Hindi - क्राइम कहानियाँ

अधूरी गवाही

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नीरजा राजन


अध्याय 1: मौत की खबर
लखनऊ की जनवरी की उस ठंडी सुबह में सूरज की किरनें भी किसी अनकहे संकोच के साथ ज़मीन पर उतर रही थीं, जैसे उन्हें भी शहर की हवा में पसरे भारीपन का अंदाज़ा हो। हज़रतगंज के उस पॉश अपार्टमेंट “रॉयल हाइट्स” की चौथी मंज़िल पर हलचल मच चुकी थी। नीली साड़ी में लिपटी हुई नैना सक्सेना की निर्जीव देह बालकनी के रेलिंग से नीचे लॉन में पड़ी थी—एक खामोश चीख की तरह। चारों तरफ पुलिस की बैरिकेडिंग, मीडिया की भीड़, और मोबाइल कैमरों की चमक थी; पर हर किसी के भीतर एक ही सवाल घूम रहा था—क्या यह आत्महत्या थी या हत्या? नैना, हाई कोर्ट के सीनियर जज श्रीकांत सक्सेना की बेटी, जिसे कुछ ही महीनों में दिल्ली यूनिवर्सिटी से लॉ की डिग्री मिलनी थी, क्यों इस तरह अपनी जान देगी? ACP प्राची राणा मौके पर पहुंची तो सबसे पहले उसने नैना के फोन को जब्त किया। पास की मेज पर एक किताब खुली पड़ी थी—”Justice Delayed is Justice Denied”, उसके भीतर से एक नोट निकला: “सच बहुत भारी होता है, और मैंने अब थामने की ताक़त खो दी है…” कमरे की दीवारों पर नैना के कॉलेज के दोस्तों की तस्वीरें थीं, पर एक कोना ऐसा भी था जहां दीवारों पर कोई तस्वीर नहीं थी—सिर्फ एक फ्रेम था, जिसमें शीशा नहीं था। फ्रेम में साया भर था, जैसे किसी ने किसी को हमेशा के लिए मिटा देने की कोशिश की हो।
उसी शाम शहर के सभी न्यूज़ चैनलों पर यही ब्रेकिंग न्यूज थी: “न्यायाधीश की बेटी नैना सक्सेना ने की आत्महत्या, पुलिस कर रही जांच।” कुछ चैनल इससे आगे बढ़कर कह रहे थे—”मूल्य और मर्यादा की बोझिल परवरिश, बेटी को ले डूबी?” जैसे आत्महत्या भी कोई सजावटी खबर हो गई हो। जज सक्सेना ने मीडिया से कोई बातचीत नहीं की। पुलिस की पूछताछ में उन्होंने सिर्फ इतना कहा, “नैना थोड़ी इमोशनल थी… पर मुझे यकीन नहीं होता कि वह ऐसा कदम उठा सकती है।” नैना की मां, मालिनी सक्सेना, पूरी तरह टूट चुकी थीं, और अब एक अजीब सी खामोशी ओढ़े खिड़की से बाहर ताकती रहीं, मानो इंतजार कर रही हों कि नैना अभी कहां से उठकर कमरे में चली आएगी। नैना की अंतिम यात्रा की तस्वीरें भी वायरल हो रही थीं—लोगों ने व्हाट्सएप स्टेटस में लगा दी थीं उसकी चिता की तस्वीरें। इंसान मरता है, पर अब समाज उसके आखिरी क्षणों को भी कंटेंट बना देता है। पोस्टमॉर्टेम रिपोर्ट ने कहा: “Death by fall from height. No external injuries apart from impact trauma. Cause of death: Suicide suspected.” और इस ‘सस्पेक्टेड’ शब्द ने मामले को बना दिया संदिग्ध।
दूसरे दिन लखनऊ के ‘द ट्रुथ टाइम्स’ अख़बार के क्राइम सेक्शन में एक नई बाईलाइन चमकी: “कहानी में अधूरा सच?”—लेखक: राघव मिश्रा। राघव कोई सामान्य क्राइम रिपोर्टर नहीं था; वह पहले दिल्ली में NDTV में था, लेकिन सच्चाई की कीमत चुकाते-चुकाते उसे अब लखनऊ जैसे शहर में लोकल अख़बार में आना पड़ा था। नैना की मौत की खबर पढ़ते ही उसकी अनुभवी आंखों ने पकड़ लिया था कि ये आत्महत्या नहीं हो सकती। उसका मन लगातार एक ही दिशा में इशारा कर रहा था—कहीं कुछ दबाया जा रहा है। राघव पहले उस कॉलेज गया जहां नैना पढ़ती थी। प्रोफेसर जोशी ने कहा, “नैना जैसी लड़कियां आत्महत्या नहीं करतीं, वो लड़ती हैं… कोई तो वजह रही होगी।” और फिर अचानक उसे एक लड़की दिखी—कॉलेज के गेट पर खड़ी, आंखों में अजीब सा डर, और होंठों पर एक बंधी हुई चुप्पी—नाम था आराध्या मेहता। वो नैना की सबसे करीबी दोस्त थी। राघव ने पास जाकर सवाल पूछे तो वह बोली—“मैं कुछ नहीं जानती।” पर उस जवाब में छुपा ‘सब जानती हूं पर कह नहीं सकती’ साफ़ झलकता था। राघव ने उसी क्षण तय किया—ये केस उसे खोलना ही होगा, चाहे कितनी भी परतें हों, चाहे कितने भी डर हों।
