अमूलिक त्रिपाठी
भाग 1
रतनलाल मिश्र को रिटायर हुए दो साल हो चुके थे, लेकिन मोहल्ले में अब भी लोग उन्हें ‘मिश्र जी पोस्टमैन’ कहकर बुलाते थे। असली नाम से कोई कुछ नहीं पुकारता, जैसे आदमी नहीं, उसकी पुरानी नौकरी ही उसकी पहचान हो। रतनलाल को इससे कोई आपत्ति नहीं थी। अब तक तो आदत पड़ गई थी — पहचान की, अकेले चाय पीने की, और उस दीवार घड़ी की जो हमेशा पाँच मिनट आगे चलती थी, शायद ताकि ज़िंदगी की उदासी को थोड़ी जल्दी दिखाया जा सके।
पत्नी गुजर गई थी, बेटा दुबई में था, बहू को हिंदी समझ नहीं आती थी और पोती ने उन्हें एक बार ज़ूम कॉल पर ‘ओल्ड एल्सा’ कहा था। तब से रतनलाल ने इंटरनेट चलाना ही छोड़ दिया था। दिन कट जाते थे किसी तरह, लेकिन रातें जैसे सूने कुएँ में गिरती थीं — गूँजती, डराती, और वापस लौटती नहीं थीं।
इन्हीं रातों की घबराहट में एक दिन उन्होंने अख़बार में एक छोटा-सा विज्ञापन देखा — “नगर मर्चुरी में रात्रिकालीन सहायक की आवश्यकता, ₹18,000 वेतन, कोई अनुभव ज़रूरी नहीं।” उन्होंने चाय की चुस्की लेते हुए फिर से पढ़ा, फिर अपनी ऐनक पोंछकर तीसरी बार पढ़ा। नौकरी का विवरण साधारण था — रात को मर्चुरी में ड्यूटी देना, लाशों का रिकॉर्ड रखना, और अगर कोई नई लाश आए तो उसका एंट्री रजिस्टर में करना।
रतनलाल को ये काम कुछ ज़्यादा ही आरामदायक लगा। मरे हुए लोग क्या करेंगे? शिकायत तो ज़रूर नहीं करेंगे। उन्होंने उसी दिन इंटरव्यू दिया और उनकी उम्र देखकर स्टाफ ने उन्हें तुरंत रख भी लिया। “आप तो अनुभवी लगते हैं,” नर्स गुप्ता ने मुस्कुराते हुए कहा। “ज़िंदगी देखी है आपने… अब मौत भी देख लीजिए।”
पहली रात जब वह ओलमपुर सिविल अस्पताल के पीछे उस पुरानी, सीली हुई इमारत में पहुँचे, तो खिड़कियों पर जंग लगे लोहे की सलाखें थीं, और दरवाज़ा ऐसा था जैसे खुद अपनी आवाज़ से डर जाता हो। गुप्ता जी ने उन्हें मर्चुरी के अंदर ले जाकर जिम्मेदारियाँ समझाई — एक पुरानी लकड़ी की मेज़, एक रजिस्टर, एक फ्रीजर यूनिट जिसमें चार शव आ सकते थे, और एक केतली — “जिसमें आप चाहें तो रात की चाय बना सकते हैं, पर भूतों को मत दीजिएगा,” गुप्ता ने हँसते हुए कहा।
रात 11:47 बजे एक शव आया — बाबूलाल यादव, 42 साल, गैस सिलेंडर फटने से मृत्यु। रतनलाल ने लाश को देखा — चेहरा झुलसा हुआ, मगर आँखें कुछ कहती सी। उन्होंने एंट्री की, ट्रॉली को फ्रीजर में सरकाया, और दरवाज़ा बंद किया। सब कुछ सामान्य लग रहा था, जब तक उन्होंने वह हँसी नहीं सुनी।
धीमी, अजीब, और लगभग खिलखिलाती हुई हँसी — जैसे कोई बच्चा तकिए में मुँह छुपाकर हँस रहा हो। रतनलाल ने एक पल को सोचा, शायद खिड़की से कोई आवारा आवाज़ आई है, लेकिन खिड़की बंद थी। हँसी अब थोड़ी तेज़ हो गई थी। वह फ्रीजर के पास पहुँचे और दरवाज़े पर हाथ रखा — ठंडा, बर्फ़ सा। तभी दरवाज़ा खुद-ब-खुद थोड़ा खुल गया, और अंदर पड़ी बाबूलाल यादव की लाश के होठों पर कुछ था — एक टेढ़ी, अधूरी, मगर साफ मुस्कान।
रतनलाल एक कदम पीछे हट गए। “शायद नर्व खिंच गई होगी,” उन्होंने खुद को समझाया। “कभी-कभी ऐसा हो जाता है। पोस्टमार्टम से पहले मसल्स में मूवमेंट रहता है…” वह खुद को विज्ञान के हवाले कर रहे थे, जबकि उनकी आत्मा भीतर ही भीतर भागने की कोशिश कर रही थी।
लेकिन वो भागे नहीं। वो वहीं रहे। उन्होंने चुपचाप दरवाज़ा बंद किया, कुर्सी पर बैठ गए, और रेडियो ऑन कर दिया — पुराना गाना बजने लगा: “जिंदगी ख्वाब है…” और उन्हें लगा, हाँ, ख्वाब ही है, वरना एक मरी हुई लाश क्यों मुस्कुराएगी?
