Hindi - प्रेतकथा

अंधेरे की पुकार

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आलोक पाण्डेय


राजस्थान की तपती हुई धरती पर फैला हुआ था कर्णपुरा गाँव—एक ऐसा स्थान जहाँ गर्म हवाएँ दिन में साँय-साँय करती थीं और रात होते ही सब कुछ जैसे ठहर जाता था। चारों ओर बंजर ज़मीन, सूखे पेड़ों की छाँह, और रेत में गहराती चुप्पी। जुलाई की उस दोपहर में, जब सूरज अपनी पूरी प्रखरता से चमक रहा था, दिल्ली विश्वविद्यालय से रिसर्च स्कॉलर अन्वेषा शर्मा ने पहली बार इस गाँव की मिट्टी को छुआ। हाथ में डायरी, बैग में रिकॉर्डिंग डिवाइस और मन में ढेर सारे सवाल लेकर वह एक पुरानी जीप से उतरी, जो उसे शहर से लगभग चालीस किलोमीटर भीतर इस सुनसान गाँव तक लाई थी। गाँव का मुख्य चौक वीरान था—कुछ बच्चे दूर से झाँक रहे थे, और एक बूढ़ा आदमी पनघट की तरफ लाठी टेकता जा रहा था। अन्वेषा को गाँव के बारे में जो पहली बात बताई गई थी, वह एक पुरानी बावली की कहानी थी, जिसे यहाँ “काली बावली” कहा जाता था। लोककथाओं में यह बावली एक श्रापित स्थान मानी जाती थी, जहाँ आज तक कोई अमावस्या की रात सही-सलामत लौट कर नहीं आया। अन्वेषा को ऐसी बातों में यकीन नहीं था—उसके लिए सब कुछ इतिहास, संरचना और सामाजिक मनोविज्ञान का हिस्सा था। वह इस विषय पर अपना शोधपत्र लिख रही थी—”भारत में जल-संरचनाओं के साथ जुड़े अंधविश्वास और उनके ऐतिहासिक सन्दर्भ।”

गाँव का मुखिया, गणेश ठाकुर, एक लम्बा, कड़क व्यक्तित्व वाला आदमी था जिसकी आवाज़ में अनुभव की कठोरता और कुछ छिपाने की आदत साफ़ झलकती थी। जब अन्वेषा उसके घर पहुँची और अपनी रिसर्च के बारे में बताया, तो उसके चेहरे पर तनाव की रेखाएँ उभर आईं। “बेटा, बावली की बात छोड़ो,” उसने गहरी आवाज़ में कहा, “बहुत लोगों ने उस जगह के चक्कर में अपनी जान गँवाई है। औरत हो, बाहर से आई हो… समझदार बनो।” अन्वेषा को यह प्रतिरोध दिलचस्प लगा—कभी-कभी वर्जनाएँ ही सबसे मजबूत सुराग होती हैं। उसने विनम्रता से धन्यवाद कहा और गाँव में रहकर काम करने की अनुमति मांगी। ठाकुर ने उसे एक पुराना लेकिन सुरक्षित घर दिया, जहाँ वह कुछ दिन रह सके। रात को, जब वह पहली बार अपने कमरे में बैठी, उसने नोट्स लिखते हुए खिड़की से देखा—दूर, एक चट्टानी टीले के पीछे, एक पुरानी रचना की छाया रेत पर पड़ रही थी। वह समझ गई—वही थी ‘काली बावली’—और वह वहाँ जरूर जाएगी, चाहे लोग कुछ भी कहें।

अगले दिन सुबह, अन्वेषा गाँव के स्कूल में गई, जहाँ उसकी मुलाकात शिवराज सिंह से हुई। शिवराज एक स्थानीय शिक्षक था, जिसने जयपुर से पढ़ाई की थी और वापस आकर गाँव के बच्चों को पढ़ाने का बीड़ा उठाया था। वह पढ़ा-लिखा, तार्किक, और गाँव के रहस्यों के बारे में सजग था। जब अन्वेषा ने अपनी रिसर्च का उद्देश्य बताया, तो वह कुछ देर चुप रहा, फिर बोला—”बावली सिर्फ एक कुआँ नहीं है… ये एक दरवाज़ा है। जो लोग अंदर गए, उनमें से कुछ लौटे नहीं, और जो लौटे… वो फिर कभी पहले जैसे नहीं रहे।” उसकी आँखों में डर नहीं था, बल्कि एक किस्म की थकावट थी—जैसे बहुत बार यह कहानी दोहराई गई हो, पर कोई मानता ही नहीं। अन्वेषा ने हँसते हुए कहा, “मैं डरती नहीं। और सच कहूँ तो मुझे लगता है, ये सब आपके गाँव के सामूहिक अवचेतन की उपज है—हजारों साल से कहानियाँ दोहराई जाती हैं, और हम उन्हें सच मानने लगते हैं।” शिवराज ने सिर झुकाया, और बोला, “आपको अगर देखना ही है तो मैं साथ चलूँगा, लेकिन सिर्फ दिन में। रात की बावली… मैं भी नहीं देखना चाहता।” उस शाम को, दोनों ने मिलकर गाँव के नक्शे पर बावली की स्थिति दर्ज की। लेकिन तभी कुछ अजीब हुआ—अन्वेषा का रिकॉर्डर, जो बंद था, खुद-ब-खुद चालू हो गया। उसमें सिर्फ तीन शब्द रिकॉर्ड हुए थे—”आ जा… यहाँ…”