तीसरे दिन केस ने एक नया मोड़ लिया। अदालत में नैना के केस की सुनवाई के दौरान आराध्या को गवाह के रूप में बुलाया गया। कोर्टरूम खचाखच भरा था। जब जज ने उससे पूछा कि आखिरी बार उसने नैना से क्या बात की थी, तो आराध्या की आंखें भर आईं। उसने कांपती आवाज़ में कहा, “वो डरी हुई थी… उसने मुझसे कहा था कि अगर मैं कुछ कहूं तो कुछ लोग उसे नुकसान पहुंचा सकते हैं…” तभी सरकारी वकील ने सवाल पूछा—“कौन लोग?” आराध्या कुछ कहने वाली थी… होंठ खुले, पर फिर उसने खुद को रोक लिया। और बोली—“मुझे माफ कीजिए, मैं कुछ नहीं कह सकती।” कोर्ट में सन्नाटा छा गया। ये थी वही ‘अधूरी गवाही’ जिसने पूरे केस को एक धुंध में ढक दिया। जज ने आराध्या को चेतावनी दी और अगली तारीख पर फिर से बुलाया गया। बाहर आते हुए मीडिया ने उसके चारों ओर माइक घुमा दिए, पर उसने कुछ नहीं कहा। और उसी क्षण राघव को यकीन हो गया—इस गवाही के पीछे कोई बहुत गहरा राज़ है, कोई ऐसा सच जिसे दबाने की कोशिश हो रही है… और यही बनेगा उसकी रिपोर्टिंग का अगला मिशन।
अध्याय 2: अधूरी गवाही
लखनऊ जिला अदालत की वह दोपहर औरों से अलग थी। वकीलों की फाइलों की खरखराहट और कोर्ट क्लर्क की घोषणाओं के बीच, एक असामान्य बेचैनी फैली हुई थी। केस नंबर 174/23, राज्य बनाम अज्ञात, अब केवल एक केस नहीं था—यह बन चुका था एक प्रतीक, उस अंधेरे का जो न्याय की आंखों पर पड़ा हुआ था। कोर्ट नंबर छह में जैसे ही आराध्या मेहता को गवाह के कटघरे में बुलाया गया, कमरे की हवा बदल गई। हल्की कांपती चाल, पसीने की चमक उसके माथे पर, और हाथों में थमी एक पुरानी चूड़ी जिसे वह बार-बार छू रही थी—इन सबसे ज़्यादा बोल रहा था उसका मौन। सरकारी वकील ने पूछना शुरू किया, “आप नैना की सबसे करीबी दोस्त थीं, क्या आपको हाल में कुछ ऐसा पता चला जिससे वो परेशान हो?” आराध्या ने निगाह झुकाकर धीरे से सिर हिलाया, “हाँ, वो… डरी हुई थी।” “किससे?” सवाल दागा गया। एक पल के लिए उसने चुप्पी साधी, आंखों में आंसू भरे और फिर बोली, “उसने कहा था कि अगर मैंने कुछ बताया… तो मेरे परिवार को भी खतरा होगा।” पूरा कोर्टरूम सन्न रह गया। न्यायाधीश ने सख्ती से पूछा, “आपको अदालत के सामने सच्चाई बतानी होगी, मिस मेहता।” लेकिन आराध्या अब थरथरा रही थी—“माफ कीजिए, मैं कुछ नहीं कह सकती।” उस एक पंक्ति ने सारे कयासों को जिंदा कर दिया, सारे सबूतों को धुंधला। वो गवाही अधूरी रह गई—एक ऐसा सच जो जुबां तक आकर लौट गया।
कोर्ट से बाहर आते ही मीडिया ने उसे घेर लिया—फ्लैशलाइट्स, माइक, चिल्लाते रिपोर्टर। लेकिन आराध्या का चेहरा अब भी खामोश था। उसे एक पुलिसवाले ने सुरक्षा में घर पहुंचाया, और शाम तक उसके सोशल मीडिया अकाउंट्स ट्रोलिंग से भर चुके थे—कुछ कह रहे थे ‘ड्रामा क्वीन’, कुछ उसे ‘कायर’ बता रहे थे, और कुछ सीधा कह रहे थे ‘सच्चाई छिपाने वाली झूठी लड़की’। लेकिन कोई नहीं जानता था कि उस अधूरी गवाही के पीछे कितना बोझ था। उसी रात राघव मिश्रा ने उसकी बिल्डिंग के बाहर इंतज़ार किया। वह आराध्या से मिलना चाहता था—बिना कैमरे, बिना सवालों की बौछार के, बस इंसान बनकर। रात के नौ बजे, जब बिजली चली गई और पूरा मोहल्ला अंधेरे में डूबा, आराध्या खुद नीचे आई। उसका चेहरा थका हुआ था, लेकिन आंखों में एक आशा थी—“आप राघव मिश्रा हैं?” राघव ने सिर हिलाया। “मैं सब कुछ नहीं बता सकती… लेकिन शायद आप समझ सकें कि नैना सिर्फ डरी नहीं थी, उसे मारने की धमकी दी गई थी।” राघव ने कुछ नहीं पूछा, बस चुपचाप बैठा रहा। थोड़ी देर बाद उसने एक लिफाफा निकालकर दिया—“ये उसकी डायरी का पन्ना है… बस एक पन्ना… पर शायद शुरुआत के लिए काफी हो।” राघव ने वो पन्ना थामा, और देखा—तारीख थी 14 नवंबर, ठीक दो दिन पहले की। उसपर लिखा था: “वो वकील फिर आया था… उसने कहा अगर मैंने मुंह खोला, तो सब कुछ खत्म कर देगा… यहां तक कि आराध्या भी…”
राघव पूरी रात सो नहीं सका। उसने उस डायरी के पन्ने को बीस बार पढ़ा, हर शब्द, हर लाइन जैसे अपने आप में एक गहरी खाई खोल रही थी। “वो वकील”—कौन हो सकता है? केस से जुड़े सभी वकीलों की सूची निकाली—सरकारी वकील, नैना के पिता का व्यक्तिगत वकील, और सबसे दिलचस्प—एक नाम: देवाशीष रॉय, जो हाल ही में नैना के कॉलेज में एक ‘गेस्ट लेक्चर’ देने आए थे। राघव ने एक पुराना आर्टिकल खोजा—2019 में एक यौन शोषण केस में आरोपी, लेकिन सबूत के अभाव में बरी हुआ था। और अब, नैना की डायरी में उसी ‘वकील’ का जिक्र? राघव ने तय कर लिया कि अगली सुबह सबसे पहले वह उस वकील का पीछा करेगा। लेकिन उससे पहले वह आराध्या को फोन कर सच्चाई जानना चाहता था—फोन लगाया, पर कोई जवाब नहीं आया। तीसरी बार कॉल करने पर एक पुरुष की आवाज़ आई, “तुम्हें चेतावनी दी गई थी… पीछे हट जा, वरना अगली खबर तेरी होगी।” कॉल कट गया। राघव समझ गया कि अब वह एक जाल में उतर चुका है, पर पीछे हटना अब मुमकिन नहीं था। नैना की आत्मा, उसकी अधूरी आवाज़, अब उसे पुकार रही थी—एक ऐसे सच के लिए जिसकी कीमत सिर्फ जान नहीं, न्याय भी हो सकती थी।