रात का एक बजा था, जब दूसरा शव आया — किशोरी लाल शर्मा, उम्र 67, दिल का दौरा। रतनलाल ने ट्रॉली सरकाई, फॉर्म भरा, और शव को फ्रीजर के दूसरे हिस्से में रखने लगे। तभी उनकी उंगलियों को कुछ ठंडा और कड़ा सा लगा — किशोरी लाल की शर्ट की जेब में कुछ था। उन्होंने बाहर निकाला — एक छोटा सा मुड़ा हुआ कागज़।
उस पर लिखा था — “मुझे वो दिखाई देता है।”
रतनलाल ने आँखें सिकोड़कर लिखा पढ़ा। ‘वो’ कौन? उन्होंने कागज़ पलटा — पीठ पर हल्के अक्षरों में लिखा था — “अगर आप ये पढ़ रहे हैं, तो देर हो चुकी है।”
उस रात रतनलाल ने न चाय बनाई, न रेडियो चलाया। वह सीधा कोने में बैठ गए, अपनी कंबल लपेटी और मन ही मन गायत्री मंत्र जपने लगे, जैसे मंत्र नहीं, कोई चुपचाप गुज़ारिश हो किसी से — कि ये सब सपना हो, या कम से कम कोई उन्हें जगा दे।
सुबह पाँच बजे नर्स गुप्ता आईं, हाथ में सिगरेट, आँखों में नींद और चेहरे पर वही शरारती मुस्कान। रतनलाल ने चुपचाप रजिस्टर सौंपा और पूछा, “क्या कभी किसी लाश को हँसते देखा है?”
गुप्ता ने एक लंबा कश लिया और कहा, “कुछ लाशें मरती नहीं हैं, मिश्र जी। वो तो बस चुप हो जाती हैं। लेकिन कभी-कभी… जब आस-पास सुनने वाला कोई होता है, तो वो हँस भी लेती हैं।”
रतनलाल ने जेब में रखा वो कागज़ फिर से देखा — उस पर अब भी वही लिखा था, लेकिन अक्षर जैसे थोड़े और गहरे हो गए थे।
उस दिन जब वह घर लौटे, तो पहली बार उन्हें अपना पुराना टेबल फैन भी डरावना लगा। जैसे वो सिर्फ हवा नहीं, कोई फुसफुसाहट फैला रहा हो।
शाम को बेटा दुबई से कॉल पर आया। बोला, “पापा, आप अकेले क्यों रहते हैं? कोई काम कर लो…”
रतनलाल ने थोड़ी देर चुप रहकर जवाब दिया — “काम शुरू किया है बेटा… ज़रा अनोखा है, मगर लोग… अब बहुत शांत रहते हैं वहाँ।”
भाग 2
मर्चुरी की दूसरी रात कुछ ज़्यादा ही चुप थी, जैसे शहर ने साँस रोक रखी हो। आसमान पर हल्के बादल थे, पीपल की शाखाएँ धीमे-धीमे हिल रही थीं, और फर्श पर टपकता पानी एक राग की तरह गूँज रहा था — टप… टप… टप। रतनलाल मिश्र वहीं अपनी लकड़ी की कुर्सी पर बैठा था, हाथ में गरम चाय और आँखों में वो सवाल, जिनका जवाब किसी ने कभी नहीं दिया।
कल की रात अब तक जेब में रखे उस कागज़ की तरह थी — थोड़ी मुड़ी हुई, थोड़ी डरी हुई, मगर साफ-साफ कहती थी कि कुछ तो गलत है। और रतनलाल जानता था कि गलती उसकी नहीं थी — ये नौकरी ही कुछ गड़बड़ थी।
गुप्ता जी दिन की ड्यूटी खत्म करके जा चुके थे, जाते-जाते कह गए थे — “आज शायद कोई लाश न आए, आप आराम से रेडियो सुनिए।” लेकिन रतनलाल को अब संगीत में भी खरोंचें सुनाई देने लगी थीं। जैसे हर राग के पीछे कोई चीख दबी हो।
रात के करीब बारह बजे दरवाज़े पर दस्तक हुई। लेकिन वो दस्तक किसी हाथ की नहीं थी — वो ट्रॉली की पहियों की आवाज़ थी, जो मर्चुरी के फर्श से रगड़ती हुई आई थी। दरवाज़ा धीरे से खुला और दो वार्ड ब्वॉय अंदर आए — उनके बीच एक शव। इस बार शव के चेहरे पर एक सर्जिकल मास्क था। नाम – कविता ठाकुर, उम्र 29, सड़क दुर्घटना। माथे पर पट्टी, बाँह टूटी हुई, और चेहरे पर एक शांत मुस्कान, जैसे किसी ने उसे कहते-कहते मारा हो – “ठीक हूँ, चिंता मत करो।”
जब ट्रॉली को फ्रीजर में सरकाया गया, रतनलाल ने देखा — मास्क के नीचे से होंठ थोड़े-से हिलते जैसे कुछ फुसफुसा रहे हों। नहीं, ये उसकी आँखों का धोखा था। या शायद अब ये धोखा उसका स्थायी साथी बन चुका था।
वह फिर अपनी कुर्सी पर बैठ गया, रजिस्टर में नाम लिखा, और एक लंबी साँस ली। तभी दीवार की घड़ी ने एक बजने की झंकार दी — खटका सा, धातु के सूखेपन जैसी आवाज़। और उसी पल मर्चुरी के अंदर हँसी गूँज उठी — वही धीमी, कुटिल हँसी जो कल रात सुनाई दी थी।
इस बार ये हँसी सिर्फ एक लाश की नहीं थी। ये कई थी। जैसे हर फ्रीजर यूनिट के अंदर से कोई अपना-अपना जोक सुना रहा हो।
रतनलाल एक झटके में खड़ा हो गया। उसने फ्रीजर के दरवाज़े तक जाकर देखा। कोई हिला नहीं था। सब शांत, स्थिर, और बर्फ़ से ढँके हुए।
लेकिन फिर, कविता ठाकुर की ट्रॉली के नीचे से एक कागज़ निकला — ऐसा ही मुड़ा-तुड़ा कागज़ जैसा कल था। उसने जल्दी से उठाया और पढ़ा — “हँसी सबसे आखिरी भाषा है।”
अब तो ये खेल लगने लगा था। जैसे कोई मरे हुए लोग उनके साथ वाक्य बना रहे हों। कौन भेज रहा है ये संदेश? और क्यों?