रात को अन्वेषा को ठीक से नींद नहीं आई। कमरे की दीवारें गरम थीं लेकिन खिड़की के बाहर से अजीब सी ठंडी हवा आ रही थी। दूर से कोई लोकगीत जैसा गुनगुनाता स्वर सुनाई दे रहा था, जिसमें एक स्त्री की करुणा और विरह की टीस थी। वह उठकर खिड़की के पास गई, तो देखा—गाँव एकदम शांत था। लेकिन कहीं दूर, उसी चट्टानी टीले की तरफ से कुछ चमकती रोशनी झलक रही थी, जैसे किसी ने लाल चूड़ियाँ पहनी हों और चाँद की रौशनी में वे चमक रही हों। अन्वेषा एक पल को ठिठकी, फिर अपने अंदर उठते डर को दबाकर वापस बिस्तर पर लेट गई। वह जानती थी, रिसर्च का असली सफर अब शुरू हो चुका था। अगले कुछ दिनों में, वह सिर्फ इतिहास नहीं, एक ज़िंदा लोककथा के केंद्र में उतरने वाली थी—जहाँ हड्डियाँ भी कहानियाँ कहती हैं, और बावली का हर पत्थर किसी रहस्य को छुपाए बैठा है।

सुबह की हल्की गुलाबी रौशनी जब कर्णपुरा की रेत पर फैलने लगी, तब गाँव के लोग अपने-अपने कामों में लग गए थे—कोई ऊँट को चारा दे रहा था, कोई कुएँ से पानी खींच रहा था, तो कोई घर के सामने गोबर से आँगन लीप रहा था। लेकिन इस सामान्य गतिविधियों के पीछे एक अदृश्य भय का साया पसरा हुआ था—बावली के नाम का अघोषित निषेध। अन्वेषा अपने कमरे से निकलकर सीधे शिवराज के घर पहुँची। हाथ में उसका नोटपैड था, चेहरे पर जिज्ञासा और आँखों में रात के रहस्य की गहराई। शिवराज पहले से तैयार था—जैसे जानता हो कि अन्वेषा रुकने वाली नहीं। दोनों ने तय किया कि आज वे दिन के उजाले में बावली तक जाएँगे और उसका वास्तु, स्थिति, और आसपास के चिन्हों का निरीक्षण करेंगे। गाँव से निकलते वक़्त कुछ बुज़ुर्ग औरतें मुँह ढँककर खड़ी थीं—उनके चेहरों पर चेतावनी साफ़ झलक रही थी। एक औरत बुदबुदाई, “अमावस्या पास है… अभी भी वक्त है बेटी, मत जा…”

बावली गाँव से लगभग आधा किलोमीटर उत्तर-पश्चिम दिशा में स्थित थी। चारों ओर ऊबड़-खाबड़ पत्थरों का फैलाव था, और बीच में काले पत्थरों से बनी हुई गोलाकार संरचना—बावली। यह बावली न केवल गहरी थी, बल्कि उसमें उतरने वाली सीढ़ियाँ भी समय के साथ घिसकर असमतल हो चुकी थीं। पत्थरों की दीवारों पर काई जमी थी, और एक अजीब गंध हवा में तैर रही थी—कुछ ऐसा जो न मिट्टी का था, न सड़न का—कुछ था जो शब्दों से परे था। अन्वेषा ने अपने कैमरे से तस्वीरें लीं, दीवारों पर उकेरी गई आकृतियों को देखा—उनमें से कुछ सामान्य थीं, लेकिन कुछ बेहद अजीब—तीन नेत्रों वाला चेहरा, उल्टे कमल, और त्रिभुज में बंद किसी स्त्री की आकृति। शिवराज ने इशारा किया, “ये सब तांत्रिक प्रतीक हैं। बचपन में दादी कहती थी, रानी चंद्रकंवर ने तांत्रिक अनुष्ठान किया था—अपनी आत्मा को इस बावली से बाँधने के लिए।”

