरी नहीं हो सकती। यह रात बारात का पुनर्जन्म तो थी, पर सवाल यह था—क्या इस बार यह पुनर्जन्म अपने मुकाम तक पहुँचेगा, या फिर हमेशा की तरह अधूरा रह जाएगा?
९
रेगिस्तान की रात अपने चरम पर थी। शहनाई की धुन और ढोल-नगाड़ों की थाप हवा में गूँज रही थी, और बारात आगे बढ़ रही थी। अर्जुनसिंह का घोड़ा धीरे-धीरे हवेली की दिशा में सरक रहा था, और बारात की आत्माओं के चेहरों पर क्षणिक राहत झलक रही थी, मानो इस बार उनकी सदियों पुरानी प्रतीक्षा पूरी होने वाली हो। लेकिन तभी अचानक हवा का रुख बदला। आसमान में बादल गरजने लगे, धरती हिलने लगी और रेत का एक विशाल बवंडर उठ खड़ा हुआ। उसी बवंडर से वह भयावह अंधकार उभरा जिसे गाँववाले “काली छाया” कहते थे। उसका आकार धुएँ और अंधेरे से बना था, लेकिन उसकी आँखें अंगारों की तरह जल रही थीं। उसका आगमन होते ही ढोल-नगाड़ों की थाप टूट गई, शहनाई की धुन बिखर गई और बाराती आत्माएँ वहीं जड़ हो गईं। पुजारी की आत्मा काँपते हुए मंत्र बुदबुदाने लगी, लेकिन उसकी आवाज़ बवंडर की गड़गड़ाहट में डूब गई।
काली छाया की उपस्थिति से वातावरण इतना भारी हो गया कि साँस लेना मुश्किल था। बारात के घोड़े हिनहिनाने लगे, और आत्माएँ डर से पीछे हट गईं। अर्जुनसिंह की आत्मा ने तलवार उठाई, पर उसका प्रहार भी उस अंधेरे में समा गया। बार-बार की तरह बारात थम गई, मानो नियति ने उन्हें फिर उसी अधूरे क्षण में बाँध दिया हो। रवि भय से जड़ हो चुका था। उसके हाथ में कैमरा काँप रहा था, और वह यकीन नहीं कर पा रहा था कि इंसान की नज़र से अदृश्य यह शक्ति उसकी आँखों के सामने इस कदर जीवंत थी। तभी रूपा आगे बढ़ी। उसकी आँखों में डर की जगह संकल्प था। उसने अपनी ओढ़नी सिर पर खींच ली, और लाल चुनरी की तरह उसे ओढ़कर आगे बढ़ी। हवा में उसकी परछाईं राजकुमारी रत्नकुँवर जैसी दिखने लगी। उसकी आवाज़ गूँज उठी—“आज यह विवाह अधूरा नहीं रहेगा। आज यह पूरा होगा।” उसकी आवाज़ में ऐसी शक्ति थी कि बारात की आत्माओं ने फिर से हरकत करनी शुरू कर दी।
पुजारी की आत्मा ने तुरंत मंत्रोच्चारण तेज़ कर दिया। उसकी आवाज़ अब पहले से गहरी और सशक्त थी। ढोलक और नगाड़ों की थाप अपने आप गूँजने लगी, जैसे समय पीछे लौट रहा हो। अर्जुनसिंह की आत्मा ने घोड़े की लगाम खींची और हवेली की दिशा में कदम बढ़ाया। बाराती फिर से नाचने लगे, उनकी आत्माएँ जैसे जीवन की झलक पा रही हों। पर काली छाया ने गरजकर सबकुछ रोकने की कोशिश की। वह बवंडर बनकर रूपा की ओर झपटी, लेकिन रूपा ज़रा भी नहीं डरी। उसने अपनी चुनरी हवेली की ओर फैला दी, मानो रत्नकुँवर की आत्मा को अपने साथ खड़ा कर लिया हो। उसी क्षण हवेली की खिड़की पर झाँकती परछाईं और स्पष्ट हो गई। राजकुमारी रत्नकुँवर की आत्मा वहाँ खड़ी थी, और उसकी आँखों में कृतज्ञता और आँसू थे। उसने अपनी हथेली बढ़ाकर रूपा की हथेली से मिलाने की कोशिश की।
वह क्षण असाधारण था। रूपा, अर्जुनसिंह और रत्नकुँवर—तीनों के संकल्प मिल गए थे। पुजारी की आत्मा ने मंत्रोच्चारण पूरा किया और विवाह की आह्वान गूँज उठी। ढोल-नगाड़े फिर से पूरे जोश में बजने लगे। बारात की आत्माओं के चेहरे चमक उठे। पर काली छाया अभी भी हार मानने को तैयार नहीं थी। उसने अंतिम बार बवंडर बनाकर हवेली और बारात के बीच की राह को रोकना चाहा। तभी रूपा ने पुकारा—“तू चाहे कितनी बार हमें रोक ले, आज यह बंधन टूटेगा नहीं।” उसकी आवाज़ गूँज बनकर पूरे रेगिस्तान में फैल गई। रत्नकुँवर की आत्मा ने हवेली से बाहर कदम बढ़ाया, अर्जुनसिंह का घोड़ा आगे आया, और रूपा ने उस क्षण लाल चुनरी आगे बढ़ाकर उनके मिलन का प्रतीक बना दिया। काली छाया चीखी, मानो सदियों का श्राप पिघल रहा हो। रेत का बवंडर टूटकर चारों दिशाओं में बिखर गया, और पहली बार रेगिस्तान में एक शांत, पवित्र उजाला फैल गया।