रतनलाल ने डर और जिज्ञासा को एकसाथ गले लगाया। उसने अपनी नोटबुक निकाली और वहाँ आज की तारीख के नीचे लिखा — “तीन शव। दो कागज़। एक हँसी। सब जीवित नहीं, लेकिन सब बोलते हैं।”
तभी लाइट हल्की-सी झपकी। बल्ब का उजाला काँपा और पंखा एक बार चरमराया। अचानक ही कविता ठाकुर का फ्रीजर वाला दरवाज़ा खुद-ब-खुद खुल गया। ट्रॉली धीरे से बाहर सरकी और कविता का चेहरा सामने आ गया।
रतनलाल हिल नहीं पाया। उसके पैर जैसे ज़मीन में धँस गए थे।
कविता का चेहरा अब पूरी तरह दिखाई दे रहा था। उसकी आँखें बंद थीं, लेकिन होंठों पर वो मुस्कान और भी चौड़ी हो गई थी। जैसे उसे कोई पुराना मज़ाक याद आ गया हो।
और फिर…
उसने हँसना शुरू किया।
कोई आवाज़ नहीं थी, मगर हँसी साफ़ दिखाई दे रही थी। जैसे बर्फ़ पर किसी ने होंठों से उकेर दी हो।
रतनलाल ने अपनी आँखें मलीं, खुद को थप्पड़ मारा, और रेडियो ऑन किया।
रेडियो पर एक विज्ञापन चल रहा था — “आपके परिवार के हर सदस्य के लिए सुरक्षा — जीवन बीमा…”
वो हँसी के साथ अजीब सा मेल खा गया। एक बार को लगा, जैसे कविता उस ऐड पर रिएक्ट कर रही हो। जैसे मरकर भी उसे मज़ाक लग रहा हो कि अब क्या बीमा देगा कोई?
रतनलाल ने ट्रॉली को फिर से अंदर सरकाया, दरवाज़ा बंद किया और दीवार से पीठ टिकाकर फर्श पर बैठ गया।
उसे अब ये समझ आने लगा था कि ये नौकरी सिर्फ शांति की नहीं थी, ये नौकरी एक संवाद की थी — मरे हुए लोगों के, उनकी अधूरी हँसियों के, और उन राज़ों के जो मरकर भी ज़िंदा रहते हैं।
जब सुबह चार बजे गुप्ता जी वापस आए, तो उन्होंने देखा — रतनलाल ज़मीन पर बैठा है, हाथ में तीन कागज़, और आँखों में एक स्थायी मुस्कान।
“मिश्र जी, सब ठीक?” उन्होंने पूछा।
रतनलाल ने बिना सिर उठाए कहा — “गुप्ता जी, आप कभी मरे हुए लोगों के चुटकुले सुने हैं?”