उसी रात करीब ढाई बजे, राघव फिर से नैना के फ्लैट के बाहर पहुंचा। इस बार वह पत्रकार नहीं, एक खोजी बनकर गया। गार्ड पहले से उसे पहचानता था, बिना सवाल के अंदर जाने दिया। फ्लैट की बालकनी पर खड़े होकर उसने चारों ओर देखा—उस ऊंचाई से गिरकर मरना संभव था, पर रेलिंग पर कोई फूटप्रिंट नहीं मिले थे? पुलिस रिपोर्ट कहती है ‘सुसाइड’, पर राघव का सवाल था—“कूदने से पहले वो किताब और नोट कैसे इतने सलीके से टेबल पर रह गए?” और फिर उसे कुछ दिखा—बालकनी के कोने में पड़ा एक टूटा हुआ लॉकेट। उठाकर देखा—उसके अंदर नैना और आराध्या की तस्वीर थी, साथ में एक कोड जैसा अंकित था: “RC-11/22”. यह क्या हो सकता था? कोई केस फाइल? कोई रिकॉर्डिंग? सुबह की पहली किरण के साथ राघव की आंखें और ज्यादा तीखी हो गई थीं। अब केस का स्वरूप बदल चुका था। ये अब सिर्फ एक गवाही का मामला नहीं था, ये एक सुनियोजित चुप्पी की साजिश थी। नैना, आराध्या, और अब खुद राघव उस साजिश के केंद्र में आ चुके थे—जहां हर कदम, हर सुराग, जानलेवा हो सकता था।
अध्याय 3: राघव की पड़ताल
सुबह की धूप इस बार थोड़ी अलग सी थी—राघव को ऐसा महसूस हो रहा था जैसे वह किसी अनदेखी रोशनी की ओर बढ़ रहा है, लेकिन हर किरण में कोई न कोई छाया चिपकी हुई है। हाथ में नैना की टूटी हुई लॉकेट, जिसमें लिखा था “RC-11/22”, और जेब में उसकी डायरी का पन्ना—इन दो सुरागों के सहारे वह उस तहखाने तक उतरने को तैयार था जहाँ शायद सच्चाई कैद थी। उसने सबसे पहले लखनऊ के वकीलों की एसोसिएशन में जाकर रजिस्टर देखा—“RC-11/22” एक केस कोड नहीं था, लेकिन पुराने फाइल कोडिंग सिस्टम में यह एक वीडियो क्लिप का इंडेक्स नंबर हो सकता था। और यही इशारा करता था पुलिस या अदालत के किसी डिजिटल लॉकर की ओर। राघव ने पुलिस महकमे में अपने पुराने जानकार इंस्पेक्टर यादव से मुलाकात की—“भाई, अगर किसी वीडियो क्लिप को ‘RC’ से टैग किया जाए, तो वो किस यूनिट में जाता है?” यादव ने संदेह से देखा—“RC… रेगुलर क्लोज्ड… यानी ऐसे केस जो बिना जांच ही फाइल कर दिए जाते हैं, जिसमें कोई दिलचस्पी नहीं लेता।” राघव की आंखों में चमक आ गई। “तो क्या मुझे उसमें से एक क्लिप दिखा सकते हो?” यादव ने देर तक सोचा, फिर बोला—“तू जो ढूंढ रहा है, उसके लिए सिर्फ एक आदमी के पास पहुंचना पड़ेगा—ACP प्राची राणा। और बता दूं, वो आसानी से किसी पत्रकार को कुछ नहीं देती।”
राघव को ACP प्राची राणा की सख्ती के किस्से पहले से मालूम थे। लेकिन वह जानता था कि सच्चाई तक पहुंचने के लिए अगर किसी से टकराना पड़े, तो वह टकराएगा। दोपहर को जब वह पुलिस मुख्यालय पहुंचा, तो प्राची अपने केबिन में एक केस फाइल पढ़ रही थी। बिना नजर उठाए उसने पूछा, “आप कौन?” राघव ने अपना कार्ड आगे बढ़ाया, “राघव मिश्रा, ‘द ट्रुथ टाइम्स’ से… नैना सक्सेना की मौत पर एक रिपोर्ट बना रहा हूं।” प्राची ने उसकी ओर देखा, फिर एक लंबा सन्नाटा। “आप वो पत्रकार हैं जो पुराने रेप केस के आरोपी वकील पर सवाल उठा रहे हैं?” राघव ने जवाब दिया—“सवाल पूछने से सच बदलेगा नहीं, सामने आ जाएगा।” प्राची की आंखों में अब हल्का कौतुक था। “RC-11/22 की बात कर रहे हो?” राघव ने चौंककर पूछा—“आप जानती हैं?” उसने मेज़ की दराज से एक USB निकाला—“यह रही वो क्लिप… पर ध्यान रखना, इसे देखकर तुम भी बदल जाओगे।” राघव ने वीडियो लैपटॉप पर प्ले किया—कमरे की हल्की रोशनी में नैना का चेहरा दिखा, वह किसी ऑफिस रूम में खड़ी थी, काँपती आवाज़ में कुछ कह रही थी—“उसने मुझसे कहा कि अगर मैंने अपना बयान बदला, तो मेरी दोस्त को भी…” और तभी स्क्रीन पर देवाशीष रॉय आता है, उसके चेहरे पर वो दंभ, जो न्याय को पैसे से खरीद चुका होता है। वीडियो वहीं कट गया। राघव की मुट्ठियाँ भिंच गईं—अब वह सिर्फ पत्रकार नहीं था, वह नैना के लिए लड़ने वाला सैनिक बन चुका था।