१०
रेगिस्तान की रात अपने अंतिम क्षणों की ओर बढ़ रही थी, पर वातावरण में एक अनकही ऊर्जा व्याप्त थी। बारात की आत्माएँ अब ठहरी हुई नहीं थीं; उनके चेहरों पर भय की जगह आशा थी। ठाकुर अर्जुनसिंह ने घोड़े की लगाम छोड़ी और धीरे-धीरे नीचे उतरे। उनके कदमों की आहट रेत पर गूँज उठी—मानो सदियों की प्रतीक्षा अब पूरी होने जा रही हो। रूपा के सामने खड़े होकर उन्होंने गंभीरता और गरिमा से अपनी आत्मिक आँखें उठाईं। उनके हाथों में फूलों की वरमाला उभर आई, जो न तो किसी माली ने बनाई थी और न ही धरती पर किसी ने देखी थी। वह मानो आकाशीय आशीर्वाद से बनी हुई थी। पूरे वातावरण में मंत्रोच्चारण की गूँज फैल गई। अर्जुनसिंह ने उस वरमाला को धीरे से रूपा के गले में डाल दिया। उसी क्षण, हवेली की खिड़की पर खड़ी रत्नकुँवर की परछाईं मुस्कुरा उठी। उसकी मुस्कान में पीड़ा नहीं थी, बल्कि संतोष और शांति की आभा थी। उसने हाथ उठाकर रूपा को आशीर्वाद दिया, मानो कह रही हो—“तुम्हारे साहस ने हमें मुक्ति दिलाई।”
जैसे ही यह आशीर्वाद रूपा तक पहुँचा, पूरा वातावरण बदल गया। शहनाई की धुन, जो अब तक उदासी और पीड़ा से भरी रहती थी, अचानक पूर्णता और आनंद का गीत गाने लगी। नगाड़ों की गूँज में अब उल्लास था, ढोलक की थाप में जीवन की लय। बाराती आत्माएँ झूमने लगीं, उनके चेहरे चमक उठे। उनका नृत्य अब दर्द का नहीं, बल्कि विजय का था—विजय उस श्राप पर जिसने उन्हें सदियों तक कैद कर रखा था। पुजारी की आत्मा ने अंतिम मंत्रोच्चारण पूरा किया और उसकी आँखों में गहराई से संतोष झलक उठा। अर्जुनसिंह और रत्नकुँवर की आत्माएँ अब रेत और अंधेरे से बँधी नहीं थीं। काली छाया, जिसने इतने वर्षों तक सबकुछ रोक रखा था, अंतिम बार गरजी और अचानक रेत में धूल की तरह बिखर गई। उसकी चीख़ इतनी भयानक थी कि दूर-दूर तक धरती काँप गई, लेकिन उसके मिटते ही वातावरण में ऐसा सन्नाटा छा गया जो भय का नहीं, बल्कि शांति का था।
धीरे-धीरे, बारात की आत्माएँ एक-एक करके प्रकाश में विलीन होने लगीं। उनकी आकृतियाँ धुँधली हुईं, फिर उजाले में बदल गईं, और अंततः गगन की ओर उठकर अदृश्य हो गईं। अर्जुनसिंह और रत्नकुँवर की आत्माएँ भी मिलकर एक उजली आभा में बदल गईं और रूपा की ओर कृतज्ञता से देखकर आसमान में समा गईं। पूरा रेगिस्तान उस क्षण अद्भुत प्रकाश से नहा उठा। शहनाई के सुर अब भी गूँज रहे थे, पर वे किसी दुख का नहीं, बल्कि मुक्ति का गीत सुना रहे थे। रूपा की आँखों से आँसू बह रहे थे, लेकिन वह रो नहीं रही थी—उसके आँसू गर्व और संतोष के थे। उसने महसूस किया कि उसने इतिहास की सबसे बड़ी अधूरी कहानी को पूरा कर दिया।
रवि अब तक कैमरे से सब कुछ रिकॉर्ड करता रहा था। उसकी साँसें तेज़ थीं, लेकिन उसकी आँखों में विस्मय और श्रद्धा का भाव था। उसे यकीन था कि यह फुटेज दुनिया को हिला देगा। लेकिन जैसे ही सुबह की पहली किरणें रेगिस्तान पर पड़ीं, उसका कैमरा बंद हो गया। उसने जल्दी से रील चेक की, लेकिन उसमें कुछ भी नहीं था। सब खाली था—जैसे कुछ हुआ ही न हो। उसका चेहरा उतर गया, पर रूपा मुस्कुराई और धीरे से बोली, “ये उनकी इच्छा थी, रवि। वे नहीं चाहते थे कि उनकी मुक्ति तमाशा बने। यह रहस्य सिर्फ़ उन तक सीमित रहेगा जिन्होंने इसे अपनी आँखों से देखा।” सुबह होते ही गाँववाले धीरे-धीरे अपने दरवाज़े खोलकर बाहर आए। उन्होंने रेगिस्तान की शांति देखी और समझ गए कि सदियों का श्राप समाप्त हो गया है। लक्ष्मण काका ने आसमान की ओर हाथ जोड़ लिए और कहा, “आज ‘अधूरी बारात’ को आखिरकार शांति मिल गई।” गाँव में पहली बार उस दिन भय की नहीं, बल्कि सच्ची राहत की साँस ली गई। और रेगिस्तान की हवाओं में अब किसी अधूरे गीत की गूँज नहीं थी—सिर्फ़ मुक्ति और शांति का संदेश।
समाप्त