बावली के पास एक छोटा मंदिर जैसा खंडहर भी था—अब टूटा-फूटा, लेकिन उसमें एक पत्थर की मूर्ति थी, जिसके चेहरों के निशान घिस गए थे। अन्वेषा जब उसके पास गई तो देखा कि मूर्ति की आँखों की जगह दो छोटे छेद थे—और उनमें से ठंडी हवा अंदर से बाहर की ओर आ रही थी। उसने तुरंत वहाँ अपना रिकॉर्डिंग डिवाइस रखा और कुछ देर तक मौन में बैठी रही। अचानक हवा थम गई, और उस पल, जैसे पूरा वातावरण ठहर गया हो। सिर्फ एक धीमी सी, धीमे स्वर में आती गूँज थी—जैसे कोई बहुत पुरानी, थकी हुई स्त्री बार-बार पुकार रही हो, “क्यों आई हो? लौट जाओ…” आवाज़ बहुत धीमी थी, लेकिन अन्वेषा के भीतर कहीं उतर गई। उसने डिवाइस बंद किया और शिवराज की तरफ देखा—उसके चेहरे पर खून सर्द कर देने वाली भय की रेखा थी। “ये बावली सोई नहीं है,” उसने धीमे स्वर में कहा, “ये जाग रही है… और किसी को बुला रही है।”

शाम होते ही गाँव में सनसनाहट फैल गई। अन्वेषा के घर के बाहर एक बकरी रहस्यमय रूप से मरी हुई पाई गई—कोई चोट नहीं, कोई खून नहीं—बस आँखें पूरी खुली हुईं और मुँह खुला, जैसे वह कुछ देखकर डर के मारे मरी हो। कुछ बुज़ुर्गों ने कहा, “ये संकेत है। वह जाग गई है।” अन्वेषा ने सब कुछ डायरी में नोट किया लेकिन उसके भीतर हलचल बढ़ती जा रही थी—क्या ये सिर्फ संयोग था, या कुछ और? रात को, वह फिर से रिकॉर्डिंग सुन रही थी, और तब अचानक वह अंश आया—मूर्तिवाले मंदिर से रिकॉर्ड हुआ स्वर—“क्यों आई हो? लौट जाओ…” इस बार वह आवाज़ कुछ ज़्यादा स्पष्ट थी—जैसे वक्त के साथ वह ताकतवर हो रही हो। शिवराज ने फोन पर कहा, “तुम जो खोज रही हो, वो शायद तुम्हें खोज रही है अब।” और अन्वेषा पहली बार चुप हो गई।

गाँव के दूसरे छोर पर, एक पुराना मिट्टी का मकान खड़ा था जिसकी दीवारों पर समय ने दरारें डाल दी थीं, और छत के नीचे नीम के पेड़ की छाया दिनभर घर को ढँक कर रखती थी। वहीं रहती थी चुनिया माई—कर्णपुरा की सबसे वृद्ध और सबसे रहस्यमयी महिला। गाँव में हर बच्चा उसका नाम डर से लेता था, और हर बूढ़ा उसके ज्ञान को आदर से। कहा जाता था कि माई ने अपनी आँखों से बावली का अंधकार देखा है, और उसकी चुप्पी उस अतीत की गूँज है जिसे वह भूलना चाहती है लेकिन कभी भुला नहीं पाई। जब अन्वेषा ने उसके बारे में सुना, तो तय किया कि उससे मिलना ज़रूरी है—शायद माई ही उसे उस दिशा में ले जा सके जहाँ सच्चाई छिपी थी। सुबह की हवा में धूल के साथ कुछ पुरानी यादें उड़ रही थीं, जब अन्वेषा और शिवराज उस पुराने मकान के सामने खड़े हुए। दरवाज़ा खुला नहीं था, लेकिन अंदर से एक स्वर आया—कर्कश, धीमा, लेकिन साफ़—“चली आओ, इंतज़ार कर रही थी…”

चुनिया माई एक पुरानी चारपाई पर बैठी थी, उसके गाल पिचके हुए, आँखें धँसी हुई लेकिन चमकदार, और बाल पूरी तरह सफ़ेद। उसने सिर झुकाए बिना अन्वेषा को देखा और कहा, “तू आई है बावली की कहानी जानने… पर जान ले, कहानी नहीं, वो श्राप है। तुझमें साहस है, पर जो तू खोज रही है, वो तेरे पास खुद चलकर आएगी।” अन्वेषा ने हौले से कहा, “माई, मैं जानना चाहती हूँ कि रानी चंद्रकंवर कौन थी? बावली से उसका क्या संबंध था?” माई की आँखों में अतीत उतर आया। उसने कहना शुरू किया—“वो रानी नहीं थी, अग्निकन्या थी। अंग्रेजों ने जब किले पर हमला किया, तब वह बच नहीं सकी। लेकिन मरने से पहले उसने एक बलिदान किया था—अपने गर्भ में पल रहे शिशु के साथ—बावली को रक्त से सींचा, और आत्मा को तंत्र से बाँध दिया। वो इंतज़ार करती रही कि कोई उसे मुक्ति दे, लेकिन लोग डरते रहे। अब हर अमावस्या वो एक जीव लेती है—कभी जानवर, कभी इंसान, कभी आत्मा।” माई की आवाज़ काँप रही थी, और आँखों से आँसू गिर रहे थे। वह फुसफुसाई, “वो मुझे भी बुलाती है अब… पर मेरा समय नहीं आया।”