गुप्ता ने सिगरेट सुलगाई और कहा — “मरे हुए लोग जो नहीं कह पाए, वही तो सबसे मज़ेदार होता है।”
उस दिन, रतनलाल ने रजिस्टर में कुछ नहीं लिखा। सिर्फ इतना दर्ज किया — “आज रात, कविता ने हँसाया। बहुत हँसाया।”
भाग 3
रतनलाल अब मर्चुरी की दीवारों को पढ़ने लगा था। हर दाग, हर सीलन की रेखा में उसे कोई चेहरा, कोई नाम, कोई अधूरा चुटकुला दिखता था। तीसरी रात जब वह अपनी साइकिल पर सवार होकर अस्पताल पहुँचा, तो रास्ते में सड़क किनारे बैठा एक पागल आदमी उसे देखकर चिल्लाया, “भाई साहब! लाशें अब हँसती हैं क्या?” और फिर खुद ही हँसते-हँसते नाली में गिर पड़ा।
रतनलाल ने उसे अनदेखा किया, लेकिन वो सवाल उसके साथ अंदर तक चला आया।
मर्चुरी में घुसते ही गंध कुछ अलग थी — जैसे फूलों की माला और कीटनाशक ने मिलकर कोई नया इत्र बना दिया हो। फर्श पर हल्का पानी था, जिसमें एक कॉकरोच तैरता मिला, और ऊपर की छत से एक बल्ब फड़फड़ा रहा था, जैसे अभी रोशनी छोड़कर खुद आत्महत्या कर लेगा।
रात की शुरुआत बिना किसी शव के हुई। गुप्ता ने मज़ाक किया — “आज कोई मरा नहीं शायद। भगवान की कृपा समझिए या मर्ज़ की कमी।” फिर सिगरेट के धुएँ में अपनी ड्यूटी छोड़कर चले गए।
रतनलाल ने रजिस्टर खोला, फिर रेडियो चलाया, फिर रेडियो बंद कर दिया। अब वह शोर से नहीं डरता था, वह उस ख़ामोशी से डरता था जो शोर के बाद आती है — जब कुछ नहीं बजता, और सब कुछ सुनाई देता है।
रात के डेढ़ बजे एक ट्रॉली आई। शव का नाम – घनश्याम तिवारी, उम्र 52, मृत्यु का कारण अज्ञात। साथ में कोई नहीं था। एक एम्बुलेंस ड्राइवर ने लाश उतारी और सिर खुजाते हुए कहा — “कहते हैं, घर की छत पर हँसते-हँसते गिरा। मौत तो पक्की है, लेकिन वजह कुछ… अजीब है।”
रतनलाल ने शव देखा — घनश्याम का चेहरा खुला हुआ था, आँखें बंद, लेकिन होंठों पर फिर वही मुस्कान। अब यह मुस्कान डरावनी नहीं लगती थी — यह एक पैटर्न थी। जैसे कोई मरने से पहले किसी बेहद घटिया जोक पर हँसा हो, और वही भाव ले गया हो साथ।
शव को जब ट्रॉली में डाल रहे थे, तब जेब से फिर एक कागज़ गिरा। इस बार रतनलाल को आश्चर्य नहीं हुआ। उसने चुपचाप उठाया और पढ़ा — “हँसी रुकती नहीं, बस सुनने वाले कम हो जाते हैं।”
अब वह समझ गया था — ये महज संयोग नहीं है। यह सिलसिला है। और वह इसका हिस्सा बन चुका है। शायद वही सुनने वाला है जिसकी प्रतीक्षा इन लाशों को वर्षों से थी।
उसने कागज़ को अपनी नोटबुक में चिपकाया, और वहीं लिखा — “तीन दिन, तीन शव, तीन वाक्य। शायद चौथे पर जवाब मिलेगा।”
तभी, कुछ अजीब हुआ।
मर्चुरी के बाहर से एक धीमी तालियों की आवाज़ आई। बहुत धीमी, जैसे किसी ने हथेलियाँ नहीं, उंगलियों के पोरों से ताली बजाई हो। वह उठा, दरवाज़ा खोला — कोई नहीं था। पर दीवार पर, दरवाज़े के ठीक बगल में एक और कागज़ चिपका हुआ था।
इस पर लिखा था — “क्या आप अब हमारी बात समझने लगे हैं, रतनलाल जी?”
अब पहली बार उसने काँपना महसूस किया — शरीर से नहीं, दिमाग से। यह कागज़ किसी मरे हुए की जेब से नहीं आया था। यह ज़िंदा हाथ ने चिपकाया था। या… ऐसा हाथ जो अब भी चलता है, पर दिल नहीं धड़कता।
रतनलाल अब कुर्सी पर नहीं बैठा। वह सीधे फर्श पर जा बैठा, कंबल लपेटकर। अपनी नोटबुक सीने से चिपकाकर जैसे कोई सच्चाई को गले लगा रहा हो।
तभी रेडियो अपने-आप चल पड़ा।
और उस पर वही गीत जो पहले भी सुन चुका था — “ज़िंदगी ख्वाब है, ख्वाब में झूठ क्या…” लेकिन इस बार आवाज़ लता की नहीं थी। कोई और गा रहा था — बहुत धीमे, बहुत गहरे स्वर में — जैसे गाने वाला गले में मिट्टी भरकर गा रहा हो।