शाम को राघव सीधे पहुंचा देवाशीष रॉय की कोठी के बाहर। बंगले के बाहर BMW खड़ी थी, और लॉन में कुछ लोगों का जमावड़ा। वह जानता था कि बिना आमंत्रण के अंदर जाना संभव नहीं, लेकिन investigative instinct ने रास्ता ढूंढ ही लिया। पीछे के गेट से चुपचाप घुसकर वह किचन के पास के स्टोररूम में छिप गया। देर रात को जब सब गेस्ट जा चुके थे, देवाशीष अपने ऑफिस रूम में दाखिल हुआ। शराब का गिलास लिए वह पुराने केस फोल्डर देख रहा था, तभी राघव धीरे से बाहर आया और बोला—“बड़ी दिलचस्प फाइलें हैं आपके पास।” देवाशीष चौंका, लेकिन तुरंत संभल गया—“अरे, पत्रकार महोदय, घुसपैठ करने लगे हो?” राघव ने डायरी का पन्ना और लॉकेट सामने रख दिया—“आपको डर है कि ये आपके खेल को उजागर कर देगा?” देवाशीष अब गुस्से में था—“नैना ने समझौता किया था… लेकिन फिर नाटक करने लगी… खुद खत्म हो गई।” राघव बोला—“नैना ने खुद को खत्म नहीं किया, उसे मारा गया, और आप जैसे लोग उसे आत्महत्या साबित करना चाहते हैं।” देवाशीष हंसा, “तुम क्या कर लोगे? पुलिस? कोर्ट? ये सब मेरे जेब में हैं।” राघव उसकी तरफ झुका, “नैना की मौत अब मेरी जिम्मेदारी है। और यकीन मानो, मैं वो पत्रकार हूं जो सच्चाई को छापने से नहीं डरता।” और यह कहकर वह क्लिप की कॉपी लेकर बाहर निकल गया—अब यह केस उसका मिशन बन चुका था।
अगली सुबह अखबारों के पहले पन्ने पर था: “सुप्रसिद्ध वकील पर हत्या का शक? नैना केस में नया मोड़”—लेखक: राघव मिश्रा। पूरे शहर में हलचल मच गई। सोशल मीडिया पर #JusticeForNaina ट्रेंड करने लगा। ACP प्राची राणा को मजबूरी में देवाशीष को पूछताछ के लिए बुलाना पड़ा। लेकिन अभी भी आराध्या की गवाही अधूरी थी, और बिना गवाह के कोई केस मजबूत नहीं होता। राघव ने आराध्या को फोन किया—“जो कुछ भी हुआ, अब वक्त आ गया है कि तुम सच बोलो।” फोन के उस पार चुप्पी थी, फिर वह बोली—“मैं आऊंगी… अगली सुनवाई में… नैना के लिए।” और राघव ने फोन काटकर बाहर देखा—सूरज फिर से चमकने लगा था, लेकिन इस बार उसकी किरणों में आशा थी, और आशा की लौ सबसे बड़ा हथियार होती है।
अध्याय 4: डायरी के पन्ने
उस सुबह राघव को पुलिस मुख्यालय से बुलावा आया—ACP प्राची राणा ने फोन पर सिर्फ इतना कहा, “तुम्हारे लिए कुछ आया है।” जब वह उनके केबिन में पहुँचा, मेज पर एक पुराने, नीले मखमली कवर वाली डायरी रखी थी। प्राची ने बताया, “आराध्या ने इसे नैना के हॉस्टल रूम के लॉकर में छुपाकर रखा था। अब वक्त आ गया है कि ये पढ़ा जाए।” राघव ने कांपते हाथों से डायरी उठाई—उसकी जिल्द थोड़ी घिसी हुई थी, किनारे मुड़े हुए, और कुछ पन्नों पर हल्का खून का दाग। उसने पहला पन्ना खोला—“मैं नैना हूं। लोग कहते हैं कि मैं मजबूत हूं, लेकिन सच ये है कि मैं हर रोज़ बिखरती हूं, और फिर खुद को जोड़ती हूं… सिर्फ इसलिए कि आराध्या को यकीन है मुझ पर।” पन्ने दर पन्ने नैना की दुनिया खुलने लगी—कॉलेज की चमकती जिंदगी, प्रतियोगिताएं, भाषण, पुरस्कार… लेकिन उन सबके पीछे एक अंधेरा साया। फिर आई वो एंट्री जो कहानी की धुरी थी—“21 जून। आज कॉलेज में एक मेहमान वक्ता आए—एडवोकेट देवाशीष रॉय। बोलने का तरीका प्रभावशाली था, पर उसकी नजरें असहज कर देने वाली थीं।” राघव के रोंगटे खड़े हो गए। डायरी की लिपि में डर की लकीरें थीं, और हर शब्द में वह घुटन जो नैना को अंदर से तोड़ रही थी।