अन्वेषा और शिवराज स्तब्ध थे। जो कुछ उन्होंने सुना, वह किसी पुरानी कथा का अंश लगता था, लेकिन माई के चेहरे की भावनाएँ झूठ नहीं थीं। माई ने एक मिट्टी का बक्सा खोलकर अन्वेषा को एक ताम्रपत्र थमाया, जिस पर संस्कृत में कुछ खुदा था—यंत्र का चित्र और एक श्लोक। उसने कहा, “अगर उसे देखना हो… असली रूप में… तो यह यंत्र साथ रखना। पर याद रखना, अगर वह तुझे पहचान गई, तो वह तुझमें उतर सकती है।” अन्वेषा ने काँपते हाथों से वह ताम्रपत्र लिया, उसकी आँखें यंत्र की रेखाओं में डूब गईं—वह एक त्रिकोण के भीतर उल्टी वेदी का चित्र था, और उसके नीचे लिखा था—“जैसी चेतना, वैसी छाया।” शाम होते-होते माई ने उन्हें विदा किया, और कहते-कहते सिर्फ इतना बोली, “अब तू लौट नहीं पाएगी बेटी… अब तू चुनी जा चुकी है।”

वापस लौटते समय गाँव का आसमान बदल रहा था—सूरज अस्त हो रहा था, और बादलों की शक्लें अजीब सी थीं—जैसे कोई लंबी, उड़ती हुई चूनरी हवा में फैल रही हो। शिवराज चुप था, अन्वेषा भीतर ही भीतर बेचैन। रात को उसने रिकॉर्डिंग प्ले की, तो माई की आवाज़ के बाद कुछ और भी रिकॉर्ड हुआ था—एक गहरी, स्त्री स्वर में यह शब्द—“मुझे जानना चाहती हो? तब खुद को खोना पड़ेगा…” उस रात, बावली के पास से फिर वही करुण रुदन सुनाई दिया—लेकिन इस बार वह कोई साधारण आवाज़ नहीं थी… वह किसी माँ की पुकार थी, जो अपने खोए हुए शिशु को ढूँढ़ रही हो… या शायद, अपने शाप की समाप्ति चाहती हो।

भोर की पहली किरण जब कर्णपुरा की रेत पर पड़ी, तब तक अन्वेषा रात भर की बेचैनी से जूझती रही थी। ताम्रपत्र पर अंकित यंत्र उसकी आँखों के सामने घूम रहा था और माई की चेतावनी उसके कानों में गूंज रही थी। “अब तू लौट नहीं पाएगी बेटी… अब तू चुनी जा चुकी है।” यह वाक्य किसी श्राप की तरह उसके मन में बैठ गया था। लेकिन उसका शोध, उसका उद्देश्य, और सत्य की प्यास—ये सब मिलकर एक ऐसा द्वंद्व रच चुके थे जिससे पीछे हटना अब संभव नहीं था। उसने ठान लिया कि आज वह उस बावली में उतरेगी—दिन के उजाले में, शिवराज के साथ। हाथ में टॉर्च, रिकॉर्डिंग डिवाइस, कैमरा और यंत्र लेकर वे दोनों बावली की ओर रवाना हुए। आसमान पर हल्का धुंधलका था, और पेड़-पौधे हवा में सरसराहट भर रहे थे—जैसे प्रकृति भी जानती हो कि आज कुछ असामान्य घटने वाला है।

बावली के पास पहुँचते ही एक विचित्र सन्नाटा उन्हें घेरे में लेने लगा। सूरज सिर पर था, लेकिन बावली की दीवारों के भीतर अंधकार वैसा ही बना रहा, जैसे प्रकाश को निगलने का कोई रहस्य उसमें छिपा हो। अन्वेषा ने पहली सीढ़ी पर पैर रखा, और जैसे-जैसे वे नीचे उतरते गए, तापमान गिरता गया। तीसरी या चौथी सीढ़ी पर एक बिच्छू रेंगता मिला, जिसे देख शिवराज सिहर गया, लेकिन अन्वेषा का ध्यान दीवारों पर बने चिन्हों पर था—अब वे पहले से अधिक स्पष्ट दिख रहे थे। एक आकृति बार-बार उभर रही थी—एक गर्भवती स्त्री, जिसकी आँखें त्रिकोण से ढँकी थीं, और उसके पैरों के नीचे तीन मृत देहें। ये कोई सामान्य कला नहीं थी—यह एक तांत्रिक कथा थी, जिसे पत्थरों पर उकेर दिया गया था। सीढ़ियों के अंतिम छोर पर एक तहखाना खुलता था, जिसे अब तक गाँव वालों ने पत्थरों से बंद कर रखा था। लेकिन कुछ पत्थर खिसके हुए थे, और भीतर से एक ठंडी, सड़ी हुई हवा बाहर आ रही थी।