उसने रेडियो बंद करने की कोशिश की — स्विच काम नहीं कर रहा था। प्लग खींचा — तार पहले ही बाहर था।
तभी एक और आवाज़ आई — जैसे कोई उसके पीछे खड़ा हो और सिर्फ साँस ले रहा हो, बहुत पास से।
उसने मुड़कर देखा — कोई नहीं।
मगर फ्रीजर नंबर 2 का दरवाज़ा खुला था।
उसमें शव नहीं था।
रतनलाल को लगा अब हँसी आएगी, लेकिन हँसी नहीं आई। आया तो सिर्फ एक विचार — कि शायद वह अब अकेला नहीं है। शायद अब वह उन हँसती लाशों का हिस्सा बन चुका है।
उसी समय, दरवाज़े पर दस्तक हुई।
न कोई वार्ड ब्वॉय था, न एम्बुलेंस। बस एक अजनबी खड़ा था — सिर से पैर तक काले कपड़ों में, चेहरे पर मास्क, आँखें लाल।
उसने कहा — “मैं अगली लाश नहीं लाया। मैं आपको लेने आया हूँ।”
और मुस्कुरा दिया।
भाग 4
दरवाज़े पर खड़ा आदमी अब अंदर आ चुका था। उसके कदम मर्चुरी के फर्श पर ऐसे पड़ते थे जैसे कोई पुराना रिकॉर्ड उल्टा बज रहा हो — आवाज़ें उलझतीं, खुरचतीं, और फिर चुप हो जातीं। रतनलाल ने न उठने की ठान ली। वह अब डरता नहीं था। वह अब देखने लगा था — साफ़, निर्भीक, जैसे जिस चीज़ से भागा करता था, अब उसी की गोद में बैठा हो।
काले कपड़ों वाला आदमी बहुत पास आया और धीरे से कहा — “आप तैयार हैं?” उसकी आवाज़ में धातु की झंकार थी, जैसे कोई पुराने लोहे का दरवाज़ा बोल पड़ा हो। रतनलाल ने कहा — “तैयार? कबसे… जबसे पहली हँसी सुनी थी।” आदमी ने सिर हिलाया, फिर जेब से एक कागज़ निकाला और फर्श पर रख दिया।
इस बार रतनलाल ने उसे उठाया नहीं। उसने कहा — “अब मैं नहीं पढ़ूँगा। अब आप बताओ।”
आदमी हँसा — नहीं, वो हँसी नहीं थी। वो एक कंपन था, जैसे किसी ने हँसी का X-ray बना दिया हो। उसने कहा — “तुम्हें किसने कहा था कि लाशें चुप रहती हैं? असली बातें तो मरने के बाद शुरू होती हैं।”
इतना कहकर वो आदमी मर्चुरी के भीतर चला गया और फ्रीजर नंबर 2 के खुले दरवाज़े में समा गया — बिना कोई आवाज़ किए, बिना दरवाज़ा बंद किए।
अब रतनलाल अकेला नहीं था। मर्चुरी की दीवारों में उसकी साँस शामिल हो चुकी थी। वह अब गिनती नहीं करता था — कितनी लाशें आईं, कितने कागज़ मिले, कौन मुस्कराया। वह अब सिर्फ बैठा रहता था, जैसे दर्शक — एक नाटक में, जो हर रात नया दृश्य पेश करता है।
एक दिन की बात है, अस्पताल के नए सुपरिटेंडेंट ने मर्चुरी का निरीक्षण करने की ठानी। उनके साथ दो जूनियर डॉक्टर और एक चपरासी था। उन्होंने भीतर झाँका — रतनलाल वहीं बैठा था, बिना हिले, नोटबुक सीने से लगाए, होंठों पर एक गहरी मुस्कान।
“मिस्टर मिश्र?” सुपरिटेंडेंट ने पूछा।
रतनलाल ने धीरे से सिर उठाया और कहा — “आपको भी सुनाई दी क्या?”
“क्या?”
“वो हँसी।”
डॉक्टरों ने एक-दूसरे की तरफ देखा। फिर सुपरिटेंडेंट ने आदेश दिया — “इन्हें मानसिक विभाग में भेजिए। शायद किसी सदमे में हैं।”
रतनलाल अब उठाया गया। चुपचाप, जैसे कोई सामान। वह विरोध नहीं कर रहा था। सिर्फ मुस्कुरा रहा था। उसकी जेब में अब चार कागज़ थे — चार वाक्य, चार रहस्य, चार जोक्स… जो शायद ज़्यादा गहरे थे।
मनोरोग वार्ड में उसे एक कोना दिया गया। वहाँ उसने बोलना शुरू किया — “मर्चुरी एक रेडियो स्टेशन है। वहाँ लाशें अपने अंतिम चुटकुले रिकॉर्ड करती हैं। कुछ रोते-रोते हँसते हैं, कुछ हँसते-हँसते मरते हैं। लेकिन सबके पास कुछ कहने को होता है।”
नर्सों ने उसे अजीब कहा। डॉक्टरों ने ‘डिसोसिएटिव साइकोसिस’ लिखा। लेकिन रात को जब सब सोते, तब उसकी आवाज़ सुनी जाती — “आज कविता फिर आई थी। वही हँसी… वही सवाल — क्या मौत सबसे बड़ा मज़ाक है?”