जैसे-जैसे राघव पढ़ता गया, हर पृष्ठ साजिश का एक नया परत खोलता गया। “5 जुलाई—देवाशीष ने मुझे अपने चैम्बर में बुलाया, कहा कि मेरा एक केस स्टडी पास करने में वो मदद कर सकते हैं। लेकिन जब मैं गई, वहां दरवाज़ा बंद था… और उसकी आंखें कुछ और कह रही थीं।” राघव की मुट्ठियाँ भिंचने लगीं। “7 जुलाई—मैंने आराध्या को सब बताया। उसने कहा पुलिस में जाना चाहिए, पर हम दोनों जानती थीं कि उसके पास ताकत है, और हमारे पास सिर्फ डर।” डायरी में एक जगह नैना ने एक पंक्ति में लिखा—“मैंने रिकॉर्डिंग चालू की थी। RC-11/22 उसी का कोड है।” यानी ACP प्राची के पास मौजूद वही क्लिप उसी दिन की थी। लेकिन एक और पन्ने ने राघव को चौंका दिया—“15 अगस्त—उसने कहा कि अगर मैंने आवाज़ उठाई, तो वो मेरा अतीत सबके सामने ला देगा। मेरा दिल्ली का हादसा।” यह क्या था? क्या नैना पहले से भी किसी और जाल का शिकार हो चुकी थी? अब मामला सिर्फ वर्तमान नहीं, अतीत की एक परत में भी उलझा था। “16 अगस्त—एक लड़का जो दिल्ली में मुझे जानता था, उसका नाम है इशान। वो आजकल लखनऊ में है। अगर कुछ हो मुझे, तो राघव को उस तक पहुँचाना ज़रूरी है।” राघव ने डायरी बंद कर दी। अब खेल बड़ा हो चुका था। और अगला नाम सामने था—इशान।
राघव ने सबसे पहले इशान को खोजना शुरू किया। सोशल मीडिया पर एक पुराना पोस्ट मिला—“इशान भटनागर, साइबर सिक्योरिटी एनालिस्ट, IIT Delhi Alum”—और लोकेशन: अलीगंज, लखनऊ। राघव ने उसी शाम उस पते पर दस्तक दी। दरवाज़ा खुला, सामने एक दुबला-पतला लड़का जो पहले घबरा गया, लेकिन जैसे ही राघव ने डायरी का जिक्र किया, उसने खुद ही दरवाज़ा पूरा खोल दिया। “मैं नैना को कॉलेज से जानता था… हम दोस्त थे… शायद उससे ज़्यादा भी।” राघव ने पूछा, “दिल्ली में क्या हुआ था?” इशान की आंखें भर आईं, “वो मेरे दोस्त की पार्टी में आई थी… वहां कुछ हुआ… कुछ जो उसने कभी पूरी तरह बताया नहीं… लेकिन उसकी आंखों में डर आ गया था। और फिर अचानक वो शहर छोड़ गई।” राघव समझ गया, नैना के भीतर की लड़ाई बहुत पहले से चल रही थी। इशान ने एक और बात जोड़ी—“देवाशीष उस वक्त दिल्ली में भी एक केस के सिलसिले में आया था। मुझे शक है, शायद वही उस रात पार्टी में भी था।” अब कड़ियाँ जुड़ रही थीं। दिल्ली, लखनऊ, देवाशीष, और नैना—ये सब किसी इत्तेफाक का हिस्सा नहीं थे, ये एक योजनाबद्ध शिकार थे। और नैना का अतीत उसका सबसे बड़ा दुश्मन बनाकर उसके ही खिलाफ खड़ा किया गया था।
राघव ने उसी रात प्राची राणा से दोबारा मुलाकात की—“मैम, ये केस सिर्फ नैना की आत्महत्या या एक बलात्कार की कोशिश नहीं है, ये एक सीरियल शोषणकर्ता की परतें हैं, जो अपने रसूख से हर बार बचता आया है।” ACP प्राची ने राघव की आंखों में देख कर कहा, “अगर तुम्हारे पास इशान का स्टेटमेंट रिकॉर्डिंग है, तो हम UAPA के तहत केस फिर से खोल सकते हैं।” राघव ने इशान की वीडियो रिकॉर्डिंग दी—उसने कैमरे के सामने पूरा बयान दिया था, नैना के डर, उस रात की पार्टी और देवाशीष के संदिग्ध हावभाव के बारे में। अगली सुबह कोर्ट में नया मोड़ आया—प्राची ने केस को रे-ओपन करने की अपील की, और इस बार पहली बार आराध्या भी कोर्ट में आई। उसने गवाही दी—पूरी, बिना कांपे। उसकी आवाज में डर नहीं था, सिर्फ वो गुस्सा था जो सालों से दबा रहा। “नैना को मारा गया, और हम सब चुप रहे। लेकिन अब नहीं।” कोर्ट में सन्नाटा था, लेकिन उस सन्नाटे में पहली बार गूंज था—एक गवाही की, जो अब अधूरी नहीं थी।
अध्याय 5: गवाही का अंत
कोर्ट का कमरा उस दिन असाधारण रूप से भरा हुआ था—पत्रकार, कानून के छात्र, सोशल मीडिया एक्टिविस्ट्स, और आम लोग, जो नैना के लिए न्याय की उम्मीद में बैठे थे। राघव की रिपोर्ट्स ने पूरे देश को हिला कर रख दिया था, और देवाशीष रॉय अब पहली बार कठघरे में खड़ा था—सिर झुका हुआ, लेकिन चेहरे पर अभी भी एक पत्थर जैसी शांति। जज ने जैसे ही कार्यवाही शुरू की, ACP प्राची राणा ने एक-एक कर सबूत पेश करने शुरू किए—RC-11/22 की क्लिप, नैना की डायरी, इशान भटनागर का वीडियो स्टेटमेंट, और सबसे अहम आराध्या की गवाही, जो अब अधूरी नहीं रही थी। आराध्या कोर्ट में खड़ी होकर बोली—“हमें कहा गया था कि चुप रहो, सिस्टम पर भरोसा करो… लेकिन जब सिस्टम ही हमारे खिलाफ हो जाए, तो हमें खुद को आवाज़ देनी होती है। नैना की आत्महत्या नहीं हुई थी, उसे उस हद तक धकेला गया जहाँ से वापसी संभव नहीं थी।” कोर्ट में सन्नाटा था, लेकिन हवा में एक गर्मी थी—जैसे कुछ बहुत पुराना और बोझिल टूटने वाला हो।