तहखाने के भीतर घुसते ही दृश्य बदल गया—दीवारों पर तांत्रिक आकृतियाँ, रक्त जैसे रंग में उकेरे गए मंत्र, और एक केंद्रीय स्थान जहाँ काले पत्थर से बनी एक मूर्ति स्थापित थी। यह कोई देवी या देवता की मूर्ति नहीं थी—यह थी रानी चंद्रकंवर की—कमर तक घूंघट डले हुए, एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे हाथ में किसी शिशु का प्रतीक। उसकी आँखें खाली थीं, लेकिन उन्हें देखकर ऐसा लगता था जैसे वे भीतर कहीं झाँक रही हों। अन्वेषा ने कैमरा ऑन किया, लेकिन तभी वह अचानक बंद हो गया। टॉर्च की रोशनी भी धीमी पड़ने लगी। शिवराज काँपते स्वर में बोला, “यहाँ से लौट चलें अन्वेषा… कुछ ठीक नहीं लग रहा।” लेकिन अन्वेषा आगे बढ़ती रही, और जैसे ही उसने यंत्र को मूर्ति के पास रखा, तहखाने की हवा ठहर गई। एक पल के लिए सब कुछ स्तब्ध हो गया—और फिर एक स्त्री की चीख गूँजी… इतनी तीव्र, इतनी करुण, कि शिवराज वहीं घुटनों के बल बैठ गया।

मूर्ति की आँखों से अब एक हल्की रोशनी फूट रही थी, और वह यंत्र अन्वेषा के हाथ से खुद खिसककर मूर्ति के चरणों में चला गया। चारों ओर दीवारें जैसे काँपने लगीं। पत्थरों के पीछे से किसी के चलने की ध्वनि आने लगी—धीमे, भारी, और लहरदार। किसी ने जैसे गीली साड़ी पहनकर पत्थरों पर पाँव रखे हों। अन्वेषा ने पीछे मुड़कर देखा, पर कुछ नहीं था—फिर भी एक सिहरन उसकी रीढ़ में उतर गई। तभी उसे ऐसा लगा कि कोई उसके कंधे पर हाथ रख रहा है—ठंडा, अस्थिर, और अदृश्य। उसने चीखकर शिवराज को आवाज़ दी, और दोनों किसी तरह बाहर की ओर भागे। जब वे बावली से बाहर निकले, तब साँसें धौंकनी की तरह चल रही थीं। बाहर धूप थी, जीवन था—but अंदर… कुछ ऐसा था जो अब उन्हें पहचान चुका था।

शाम के धुँधले उजाले में जब आकाश गहरे नारंगी से धीरे-धीरे स्लेटी रंग में ढल रहा था, गाँव में फिर वही अजीब सी बेचैनी फैलने लगी। हवा थमी हुई थी, पेड़ एकदम स्थिर, जैसे कोई साँस रोक कर किसी भयावह घटना की प्रतीक्षा कर रहा हो। रघुवीर अब तक पूरी तरह इस रहस्य में उलझ चुका था। पिछले दो रातों में उसे अपने सपनों में वही पुराना कुआँ, वह लड़की और दूर से आती किसी स्त्री की रुलाई बार-बार दिख रही थी। आज सुबह जब वह खेत की ओर निकला था, उसके कदम अनायास ही उसी पुराने कुएँ की ओर मुड़ गए थे, जिसे वर्षों पहले मिट्टी और पत्थरों से बंद कर दिया गया था। लेकिन आश्चर्य की बात यह थी कि वह कुआँ अब पूरी तरह खुला था — साफ पानी से भरा हुआ। उसकी सतह पर किसी के बाल तैर रहे थे, लंबे, काले, गीले बाल।