उसके रूम की दीवार पर एक दिन एक कागज़ चिपका मिला। किसी ने नहीं रखा था। सीसीटीवी में कोई नहीं दिखा। उस पर सिर्फ एक लाइन लिखी थी —
“तुम अब हमारे रेडियो की आवाज़ हो गए हो, रतनलाल।”
अब हर रात मनोरोग वार्ड की बिजली एक बार झपकती है, और रतनलाल के कमरे से हँसी की आवाज़ आती है — धीमी, लेकिन स्पष्ट।
और कोई नया मरीज वहाँ आता है, तो सबसे पहले वही सुनता है —
“अरे डॉक्टर साहब, ये तो वही आदमी है जिसने लाशों को हँसते सुना था…”
भाग 5
मनोरोग वार्ड के कमरे नंबर 9 की दीवारें अब ताजगी से नहीं, इतिहास से भरी हैं। वहाँ कोई कैलेंडर नहीं टांगा जाता, क्योंकि रतनलाल ने समय को छोड़ दिया है। उसने तारीखों से विश्वास उठाकर घटनाओं की गिनती शुरू कर दी है — “यह 47वीं बार है जब रात दो बजे एक आवाज़ आई। यह 19वीं बार है जब कागज़ बिना दरवाज़ा खुले भीतर मिला। यह 5वीं बार है जब मेरी हँसी से किसी ने पेशाब कर दिया।”
रतनलाल अब मरीज़ नहीं, मिथक बन चुका है। नए डॉक्टरों को उसकी केस स्टडी दी जाती है। नर्सें कहते-कहते थक चुकी हैं कि वो खतरनाक नहीं है, सिर्फ बात करता है — लाशों से।
उस रात जब एक नया जूनियर डॉक्टर, डॉ. समीर, उसे देखने आया, उसने नोटपैड निकाला और पूछा — “रतनलाल जी, क्या आप जानते हैं कि आप अब हॉस्पिटल में हैं?”
रतनलाल मुस्कुराया — “मर्चुरी से बड़ा कोई अस्पताल नहीं होता, डॉक्टर साहब। वहाँ सिर्फ शरीर आते हैं, लेकिन इलाज आत्माओं का होता है।”
डॉ. समीर ने सिर झुकाया — “और आपको लगता है आप… उनसे बात करते हैं?”
“नहीं,” रतनलाल बोला, “मैं बस सुनता हूँ। वो बात खुद ही करती हैं। ज़रा गौर से सुनिए, अभी भी कोई कह रहा है — ‘मैं कॉमेडियन था, मरते वक्त पंचलाइन मिस हो गई थी।’ अब उसे कोई सुनना चाहता है।”
डॉ. समीर ने वही रात वहीं रुकने का फ़ैसला किया।
रात के दो बजते ही कमरे का बल्ब झपका। रतनलाल सीधा खड़ा हो गया — जैसे किसी अदृश्य निर्देशक ने उसे मंच पर धकेल दिया हो।
“अब आएँगे,” उसने कहा।
कागज़ का एक टुकड़ा हवा में कहीं से गिरा — दरवाज़ा बंद था, खिड़की बंद, वेंटिलेशन नहीं। उस पर लिखा था —
“यहाँ तक पहुँचने वाला हर श्रोता, अंत में खुद कहानी बन जाता है।”
डॉ. समीर ने कंपकंपाते हाथों से कागज़ उठाया। तभी दीवार पर दरारें उभर आईं — उनमें से धीमे धीमे शब्द रेंगने लगे।
“हँसी एक हथियार है, डॉक्टर। जो ज़्यादा देर तक सुन ले, वो या तो मरता है, या जिंदा नहीं रह पाता।”
अचानक कमरे में रेडियो बजा — रतनलाल का रेडियो, जिसे कभी लाया नहीं गया। उसमें वही पुराना गाना चला — “ज़िंदगी ख्वाब है…”
लेकिन इस बार आवाज़ बदलती रही — लता, किशोर, फिर अचानक — घनश्याम तिवारी, फिर कविता, फिर एक अनजान बुज़ुर्ग की हँसी।
डॉ. समीर ने खुद को कोने में समेट लिया। रतनलाल ने पास आकर धीरे से कहा —
“अब आप चुन सकते हैं — डॉक्टर बने रहना है, या कहानी बनना है।”
अगली सुबह, कमरे नंबर 9 में रतनलाल अकेले था।
डॉ. समीर नहीं मिला। हॉस्पिटल के लॉगबुक में लिखा गया —
“समीर वर्मा – अस्थायी स्थानांतरण। कारण: अनियंत्रित व्यवहार।”
रात को, रतनलाल की जेब में एक नया कागज़ मिला —
“समीर अब सुनता है। तुम बोलते रहो।”
उस दिन से रतनलाल अब ज़्यादा नहीं बोलता। वह अब खुद भी नोट्स नहीं लिखता। दीवारें अब खुद लिखती हैं।