लेकिन जैसे ही बचाव पक्ष ने अपनी दलील शुरू की, हवा का रुख बदल गया। देवाशीष का वकील, एक चालाक और तेजतर्रार व्यक्ति, बोला—“मेरे मुवक्किल के खिलाफ कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है कि उन्होंने नैना को मारा या आत्महत्या के लिए उकसाया। RC-11/22 क्लिप अधूरी है, उसमें कोई स्पष्ट धमकी नहीं है। और नैना की डायरी व्यक्तिगत भावनाओं का दस्तावेज़ है, कोई कानूनी गवाही नहीं।” राघव को लगा जैसे उसकी सांसें थम रही हों। फिर वकील ने एक और चाल चली—“इशान का बयान वीडियो पर है, कोर्ट में नहीं। और आराध्या का बयान भी देर से दिया गया, जिसका मतलब है कि यह प्रेसर या पब्लिक इमोशन के चलते हो सकता है।” जज ने कुछ देर सोचा, फिर कहा—“मुकदमा गहराई से जाँचा जाएगा, लेकिन अंतिम फैसला अगले सत्र में लिया जाएगा। तब तक, देवाशीष रॉय को न्यायिक हिरासत में भेजा जाता है।” राघव को लगा जैसे मैदान पर अंधेरा छा गया हो—सामने खड़ा शिकार तो पकड़ा गया, लेकिन खेल अभी खत्म नहीं हुआ।
राघव थका हुआ था, लेकिन हार मानने का सवाल ही नहीं था। उस रात उसने अपने ब्लॉग पर एक लम्बा लेख डाला—“गवाही अधूरी नहीं, व्यवस्था अधूरी है।” लेख में उसने पूछा, “कब तक लड़कियों की डायरी सबूत बनती रहेगी, कब तक उनकी चुप्पी को संदेह से देखा जाएगा? अगर एक मर चुकी लड़की की सिसकियों का वीडियो भी न्याय के लिए काफी नहीं है, तो फिर हमें और क्या चाहिए?” लेख वायरल हो गया—देश भर में कॉलेज छात्राएँ, शिक्षक, समाजसेवी संगठनों ने एकजुट होकर प्रदर्शन शुरू कर दिए। #CompleteJustice ट्रेंड करने लगा। सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लिया और विशेष सुनवाई की घोषणा कर दी। और फिर आया वह दिन—सुप्रीम कोर्ट में वीडियो, गवाही, और सर्कमस्टांशल एविडेंस को ‘कॉन्क्लूसिव’ मानते हुए देवाशीष रॉय को abetment to suicide और criminal intimidation में दोषी ठहराया गया। सजा—14 साल का कठोर कारावास। कोर्ट ने कहा—“जब शक्ति और कानून की सीमाओं को पार कर कोई स्त्री को उसकी आत्मा से तोड़ देता है, तो वह हत्या से कम नहीं।” राघव की आंखें नम थीं, और सामने खड़ी आराध्या—उसकी आंखों में अब एक सुकून था।
फैसले के बाद प्रेस के सामने राघव से पूछा गया—“आपको कैसा लग रहा है?” उसने मुस्कराकर कहा—“मैं कोई हीरो नहीं हूं। हीरो तो नैना थी—जो टूट कर भी अपनी आवाज़ छोड़ गई। और आराध्या है, जिसने उस आवाज़ को आगे बढ़ाया।” वह मुड़ा और आसमान की ओर देखा—जहाँ अब कोई आँधी नहीं थी, सिर्फ एक नीला, शांत आकाश… जैसे नैना की आत्मा को आखिरकार मुक्ति मिल गई हो। लेकिन अंदर ही अंदर राघव जानता था, कि ये सिर्फ एक जीत थी—सिस्टम अभी भी अधूरा था, और ‘अधूरी गवाही’ जैसी कहानियाँ फिर से लिखी जा सकती थीं। लेकिन जब तक एक भी राघव, एक भी आराध्या, और एक भी नैना रहेगी—सच मर नहीं सकता।
अध्याय 6: मीडिया ट्रायल बनाम न्यायपालिका
देवाशीष रॉय को कोर्ट ने दोषी ठहराया, लेकिन कहानी यहीं थमी नहीं। फैसले के कुछ ही घंटों के भीतर, न्यूज़ चैनलों पर बहस शुरू हो गई—“क्या सोशल मीडिया प्रेशर ने न्याय को प्रभावित किया?”, “क्या ये न्याय है या भीड़ की जीत?”—कुछ चैनल देवाशीष को ‘पीड़ित पुरुष’ बताने लगे, तो कुछ नैना को ‘स्मार्ट लेकिन इमोशनली अनस्टेबल’ कहने लगे। राघव गुस्से से भरा था—उसने खुद उस रिपोर्टिंग की भूतपूर्व तस्वीरें देखीं, जहाँ वही चैनल नैना को ‘वीरांगना’ कह रहे थे। आराध्या को भी चैनलों ने बुलाया, लेकिन उसने एक लाइव डिबेट में ही साफ कहा—“जब एक लड़की गवाही देती है, तो उसे सवालों से नहीं, समर्थन से देखना चाहिए। लेकिन अफ़सोस, हम भारत में पहले उसका चरित्र जांचते हैं, फिर उसके आँसू।” पूरा देश दो धड़ों में बँट गया—एक पक्ष जिसमें ‘न्यायपालिका का सम्मान’ सर्वोपरि था, और दूसरा जो ‘जनता की अदालत’ को असली न्याय मानता था। और इन दोनों के बीच नैना की गवाही फिर से अधूरी हो रही थी।
इसी बीच, एक स्टिंग ऑपरेशन ने सबको हिला दिया। एक अज्ञात पत्रकार ने एक फुटेज रिलीज़ की जिसमें दिखा गया कि देवाशीष के केस को कमजोर करने के लिए कुछ मीडिया हाउस को ‘दिशा निर्देश’ दिए गए थे—PR एजेंसियों के माध्यम से। इस वीडियो में कुछ वरिष्ठ पत्रकार हँसते हुए कहते हैं, “हमें एक नैरेटिव सेट करना है। लड़की को थोड़ा unstable दिखाओ, sympathy कम हो जाएगी।” यह वीडियो जैसे ही वायरल हुआ, ट्विटर पर #MediaMurderJustice ट्रेंड करने लगा। सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लेकर मीडिया चैनलों से जवाब तलब किया। राघव ने भी एक खुला पत्र लिखा—“जब कैमरे न्याय की रक्षा करने के बजाय, उसकी लाश को बेचते हैं, तब लोकतंत्र की आत्मा मरती है।” अब बहस सिर्फ एक केस की नहीं थी, एक पूरे सिस्टम की थी—जिसमें कानून को तोड़ा नहीं गया, बल्कि धीरे-धीरे मरोड़ा गया।