रघुवीर सिहर उठा था। कुएँ के पास कोई और नहीं था, न कोई आवाज, न कोई हलचल। जैसे यह सब केवल उसी के लिए रचा गया हो। जब वह घर लौटा, तो देखा उसकी माँ, शांति देवी, चौखट पर बैठे-बैठे रो रही थीं। पूछने पर उन्होंने सिर्फ इतना कहा, “जिसका कोई दोष नहीं होता, उसी पर ये साया चिपक जाता है, बेटा।” रघुवीर ने उन्हें बहुत समझाया, लेकिन वे कुछ और नहीं बोलीं। तभी उसी समय गाँव का पुराना पुजारी, गोविंद शास्त्री, रघुवीर के घर आया। उनके चेहरे पर चिंता की लकीरें थीं और आँखों में वह भय था जो केवल किसी गहरे रहस्य को जानने वाला ही समझ सकता था। उन्होंने रघुवीर को अलग ले जाकर कहा, “यह कोई साधारण आत्मा नहीं है। यह वह है जिसे उसकी मृत्यु के बाद भी न्याय नहीं मिला। जब तक उसके अंतिम संकल्प पूरे नहीं होंगे, वह गाँव के हर व्यक्ति को पीड़ा देगी।”

उस रात रघुवीर ने घर में धूप-बत्ती जलाकर सब कमरों में घुमा दी, माँ ने तुलसी पर दिया जलाया और पुराने तरीके से नींबू-मिर्च दरवाजे पर टांगे। लेकिन आधी रात को फिर वह भयावह घटना घटित हुई — घर के पिछवाड़े से किसी लड़की की कराहती आवाज आई। रघुवीर दौड़कर बाहर गया, लेकिन वहाँ कोई नहीं था। केवल पेड़ों की छायाएँ थीं और हवा में बहता वह जाना-पहचाना नमक और राख का गंध। जब वह लौटकर अपने कमरे में आया, तो पाया कि उसकी मेज पर पानी की कुछ बूंदों के बीच कोई गीला कागज रखा था। वह एक पुरानी तस्वीर थी — एक युवा लड़की की, गीले बाल, नंगे पैर और एक जली हुई चुनरी। रघुवीर का शरीर अकड़ गया। यह वही चेहरा था जो उसे सपनों में दिखाई देता था। और उसके पीछे किसी ने कोयले से लिखा था — “मुझे अब भी जलाया जा रहा है… रोज़।”

रघुवीर अब तय कर चुका था — वह इस आत्मा की कहानी को जानकर रहेगा। वह केवल उसका पीछा नहीं करेगा, बल्कि उसके अधूरे जीवन की कथा को पूरा करके उसकी मुक्ति का मार्ग भी खोलेगा। लेकिन इसके लिए उसे उस रात की सच्चाई तक पहुँचना होगा — वह रात जब गाँव की चौपाल के पास आग लगी थी, और एक लड़की जलती रही थी, सबके सामने, लेकिन किसी ने नहीं रोका। उस रात की राख अब गाँव की हवा में घुल गई थी, और वह लड़की आज भी वहाँ थी, किसी की प्रतीक्षा करती हुई, शायद न्याय की… शायद बदले की।

गाँव में रात गहराती जा रही थी। हवेली के भीतर वीर और रागिनी, अब तक की सबसे डरावनी रात के लिए तैयार हो रहे थे। पिछले कुछ घंटों में उन्होंने जो देखा, वह उनके सामान्य जीवन से कहीं परे था—घंटों तक जलती लौ, टूटे आईने में दिखती रक्तरंजित छायाएँ, और हवेली के पुराने तहखाने में गूंजती रहस्यमय फुसफुसाहटें। वीर ने अपने दादा की डायरी को फिर से खंगाला, जिसमें हवेली की आत्मा—“लाल चौकी वाली औरत”—का ज़िक्र था। रागिनी ने कहा, “इस आत्मा को बाँधने वाला कोई वचन था, जिसे तोड़ा गया है। जब तक वो पूरा नहीं होता, तब तक उसकी पीड़ा हवेली में भटकती रहेगी।” वे दोनों तय करते हैं कि आज रात वे उस आत्मा से सामना करेंगे।

चाँदनी रात में हवेली का पिछला हिस्सा एकदम काला लग रहा था, मानो अंधकार ने उसे निगल लिया हो। वीर और रागिनी ने एक जलता हुआ दिया लेकर तहखाने का दरवाज़ा खोला। दीवारों पर पुराने संस्कृत मंत्रों की उधड़ी हुई लिपि, ज़मीन पर बिखरे हुए सिंदूर के थाल और टूटी चूड़ियाँ — सब कुछ किसी रुक चुके समय की निशानी थी। अचानक हवा ठंडी हो गई और दोनों को लगा जैसे कोई उनकी पीठ के पीछे खड़ा है। उन्होंने पलटकर देखा—वहाँ एक सफेद साड़ी में लिपटी महिला खड़ी थी, जिसके पाँव ज़मीन से ऊपर थे। उसकी आँखें बिना पलक झपकाए दोनों को घूर रही थीं, और होंठ हिले बिना एक गूंजती हुई आवाज़ सुनाई दी—“किसने मेरा वचन तोड़ा?”