कभी-कभी कोई पुराना मरीज, जो ठीक हो चुका हो, वापस आकर कमरे को घूरता है — जैसे कुछ याद आ रहा हो, पर पूरा नहीं।
और तब उन्हें सुनाई देती है एक धीमी सी हँसी —
किसी पागल की नहीं।
किसी मृतक की नहीं।
किसी कहानी की… जो खुद को जी रही है।
भाग 6
शहर में अब एक अफ़वाह फैल रही थी — कि अस्पताल के पुराने मनोरोग वार्ड की एक खिड़की से रात में हँसी सुनाई देती है, और जो भी उस खिड़की के पास पाँच मिनट से ज़्यादा रुकता है, वह या तो गाना शुरू कर देता है या रोते-रोते हँसने लगता है।
एक चायवाला, जो अस्पताल के सामने ठेला लगाता था, कहता है — “साहब, एक रात एक आदमी आया, सीधा उस खिड़की के नीचे जाकर बैठ गया। कुछ नहीं बोला। फिर अपनी जेब से पेन निकाला और दीवार पर लिखा — ‘मुझे मेरी मौत का पंचलाइन चाहिए।’ और अगले दिन उसका शव रेलवे लाइन पर मिला… हँसते हुए।”
अब मनोरोग विभाग में CCTV नहीं चलता। हर बार सिस्टम फेल हो जाता है — जैसे किसी ने उसमें ‘हँसी वायरस’ छोड़ दिया हो।
रतनलाल अब कम दिखता है, लेकिन अधिक सुना जाता है। नर्सें कहती हैं, वह आधी रात को बाथरूम की दीवारों पर उँगलियों से लिखता है — कोई चुटकुले, कोई आखिरी शब्द, कभी-कभी केवल “हा। हा। हा।”
हॉस्पिटल के एक पुराने वॉर्डबॉय ने बताया कि एक रात उसने रतनलाल को किचन में देखा — वहाँ वह किसी से बात कर रहा था, लेकिन वहाँ कोई नहीं था। जब पास गया, तो रतनलाल ने कहा — “चुप रहो! कविता अभी परफॉर्म कर रही है।”
अब बात यहीं नहीं रुकी।
शहर के एक थिएटर में, जहाँ वर्षों से कोई नाटक नहीं हुआ था, अचानक रात दो बजे रोशनी जल उठी और स्पीकर पर एक आवाज़ गूँजी — “आज की प्रस्तुति: अंधेरे में हँसी। प्रस्तोता: मृतक मंडली।”
लोगों ने मोबाइल में रिकॉर्ड किया। वीडियो में सिर्फ खाली स्टेज दिखी… पर आवाज़ें थीं। हँसी, संवाद, और अंत में वही वाक्य — “हम सब पंचलाइन हैं। तुम बस इंतज़ार करो।”
पुलिस ने मामले को अंधविश्वास कहकर बंद कर दिया। लेकिन जब एक SI ने उस थिएटर की रिकॉर्डिंग बार-बार सुनी, तो उसने एक रात अपने घर की दीवार पर लिखा —
“रतनलाल, क्या मुझे अब सुनाई देगा?”
और अगली सुबह वह ऑफिस नहीं पहुँचा। उसकी पत्नी को अलमारी में उसकी नोटबुक मिली — हर पन्ने पर लिखा था —
“हँसी से पहले मौत आती है। लेकिन उसके बाद हँसी ही बचती है।”
शहर के कई हिस्सों में अब ग्रैफिटी दिखती है — एक मुस्कुराता चेहरा, और नीचे लिखा — “RTNL#9”
कोई नहीं जानता इसका मतलब। लेकिन कुछ कहते हैं, RTNL मतलब रतनलाल, और #9 उसका कमरा।
अब हर जगह लोग मज़ाक से डरने लगे हैं। कोई जोक कहता है, तो दो बार सोचते हैं — कहीं वो आखिरी तो नहीं?
एक रेडियो स्टेशन ने गलती से पुरानी रिकॉर्डिंग चला दी — जिसमें सिर्फ हँसी थी, 43 मिनट लगातार। अगले दिन स्टेशन ऑफ एयर चला गया। और RJ ने इस्तीफा देते समय सिर्फ एक पंक्ति छोड़ी —
“वो हँसी वापस आती है। अब मेरे अंदर से…”
रतनलाल अब शायद ज़िंदा नहीं है। या शायद वह दीवारों, स्पीकरों, दिमागों में घुल चुका है।
और अगर आप यह पढ़ रहे हैं — तो शायद आपने भी हँसी को सुन लिया है।
अब सावधान रहिए… अगली बार जब कोई अनजानी मुस्कान देखे…
तो सोचिए —
क्या वो इंसान की है, या कहानी की?