आराध्या को जान से मारने की धमकियाँ मिलने लगीं, उसका सोशल मीडिया हैक किया गया, और उस पर ‘पुरुष विरोधी’ प्रोपेगेंडा चलाने के आरोप लगे। लेकिन वो नहीं झुकी। उसने एक NGO शुरू किया—“अधूरी नहीं”—जो यौन शोषण की शिकार लड़कियों को कानूनी और मानसिक सहायता देती थी। वहीं राघव ने अपनी पत्रकारिता को एक मिशन में बदल दिया। अब वह सिर्फ खबरें नहीं लिखता था, वह कहानियाँ खोजता था—उनकी, जो कह नहीं सकती थीं। लेकिन इस बीच सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर हुई—मीडिया ट्रायल की सीमाएँ तय करने हेतु। कोर्ट ने कहा, “जब तक अंतिम निर्णय न आए, कोई भी चैनल किसी को दोषी या निर्दोष नहीं बता सकता।” ये एक ऐतिहासिक फैसला था—जिसने न्याय और मीडिया के बीच स्पष्ट रेखा खींच दी।
समय बीतता गया, लेकिन “अधूरी गवाही” की गूंज अब भी देश के कानों में थी। कॉलेजों में नैना की डायरी को केस स्टडी के रूप में पढ़ाया जाने लगा। आराध्या TEDx में गई और वहाँ कहा—“मैं नैना नहीं थी, लेकिन उसकी आवाज़ बनकर जी रही हूं।” राघव ने एक किताब लिखी—“गवाही का चेहरा”, जिसमें उसने लिखा, “हम सब किसी की गवाही हैं—कभी सच्ची, कभी अधूरी, लेकिन हमेशा ज़रूरी।” उस दिन जब नैना की पुण्यतिथि थी, राघव और आराध्या ने उसके गांव जाकर एक छोटी लाइब्रेरी की शुरुआत की—“सुनो, मैं अभी ज़िंदा हूं।” और सचमुच, नैना की गवाही अब किसी फ़ाइल में बंद नहीं थी—वह सड़कों, मंचों, किताबों और हर उस चुप्पी में थी, जो अब बोलना चाहती थी।
अध्याय 7: अधूरी गवाही – द लास्ट चैप्टर
तीन साल बीत चुके थे। लखनऊ अब भी वैसा ही था—सर्दियों की सुबहों में धुंध भरी गलियाँ, और शाम को गंगा के किनारे बजते मंदिर की घंटियाँ। लेकिन कुछ तो बदला था। नैना की केस ने जो तूफ़ान खड़ा किया था, उसकी लहरें अब भी महसूस होती थीं—कॉलेजों में पॉक्सो एक्ट पर सेमिनार होते, अख़बारों में ‘मीडिया ट्रायल’ पर बहसें होतीं, और सोशल मीडिया पर हर बार कोई आवाज़ उठती, लोग पूछते—“ये भी एक नई अधूरी गवाही तो नहीं?” उस दिन, आराध्या पहली बार उस कोर्ट रूम में अकेले पहुँची जहाँ कभी वह गवाह बनकर खड़ी हुई थी। अब वो कोर्ट में एक वकील के रूप में दाख़िल हुई थी—काले कोट में, कंधे पर नैना की तस्वीर वाला एक छोटा सा ब्रोच। राघव ने उसका स्वागत किया, अब वह एक लोकप्रिय लेखक और पत्रकार के साथ-साथ एक एक्टिव वॉयस बन चुका था, जिसने ‘जस्टिस जर्नल’ नाम से एक स्वतंत्र पोर्टल शुरू किया था। आज की सुनवाई एक नए मामले की थी—एक कॉलेज छात्रा ने अपने प्रोफेसर पर शोषण का आरोप लगाया था। लेकिन फर्क सिर्फ इतना था—अब वो लड़की अकेली नहीं थी। उसे कानून, वकील, समाज और एक कहानी का साथ मिला था—जिसका नाम था अधूरी गवाही।
लेकिन जैसे ही सुनवाई शुरू हुई, कोर्ट रूम में एक अपरिचित चेहरा दाख़िल हुआ—सफेद बाल, झुकी चाल, लेकिन आँखों में वही चालाकी—देवाशीष रॉय। उसकी सजा घटा दी गई थी अच्छे आचरण के कारण। राघव को गुस्सा नहीं आया, सिर्फ एक तीखा सन्नाटा उसके भीतर भर गया। देवाशीष ने कोर्ट से बाहर आते हुए कहा—“लोग भूल जाते हैं, सिस्टम हमें दोबारा मौका देता है।” तभी आराध्या उसके सामने आकर खड़ी हुई—“लेकिन हम वो सिस्टम बन गए हैं, जो तुम्हें याद रखेगा। हर लड़की, जो खड़ी होती है, तुम्हारी हार की कहानी दोहराती है।” और वो आगे बढ़ गई। राघव जानता था, यह एक युद्ध था, जिसमें जीत स्थायी नहीं, पर लड़ाई ज़रूरी थी। उसी शाम राघव और आराध्या एक स्मारक पर पहुँचे—‘नैना स्मृति स्तंभ’, जो शहर के सेंटर में बना था। वहाँ एक पत्थर पर लिखा था—“मैं मरी नहीं, मैं गवाही बन गई।”