रागिनी ने साहस करके पूछा, “तुम कौन हो?” आत्मा की सूरत बदलने लगी, जैसे जलते पानी में चेहरा गल रहा हो। आवाज़ आई, “मेरा नाम अमृता था… इस हवेली की बहू… मेरे पति ने वचन दिया था कि मेरी राख को यहीं रखा जाएगा, लेकिन उसने उसे गंगा में बहा दिया… मेरे अस्तित्व को छीन लिया गया। जब तक मेरी राख यहाँ नहीं लौटेगी, मैं मुक्त नहीं हो सकती।” वीर को झटका लगा—उसके परदादा का नाम अमृता के पति से मेल खाता था। रागिनी धीरे से बोली, “शायद यह वादा आज हम पूरा कर सकते हैं।”

वे तहखाने में रखे पुराने संदूक को खोलते हैं, जिसमें एक तांबे की कलश थी—अमृता की अधूरी अस्थियाँ। जैसे ही वीर ने वह कलश उठाया, हवेली कांपने लगी। दीवारों से धूल झड़ने लगी, पुरानी तस्वीरें नीचे गिर पड़ीं और आत्मा एक भयंकर चीख में बदल गई—“सचमुच तुम मेरे वंशज हो…” वीर के हाथ काँप रहे थे, पर वह हिम्मत करके बोला, “मैं तुम्हारा वचन पूरा करूंगा।” रागिनी ने उसे बाहर की ओर खींचा और दोनों ने तय किया कि अगली सुबह वे अमृता की राख को फिर से हवेली में उचित विधि से स्थापित करेंगे, ताकि वह आत्मा मुक्त हो सके। लेकिन जाने से पहले वीर ने एक आखिरी बार पीछे मुड़कर देखा—अमृता अब सीढ़ियों के नीचे अंधेरे में विलीन हो चुकी थी, पर उसकी आँखों में इस बार पीड़ा नहीं, राहत की एक झलक थी।

घने जंगल के बीचोंबीच स्थित खंडहर अब केवल रहस्य का केंद्र नहीं, बल्कि मृत्यु की छाया बन चुका था। गांव में चार औरतें एक साथ बीमार पड़ी थीं—सभी की आंखें लाल, शरीर पर काले निशान और मुंह से अनजानी भाषा का बड़बड़ाना। गांव के वैद्य तक ने हार मान ली थी। तारा, जो अब गांव की एकमात्र उम्मीद बन चुकी थी, को समझ आ गया था कि यह किसी आत्मा की बीमारी नहीं, बल्कि शाप है—वही शाप जो उसकी परनानी की आत्मा ने विरासत में छोड़ा था। उसने पुरानी मणि फिर से निकाली, उसे देखा और मन ही मन कहा—”अगर यही रास्ता है तुम्हें मुक्त करने का, तो मैं तैयार हूं।”

शिविरा का खून बह चुका था, और उसकी आत्मा अब पूर्ण रूप से जाग चुकी थी। तारा जब गांव की पुरानी बावड़ी के पास गई, तो उसे फिर वही औरत दिखी—सफेद साड़ी में, बिखरे बाल, हाथ में चाकू और आंखों में प्यास। पर इस बार वह तारा से कुछ कहना चाहती थी, उसका इशारा साफ था। तारा ने ध्यान दिया—उसके पीछे वही पुरानी हवेली की दीवार पर हाथों के खून से बने चिन्ह फिर से उभर आए थे, जैसे किसी ने सालों पहले खून में डुबोकर कुछ लिख छोड़ा हो—“रक्त की राह, शांति की मांग।” ये कोई सामान्य हत्याएं नहीं थीं, ये किसी अधूरी बलि की पुनरावृत्ति थी।

उधर, गांव के सरपंच की बेटी रंभा अचानक लापता हो गई। चौथे दिन उसकी लाश उसी खंडहर में मिली, आंखें बाहर निकली हुई, शरीर का एक हिस्सा जला हुआ, और सिर के नीचे वही पुरानी तांत्रिक पुस्तक—जो तारा ने महीनों पहले जलाई थी। सबका शक तारा पर था, लेकिन तारा जानती थी—कोई उसे उसकी परनानी के पापों की कीमत चुकवाने पर आमादा है। रात को जब गांव में सब सो रहे थे, तारा एक बार फिर खंडहर में गई—इस बार अकेले नहीं, बल्कि साथ था वह पुराना दर्पण जो कभी शिविरा की आत्मा को कैद करता था। जब दर्पण को शिविरा के नाम से पुकारा गया, तो हवा भारी हो गई, पेड़ कांपने लगे और तारा की सांसें थमने लगीं। पर तभी, दर्पण में शिविरा की परछाई दिखाई दी—एक मासूम लड़की, जो न्याय मांग रही थी।