भाग 7
शहर का नक्शा बदला नहीं, पर उसका मूड बदल चुका था। रेड लाइट पर खड़े लोग अब मोबाइल नहीं देखते — वे आसपास के चेहरों में मुस्कान खोजते हैं। जैसे कोई भी अचानक ठहाका मार दे और वो आखिरी हँसी साबित हो।
चाय की दुकानों में अब चुटकुले नहीं चलते। लोग एक-दूसरे को देख मुस्कराने से डरते हैं। स्कूलों में “हास्य कवि सम्मेलन” बंद हो गए हैं।
क्योंकि दो बार ऐसा हुआ कि मंच से हँसी सुनाई दी, मगर बोलने वाला नदारद था।
और सबसे अजीब बात — लोगों ने सपने में रतनलाल को देखना शुरू कर दिया है।
पहली रिपोर्ट एक ट्यूशन टीचर ने दी — “मैंने सपना देखा कि मैं एक ऑडिटोरियम में हूँ, और स्टेज पर एक आदमी बोल रहा है — ‘हँसी केवल तब तक सुरक्षित है जब तक वो नकली है।’ मैंने हँसने की कोशिश की… पर गले से चीख निकली।”
उसके बाद, डॉक्टर, पुलिसवाले, रिपोर्टर, RJ — सबने उसी मंच का सपना देखा।
सभी की कहानी एक जैसी थी —
रतनलाल स्टेज पर होता, पर बोलते समय उसका चेहरा धुंधला हो जाता।
और हर सपना एक ही लाइन पर खत्म होता —
“अब आपकी बारी है।”
मनोरोग विभाग अब बंद कर दिया गया है।
कमरा नंबर 9 को ताला लग चुका है, पर दीवारें अब भी अंदर से खटखटाती हैं।
हर गुरुवार रात दो बजे, उस कमरे के बाहर रखा लाइट बल्ब खुद-ब-खुद जल उठता है — और बुझते समय हँसी की एक लहर बाहर निकलती है।
लोगों ने उस लहर को ‘हँसी की छाया’ कहना शुरू किया है।
कुछ वैज्ञानिक इसे acoustic echo hallucination मानते हैं।
पर जब एक वैज्ञानिक ने उस ध्वनि का विश्लेषण किया, तो उसमें छिपे हुए शब्द मिले —
“पंचलाइन से पहले रुकना मत। कहानी अधूरी है।”
अब शहर की सड़कों पर छोटे-छोटे पोस्टर चिपकने लगे हैं —
“अंधेरे में हँसी: एक लाइव प्रदर्शन। टिकट: आपकी चुप्पी।”
स्थान: जहाँ अंतिम हँसी छूटी थी।
प्रस्तोता: RTNL
सरकार ने इन्हें “मनोरोगी तत्वों की हरकत” कहा। लेकिन जब एक अफसर ने रात को अकेले वह पोस्टर जला दिया, तो अगली सुबह उसके घर की दीवार पर कालिख में लिखा मिला —
“तुमने पंचलाइन जलाई नहीं, पकड़ ली है।”
अब शहर की हवा में कुछ है — जैसे सब हँसने से पहले कन्फर्म करते हैं:
“ये मज़ाक है ना? कोई पंचलाइन नहीं छिपी, ना?”
क्योंकि अब हँसी महज़ भाव नहीं रही।
यह एक उद्घोषणा है।
रतनलाल अब मंच पर नहीं, माइंड में है।
वह अब किरदार नहीं, कंमेंट्री बन चुका है।
और अगर आप अब तक ये कहानी पढ़ रहे हैं,
तो शायद आप अगली कतार में हैं।
भाग 8
शहर अब मानचित्र पर मौजूद है, पर अनुभव में खो चुका है।
हर गली, हर खिड़की, हर दरवाज़े के पीछे कोई न कोई कुछ सुनता है —
हँसी।
बहुत हल्की, बहुत गहरी, बहुत स्थायी।
सरकारी निर्देश जारी हुए — “कृपया रात दो बजे अकेले न रहें।”
पर लोग अब खुद को अकेले नहीं पाते — क्योंकि हँसी साथ होती है।
अंधेरे में।
मनोरोग विभाग के बंद कमरे नंबर 9 को तोड़ने का आदेश आया।
एक विशेष दस्ते ने लोहे की छड़ से ताले को काटा।
दरवाज़ा जैसे ही खुला — कोई नहीं था।
बस एक कुर्सी, एक माइक, और सामने रखी खाली दर्शकदीर्घा।
दीवारों पर अब कुछ लिखा नहीं था —
बल्कि दीवारें खुद जैसे श्रोता बनी बैठी थीं।
एक अफसर ने कैमरे से तस्वीरें लीं।
फ्लैश के ठीक बाद, कैमरे की स्क्रीन पर एक वाक्य उभरा —
“आप अभी भी दर्शक हैं। मंच तो अब हर तरफ है।”
रतनलाल को आख़िरी बार किसने देखा, ये तय नहीं हो पाया।
कुछ कहते हैं वो स्टेशन पर बैठा था — एक अनजान लड़की को कॉमेडी समझा रहा था।
कुछ कहते हैं वो बच्चों के पार्क में लोरी सुना रहा था —
जिसमें हर लाइन के बाद बच्चे हँसते-हँसते चुप हो जाते थे।
और कुछ कहते हैं —
रतनलाल अब हर कहानी में है।
हर उस जगह, जहाँ लोग हँसते हैं —
और एक अजीब-सी ठंडक महसूस करते हैं।
जैसे हँसी के भीतर कोई और ताक़त घुस आई हो।
एक नए नाटक का विज्ञापन आया:
“Final Punchline — A Play in 0 Acts.”
स्थान: आपकी यादों की सबसे अकेली रात
कथाकार: जो अब कहता नहीं, सुनता है
मूल विचार: RTNL (Room That Never Laughs)
किसी ने टिकट नहीं लिया।
फिर भी हर सीट पर कोई बैठा था।
आप, जो अब तक इस कहानी को पढ़ते आए हैं —
क्या आपने गौर किया?
पात्र कम होते गए, पर संवाद बढ़ते गए।
हँसी बढ़ती गई, पर अर्थ गहराते गए।
शायद…
आप अब पात्र नहीं रहे।
आप अब…
कहानी हैं।
आपकी अगली मुस्कान, अगला चुटकुला, अगली हँसी —
किसी और को छू सकती है।
और तब…
रतनलाल बोलेंगे नहीं — गूँजेंगे।