रात को आराध्या और राघव नैना की पुरानी डायरी के पास बैठे थे—अब वो डायरी एक ग्लास केस में बंद थी, एक संग्रहालय में। राघव ने पूछा—“क्या तुम्हें कभी लगता है, कि हम सचमुच कुछ बदल पाए?” आराध्या मुस्कराई, “बदलाव गूंजता है, दिखता नहीं… और ये गूंज अब थमने वाली नहीं।” तभी पास से एक लड़की आई, लगभग नैना जैसी उम्र की, और बोली—“आप दोनों की वजह से मैंने अपनी बात कहने की हिम्मत पाई।” वह चुपचाप नैना की डायरी को देखती रही—जैसे उससे बात कर रही हो। आराध्या ने उसकी पीठ पर हाथ रखा—“अब तुम्हारी बारी है बोलने की।” ये एक विरासत थी, जो सिर्फ खून या नाम से नहीं, आवाज़ से चलती थी। अब वो डायरी सिर्फ एक गवाह नहीं थी—वह एक मशाल बन चुकी थी, जो अंधेरे से लड़ने वाली हर स्त्री के हाथ में थी।
और कुछ वर्षों बाद, राघव की किताब का एक नया संस्करण आया—“अधूरी गवाही: पुनर्जन्म”। इस बार आखिरी अध्याय में लिखा गया था—“ये कहानी कभी पूरी नहीं होगी, क्योंकि हर गवाही में कुछ अधूरा रह जाता है। लेकिन हर बार जब कोई लड़की डर के बावजूद बोलती है, वो इस कहानी को फिर से लिखती है।” आराध्या अब देश की प्रमुख मानवाधिकार वकील बन चुकी थी, और उसका NGO ‘अधूरी नहीं’ अब एक अंतरराष्ट्रीय मंच बन गया था। नैना भले ही इस दुनिया में नहीं थी, लेकिन उसका नाम एक चेतावनी था, एक प्रेरणा थी, और सबसे बढ़कर—एक आवाज़ थी, जो अब हर चुप्पी में गूंजती थी। और जब भी कोई कोर्ट में डरी हुई लड़की खड़ी होती, कोई पत्रकार साहस की कलम उठाता, या कोई आम नागरिक अन्याय के खिलाफ बोलता—वो सब एक साथ कहते थे… “हम गवाही हैं… और हम अधूरे नहीं।”
एपिलॉग: जब गवाही विचार बन गई
वर्ष 2032—लखनऊ के सिविल लाइन्स इलाके में एक नया भवन उद्घाटन के लिए तैयार था। इसके ऊपर सुनहरे अक्षरों में लिखा था: “नैना सेंटर फॉर जेंडर जस्टिस”। यह कोई आम इमारत नहीं थी—यह उस संघर्ष का स्मारक थी, जो एक लड़की की आत्मा, एक पत्रकार की लेखनी और एक वकील की आवाज़ से जन्मी थी। उस दिन भारत के राष्ट्रपति स्वयं उद्घाटन के लिए आए, और अपनी स्पीच में कहा, “न्याय केवल फैसले नहीं होते, कभी-कभी वे विरासत बन जाते हैं। ‘अधूरी गवाही’ अब केवल एक केस नहीं, यह देश के हर उस नागरिक की प्रेरणा है जो अन्याय के खिलाफ बोलने का साहस रखता है।” पीछे की दीवार पर नैना की एक ब्लैक-एंड-व्हाइट तस्वीर थी—जिसमें वह मुस्कुरा रही थी, जैसे हर आने वाले को ताकत दे रही हो।
आराध्या अब देश की सबसे प्रभावशाली मानवाधिकार वकीलों में एक मानी जाती थी, जिसने यूनाइटेड नेशंस में भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए Digital Harassment Bill का ड्राफ्ट पेश किया था। उसका NGO “अधूरी नहीं” अब 14 राज्यों में फैल चुका था—और उसने 3000 से अधिक महिलाओं को कानूनी सहायता दी थी। राघव की किताबें अब पत्रकारिता के कोर्स में पढ़ाई जाती थीं—लेकिन उसने पत्रकारिता नहीं छोड़ी, बस उसका अर्थ बदल दिया। उसकी नई डॉक्यूमेंट्री “Echoes of Justice” ने इंटरनेशनल अवार्ड जीता—और उसमें एक लाइन थी जो दुनिया भर में गूंज उठी: “A voice once silenced can become the loudest cry of a generation.”
देवाशीष रॉय की कहानी का अंत उतना ही गुमनाम रहा जितनी उसकी सत्ता एक वक्त मशहूर थी। जेल से रिहा होकर वह विदेश भाग गया—पर उसकी छवि भारतीय न्यायप्रणाली में एक काले धब्बे के रूप में दर्ज हो चुकी थी। किसी ने कहा, “एक बार अधूरी गवाही ने उसे हराया था, लेकिन समाज की याददाश्त ने उसे भुला दिया।” इशान भटनागर, जो नैना का सहपाठी था और चुप रहने का अपराध लेकर जी रहा था—अब Survivor Therapy Group चलाता था, और वह बार-बार कहता—“कभी-कभी माफी गवाही से बड़ी हो जाती है, जब वो आत्मा से आती है।”
और कहीं किसी छोटे शहर में, एक लड़की अपनी डायरी लिख रही थी—हर पन्ने के नीचे बस इतना लिखती: “मैं अधूरी नहीं हूं।” वह नैना नहीं थी, लेकिन उसकी कहानी की उत्तराधिकारी थी। और शायद, यही इस उपन्यास का सच्चा अंत था—कि यह कभी खत्म नहीं होता। हर उस जगह, हर उस क्षण, जहाँ एक औरत, एक बच्ची, एक छात्रा या एक आम व्यक्ति अन्याय के खिलाफ खड़ा होता है—“अधूरी गवाही” फिर से जन्म लेती है। वह अब एक किताब नहीं, एक विचार है—जिसे मिटाया नहीं जा सकता।

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