उस रात, तारा ने पूरी कहानी समझी। शिविरा निर्दोष थी—उसे अपने पिता ने ही बलि चढ़ाया था ताकि गांव की भूमि पर तांत्रिक यज्ञ पूरा हो सके। वह आत्मा नहीं, पीड़ा थी। तारा ने फैसला किया, कि वह गांववालों को सच्चाई बताएगी, चाहे जो हो। लेकिन सच कहना आसान नहीं था—क्योंकि जिस पल उसने शिविरा की कथा सबको बतानी शुरू की, हवा में चीत्कार गूंजने लगे, और गांव की गलियों में अचानक लाल धुआं भरने लगा। जैसे कोई शक्ति तारा को चुप कराने को उतारू हो।

राजगढ़ के पुराने किले की खामोशी उस रात किसी मौत की तरह भारी थी। हवाओं में कुछ ऐसा था जो रूहों तक को कंपा दे। तान्या, राघव, और पंडित रूद्रनंद एक अंतिम बार उस शापित तहखाने में उतरे, जहाँ से यह सारा भयावह सिलसिला शुरू हुआ था। तान्या का चेहरा ठंडे पसीने से भीग रहा था, लेकिन उसकी आँखों में अब डर की जगह सिर्फ एक दृढ़ निश्चय था — अपने माता-पिता की आत्मा को मुक्ति दिलाने का।

जैसे ही तीनों ने मंत्रों के साथ चक्रव्यूह की रेखा खींची, तहखाने की दीवारें थरथराने लगीं। पंडित रूद्रनंद ने कहा, “तान्या, यह समय है। अपनी माँ की वह अंगूठी निकालो जो उन्होंने तुम्हें मरने से पहले दी थी। यह उनका प्रतीक है, और आत्मा को इस प्रतीक के माध्यम से बांधा जा सकता है।” तान्या ने कांपते हाथों से अंगूठी निकाली और मंत्रोच्चार के साथ अग्नि की लपटों में डाल दी। तभी एक चीख गूंजी — वह कोई आम चीख नहीं थी। यह किसी माँ की आत्मा थी जो वर्षों से बंधी थी और अब मुक्त होने की कगार पर थी। लेकिन साथ ही, काले धुएं में लिपटा कोई और भी प्रकट हुआ — वही छाया, वही तांत्रिक आत्मा जिसने सबको बाँध रखा था।

अचानक काले धुएं से एक मुख प्रकट हुआ, विकृत, गूंजता हुआ — “तुम मुझे मुक्त नहीं कर सकते! मैं यहाँ का स्वामी हूँ!” लेकिन पंडित रूद्रनंद अब चुप नहीं थे। उन्होंने अपने हाथ से त्रिशूल निकाला — वही पवित्र त्रिशूल जो कभी उनके गुरु ने उन्हें दिया था। मंत्रों का उच्चारण इतना तीव्र था कि छाया के चेहरे पर दरारें दिखने लगीं। तान्या ने, साहस बटोरते हुए, आगे बढ़कर कहा, “मैं तुम्हारी बेटी नहीं हूँ, और न ही कोई दासी। मैं उस स्त्री की संतान हूँ जिसे तुमने जलाकर मार डाला। आज मैं तुम्हारा अंत करने आई हूँ।” एक पल में तान्या ने अपनी माँ की राख का कलश निकाला और मंत्रों के साथ उस धुएं पर उछाल दिया।

एक विस्फोट हुआ। पूरा किला हिल उठा। दीवारें फटने लगीं, और एक असहनीय चीख वातावरण को चीरती हुई गूंजी। छाया तड़पती रही, लेकिन धीरे-धीरे वह राख में बदल गई। राघव और पंडित रूद्रनंद ने तान्या को ढाल बनाकर बाहर निकाला। जब वे बाहर आए, तो आकाश में एक हल्का प्रकाश फैला था — जैसे कोई आत्मा मुक्त होकर ऊपर चली गई हो। तान्या ने आसमान की ओर देखा, और उसकी आँखों से अश्रु बहने लगे — लेकिन इस बार यह आंसू दुःख के नहीं, शांति के थे।

उस दिन के बाद राजगढ़ का किला फिर कभी नहीं कांपा। न किसी को कोई छाया दिखी, न किसी ने कोई चीख सुनी। तान्या ने वहाँ एक छोटा मंदिर बनवाया — अपनी माँ की स्मृति में। और जब भी हवाएँ उस मंदिर से गुजरतीं, वे एक मधुर शांति का संदेश छोड़ जातीं — कि जहाँ प्रेम है, वहाँ मुक्ति भी संभव है।

समाप्त

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